दक्षिण भारत की फिल्में और राजनीति / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 09 फरवरी 2019
बोनी कपूर 'पिंक' को तमिल भाषा में बना रहे हैं और कंगना रनौट अभिनीत 'क्वीन' भी तमिल में बनाई जा रही है। दक्षिण भारत की अनगिनत फिल्में मुंबईया भाषा में बनाई गई हैं। दक्षिण भारत में जन्मीं हेमा मालिनी, वैजयंती माला, पद्मिनी, श्रीदेवी, जयाप्रदा हिंदुस्तानी भाषा की मुंबईया फिल्मों में लोकप्रिय रही हैं और महिला सितारा सिंहासन पर वे विराजी हैं। इसी तरह बंगाल से शर्मिला टैगोर, राखी, मौसमी चटर्जी ने मुंबईया फिल्म उद्योग में सफल पारियां खेली हैं। महिला सितारा महारानी सुचित्रा सेन ने भी 'बंबई का बाबू', 'सरहद', 'ममता' और 'आंधी' में अपने अभिनय के जादू से दर्शकों को बांध दिया। इन बातों का सार यह है कि मुंबईया फिल्मों में सितारा नायिकाएं दक्षिण भारत और बंगाल से आकर यूपी-बिहार तक लूट चुकी हैं। दक्षिण के रजनीकांत और कमल हासन ने मुंबईया फिल्में अभिनीत की परंतु लंबी पारी नहीं खेली। इसी तरह बंगाल के सुपर सितारा उत्तम कुमार भी मुंबईयां फिल्मों को प्रभावित नहीं कर पाए।
दक्षिण भारत की सफल फिल्मों के मुंबईया फिल्म उद्योग ने अपने संस्करण बनाए हैं। दक्षिण की एक अत्यंत साहसी फिल्म को मुंबई में 'शुभ मंगल सावधान' के नाम से बनाया गया। शारीरिक संबंध जैसे विषय पर यह फिल्म सराही गई और इसमें कोई अभद्रता भी नहीं थी। बंगाल के महान साहित्यकार गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और शरतचंद्र के साहित्य से प्रेरित अनेक फिल्में मुंबई में बनीं। शरत बाबू का 'देवदास' भारत की अनेक भाषाओं में फिल्माया गया। इतना ही नहीं उसकी पैरोडी भी 'देव डी' के नाम से रची गई। तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयाली भाषा में भी 'देवदास' बनाई गई है। शांताराम को देवदास का पात्र पसंद नहीं आया कि प्रेम में असफल व्यक्ति शराबी बन जाए। इसके विरोध में उन्होंने मराठी भाषा में 'मानुष' और हिंदुस्तानी भाषा में 'आदमी' के नाम से सकारात्मक फिल्में बनाई।
शरत बाबू का 'देवदास' और शेक्सपियर का 'हेमलेट' दुविधाग्रस्त पात्र हैं और अपनी इसी वैचारिक धुंध के कारण बहुत लोकप्रिय रहे हैं। महाभारत के अर्जुन को भी रणक्षेत्र में दुविधा हुई कि अपने रिश्तेदारों के खिलाफ युद्ध कैसे करें? जब आम आदमी दुविधाग्रस्त होता है तो राजनीति क्षेत्र में मिली-जुली खिचड़ी सरकारें बनती हैं, जिस कारण व्यवस्थाएं फटे हुए दूध की तरह हो जाती हैं।
फिल्म उद्योग में सफलता साधने के लिए कथाएं सभी क्षेत्रों और भाषाओं से ली गई हैं और फिल्म की मिक्सी में कथाओं को खूब घुमाया जाता है। सफल कथा विचार के गन्ने को रस निकालने की चरखी में बार-बार चलाकर उसकी आखिरी बूंद तक निकाली जाती है। यहां तक कि उसके फेंके हुए चरबे को जानवर भी नहीं खाते। दक्षिण भारत में राजनीति भी शेष भारत से अलग रंग में रंगी हुई है। पंडित जवाहर लाल नेहरू के 17 वर्षों में पूरा देश एक ही विचारधारा से संचालित रहा। दक्षिण भारत में भी कांग्रेस को प्राप्त मत का प्रतिशत शेष भागों की तरह ही रहा परंतु विगत दशक में खेल गड़बड़ हो गया। छद्म धर्मप्रेरित राजनीतिक दल दक्षिण में सेंध नहीं लगा पाए हैं। हुक्मरान की लफ्फाजी से दक्षिण प्रभावित नहीं हुआ। हाल ही में राजमोहन गांधी की किताब 'मॉडर्न साउथ इंडिया' का प्रकाशन हुआ है। इसे परफेक्ट टाइमिंग कहा जा सकता है। किताब में टीपू सुल्तान की भूमिका को भी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखकर प्रस्तुत किया गया है कि किस तरह टीपू सुल्तान ने श्रृंगेरी मठ को भरपूर सहायता प्रदान की। यह भी रेखांकित किया गया है कि टीपू सुल्तान ने अकबर की तर्ज पर अनेक महत्वपूर्ण महकमों के मुखिया विविध धर्म अनुयायी लोगों को केवल उनकी काबिलियत के आधार पर बनाया।
ज्ञातव्य है कि संजय खान ने टीपू सुल्तान के जीवन पर सीरियल बनाने का प्रयास किया। बड़े सेट पर आग लग जाने के कारण कुछ लोगों की जान भी गई और अनेक हताहत हो गए। राज कपूर के साउंड रिकॉर्डिस्ट अलाउद्दीन खान साहब ने कभी किसी अन्य निर्माता के लिए काम नहीं किया था परंतु संजय खान के बार-बार निवेदन करने पर उसका काम करते हुए उनके प्राण चले गए।