दण्डकीला / सुशील कुमार फुल्ल
अब वह लटका हुआ था । आस पास वाले रिश्तेदार तो आ गए थे । उसे भी तुरन्त सन्देश कर दिया गया था परन्तु उसने नहीं आना था और नहीं वह आई लेकिन रिश्तेदार लोकलाज रखने के लिए जो भी पूछता यही कहते- हां, आ रही है । दूर है न ।
फिर कोई दूसरा बात को ढकने के लिए कहता- पंचकूला दूर है । आने में तो टाईम लगता ही है । कोई बुजुर्ग महिला कह रही थी - बीस साल से नहीं आई, तो अब क्यों आएगी । कैसे भूखा रखता था उसे और उस के बेटे को । कहता था अपना अपना कमाओ और खाओ ।
‘सिरफिरा था । हर बात में लक्कड़ फँसाता था । ऐसे भी लोग होते हैं । लाखों रुपया कमाना लेकिन न खुद सुख उठाना न परिवार को लेने देना । अब ले जा जहां ले जाना है ।’ दूसरी किसी रिश्तेदार ने कहा ।
टेबल पर टिफिन पड़ा था और वह पंखे से झूल रहा था ।
गले में फंदा डाल पेड़ से लटक रहा अधेड़ का शव कितना वीभत्स लग रहा था ।
पड़ोस में आ कर नये नये बसे प्रोफ़ेसर विभूति नारायण ने वृक्ष पर लटके शव पर कटाक्ष किया था-मरने के और भी सहज तरीके होते हैं ।
आस पास खड़े किसी भी व्यक्ति ने उस की टिप्पणी पर ध्यान नहीं दिया था । मरने वाला पहले से तरीके तो सोच कर नहीं रखता । यह तो क्षणिक आवेश में लिया गया इम्पल्सिव निर्णय होता है । एक बार एक्शन हो गया तो उस पर पश्चाताप करने का अवसर भी नहीं मिलता ।
अधेड़ एक पेड़ पर लटका हुआ था और दूसरे पेड़ पर बैठे पक्षी कांय कांय कर रहे थे ।भीड़ जमा होती जा रही थी ।
वह अजीब ही आदमी था । बारह बहन भाइयों में आठवीं सन्तान । सब में परस्पर बड़ा स्नेह था । उस में पता नहीं यह प्रवृत्ति कहां से प्रवेश कर गई थी कि वह हर काम अलग ढंग सेे करता, आस पास की हर चीज उसे अपने टेरूट के अनुसार चाहिए थी । और दूसरों से अलग दिखना भी उसे पसंद था ।
कभी कभी बाकी बहन भाइयों में से कोई न कोई उसे टुनका लगा देता- मास्टर बिशम्बर दास की घनी सन्तान में विभूति तो एक ही है ।
वह शरारत को समझता और बचने के लिए बिना प्रतिवाद किए वहां से खिसक लेता । आज सुबह जब उस का स्कूल का सहपाठी आया तो वह बेहद खुश था। बिल्कुल स्वच्छन्द भाव से बोला था - मणि, वर्षों बाद आज इस घर में किसी दोस्त के पांव पड़े हैं । मैं धन्य हो गया ।
मणि राम बोला- विभूति, तुम स्कूल में तो इतने साफ सुथरे नहीं रहते थे परन्तु यहां तुम्हारा घर बार एकदम स्फटिक जैसा लगता है । ‘अरे, छोड़ो उन दिनों की बातें ।’ कह कर चुप हो गया । उस ने मन ही मन सोचा- तब मैं बहन भाइयों के साथ तबेले में रहता था । दो छोटे छोटे कमरे और भीड़ में फंसा आठवां बच्चा । और अब मैं अपने घर में रहता हूं ।
तभी टिफिन आ गया था । मणि राम ने फिर पूछा-टिफिन ? भाभी यहां नहीं है क्या ? ‘यहीं है। यह उसी की तो माया है । तुम जल्दी से फ़्रेश हो लो । फिर दोनों भोजन करेंगे ।’ विभूति ने स्नेहपूर्ण शब्दों में कहा ।
‘जो आज्ञा, प्रभु ।’ कहकर मणि वाशरूम में चला गया । दोनों ने प्यारपूर्वक भोजन किया । विभूति ने कहा - तुम अपना बैग यहीं रख जाओ । दोपहर को यहीं आ जाना । भोजन भी करेंगे और बातें भी ।
‘अब बैग जो यहां छोड़ दिया है । अब तो आना ही पड़ेगा ।’ मणि चला गया लेकिन उस के मन में उथल-पुथल मची रही कि इतना बड़ा प्रोफ़ेसर भी टिफिन मंगवाता है। उसे आश्चर्य हुआ कि पहाड़ के छोटे से गांव में भी टिफिन का रिवाज चल निकला है । सुविधा के लिए लोग ठण्डा मण्डा खाना भी खा लेते हैं । संभव है यह विभूति की कोई मजबूरी हो । नाश्ता करने के बाद वह धर्मशाला के लिए चल पड़ा जहां कोर्ट में उस की पेशी थी ।
वह नहीं मानता था कि हर बच्चे का अपना अपना भाग्य होता है । भाग्य तो बनाया जाता है । जो लोग अपने बच्चों को विलायत में पढ़ने के लिए भेजते थे,वे स्वयं अपने बच्चों का भाग्य बनाते थे । मेरे बड़े भाई मेडिकल कालेज में भेजे गए तभी तो वे डाक्टर बनें । मुझे नहीं भेजा गया तो मैं नहीं बना डाक्टर ।
वह अपने पिता से भिड़ गया था ।
‘आप ने मेरे तीन बड़कों को डाक्टरी करवाई है । मुझे क्यों नहीं करवाते ?’ विभूति ने सीधा आक्षेप जड़ा था ।
‘ बेटा, अपना बित्ता भी तो देखना पड़ता है । पहले भी जमीन बेच कर इन को पढ़ाया है । पुरखों की जमीन का दर्द तुम क्या जानो ।’ मास्टर बिशम्बर दास ने रोनी सी सूरत बना कर कहा ।
‘उनके लिए पुरखों को बेच सकते हो लेकिन मेरे लिए...वह कहता कहता रुक गया । कहने की इच्छा तो हुई कि अपना बित्ता देख कर फौज खड़ी करनी थी परन्तु उस के संस्कारों ने उसे चुप रहने का ही आदेश दिया ।
विभूति पहाड़ से बाहर निकल जाना चाहता था ताकि कुछ खास बन सके । जो लोग बाहर निकले थे , वे बहुत आगे बढ़ने में सफल हुए थे । अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की कविता ‘एक बूंद’ उसे बहुत अच्छी लगती थी । उसे लगता था पिता उसे पहाड़ में ही रखना चाहते थे । बाग बगीचों, घर बार और बूढ़ों की देख रेख के लिए भी तो किसी न किसी बेटे को अपने पास रखना जरुरी था ।
इसे संयोग कहें या उस का भाग्य कि उसी वर्ष प्रदेश में पहला एग्रीकल्चर कालेज खुल गया । पिता ने कहा ‘ यह तुम्हारे लिए ही खुला है । चलो कल तुम्हें दाखिल करवा आउं । बाप दादा का व्यवसाय भी बचा रहेगा । घर में ही डिग्री करने पर खर्चा भी कम आए गा । ‘मैं डाक्टरी कर के अपना क्लिनिक खोलना चाहता हॅं ।’ ‘अब मुझ में सामर्थ्य नहीं है ।’‘तब था । उन के लिए सब कुछ और मेरे लिए घास फूस की डिग्री । मैं अनपढ़ ही भला । ’ ‘तो क्या करोगे ?’ ‘भीख मांगूगा । नहीं तो मनाली में आवारागर्दी करुंगा । बाग बगीचा तो है ही ।’‘कुछ और सोच लो ।’‘होटल खोल लूंगा ।’
‘बहुत पैसा चाहिए और फिर होटल आदि चलाना आसान काम नहीं ।’ मास्टर जी सोच रहे थे कि इस व्यवसाय में गुण्डागर्दी होती है, देह व्यापार होता है । ये नशे के अड्डे बन जाते हैं । तरह तरह के पर्यटक आते हैं । शराब ,चरस,स्मैक न जाने क्या क्या लफड़े होते हैं । लड़ाई झगड़े होते हैं । वह इस व्यवसाय के पक्ष में हरगिज नहीं थे । वास्तव में हर आदमी अपने अपने ढंग से सोचता है और अंततः उस की अपनी धारणाएं बन जाती हैं और वह फिर उन्हीं के अनुरूप आचरण करना पसन्द करता है ।
पिता परेशान था और विभूति था कि वह पानी की बूंद जमीन पर नहीं गिरने दे रहा था । बस उसे तो पिता के हर प्रस्ताव का विरोध करना था । कभी उसे लगता कि उस का बाप कहीं उसे हरामी समझ कर तो नहीं ऐसा बर्ताव कर रहा । इनसान भी क्या खोपड़ी है । कैसे कैसे तर्क कुतर्क ढूंढ लेता है । खुद को हरामी कहने में भी उसे संकोच नहीं होता है ।
विभूति के मामा ने समझाया कि एग्रीकल्चर में बहुत स्कोप है । पंजाब में हरित क्रांति जब से आई है एग्रीकल्चर में नौकरियों की भरमार हो गई है । जब तक मैं डिग्री करुंगा उसे कुत्ता भी नहीं पूछेगा ।’ विभूति ने प्रतिवाद किया । थोड़ा सोच कर वह फिर बोला- आप हरित क्रांति की बात करते हो । कितने किसानों ने इस वर्ष आत्महत्या की है , पता भी है । कपास की फसल फेल हो गई, सात परिवारों ने एक साथ आत्महत्या कर ली । गन्ना किसान उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र में गल फाहे ले रहे हैं ।
‘तुम ने किसानी थोड़े करनी है । तुम पी.एच.डी. कर के प्रोफ़ेसर लग जाना । चाहो तो अमरीका भी पढ़ आना ।’ मामा ने चुग्गा डाला । ‘मैं मास्टर नहीं बनना चाहता ’ वह गुस्से में बोला था । पिता स्कूल मास्टर थे। प्रायः बच्चों को मां- बाप का व्यवसाय अच्छा नहीं लगता । इसी लिए वे कई बार गलत धारणाएं बना लेते हैं । उसे लगता मास्टर लोग सनकी हो जाते हैं । अपने आप को समाज के निर्माता समझते हैं , जबकि उस का मानना था कि वे समाज में वर्ग भेद को बढ़ावा देते हैं और एक प्रकार से अशान्ति का प्रसार करते हैं ।
वे लोग उस पर प्रेशर बनाते रहे, तो उस ने चिढ़ कर कहा - हां, मैं एग्रीकल्चर कालेज में दाखिल हो जाउंगा लेकिन यह मेरी मर्जी कि परीक्षा पास करुं या न करुं ।
पिता सहम गया था । इय सिरफिरे का क्या पता , जानबूझ कर ही फेल होता रहे । यह दण्डकीला कहां से आ गया हमारे परिवार में । इस की कोई भी कल सीधी नहीं हर किसी को लक्कड़ देने के लिए तैयार रहता है ।
विभूति एक बार कालेज में चला गया तो धीरे धीरे सारी हेकड़ी भूल गया । उसे अध्ययन में रस आने लगा । अच्छी अच्छी खबरें आतीं तो मास्टर बिशम्बरदास की छाती गर्व से फूल जाती । एक बार तो छात्रपाल से रिपोर्ट आई कि विभूति छात्रावास में आदर्श छात्र के रूप में चयनित हुआ है । अनुशासन,शालीनता तथा विनम्रता इस के व्यक्तित्व के गुण हैं ।
मास्टर बिशम्बर दास को लगा उस जैसा तो कोई पिता ही नहीं था । उन्हें लगा विभूति अब एक स्वतन्त्र पंछी था जो अपने परों के बल पर आकाश में उड़ने में सक्षम था । पिता के मन में विचार आया कि उस की डिग्री पूरी होते ही उसे विवाह बंधन में बांध देना उचित होगा । सही समय पर सही काम श्रेष्ठ होता है । मन में कौंध आई, यह लड़का लक्कड़ है । सिर्फ मेरे सोच लेने से ही तो यह काम सम्पन्न नहीं हो जाएगा । कोई जुगाड़ फिट करना पड़ेगा ।
वह फिर अड़ गया था ।
शायद यह उस का स्वभाव ही बन गया था । वह निर्णय लेने में अपने आप को सब से बेहतर मानता था । घर वालों ने एक सुशील सुन्दर कन्या देख कर उस से विभूति का टिप्पड़ा भी मिलवा लिया था । मां ने कहा - विभूति, एक बार लड़की से मिल लो । फिर तुम्हारा रिश्ता पक्का कर देंगे ।
‘कौन सी लड़की ? और कैसी लड़की ?’
‘बेटा, तुम्हारी डिग्री हो गई । नौकरी लग जाएगी । मां बाप तो चाहेंगे कि तुम्हारी शादी हो जाए।’ पिता ने समझाया ।
‘मैं कोई दूध पीता बच्चा तो हूं नहीं । क्यों मुझ पर अपने निर्णय थोंपते हो ?’वह गुर्राया था ।
‘तुम्हारी नजर में है कोई लड़की, तो भी बता दो ।’‘नहीं कोई नहीं ।’
‘तो फिर उस लड़की को देखने में हर्ज ही क्या है ।’ मां ने मासूमियत से कहा ।‘इतनी भी क्या जल्दी है । पहले भी कौन सा आप के बच्चों ने शादियां आप की मर्जी से की है । फिर मुझी पर सारा दबाव क्यों ?’
उस के भाइयों ही ने ही नहीं अपितु उस की बहनों ने भी जहां ठीक लगा वहां अपना रिश्ता खुद तय कर लिया और बाद में माता पिता को बताया । मां बाप चीखते ही रह गए । पूरे रीति रिवाज से विवाह करना चाहते थे ताकि रिश्तेदारी में अपनी साख बचा सकें । वे बार बार विभूति को पुचकार रहे थे ।
कभी कभी मां बाप अजीब सी दुविधा में फंस जाते हैं । जैसा सोचा होता है , कई बार वैसा नहीं होता । मास्टर बिशम्बर दास का मानना था कि परिवार जितना बड़ा हो गा, मां बाप तथा बिरादरी को उतना ही ज्यादा सुख होगा ।
किसी हद तक बात ठीक भी थी । उन्हें कभी लगा ही नहीं कि वे कभी अकेले थे । उन के बड़े भाई रामेश्वर के कोई सन्तान नहीं थी, तो उन्हें हमेशा लगता था कि उनका घर हमेशा खाली ही रहा । भाभी की मृत्यु पहले हो गई । बुढ़ापे में जो एकान्त भाई ने झेला, वह बहुत ही दर्दनाक था ।
विभूति ने अभी कोई निर्णय नहीं लिया था । एक दिन अचानक लड़की वाले आ गए । लड़की को भी साथ ही लाए थे । मास्टर बिशम्बर दास ने उन की खूब आवभगत की । विभूति नारायण मन ही मन भड़का हुआ था लेकिन बाहर से वह शान्त बना रहा ।कोई बोल नहीं रहा था । विभूति ने ही श्रेष्ठा से पूछा - आप की भावी पति से क्या अपेक्षाएं हैं ?‘कोई विशेष नहीं । बस ऐसा पति चाहिए जो परस्पर विश्वास रखे और शान्त भाव से जीवन की नैया को पार लगा दे ।’ श्रेष्ठा संभल कर बोली । ‘तो पति को आप खेवट समझती हैं ’। वह शरारती स्वर में बोला । ‘‘पति पत्नी तो रथ के दो पहिए हैं, दोनों का सह अस्तित्व होता है ।’ लड़की के पिता ने कहा । ‘अंकल, आज जमाना बहुत आगे निकल गया है । ये बातें आप के जमाने में सच थीं लेकिन आज नहीं । आज तो सब की अपनी अपनी पेस है ।’ विभूति ने विनम्रता से कहा ।‘फिर भी सतुलन तो रखना ही पड़ता है । ’ मास्टर बिशम्बर दास ने कहा । ‘संतुलन का मूल आधार तो अर्थ ही होता है । मैं नहीं जानता श्रेष्ठा कितने पैसे कमा सकती है और कितनी स्वावलम्बी हो सकती है । मैं तो विवाह को अपने अपने स्वावलम्बन पर सहवास का अनुबन्ध मानता हूँ । ’ पता नहीं उस के दिमाग में बर्नार्ड शॉ के विचार कहां से आ कर घुस गए थे । सभी उसे हैरान नजरों से देख रहे थे ।
‘ विभूति बेटा, तू बनिया कब से बन गया ?’ मां ने आश्चर्य से कहा ।‘ यहां तो सभी बनिए लगते हैं मुझे । मेरे सभी बहन भाई ढेरों पैसे कमाते हैं परन्तु कभी किसी ने मुझे दमड़ी नहीं दी । तो वैसे ही संस्कार मुझ में आंएगे । मेरा तो मानना है कि सभी अपने अपने स्तर पर स्वार्थी होते हैं । तो पति पत्नी को भी उसी तुला पर क्यों न तोला जाए ।’ उस के विचार काफी उग्र लग रहे थे । श्रेष्ठा को बेबाक लड़का अच्छा लगा । और विभूति को लड़की भी ठीक ठाक लगी । दोनो ने कहा कि वे फाइनल निर्णय थोड़े समय बाद लेगे ।मां बाप को आस बंध गई । आंगन में चिड़ियां चहक रही थीं मानो मंगल गीत गा रही हों ।
मणि ने फोन पर कहा था - मुझे धर्मशाला थोड़ा सा काम है कचहरी में । बहुत साल हो गए मुताकात ही नहीं हुई । सोचता हूँ आप से भी मिल लूं ।
‘अरे मणि, तुम आओगे तो मेरा घर महक जाएगा । यहां है ही कौन । तुम एक दिन पहले आ जाओ ।’ ‘मैं सुबह जल्दी पहुंच जाउंगा । मैं घुमारवी से रात्रि बस से चलूंगा ।’‘ठीक है मैं तुम्हारा इन्तजार करुंगा ।’
मणि रास्ते में सोचता रहा कि उस ने ऐसा क्यों कहा कि घर में और है ही कौन ? वह जानता है विभूति का विवाह वर्षों पहले हुआ था । उसे एक बेटे के होने की भी खबर थी । फिर उस ने सोचा - ओह मैं भी कितना मूर्ख हूँ । हो सकता है भाभी कहीं और नौकरी करती हो।सरकारी नौकरी में तो बदली होती रहती है ।
वह विभूति का घर देख कर दंग रह गया । कितने करीने से फुलवारी बनाई गई थी । बाहर आंगन में बैठने के लिए सीमेंट और पत्थरों के रंग बिरंगे बैंच बने हुए थे । एकदम प्राकृतिक परिवेश । घर आंगन तपस्थली लग रहा था ।
कमरे एक दम साफ । किताबें करीने से लगी हुईं । एक दीवार पर लिखा हुआ - आप आए, मैं धन्य हो गया । मणि ने कहा - विभूति सब बातें ठीक परन्तु तुम्हारे घर तक पहुंचना बहुत मुश्किल है । कोई कहीं भी फिसल कर गिर सकता है ।’’
‘मणि तुम बिल्कुल ठीक कहते हो लेकिन तुम जानते ही हो कि जमीन बेचने वाले कई तरह की ठगियां करते हैं । मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ । मुझे दिखाया गया था कि रास्ता दस फुट है परन्तु जब पैमायश ली गई वहां कागजों में रास्ता था ही नहीं । बाद में कुछ हो नहीं सकता था । सो मन मार लिया ।’फिर कुछ देर पटवारियों के किस्से चलते रहे ।टिफिन आ गया था ।
इतनी बड़ी कोठी और किचन में कोई हलचल नहीं । बैठक में भी न तो किसी बच्चे की फोटो लगी थी और न ही कोई फैमली फोटो । मणि पूछना चाहता था परन्तु चुप ही रहा । पता नहीं क्या भेद था । वह उस के ज़ख्मों को नहीं कुरेदना चाहता था । टिफिन आने का मतलब था घर में कोई महिला नहीं थी । उसे याद है विभूति की फिलास्फी ही अलग थी । वह कहता था परिवार के हर सदस्य को अपना अपना खर्च वहन करना चाहिए । बच्चों का भी आधा- आधा । क्या अजीब थियूरी है । इस से तो परिवार की परिभाषा ही गड़बड़ा जाएगी ।
विभूति ने कहा था - परिभाषा गड़बडाती है तो गड़बड़ा जाए । मेरे मां बाप ने बारह बच्चे पैदा किए । सब अपना अपना खाते कमाते हैं । किसी को कुछ नहीं देते ।
मणि ने कहा - पति पत्नी तो परस्पर निर्भर रहते होंगे । यह भी तो सहयोग ही हुआ ।
‘नहीं, वे सब चालाक थे । उन्होंने शादियां कमाने वाली लड़कियों से ही की । मेरे पल्ले ही खोटा सिक्का मढ़ दिया गया । मां बाप भी अपने बच्चे के साथ कसाइयों जैसा बर्ताव करते हैं ।
तर्क का कोई अन्त नहीं होता । मणि ही चुप कर गया । दोनों मित्र वर्षों बाद मिले थे । दोनों के चेहरे पर एक चमक थी ।वह बैग रख कर धर्मशाला चला गया था । विभूति अपनी क्यारियों में लग गया था । धूप चढ़ने लगी थी ।
धर्मशाला से काम निपटा कर मणि कोई चार बने सांय वापिस लौटा । उसे बड़ी भूख लगी थी । वह जल्दी जल्दी डग भरता हुआ विभूति की कोठी के प्रांगण में पहुंचा । कोई हलचल नहीं थी । सब कुछ एक दम शान्त । उस ने जोर से आवाज लगाई - डा. साहब । विभूति भाई । लेकिन कोई जवाब नहीं ।
उस ने फिर दरवाजा जोर से खटखटाया लेकिन कोई जवाब नहीं ।
सोचा शायद सो गया हो । फिर घंटी बजाई । जोर से दरवाजा खटखटाया लेकिन कोई आवाज नहीं । जाली वाला दरवाजा अन्दर से बन्द था । मणि घबरा गया । दौड़ कर अड़ोस पड़ोस मे गया । एक महिला मिली । मणि ने सारी कहानी उसे बताई । महिला ने खेत में काम कर रहे एक व्यक्ति को आवाज लगाई - हरिए, दौड़ कर यहां आ । वह धान की पनीरी को खेत की मेंढ़ पर रख कर दौड़ा आया । पंच बुला लिए थे । थाने में खबर कर दी थी ।
इस बीच सरपंच दीनू राम ने जाली काट कर हाथ अन्दर डाला और कुण्डी खोल दी । वह बड़ी चौकसी से अन्दर गया । देखा मेज़ पर टिफिन पड़ा था और साहब पंखें से लटक रहे थे ।
मणि राम की चीख निकलते निकलते रही । बोला - यह क्या किया विभूति तूने । ओह नो । ‘आत्महत्या करना पाप है ।’ कोई बोला ।धीरे धीरे भीड़ इकट्ठी होने लगी । ‘अभी रिटायर हुए छः महीने भी नहीं हुए ।’‘घर में कभी कोई औरत या बच्चा नहीं देखा । कहते हैं बीवी भी है और बेटा भी । फिर यहां क्यों नहीं आए कभी ?’ ‘शायद वह बच्चे को ले कर चली गई होगी । अनबन भी तो हो जाती है । आज कल तो यह आम बात है ।’ कोई अनुभवी व्यक्ति कह रहा था ।‘सुना है दोनों आपस में भिड़ते रहते थे ।’‘अब तो कहानी ही खत्म हो चुकी है । सालों साल हो गए उन्हें अलग हुए । अब भी शायद ही आए वह ।’
तभी पुलिस आ गई थी । पंचनामा हुआ । और शव को उतार कर नीचे रख दिया गया । फिर पुलिस ने इसे पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया |
डायरियां देख कर उन्होंने रिश्तेदारों का पता लगाया और फिर पत्नी को फोन किया गया । श्रेष्ठा ने तो साफ ही कह दिया कि लाश को लावारिस समझ कर दाह संस्कार कर दिया जाए । हमारा कोई रिश्ता नहीं है ।
गाँव की एक महिला कह रही थी - जो अपने बीवी बच्चों का नहीं हो पाया, वह अपना भी कैसे हो सकता था । अच्छा ही हुआ पंछी फड़फड़ा कर उड़ गया । यहां भी भटकी हुई आत्मा की तरह घूमता रहता था । न यहां कोई रिश्तेदार आता था और न वह गांव वालों से मेल जोल रखता था ।पेड़ पर लटके हुए अधेड़ और पंखे से झूल रहे प्रोफेसर में कोई अन्तर नहीं लग रहा था । उसके आंगन के पेड़ों पर बैठे कौए अचानक कांय कांय करने लगे ।