दरवाजा खोलो और बैठो / पद्मजा शर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दरवाजा खोलो और बैठो

'वह मिलने आई है' जैसे ही वह सुनता है, जल्दी से कपड़े बदलता है। अन्यथा कोई कहे तो भी अनसुनी करते हुए कहता है-'बिठा दो बैठक में। कोई आया है तो क्या सिर पर बिठाना है?'

हवा की-सी तेजी से उससे मिलने जाता है। अन्यथा वह हर किसी को इन्तजार करवाता है। यूं ही फोन पर बात करता रहेगा। अखबार चाटता रहेगा।

उसकी हर बात पर हंसता है। अन्यथा कब हंसता है? किसी को हंसता देखकर कहता है 'हमें तो हँसे हुए अरसा हुआ। पता नहीं लोगों को इस कठिन समय में कैसे हंसी आ जाती है।'

ठण्ड में उसे छोडऩे, बाहर तक नंगे पाँव जाता है। अन्यथा कोई जाए तो बैठक से ही विदा करता है। भीतर कमरे में आकर बैठ जाता है। कहें कि कम से कम छोडऩे दरवाजे तक तो जाते, तो कहता है 'चलता है' या कहेगा 'ठण्ड कितनी है।' या कि 'धूप कितनी है।' या कि 'ज़रूरी फोन करना है' या कि 'भूख लगी है।'

उसकी गाड़ी का दरवाजा खोलने के लिए तत्पर रहता है। अन्यथा अपने पिता तक को गाड़ी के पास खड़े देखकर गुस्से में कहता है 'दरवाजा खोलो और जल्दी बैठो'।

मैं बोलूँ तो कहता है चुप रहो। वह बोलती है तो कहता है, 'और कहो'। उसके आसपास यूं मंडराता है जैसे भंवरा खिलते फूल के पास।

मैं दर्द से कराहती हूँ तो कहता है 'नाटक नहीं, काम करो' , वह ज़रा उफ भी करती है तो उसके पास बैठता है पहरों। कहता है 'आराम करो'। डॉक्टर, दवा पानी लेकर उसके आसपास डोलता है।

मैं हंसती हूँ तो कहता है 'दांत निकाल रही है।' वह हंसती है तो कहता है 'तुम हंसती हुई सुन्दर लग रही हो। तुम्हारी हंसी जैसे कलियाँ चटख रही हों।'

मैं चलती हूँ तो कहता है 'धरती हिल रही है। जैसे किनारे तोड़ती नदी और आंधी एक साथ चल रही हैं।' वह चलती है तो कहता है 'प्रकृति से जैसे प्रकृति मिल रही है। हवा और नदी मंथर गति से एक साथ बह रही हैं।'

उसे एस एम एस करता है दिन में दो बार। सब से कहता है मुझे मोबाइल ऑपरेट करना सिखाओ यार।

मेरे हाथ का खाना बेस्वाद लगता है और तो और मेरे हाथ का गुड़ तक भी उसे फीका लगता है।

क्या यह कोई बीमारी है? और हाँ, तो क्या इसका कोई इलाज है? और अगर यह बीमारी नहीं है तो क्या है?