दंश / अलका प्रमोद
अभी मैं क्लीनिक से आकर बैठी ही थी कि मिस्टर वर्मा का फोन आ गया। वह बुरी तरह घबराए हुए थे, उन्होने रुआंसी वाणी में कहा, 'डाक्टर आप तुरंत आ जाइए, ऋतिका को पता नहीं क्या हो गया है, सांस ही नहीं ले पा रही है'।मैं समझ गयी कि जिस घड़ी से मैं डर रही थी वह आ ही गयी, ऋतिेका का संास न लेना इस बात का द्योतक है किउसका फेफड़ा तक रोग की चपेट में आ चुका है। मैने तुरंत अपने अधीनस्थ कनि ठ डाक्टर को आवश्यइ निर्देश दिये और गाड़ी ले कर ऋतिका के घर की ओर निकल पड़ी।जब पहुंची तो ऋतिका श्री वर्मा की बाहों में अधलेटी-सी सांस लेने का कठिन प्रयास कर रही थी। उसकी विवश ओखों में मुझे देख कर याचना उभर आई मानो कह रही हो कि 'डाक्टर मंझे बचा लो मैं जीना चाहती हूँ'वर्मा जी भी मुझे देख कर आशान्वित हो उठे मैं उन्हे ठया बताती कि स्थिति मेरे वश से बाहर हो चुकी है, परिणाम जानते हुए भी प्रयास तो करना ही था मन में कहीं एइ झूठी-सी आस थी कि ठया पता कोई चमत्कार ही हो जाए। कैसी विडम्बना थी कि अभी सप्ताह भर पूर्व ही जिस ऋतिका की उत्साह से पूर्ण वाणी इस घर में विवाह की शहनाई से एकमय हो कर गूंज रही थी वह आज नि प्राण-सी पड़ी जीवन से जूझ रही थी।मैं अपने विचारों को झटक कर कर्तव्य पूर्ति में व्यस्त हो गई। ऋतिकाऔर वर्मा जी को ले कर मेरी गाड़ी तीव्र गति से अस्पताल की ओर दौड़ने लगी और मेरा मन उससे भी तीव्र गति से अतीत की ओर दौड़ पड़ा। उस दिन भी नित्य की भांति मैं रोगी देखने में व्यस्त थी, मैंने एइ रोगी को देखने के बाद अगले रोगी को देखने के लिए घंटी बजाई तो लगभग पैतालिस पचास की वय की एइ आर्क ाक और सौम्य महिला ने प्रवेश किया कहते हैं कि कुछ संबध पहले से ही निर्णारित होतंे हें शायद मेरी उससे होने वाली आत्मीयता का आभास मेरी छठी इन्द्रिय को हो गया था तभी वह मुझे प्रथम दृष्टिमें ही नितान्त आत्मीया-सी लगी।उक्त महिला को मेरी मित्र डाक्टर वागले ने व्यक्ति गत रूप् से भेजा था। जब मैंने डाक्टर का पत्र और साथ में संलग्न रिपोर्ट पढ़ी तो ज्ञात हुआ कि आगन्तुका स्तन कैंसर से ग्रसित है।मैं कैंसर विशे ज्ञ हूँ अतः इस दुःसाध्य रोग की घा णा कर के रोगी को हतप्रभ करना मेरी विवशता है। यद्यपि यह दु कर कार्य मुझे सदा ही अवांछित रहा है पर रोगी को वास्तविकता से अवगत कराना मेरा कर्तव्य है। कुछ रोगी तो ससमय आ जाते हैं तो रोग मुक्त कर मैं सन्तो ा का अनुभव करती हूँ पर कुछ लोंगो का रोग इतनी देर में ज्ञात होता है कि उनके जीवन की डोर हम डाक्टरों की पहुंच से बाहर हो जाती है। ऐसे रोगी को उसकी वास्तविकता बताते हुए मुझे ऐसा अनुभव होता हैजैसे मैं किसी निर्दो ा को फांसी का दंड सुना रही हूँ। एंसं में मेरा भावुक हदय मुझे सदा ही प्रेरित करता है कि में रोगी को कुछ भी न बताउं कम से कम वह जीवन के षे ा दिन तो सामान्य रूप् से प्ररित करेगा, उसे हर पल मौत रूपी भयानक राक्षस दृवारा पल पल पास आने का डर न सताए। पर मस्ति क सदा मेरे मन की इच्छा को पूरी होने से रोक देता है और डाक्टर का कर्तव्य स्मरण करा देता है साथ ही तर्क देता है कि यदि रोगी को अपना सीमित जीवनकाल ज्ञात होगा तो वह अपने आश्रितों के लिये कुछ व्यवस्था की देगा और अपनी जो आकांक्षाएं पूर्ण कर सकता है कर लेगा।ऋतिका को भी इसी सत्य से अवगत कराने के उद्देश्य से मैंने ऋतिका से पूछा, 'क्या आप अकेले आई हैं?'तो ऋतिका ने कहा, 'जी डाक्टर पर आप को जो भी बताना हो मुझे ही बना सकती हैं'मैं कुछ क्षण असमंजस में रही कि उसे बताउं या नहीं फिर भूमिका बनाते हुए मैंने कहा, 'देखिये मिसेस वर्मा चिन्ता की कोई बात नहीं है क्योंकि अब तो हर रोग की चिकित्सा संभव हो गई है बस आपको तुरंत आपरेशन करवाना होगा फिर थेाड़ा रुक कर बोली,'ठयोकि आपको स्तन कैंसर है, पर आप ठीक हो जाएंगी।प्रायः मेरी यह उद्घो ाणरोगी को कुछ क्षणों के लिये निस्पंद कर देती है। अतः उस दुर्वह क्षण से पलायन करने हेतुमैं अति व्यस्त होने का नाटक करते हुए व्यर्थ ही इंटरकाम पर अपनी अधीनस्थ परिारिका को कुछ निर्देश देने लगी।पर मेरी आशा के विपरीत ऋतिका तो ऐसे स्थित प्रज्ञ-सी बैठी ाही मानो उसके पास बैठे किसी अन्य रोगी से मैंने बात कही हो। फिर सामान्य रूप् से बोली डाक्टर मैंने रिपोर्ट प्ढ़ ली थी माना वह आपकी चिकित्सीय भा ाा में थी पर मुझे आभास हो गया थाफिर जब डाक्टर वागले ने आपके पास भेजा तब तो मुझे पूरा विश्वास हो गया कि मुझे कैंसर है ुिर धीमी किन्तु स्थिर ाणी में बोली, 'डाक्टर मैं इसी लिये आपके पास अकेले आईं हूँकि इृप्या मेरे घर के किसी सदस्य को मत बताइयेगा ठयोंकि मैं अभी आपरेशन करवाना नहीं चाहती। हां यदि दवाओं से काम चल सके तो चला लीजिए मुझे आश्चर्य हुआ ठयोंकि वेशभू ाा से तो वह अच्छे सम्पन्न घर की और शिक्षित लग रही थी अतः मैने सोचा कि शायद वह आपरेशन से डर रही हैं अतः मैने उन्हे अश्वस्त करते हुए कहा कि' अरे आप को पता भी नहीं चलेगा, कोई इ ट नहीं होगा '। पर वह दृढ़ स्वर में बोली,' नहीं डाक्टर अभी मैं एक वर्ष तक आपरेशन नहीं करवा सकती और प्लीज मेरे घर वालों को मत बताइएगा 'मैंने उन्हे समझाना चाहा,'आप स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ रही हैं तब तक तो बहुत देर हो जाएगी। अरे संयोग से समय से रोग का पता चल गया है तो ससमय आपरेशन करवा लीजिए वरना कितनेां को तो पता ही देर में चलता है और तब उन्हे पल पल मौत की प्रतीक्षा के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं होता ' मेरे इतना समझाने पर भी वह महिला अविचल रही, मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि यह ठयों स्वयं मौत के मुंह में जाने को आतुर है।
उस समय तो बाहर रोगियों की भीड़ थी अतःमैंने उसे बाद में आने को कहा।वह जाते जाते भी इस रहस्य को स्वयं तक सीमित रखने का आश्वासन ले कर ही गई। पता नहीं उस महिला में ठया आकर्षण था कि मैं वह मेरे मन मस्ति क पर देर तक छायी रही और मैं उससे पुनः मिलने की आतुरता से प्रतीक्षा करने लगी।
दूसरे दिन नियत समय पर ऋतिका आ गई थी यह समय मेरा विश्राम का हाकता है अतः मैं अपने कमरे में अकेली थी। ऋतिका से इधर उधर की औपचारिक बातों के बाद मैंने पूछा, 'ऋतिका मैं तुम्हारी डाक्टर हूँ और रोगी को डाक्टर से कुछ भी नहीं छिपाना चाहिये, तुम आपरेशन ठयों नहीं कराना चाहती? पहले तो वह हिचकिचायी पर मेरे बहेत आग्रह पर उसने बताया कि' डाक्टर मेरी बेटी को अनन्या को सुयेाग से बहुत अच्छा वर मिल गया है और आप तो जानती ही हैं कि हमारे समाज में बेटी के विवाह में चार पांच लाख रुप्यों का व्यय साधारण-सी बात है और मेरे पति और बच्चे मिल कर प्राथमिकता मेरे आपरेशन को ही देंगे जिसमें हमारे जीवन भर की जमा पूेजी का अधिकांश भाग व्यय हो जाएगा फिर भावुक होते हुए बोली, 'डाक्टर आप ही बताइए बच्चों के सपनों की चिता पर मैं अपना जीवन कैसे जी पाउंगी? यह सुन कर मैं निरुत्तर हो गई, पर मेरा डाक्टर मन इतना बड़ा सत्य छिपाने को स्वीकार न कर पा रहर था। मेरा कर्तव्य तो लोंगों को जीवन दान देना था और ऋतिका मुझसे उसे मौत के मुंह में ढकेलने का योजना में भागीदार बनने को कह रही थी।मैंने उसे समझाया' तुम्हारे तर्क अपनी जगह, पर तुम्हारा जीवन तुम्हारे परिवार के लिये ठया अर्थ रखता है इसकी तुम्हे तनिक भी अनुभूति नहीं है? 'परन्तु ऋतिका की भी म प्रतिज्ञा के समक्ष मुझे हारना पड़ा घंटों के तर्क वितर्क के प्श्चात भी ऋतिका के व्यक्तित्व के प्रभाव से या संभवतः उसके मातृत्व के आगे मैं झुक गई और मैने उससे यह आश्वासन दे ही दिया कि' मैं तुम्हारे परिवार को सत्य नहीं बताउंगी, पर तुम्हे नियम से दवा लेनी होगी तथा दोनो दायित्वपूर्ण होते ही आपरेशन करवाना होगा'मेरे इस आश्वासन पर वह इतनी प्रसन्न हो गई मानो जीवन दान मिल गया हो। किसी को मौत की राह चुनने और उस पर जाने का अवसर मिलने पर प्रसन्न होते मैं पहली बार देख रही थी।ऋतिका ने कृतज्ञता से मेरा हाथ थामते हुए कहा,' डाक्टर मैं आजीवन आप की ऋणी रहूँगी '। वह तो आश्वासन ले कर चिन्ता मंक्त हो कर चली गई पर तब से आज तक मैं अपराध बोध से ग्रस्त हूँ और चाह कर भी उससे किया वादा तोड़ नहीं पाई।
काल चक्र घूमता रहा दो माह बाद अंशुल अपनी प्ढ़ाई हेतु इंग्लैंड चला गया उसके जाने के पूर्व ऋतिका ने अपने विशेष परिचितों को एइ पार्टी दी तब तक मैं और ऋतिका परम आत्मीया बन चुके थे। दिन में कम से कम एइ बार अवश्य एइ दूसरे से सम्पर्क कर ही लेते थे भले ही दूरभा ा पर ही सही। पार्टी में ऋतिका का उत्साह देखते बनता थावह बेटे के उज्ज्वल भवि य की कल्पना मात्र से ही प्रफुल्लित थी। उस समारोह में प्रसन्नता का वातावरण था बस एइ मैं ही आवरण ओढ़ कर प्रसन्न होने का नाटक कर रही थी क्याकि इस प्रसन्नता का जो मूल्य दिया गया था वह मात्र मैं ही जानती थी दो दिनो बाद अंशुल को जाना था इन दो दिनो में ऋतिका ने क्षण भर भी अंश्सुल को विलग न होने दिया मानो वह इन दो दिनो में ही बेटे के साथ जीवन भर का सान्निध्य पा लेना चाहती हो। अंशुल कहता भी 'माँ मैं दो वर्षों के लिये ही तो जा रहा हूँ'उसे तो आभास भी न था कि वह अवश्य दो वर्षों के लिये जा रहा है पर माँ उससे इतनी दूर जाने वाली है कि वह चाह कर भी उस दूरी को पाट नहीं पाएगा।
अंशुलके जाते ही ऋतिका बेटी के विवाह की तैयारी में लग गई। मेंने उससे पुनः अनुरोध किया कि 'बेटे का भवि य तो बन ही गया है, अनन्या की कौन-सी आयु निकली जा रही है, आजकल तो वैसे भीबड़ी आयु तक विवाह होते हैं, दो वर्षों बाद अंशुल आ कर स्वयं अनन्या का विवाह करेगा। मेरी मानो अब तुम आपरेशन करवा लो' पर उसने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया कि कहीं कोई मेरी बात सुन न ले और बोली, 'नहीं डाक्टर प्लीज मेरी तपस्या बीच में न तोड़ो मलय जैसा वर बार बार नहीं मिलता फिर अब तक तो दोो के मध्य कोमल तन्तु भी जन्म ले चुके हैं, उन्हे मैं कैसे न ट कर सकती हूँ। मुझे पता है कि मलय के घर वाले इतनी लम्बी प्रतीक्षा नहीं करेगें, वैसे भी लड़की का विवाह तय होने के बाद अधिक दिनों तक रोकना उचित नहीं क्या पता कौन-सी बाधा आ जाए। ' मैं खीज उठी उसे समझाना व्यर्थ था स्वयं तो महानता के शिखर पर पहुंचना चाहती थी और मैं व्यर्थ ही उसकी बात मान कर अपराध बोध से ग्रस्त रहती। कभी कभी तो उस क्षण को कोसती जब उसकी बात मान कर उसकी इस योजना में भागीदार बनी थी।
तिका दिन पर दिन दुर्बल होती जा रही थी, एइ दो बार श्री वर्मा ने कहा भी, 'डाक्टरआज कल आप की मित्र थोड़ी-सा कार्य करके ही हांफने लगती है, इस बार आप के पास आए तो इसका परीक्षण करिएगा'मैं चुप रह जाती और उसे एकान्त में डांटती कि श्रम कम करे पर उसे तो बेटी के विवाह में मानो अपने जीवन की संपूर्ण आकांक्षाओं को पूरा करना था।सारा षहर छान कर एइ से एइ आभू ण और वस्त्र चुन कर लाई थी वह।जब मैं समय निकाल कर उसके पास जाती तो कभी वह कलश पर चित्र उकेर रही होती तो कभी चुनरी में गोटा टांक रही होती और कभी अतिथियों की सूची बना रही होती। उसका उत्साह समाए न समा रहा थामैं जाती तो नित्य प्रति की तैयारी दिखाती पर जैसे हर मैं उसके स्वास्थ्य के वि य पर आती वह बडी चतुरता से वि य बदल देती और मेरे निर्देश एइ कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देती।
अनन्या का विवाह देखते बनता था कहीं कोई कमी न थी, हर कोने पर ऋतिका की सुरुचि के हस्ताक्षर स्प ट थे।विवाह में हर क्षण पूर्ण रूप् से जीने की लालसा में ऋतिका मेरी मना करती दृष्टिकी अवहेलना करती नृत्य को भी उठ खड़ी हुयी, वह बात दूसरी है कि दो पंक्ति गाने पर नृत्यके बाद ही संास फूलने लगी।तब मैंने उसे तुरंत बैठा कर पानी पिलाया और दवा दी।सब लोगों ने इसे सेधारण-सी थकान समझा अतः दो क्षण को थमा संगीत फिर बज उठा और पुनः वातावरण सामान्य हो गया।विवाह समारोह निर्बाध रूप से सम्पन्न हो गया। वर का कामदेव-सा रूप् देखते बनता था अनन्या और मलय की जोड़ी साक्षात राम सीता की कल्पना को साकार कर रही थी। ऋतिका की आंखें में छलकती तृप्ति और प्रसन्नता ने कुछ देर के लिये मेरे अपराध बोध को कम कर दिया था मैंने सोचा कौन-सी माँ इस सुख से वंचित रहना चाहेगी मैंने भी ऋतिका को इस सुख को पाने में सहयोग ही तो दिया है।अनन्या की विदा की बेला में प्रयासों से रोका ऋतिका का रुदन फूट पड़ था उसे देख कर सभी के नेत्र भीग गए थे।अतीत की गलियों में भटकता मेरा मन मो तब चौंका जब गाड़ी अस्पताल के सामने आ पहुंची, अपने विचारों करे झटक कर मैं तुरंत कर्तव्य पूर्ति में संलग्न हो गई। मेरे निर्देशानुसार आपरेशन की संपूर्ण व्यवस्था हाकचुकी थी ऋतिका को तुरंत आपरंशन इक्ष में ले जाया गया। आज पहली बार आपरेशन करते हुए मेरे हाथ कांप रहे थे और मैं प्रार्थना कर रही थी कि हे ईश्वर! इस माँ के तप का कुछ तो प्रतिफल दो अन्यथा लांगो की ईश्वर में आस्था समाप्त हो जाएगी ' पर शायद ईश्वर को अपनी आस्था के खोने का भय न था अतः उन्हहोने मेरी प्रार्थना अस्वीकृत कर दी सब कुछ समाप्त हो गया।
सबने इसे होनी मान कर स्वीकार लिया, ईश्वर का उद्देश्य पूर्ण हो गया। आज अनन्या और अंशुल अपने अपने परिवार में संतुष्ट और सुखी हैं श्री वर्मा परिस्थितियों से समझौता कर बेटे के पास रहने चले गये परन्तु अपराध बोध का दंश मेरे अंतर्मन को निरंतर टीसता