दम भर अदम पर / दिसम्बर-जून2012 / कल के लिये
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निवेदक : दयानंद पांडेय
दम भर अदम पर ! यह काम कोई शुद्ध संपादक ही कर सकता था। कोई रैकेटियर संपादक नहीं। मोटी-मोटी पत्रिकाएं छापने वाले रैकेटियर संपादकों के वश का यह है भी नहीं कि वो दबे-कुचले लोगों की आवाज़ को आवाज़ देने वाले अदम गोंडवी पर इतना बढिया विशेषांक, इतनी जल्दी निकालने का नखरा उठाते।
बहराइच जैसी छोटी सी जगह से यह काम कर दिखाया है डा. जय नारायण ने। कल के लिए का ७५ वां अंक अदम गोंडवी स्मृति अंक है। मैनेजर पांडेय, विजय बहादुर सिंह, राजेश जोशी आदि के विमर्श तो हैं ही, विजय बहादुर सिंह की अदम से बात-चीत भी महत्वपूर्ण है।
तमाम लोगों के संस्मरण, परिचर्चा,लेख, विमर्श आदि अदम गोंडवी की ज़िंदगी और उन की शायरी का एक नया ही मेयार रचते हुए एक नई ही दृष्टि और एक नई ही रहगुज़र से हमें गुज़ारते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी, निदा फ़ाज़ली, गिरिराज कराडू, आलोक धन्वा, पुरुषोत्तम अग्रवाल, शिवमूर्ति, संजीव, अनामिका, प्रमिला बुधवार, उमेश चौहान, बुद्धिनाथ मिश्र, नवीन जोशी, अल्पना मिश्र, आदियोग, श्याम अंकुरम, ओम निश्चल, अटल तिवारी आदि के लेखों, टिप्पणियों आदि से भरा-पुरा कल के लिए का यह अंक बेहद पठनीय और संग्रहणीय भी है। हवा-हवाई फ़तवों से बहुत दूर-दूर है और कि अदम की शायरी की पगडंडी पर हमें बडी बेकली से ले जाता है।
डा. जय नारायण की संपादकीय भी उतनी ही सहज-सरल और पारदर्शी है, जितनी अदम की शायरी और ज़िंदगी। संपादकीय में कोई बिब-व्यंजना या लफ़्फ़ाज़ी, फ़तवा आदि भी नहीं है। १०० पृष्ठों वाली इस पत्रिका में अदम पर डा. जय नारायण की एक गज़ल भी है इस अंक में। जिस का आखिरी शेर यहां मौजू है :
एक नश्तर की तरह दिल में उतर जाती हैं,
फ़र्ज़े-ज़र्राह निभाती हैं अदम की गज़लें।
सचमुच बाकमाल अंक है अदम पर कल के लिए का।