दबी हुई उमंग / सेवा सदन प्रसाद
चौधरी साहब के यहाँ काफी चहल पहल थी। उनके सब बेटे-बेटियां इकट्ठे हुए थे। वैसे सब दूसरे शहर में कार्यरत थे पर होली और दीपावली पर सब अवश्य पहुंच जाते ताकि सारा परिवार आपस में खुशियां बाट सके. चौधरी साहब का दालान तब पड़ोसियों के लिए क्रिडांगण बन जाता।
होली का रंगारंग त्योहार। ढोल मजीरे की धुन पर सब नाच रहे थे। सिर्फ रश्मि एक किनारे खड़ी होकर सब नजारा देख रही थी। तभी कुछ लड़कियां आई और रश्मि को खींच कर ले गई और उसपे रंगो की बौछार कर दी। रश्मि किंकर्तव्यविमूढ़-सी हो गई। ढोल की आवाज तेज हो गई तब रश्मि अपने आप को रोक न सकी और थिरकने लगी।
चौधरी साहब की नजर जब पड़ी तो सब सहम गये। चौधरी साहब का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और रश्मि तो अपराध-बोध तले दब गई। तभी चौधरी साहब की पत्नी ने स्थिति को संभालते हुए कहा - "क्यों रंग में भंग डाल रहे है? ... जमाना अब बदल गया है... सुरेश की मौत के कितने दिनों बाद आज रश्मि के चेहरे पर हंसी दिखी है... अब वह हमारी बहू नहीं बेटी है।
चौधरी साहब तब कुछ सोचने लगे। फिर चिल्लाकर बोले - "अरे! सब रूक क्यों गये? आज होली का त्यौहार है... नाचो, सब नाचो" और खुद भी नाचने लगे।