दम तोड़ते सरस्वती पुत्र / आलोक रंजन
दम तोड़ते सरस्वती पुत्र वसंत –पंचमी को जिस एक विशेष कारण से मेरे स्मृति पटल पर गहराई तक अंकित है,-वह इस दिन को सरस्वती के वरद पुत्र और छायावाद के प्रमुख काव्य –हस्ताक्षर ‘श्री सूर्य-कान्त त्रिपाठी निराला’ के जन्म –दिवस के रूप में मनाया जाना है।
इस दिन का पौराणिक महत्व जो कुछ भी हो निराला जी ने अपना जन्म –दिवस वसंत –पंचमी को मान स्वयं अपनी माँ वीणापाणि की शुभ्रता को और भी धवल किया।
“टूटें सकल बन्ध,
कलि के, दिशा-ज्ञान-गत हो बहे गन्ध।
रुद्ध जो धार रे, शिखर- निर्झर झरे”
“ मधुर कलरव भरे, शून्य शत-शत रन्ध्र।
रश्मि ऋजु खींच दे, चित्र शत रंग के,
वर्ण- जीवन फले, जागे तिमिर अन्ध।”
-निराला
मुक्त होने की निर्बोध तड़प , और आलोक की उत्कट अभिलाषा को परिलक्षित इन सोपानों के रचयिता को छायावाद की परिधि में बांधा ही नहीं जा सकता।हिंदी क्या किसी भी भाषा साहित्य को इनकी अभिव्यक्ति पर अभिमान होना ही चाहिए।
अपनी ‘कमलासना’ माँ के वरद पुत्र होने की सार्थकता का पूरा-पूरा निर्वाह किया इस महाकवि ने।अपनी पुत्री के अंतिम क्षणों में विवश और निरूपाय हो अपने हिंदी के सर्जक होने का मूल्य भी चुकाना पड़ा और ताउम्र मूल्य चुकाते रहे।
हिंदी साहित्य-शिल्पिओं के लिए एक मुहावरा तय है –सरस्वती और लक्ष्मी के बैर के शास्वत होने का, तथा इन्ही देवियों की महत्ता का आनुपातिक विश्लेषण कर एक सांस्कृतिक परिधि भी उनके लिए तय है।
पर क्या जीवन –यापन की न्यून आवश्कताओं का अधिकार भी सरस्वती-पुत्रों को नहीं है ?बस एक मृत उदहारण को ढाल की तरह खड़ा कर याद दिला दिया गया की साहित्य, काव्य और कला की सहज अभिव्यक्ति के लिए तुम्हारे सम्पूर्ण जीवन का असहज होना पहली शर्त है।
-कविता या साहित्य का प्रस्फुटन तुम्हारे हृदय से होता है, अतः हृदय के साथ –साथ शरीर के गलाने से उस रंग का निर्माण करो, स्वयं अपने तथा पूरे परिवार के लहू से उस रंग को और गहरा करो तब तुम्हारी अभिवक्ति सेठों की अलमारियों में रखने योग्य होंगीं।
एक बात और सिखलायी गयी हैं बड़े दार्शनिक रूप में –जीवन की घोर तपस्या का मूल्य साहित्यकार को जीवन के बाद ही मिलता है तो तपस्या को अधिक कष्टप्रद बनाने के लिए हे! सरस्वती पुत्रों, भूख –प्यास, सर्दी-गर्मी को झेलना अपना सौभाग्य मानो, सर्दी में ठिठुरोगे तो पूस की रात का चित्रण सहज रूप में कर सकोगे, हल्कू और तुममें कोई अंतर तो नहीं।
लेकिन, क्षोभ इस बात का की साहित्य संरचना के ये नियम मात्र हिंदी के रचयिताओं तक ही क्यों सीमित है, और ये आज की बात नहीं यह भेदभाव तो ५ शताब्दियों से चला आ रहा है और भविष्य में मात्र हिंदी सप्ताह या हिंदी दिवस की खानापूर्ति दशा और दिशा को बदलने वाली तो नहीं लगती, इन बेकार के आयोजनों से कुछ भी बदलने वाला नहीं है।
थोड़ा इतिहास का अवलोकन करें तुलसी और रहीम समसामयिक माने गए हैं रहीम श्रेष्ठ कोटि के हिंदी कवि हुए और मुग़ल दरबार का आश्रय लिया, और आश्रय मिलने का कारण उनकी श्रेष्ठ रचनाओं के साथ ही उनके मुसलमान होने को भी देना ही पड़ेगा, तो उनका जीवन बाधा –शून्य ही रहा, गंग के रचनात्मक शैली की प्रगाढ़ता को भी दरबार का आश्रय प्राप्त हुआ।
तुलसी काशी में दर-दर भटकते रहे और कुछ आलोचक तो यहाँ तक कहते हैं की एक प्लेग में उन्हें निरीह छोड़ दिया गया, हनुमान –बाहुक में उसका विवरण मिल जाता है –
“पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुंह पीर, जर जर सकल पीर मई है।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है।।
हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारे हीतें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है।
कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है।"
अधिकतर साहित्यकारों ने उस युग में दरबार के आश्रय को अपनी निजता से ऊपर रखा या दूसरा मार्ग अपनाया-हिंदी में अपनी रचना नहीं की।
तुलसी उनसे काफी ऊँचे उठ गए, परन्तु उनका मूल्यांकन तो उनके जाने के बाद ही हुआ, जीवन भर ठोकरे खाते रहे।
दरबारी कवियों को एक और सुविधा मिली –उनकी रचनाएँ सहेज कर रखीं गयीं, पृथ्वीराज –रासो जैसी अप्रमाणिक रचनाएँ अब तक बनी हुई हैं, राज –पुरुषों के महिमामंडन तथा उनके प्रेम का चित्रण ने उन कवियों को तथा उनकी रचनाओं को हर प्रकार का समर्थन दिलवाया।
कई अप्रतिम काव्य मज़हब के नाम पर नष्ट कर दिए गए, और कुछ को हिंदी के उस आदिम रूप के नाम पर भी, कुछ लोग तो ये मानते हैं की रामचरितमानस को बचाने के लिए तुलसी जी ने रहीम के यहाँ छुपा दिया।
जो हो हिंदी की हीनता उसके आदि स्वरुप में भी मिलती है, बचने का उपाय बस एक ही था दरबारी बनो अथवा हिंदी को छोड़ अरबी, फारसी में लिखो।
यही परंपरा आधुनिक काल तक बनी रही दरबार अब अंग्रेजों द्वारा संचालित थी, जिनके भारत आगमन के मसौदे में ईसाई धर्म का प्रचार भी था, बाधा संवाद की थी अतः हिंदी को बस धर्म प्रचार तक सीमित रखा गया, भारतीय साहित्य का कोई ज्ञान उन्हें था नहीं अतः दरबार से कविओं को प्रोत्साहन मिलना असंभव था।
रही –सही कसर हिंदी के स्वरुप –निरूपण ने पूरी कर दी, फारसी, हिंदी और उर्दू के विवाद को मजहब के विवाद से देखा गया, परि-शुद्ध हिंदी को अंग्रेजों ने दोयम दर्ज़ा ही दिया, हालाँकि भारतेंदु और सितारे-हिंद जैसे शुरुआती साहित्यकारों की भाषा उर्दू ही कही जा सकती है।
राष्ट्र-वाद के उदय ने हिंदी को जनमानस के स्तर पर तो पंहुचा दिया लेकिन साहित्यकारों की दुर्दशा और भी अधिक हो गयी, सरकार ने हिंदी के ग्रंथों को भडकाऊ बता जब्त करना शुरू किया और और साहित्यकारों के आर्थिक मदद का तो प्रश्न ही नहीं, प्रकाशक भी गिने –चुने, जीर्ण –शीर्ण।
उस समय भी एक बात बड़ी विचित्र है राष्ट्र-वादी नेताओं के अंग्रेजी में लिखे पुस्तक अच्छे प्रकाशन में छपे –‘डिस्कवरी आफ इंडिया ’ अंग्रेजी हुक्कम्ररानो को भी बहुत पसंद आई, पर प्रेमचंद जी की उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओं की रचनाओं को हर तरह के बाधाओं से दो –चार होना पड़ा।
बांग्ला से भी उनका बैर भाव नहीं रहा, कमसे कम बाद के दिनों में, गीतांजलि के अंग्रेजी संस्करण ने उसे नोबेल पुरस्कार दिला दिया, हाँ एक बात अब भी वही थी, लेखक राष्ट्र –वादी थे और संस्करण अंग्रेजी था।
अगर स्वाधीनता को प्रेरित करने का आरोप प्रेमचंद पर लग सकता है तो इसी आंदोलन के शीर्ष नेताओं की रचनाओं का सन्मान इस बात को पूरी तरह नकार देने के लिए काफी है।
स्वन्त्रता के बाद दरबार के सिक्के बदल गए, हिंदी को उम्मीद थी पर उसके साहित्यकारों को अब और दुर्दशा देखनी थी, अंग्रेजी अब दरबार और उच्च वर्ग पर नशे की तरह सवार था, बच्चों को उस वर्ग ने विलायत में शिक्षा ना दे पाने की कसक उन्हें हिंदी साहित्य से दूर रख कर पूरा करना शुरू किया।
अंग्रेजी पत्रों की सुन्दर छपाई से लेकर बड़े प्रकाशन कम्पनिओं ने बेकार की तुकबंदियों को सुंदरता से प्रस्तुत किया “जानी-जानी येस पापा, ”लोकप्रिय होने लगे और अंगरेज़ी प्रकाशकों ने खूब दौलत बटोरी, हिंदी मटियामेट होती गयी।
आलोचना इस बात की भी हुई की हिंदी काव्य मात्रे में नहीं है, जबकि शायरी लयबद्ध है।बात इतनी ही है की शायरी को गीतों और फिल्मों के हिसाब से लिखा गया, और हिंदी कविताओं में दार्शनिक भाव प्रधान रहा।
“साँप !तुम सभ्य तो हुए नहीं,
नगर में बसना, भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना--विष कहाँ पाया?” –
‘अज्ञेय’
अज्ञेय की इन पंक्तियों पर कई दिनों तक सूत्रात्मक व्याख्यान दिए जा सकते हैं पर फिल्मों या गज़लों के लिए अनुपयुक्त हैं अतः कोर्स से आबद्ध पाठकों तक ही इनकी परिधि है और उच्च-शिक्षा में हिंदी को पढ़ने वाले हैं ही कितने ?
कईओं ने इसे रहस्यवादी शैली के रचना के स्थान पर रहस्यमय या तिलिस्मी बता डाला।अर्थात, कोर्स के आगे इनकी पूछ कम है। तो प्रकाशक भी इन्हें उसी अनुपात में छापते और थोड़ा –बहुत मुआवजा राशि दे देते हैं।
“ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते,
सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते
-अकबर इलाहाबादी, ”
यह लयबद्ध है और ग़ज़लों तथा महफिलों में गाई जा सकती है, तो उर्दू के बाद हिंदी में भी प्रकाशक बड़े आराम से बेच लेते हैं। अंग्रेजी दरबारों से निकल कर आम आदमी तक पहुँच चुकी है, तो बड़े ‘गोड आफ स्माल थिंग’ और ‘सिडनी स्लेडों’ और बच्चे ‘हैरी –पॉटर’ की प्रितियों में ‘स्टेटस-सिम्बोल’ की तलाश करते हैं।पांच साल के बच्चों को खाक समझ आता होगा ‘हैरी –पॉटर’ पर हरेक नए संपादन के लिए मारा –मारी है, स्टाल पर सुरक्षा कर्मियों को तैनात किया जाता है।
काव्य के लिए शेक्सपीयर को दिनकर से ऊपर माना जाता है, फैशन जो है !रुश्दी और तस्लीमा जी की विवादास्पद रचनाओं को शो –केसों में सज्जा के लिए कईओं ने खरीदा।
ज्ञानपीठ जीतने के बाद भी कई पाठक राग –दरबारी जैसी कालजयी रचना को खरीदना पसंद नहीं करेंगे, क्योकि उसे बुकर –पुरस्कार नहीं मिला, बुकर अंग्रेज़ी साहित्य पर दिया जाने वाला पुरस्कार है, पर कुछ लोगों से यह सुनने को मिला की राग –दरबारी ठीक ही होगी पर हिंदी वाले बुकर तक तो जीत नहीं पाते !
कुछ कवि सम्मेलनों से और साहित्य गोष्ठियों आशा थी , मुझे शुरू –शुरू में ऐसा प्रतीत हुआ जब मंच पूरा भरा हुआ था, पर हास्य रस पर आकार बात समाप्त हो जाती है अथवा पाकिस्तान को उसकी औकात बता कर।निराला जी, मुक्तिबोध, महादेवी जी की शैली तो कोसों दूर छोड़ गए हम।
एक कवि सम्मेलन में ‘कुमार विश्वास जी’ प्रस्तोता के रूप में श्रोताओं का हास्य मनोरंजन कर रहे थे और तालियाँ बज रही थीं, पर अंत में जैसे ही उनके स्वयं के काव्य पाठ की बारी आयी, अधिकतर लोग पार्किंग स्पेस से गाडियों को निकालने में व्यस्त हो गए।कविओं को कामेडी –सर्कस के कलाकारों के रूप में देखना पसंद करते हैं लोग !
हाँ, उर्दू मुशायरों में भीड़ उमडती है, प्यार –मोहब्बत की शायरी सरस और सुगम है, श्रोताओं के लिए धूमिल और निराला के बिंबों से जूझना नहीं पड़ा।
हिंदी में दो –चार कवियों या साहित्यकारों के नाम की याद नहीं आती जिनको सरकार ने प्रोत्साहित किया हो, दिनकर जी को राज्य –सभा तक जगह मिली, ज्ञानपीठ और साहित्य –अकादमी पुरस्कारों की राशि इनती कम है की अपनी रचना पर जीवन अर्पित करने वाले साहित्यकार को अपना स्वयं का पेट पालना मुश्किल हो।
तो हिंदी में सरस्वती –पुत्रों के जन्म पर शोक मनाया जाये या उल्लास, थोड़ा सोचिए ......, और पुत्र के बिना माता का क्या काम ?, कहीं पुत्रों के शोक में माँ सरस्वती भी अचेत तो नहीं हो चुकीं, थोड़ा ध्यान से देखियेगा प्रतिमाओं को, टटोलिए गा उनके नब्ज़ो को विसर्जित करने से पहले !