दंड-निर्धारण / निधि अग्रवाल

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आषाढ़ की चिपचिपाती दोपहरी और लाइब्रेरी से बाहर आया तो साइकिल गायब। संभवतः छाया की लालसा में किसी अन्य पेड़ के नीचे खड़ी कर दी होगी, मैंने सोचा। यूँ भी थीसीस के कारण आजकल स्मृतिलोप की अवस्था में रहता हूँ। लेकिन दो घंटे के अथक परिश्रम से लाइब्रेरी ही नहीं यूनिवर्सिटी के परिसर में लगे हर पेड़ के चक्कर लगाने पर भी साइकिल का कुछ पता नहीं चला। सोचा था आज थीसिस को फाइनल करके कल सबमिट कर दूँगा लेकिन अब संभव नहीं था। ऊपर से साइकिल खो जाने पर होने वाली असुविधा का सहज अंदाजा लगाया जा सकता था।

लगभग छह महीने पैदल चक्कर काटते जब पैर शरीर और दिमाग़ सब साथ छोड़ने लगे तब अत्यंत संकोच के साथ पिताजी को पत्र में लिखा था कि एक साइकिल की अत्यंत आवश्यकता है। कुछ पैसों का इंतज़ाम हो जाने पर एक पुरानी साइकिल दो सौ रूपये में मिल सकती है। लौटती डाक से पिताजी का रु 500 का मनीऑर्डर आ गया था। साथ ही नसीहत थी-महँगा रोए एक बार सस्ता रोए बार बार। स्पष्ट निर्देश दिए थे कि नई ही खरीदना। आँखें नम हो गई थीं। इसके बाद जब घर गया तब बस उनके गले लग गया था। 'यह रु 500 कौन से हज़ार ज़रूरी खर्चे रोक कर भेजे' पूछ कर उन्हें मुश्किल में नहीं डालना चाहता था। 'प्रभु ख़ूब उन्नति दे तुम्हें जाओ माँ का आशीर्वाद ले लो' कह कर वापस-वापस गायत्री मंत्र का जाप करने लगे थे।

थका हारा चाय की टपरी पर बैठ मैं सोच रहा था कि साइकिल चोर की आर्थिक स्थिति क्या मेरे घर से भी दयनीय होगी?

"यहाँ कैसे? क्या भूल की थी तुमने?" , एक गम्भीर तेज स्वर ने मेरा ध्यान आकर्षित किया।

मेरे सामने भगवा वस्त्रों और बड़ी दाढ़ी जटाओं में एक योगी बैठे थे। आँखें जैसे मेरे शरीर के आर-पार देख रही हों। चौड़ा उन्नत मस्तक गहरी शांत आँखें।

"इस लोक के तो नहीं हो? शिवलोक से आए हो?"

"शिवलोक नहीं बाबा। महेश लोक! महेश प्रसाद नाम है पिताजी का।" मैं मुश्किल में भी हँस पड़ा।

संभवत: एक चाय चाहते हैं बाबाजी, मन में सोचा। उनके लिए भी एक चाय देने के लिए गोविंद को इशारा किया। वह चाय दे गया और मैं दोनों चाय के पैसे दे उठ खड़ा हुआ।

"उलझन में हो?" , वह उसी बुलंद स्वर में बोले।

'अब और क्या चाहते हैं इससे अधिक सामर्थ्य नहीं मेरी' , मैंने सोचा।

"जा, जहाँ खोया वहीं पाएगा!" , और वह चाय का कुल्हड़ उठा यूँ पीने लगे जैसे अब मैं वहाँ उपस्थित ही नहीं हूँ।

मेरे क़दम स्वतः ही पुनः लाइब्रेरी की ओर बढ़ गए। लाइब्रेरी की सूनी लाल दीवार ने बाबा की बात ग़लत साबित कर दी थी। मैं भी किस की बातों में आ गया? विज्ञान पढ़ कर भी हम भारतीयों का अंधविश्वास नहीं छूटता, मैंने सोचा।

तभी किसी ने पुकारा, "आदित्य!" ,

मुड़कर देखा तो अमन मेरी साइकिल पर चला आ रहा था।

"हॉस्टल चलना है कि अभी और पढेगा? तुझ जैसी दीमकों के लिए ही किताबें लिखी जाती हैं। संसार में पुस्कालयों के अक्षुण्ण अस्तित्व की जिम्मेदारी तेरे ही बलिष्ठ कंधों पर है मित्र!"

"चलो।" मैंने उसके पीछे बैठते हुए कहा।

"गोविंद की दुकान पर होते हुए चलो" , मैंने कहा।

"तेज चलाओ जरा" , मेरी जिज्ञासा अब चरम पर थी।

"क्या हुआ कुछ छोड़ आया क्या?"

"नहीं! सही समय पहुँचे तो बहुत कुछ पा सकते हैं" , मैंने कहा और उसे पूरा वृत्तांत कह सुनाया।

वहाँ पहुँचे तो बाबा का कुछ अता-पता नहीं। आसपास सब से पूछ लिया लेकिन किसी ने मानो देखा ही नहीं उन्हें।

"मैं तो पहले ही कहता था तुझ जैसा विचित्र प्राणी इस दुनिया का हो ही नहीं सकता" , अमन हँसा और हम दोनों हॉस्टल लौट आए यह घटना एक दिवास्वप्न की भाँति स्मृति में कही गहरी दबती गयी।


'महर्षि आदित्यनाथ!' , गुरु तीक्ष्णशृंगा के तीक्ष्ण स्वर से मेरी तंद्रा भंग हुई।

"महर्षि आदित्यनाथ, अभी आपने जो कल्पना की, उसने आपके 10 वर्ष की साधना के फल को निरस्त कर दिया है।"

"मैं क्षमा प्रार्थी हूँ आचार्य" ,

मैं लज्जित खड़ा था।

"दस वर्ष की अथक साधना पूर्ण करने के उपरांत भी आपके हृदय में ऐसे कुत्सित विचार कैसे रह गए? मैं अचंभित हूँ।"

'कुत्सित? निर्मल आसक्ति कुत्सित कैसे हो सकती है?' मेरे मन में अनेक प्रश्न थे।

"आसक्ति ही वासना का प्रथम सोपान है। इस तथ्य से आप अनभिज्ञ तो नहीं महर्षि।"

"आसक्ति और विरक्ति के बंधनों से परे अनासक्ति ही महर्षि की पूंजी होती है।"

देवपुरोहित मन की बातें स्लेट पर लिखी इबारत से स्पष्ट पढ़ ले रहे थे।

"मैं पश्चाताप के लिए सहर्ष उपस्थित हूँ" , मैं उनके चरणों में बैठ चुका था।

"दंड का प्रावधान भी आप जानते ही हैं महर्षि आदित्यनाथ!" , उन्होंने कहा और व्यथित मन से कुटिया की ओर बढ़ गए।


"तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आ रहीं। परपुरुष के आलिंगन में अपनी पत्नी को देखकर भी तुम कैसे उसके साथ रह सकते हो?"

माँ अनवरत रो रही थी।

"अभी तुम भावुकता में निर्णय ले रहे हो आदित्य। निर्वहन कर पाओगे?"

पिताजी का स्वर था।

"आप तो जानते ही हैं पिताजी अपनी गलती का दंड भी मुझे ही भुगतना होगा न। यह सब पूर्व निर्धारित है" ,

मैंने पिताजी की आँखों में झाँका।

"गिरिजा! जयश्री की जगह हमारी बेटी भी हो सकती थी। मैं चाहता हूँ कि तुम यह सुनिश्चित करो कि परिवार में जयश्री को पूर्ववत् स्नेह और आदर मिलता रहे।"

पिताजी ने माँ को निर्देश दिए और बैठक में चले गए।


दस साल की साधन! साक्षात प्रभु शिव के दर्शन! तन और मन दोनों बादल-से हल्के थे। कैलाश के शिखर से उतर मैं चला जा रहा था। सर्वप्रथम आचार्य तीक्ष्णशृंगा के चरणों में नमन की इच्छा थी। प्रभु दर्शन के पश्चात मुग्धता और आत्मविभोरता की जिस अवस्था में मैं था, वह गुरु के सान्निध्य में ही सयंत हो सकती थी। हिम शिखरों के बीच कल्पतरु और पारिजात के वृक्षों की कतारें अपनी भुजाएँ बढ़ाए मानो मेरा स्वागत कर रही हों। इन हरी भुजाओं के बीच ही एक शुभ्र भुजा अचानक मेरी तरफ़ बढ़ी। चाँदनी-सी शीतलता और दिनकर-सा तेज लिए, भोर की स्निग्धता वाले चेहरे पर दो बड़ी पारदर्शी कजरारी आँखें मुझ पर टिकी थीं। यह अपूर्व सुंदरी बालिका अपने आँचल में पारिजात के फूल समेटे थी और अब मुख्य मार्ग पर ऊपर चढ़ने के लिए मेरा सहयोग चाह रही थी। मैं अपलक उसके सौंदर्य को निहार रहा था। यह उद्वेलित करने वाला सौंदर्य नहीं था। यह वह सौंदर्य था जिसकी रसधार मुझ में एक उपासक का समर्पण जाग्रत कर रही थी। लावण्य और भक्ति की धाराओं के संगम का वह मूर्त रूप थी। मैं इस क्षण जिस प्रशांति का अनुभव कर रहा था वह किसी भी योगी के लिए कई जन्मों की साधना के बाद भी संभव नहीं थी। इस क्षण इस बालिका के निष्काम दर्शन से चेतना खो अचेतन प्रकृति का ही हिस्सा बन चुका था। उसने आँचल से गिर गए कुछ पुष्पों को पुनः समेटा और बाएँ हाथ से कसकर पोटली पकड़ते हुए अपना दायाँ हाथ मेरी ओर बढ़ाया। निश्छल मनोहारी स्मित मानो अपनी अवस्था पर स्वयं ही आनंदित हो रही थी। उन मृगदृगों के सम्मोहन में बँध यंत्रवत मैंने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। मेरे शुष्क हाथों में उसके कोमल हाथ ने मेरे समस्त अस्तित्व में एक आर्द्रता भर दी। इस कोमलांगी को मैं स्वयं में समाहित कर इस क्षण को रोक लेना चाहता था।

"धन्यवाद महर्षि" ,

वह कोमलकण्ठा अपने पुष्पकोष को सुरक्षित रख पाने से आनन्दित थी।

"प्रणाम देवी!"

मैं उसके लिए मार्ग छोड़, पृथक खड़ा हो गया।


मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सा आचार्य तीक्ष्णशृंगा की कुटिया के बाहर उनकी चरण रज ले वापस कैलाश शिखर पर जाने के लिए खड़ा हुआ। श्रीप्रदा की आँखों की चंचलता लुप्त हो चुकी थी। अश्रुओं से परिपूर्ण वह क्षमाप्रार्थी थी। देवलोक के कठोर नियमों और दंडों से वह परिचित थी।

"महर्षि!" , उसने पुकारा।

"क्या अन्य कोई विकल्प नहीं?" श्रीप्रदा ने पूछा।

"नहीं देवी! अक्षम्य है यह अपराध। आप स्वयं को दोषी न पाएँ" , मैंने श्रीप्रदा को आश्वस्त करना चाहा।

"जिस अपराध में मैं सहभागी हूँ उसका प्रायश्चित आप अकेले नहीं कर सकते मुनिवर। सेवा से वंचित न करें" , श्रीप्रदा ने कातर स्वर में कहा।


माँ पिताजी और मेरे लिए जयश्री अभी भी उतनी ही पवित्र और आत्मीय थी लेकिन वह स्वयं को दोषी समझ घुलती जा रही थी। उसने स्वयं के लिए कड़ा दंड निर्धारित कर लिया था। पहले से भी अधिक तत्परता से वह मेरी सेवा करती। अधिकतर समय वह किसी न किसी व्रत अनुष्ठान में लगी रहती। नियति भी मानो उसके साथ थी। मेरी सेवा करने का अवसर उसे प्रदान कर रही थी।

जर्मनी में एक विख्यात विश्वविद्यालय की मानद उपाधि ग्रहण करते मेरे हाथों का काँपना मुझे चौका गया था। अनेक देशों में सम्मानों से तटस्थ भाव से सम्मानित होने के पश्चात यह कम्पन साधारण नहीं था। कम्पनों की तीव्रता और अवधि समय के साथ बढ़ती जा रही थी। हाथ और पैर भी धीरे-धीरे साथ छोड़ रहे थे। । जब आवाज़ ने भी मेरा साथ छोड़ दिया तब वह मेरी आवाज़ भी बन गयी और जब मेरी दुनिया बिस्तर तक ही सीमित हो गयी तब जयश्री न केवल मेरी सहचरी थी वरन परिचारिका भी थी।


"पिताजी आप कुछ करते क्यों नहीं? जो घटित ही नहीं हुआ उसके लिए पचास वर्ष का कठोर तप और पचास वर्ष धरती लोक पर दारुण दुख भोगने का प्रावधान! यह अनुचित है" , यह श्रीपदा का स्वर था।

"श्रीप्रदा देवलोक के नियमों को आप चुनौती दे रही हैं। नियम किसी के लिए भी परिवर्तित नहीं करे जा सकते। देवत्व का अर्थ ही है तन-मन के बंधनों से मुक्त हो जाना। भावों के प्रवाह में बह जाने का अवगुण धरती वासियों का प्रतीक है" , आचार्य तीक्ष्णशृंगा अपनी बेटी के दुस्साहस पर क्रोधित थे। एक अनजान व्यक्ति के लिए उनकी पुत्री सम्भवतः पहली बार उनसे प्रश्न कर रही थी। यह उनके स्वाभिमान को चुनौती थी।

"यदि मैं उनसे सहायता न माँगती तब भी क्या यह विकार महर्षि आदित्यनाथ के मन में आता पिताश्री? इस दोष का बीज तो मैंने ही बोया न?"

"किसी अबला या असहाय की सहायता करते हुए आप उसकी परिस्थिति का लाभ उठाने की चाह मन में लाएँ, यह तो और भी बड़ा अपराध है श्रीपदा। आप अनुचित को उचित सिद्ध करने का प्रयास न करें। आप जो चाह रही हैं उसकी अनुमति देने में मैं ख़ुद को असमर्थ पाता हूँ। आप ने सहायता माँगी लेकिन वह निष्पाप आमंत्रण था आप दोषी नहीं हैं। दंड की हकदार नहीं हैं।"

"आदित्यनाथ को पश्चाताप करना ही होगा..." , आचार्य तीक्ष्णशृंगा ने विमर्श को समाप्त करने की घोषणा की।

"महर्षि की इस अवस्था को देख मेरे मन में संताप का बोध हो रहा है पिता श्री। मैं किसी के दंड का कारण बन रही हूँ, यह सोच कर मेरा हृदय फटा जा रहा है" , श्रीपदा ने रुँधे गले से कहा।

"श्रीप्रदा! जो अपराध सृष्टि और समाज के प्रति हो, उसमें क्षमा का अधिकार भोगी के हाथ में भी नहीं दिया जा सकता और आप को विदित नहीं है कि मैं अभी-अभी आचार्य विबुध से आपका विवाह सुनिश्चित करके आ रहा हूँ। ऐसे में किसी अन्य के लिए अत्यधिक व्यथित होना आपको शोभा नहीं देता" , आचार्य तीक्ष्णशृंगा का स्वर कठोर था।

"पिताश्री, यदि कोई अपराध हुआ है तो उसमे मेरी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। मैं निर्णय ले चुकी हूँ। मुझे जाने की अनुमति दीजिए।"

श्रीपदा हाथ जोड़े खड़ी थी और नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी।

"महर्षि आदित्यनाथ!"

आचार्य तीक्ष्णशृंगा का करुण स्वर प्रतिध्वनित हो रहा था, "आप के कारण आज मेरी संतान मुझ से विमुख हो रही है। धरती लोक पर आप भी संतान सुख से वंचित रहेंगे और जो विकार आपके मन में आया वह कितना दंश देता है आप धरतीलोक पर प्रकट देखेंगे। स्मरण रहे" ,

आचार्य श्राप दे क्रोध और लाचारी से काँप रहे थे।

"पिता श्री! आप गुरु होकर भी इतने निष्ठुर कैसे हो सकते हैं? आप भी देखिएगा मैं श्रीप्रदा आज प्रण करती हूँ कि आचार्य की दंड अवधि में मैं हर पल उनके साथ उनकी सेवा में उपस्थित रहूँगी। प्रणाम"

श्रीपदा ने हाथ जोड़े और मेरी दिशा में आगे बढ़ी।

एक क्षणिक भाव कितने स्थायी परिवर्तन ले आया था, मैं किसी भी अवस्था में श्रीप्रदा को अपने दंड में सहभागी नहीं बनाना चाहता था। वह दोषी थी भी नहीं। मैंने कदमों की गति बढ़ा दी। श्रीपदा की क्षमता से अधिक तेज चल मैं उसकी आँखों से ओझल हो जाना चाहता था।


प्रतिदिन की तरह जयश्री ट्यूब से कुछ पोषण मेरे जर्जर शरीर में पहुँचा रही है। सांसारिक लोक में कोई स्त्री किसी मृतप्राय हड्डियों के ढाँचे के लिए असीम अनुराग रख सकती है यह अकल्पनीय है। मेरी स्थिर आँखें और अचल शरीर देख वह यह भी नहीं जान पाती कि मैं उसकी क्रियाकलापों सेवा सुश्रुषा को अनुभव भी कर पा रहा हूँ या नहीं। दिन में कई-कई बार सशंकित-सी मेरे सीने पर अपने कान रख धडकन सुन आश्वस्त होती है। अपनी अवस्था से अधिक दुख मुझे जयश्री का कुम्हलाया चेहरा देता है। सुबह कमरे में धूप-दीप कर निश्छल मुस्कान के साथ पवित्र जल मेरे शुष्क कंठ में पहुँचा...दिन भर मेरे पास पवित्र मंत्रो का जाप...मेरे हाथ पैरों की मालिश और अभी भी किसी चमत्कार की आशा-कि शायद कभी मैं उसकी कोमल अँगुलियों को अपनी हथेलियों में थाम लूँगा। सूरज के अवसान के साथ ही उसकी यह आशा भी प्रतिदिन क्षीण होती जाती है। सदा की भांति सोने से पहले एक बार फिर वह मेरी धड़कन सुन रही है।

"श्री! अब जाने का समय है। जैसे तुम्हें पूर्व का स्मरण नहीं, चाहूँगा कि तुम यह अध्याय भी विस्मृत कर देना। तुम्हारा और मेरा साथ सदा तुम्हारे भी कष्ट का कारण बना। अब लौटने का समय है। कैलाश पर गुरु सखा प्रतीक्षारत हैं। आचार्य तीक्ष्णशृंगा सही कहते हैं मन के नियंत्रण से बाहर आने के लिए अभी एक लंबी यात्रा आवश्यक है। इस लोक में देवी माने जाने वाली नारी की अस्मिता पर प्रतिदिन होते आघातों को जानकर, मैं पूर्ण विश्वास से कहता हूँ कि श्री आचार्य द्वारा मुझे दिया दण्ड पूर्णतः न्यायोचित था। काश धरती लोक पर भी कुत्सित विचारों के पनपते ही कठोर दंड देने का प्रावधान होता... चलता हूँ।"