दराबा की समीक्षा / उमाशंकर सिंह
--उमाशंकर सिंह
हिन्दी साहित्य में कई अहम कृतियों का रचनाओं की भीड़ में दब जाना और साहित्य की पेचीदी गलियों की भूलभुलैयों में खो जाना कोई नई बात नहीं है। इसका सबसे निर्मम उदाहरण 'मैला आंचल' रहा है। गर नलिनविलोचन शर्मा ने रेणु की मैला आँचल का पुनर्संधान न किया होता तो शायद हम सब रेणु और मेरीगंज की आबोहवा से अनभिज्ञ ही रहते। इधर तो उन्हीं लेखकों की कृति चर्चा पाती है जो या तो किसी होल टाइमर हिन्दी लेखक ने लिखी हो या किसी अधिकारी आदि की हो। होलटाइमर लेखक का मतलब यहाँ मसिजीवियों से नहीं ;वे तो हिन्दी में हैं ही नहीं, उन लेखकों से है जो साहित्य के संतरी से लेकर मंत्री तक को जानते हैं और अपनी पोजीशन भी साहित्य में संतरी से मंत्री के बीच क्षमता और सुविधानुसार बना चुके हैं। अच्छी कृतियां कई बार इस कदर पिसती हैं कि उनका कोई नामलेवा नहीं बचता। हिन्दी साहित्य अपने मिजाज और स्वभाव से भले ही बाजारवाद और जनसंपर्क अभियानों का विरोधी हो, पर हिन्दी साहित्य में इनकी प्रैक्टिस धड़ल्ले से चल रही है। यह अलग बात है कि पद, पैसे और प्रभाव के बल पर जिन लेखकों और उनकी रचनाओं की दुदुंभी बजाई जा रही है उसकी आवाज एक छोटे वक्पफे में ही दम तोड़ देने वाली है। पर इस घटाटोप में अच्छी रचनाओं का दब जाना एक बड़ी समस्या तो है ही।
पत्रकार और फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे के उपन्यास 'दराबा' की अपेक्षित चर्चा नहीं हो पाने को कुछ इसी तरह समझा जा सकता है। दराबा के केंद्र में है मध्य प्रदेश का एक छोटा सा कस्बा- बुरहानपुर। हर शहर में एक पुराना शहर होता है। बुरहानपुर में भी अब एक पुराना बुरहानपुर हो गया है। वैसे ही जैसे दिल्ली में नई और पुरानी दिल्ली हो गई है। हिंदुस्तान में इंडिया और भारत हो गया है। 'दराबा' हिंदुस्तानी समाज में रोज-ब-रोज हो रहे दिनों और दिलों के इस पार्टीशन की भी कहानी है। इस विभाजन की धमक अखबार के पन्नों पर नहीं दिखती। पफेल मॉडलें जो न्यूज चैनलों की एंकर बन गईं, की जुबान पर तैर कर खबर नहीं बनती। ऐसे में लेखकों का यह गहरा दायित्व बनता है कि दिलो-दिमाग के इस पार्टीशन को दर्ज करें। चौकसे ने सफलतापूर्वक यह किया है। इस उपन्यास में शिल्प का कोई अभिनव प्रयोग नहीं है। न ही किसी अधुनातन कथा टेक्नीक का सहारा लिया गया है। कला के स्तर पर देखें तो उपन्यास उल्लेखनीय नहीं लग सकता। पर यहाँ रद्घुवीर सहाय याद आते हैं-
'जहाँ बहुत ज्यादा कला होगी, वहाँ परिवर्तन नहीं होगा।'
सटीक कथ्य और उसका सहज बयान इस उपन्यास की खूबी है और खामी भी। इस खूबी की वजह से कथ्य एक जहाँ सहज ग्राह्य है वहीं दूसरी ओर समय-समाज के जटिल यथार्थ यहाँ थोड़े सरलीकरण के साथ आए हैं।
'सिमटे तो दिले-आशिक, फैले तो जमाना है' की तर्ज पर इस उपन्यास के कथानक को आप सिमटाकर बुरहानपुर तक महदूद कर सकते हैं और फैलाकार समूचे हिंदुस्तान को इसमें समेट सकते हैं। उपन्यास का शीर्षक 'दराबा' दरअसल एक मिठाई का नाम है जो आत्माराम हलवाई के दत्तक बेटे महेश ने दुर्घटना या ये कहें कि अनजाने में बना दी थी। पर यह दराबा कालांतर में बुरहानपुर की पहचान तो बनता ही है इस उपन्यास का एक चरित्रा भी बन जाता है। दराबा रवा, मैदा, द्घी शक्कर आदि के बेमेल संयोजन से बना था। वैसे ही जैसे हिंदुस्तान विभिन्न जातियों, धर्मों, संस्कृतियों के बेमेल मेल से बनी है।
समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे ने भी संस्कृति में 'मिश्रण' का महत्व बताया है। बुरहानपुर वैसे ही समूचे हिंदुस्तान का रूपक लगने लगता जैसे मैला आंचल का मेरीगंज और राग दरबारी का शिवपालगंज। चौकसे साहब की जितनी उम्र है कमोबेश उतनी कालखंड का पानी इस उपन्यास में बहता है। आजादी से करीब एक दशक पहले से शुरू होकर यह उपन्यास बाबरी मस्जिद विध्वंस के अगले दिन के अंधेरे तक को अपने में समेटे हुए है। १९९१ में नई आर्थिक नीति आई और १९९२ में संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की जयंती के दिन छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। पर ये दोनों द्घटनाएँ एक दिन में नहीं हुईं। जाति और धर्म की राजनीति पहले ही परवान चढ़ चुकी थी। राजनीति का अपराधीकरण ही नहीं हुआ था, पोलीटिक्स में पैसा भी घुस चुका था। मार्क्सवादी पार्टियां बंगाल, केरल और त्रिापुरा को अपना देश मान बैठ गए थे। बाकी बचे हुए थोड़ा बहुत जंगलों को आबाद कर रहे थे। संजय गाँधी ने मध्य वर्ग को ललचाते हुए मारुति कार का प्रादुर्भाव कर दिया था। ये सभी बड़ी द्घटनाएँ उपन्यास के कथानक में प्रतीक रूप में द्घटती दिखती हैं। नहीं भी द्घटती हैं तो पृष्ठभूमि में बजती हुई लगती हैं।
उपन्यास में एक व्यापारी परिवार पर फोकस किया गया है जो मूलतः हलवाई है। इस हलवाई परिवार के बालक महेश ने दराबा नामक नई मिठाई को जन्म दिया था। इस दुकान का नाम महेश एंड संस था। कालांतर में महेश एंड संस की विभिन्न शाखाएँ-प्रशाखाएँ विकसित हुई जो बदल रहे समाज की विभिन्न गलियों में ले जाती हैं।
चौकसे ने उपन्यास की भूमिका में ठीक ही लिखा है-
'दराबा सत्य है। बुरहानपुर संपूर्ण सत्य है और एक मिठाई की दुकान की कहानी कहते समय समाज में आए परिवर्तन भी सच हैं। केले के पत्ते पर मिठाई परोसने से लेकर जर्मन सिल्वर, स्टेनलेस स्टील और पोर्सलीन तक के परोसने के बर्तन समाज के परिवर्तन को ही प्रस्तुत करते हैं।'
दलाल भारतीय राज और समाज व्यवस्था के चक्के को चलाने में ग्रीस का काम करते रहे हैं। पुरोहित वर्ग तो भगवान और भक्त के बीच का सनातन दलाल है। भारत में दलाल वर्ग आजादी से पहले भी था लेकिन आजादी के बाद मध्यवर्ग के उदय के साथ यह दलाल वर्ग कहीं ज्यादा व्यापक और शक्तिशाली हो गया। आजाद भारत में दलाल वर्ग के इस वैधानिक विकास की प्रक्रिया को यह उपन्यास अच्छे से समझाती है।
उपन्यास के बीच-बीच में लेखक की कथा से इतर, मगर कथानक से जुड़ी टिप्पणियाँ हैं। कुछ पाठकों को ये टिप्पणियाँ अखर सकती हैं। मगर ये उदय प्रकाश के उपन्यास-कहानियों में आने वाली टिप्पणियों की तरह न ही अखबारी हैं और न ही पाठकों पर बेतुकी आतंक जमाना चाहती हैं। ये टिप्पण्यिाँ घटनाओं के दरवाजों पर लगे विचार के तालों की कुंजी की तरह हैं जो पाठकों पर कोई रौब गालिब नहीं करती, उसकी मदद करती है। इसलिए ये दाल के कंकड़ की तरह नहीं अखरती, बल्कि नमक की तरह घुलकर स्वाद देती है।
उपन्यासकार स्त्रीवादी होने का दावा नहीं कर रहे, लेकिन काफी सहज रूप से वे दुर्घटनाओ के क्रम में इतनी बड़ी-बड़ी बात कह जाते हैं जितना क्या तो कोई स्त्रीवादी कहेंगी। आप खुद ही देख लीजिये-
'कल्लू खां ने बेटे पर उतारा जाने वाला गुस्सा अपनी बीवी पर उतार दिया। बेचारी बीवियों की किस्मत ही यह है कि उन्हें कभी बिस्तर बनना पड़ता है तो कभी तहमद। कभी तौलिया तो कभी पीकदान या वीर्य का मर्तबान।'
शहर से थोड़ी दूर बसे कोठे, कोठे और शेष, शहर की आपसी कहानी भी उपन्यास में समानांतर चल रही है। उपन्यास का यह हिस्सा इतने महत्वपूर्ण ढंग से बयां करता है कि वेश्यावृति को कानूनी दर्जा दिए जाने-ना दिए जाने की पूरी बहस जेहन में तैर जाती है। उपन्यास के अंत में प्रौढ़ बाई अन्नू की मौत हो गई है। मौत वाले दिन पहली बार अन्नू ने किसी ग्राहक को लौटाया है। अन्नू अपने ग्राहकों से जो जितना दे दे उतना इस अंदाज में लेती है जैसे कोई परोपकारी डॉक्टर अपने मरीजों से उसकी क्षमता के अनुरूप ही पफीस लेता हो। अन्नू की उस बस्ती में लोकप्रियता भी किसी परोपकारी डॉक्टर जैसी ही है। इतनी ज्यादा कि उसके मरने पर समान रूप से बस्ती के हिंदू-मुस्लिम उसकी आखिरी यात्राा के लिए उस बदनाम बस्ती में दिन दहाड़े आए हैं जहाँ वे रात के अंधेरे में साए की तरह आते थे। उस मुहल्ले का एक हिंदू पनवाड़ी हिंदू रीतिरिवाजों से अन्नू के दाह संस्कार की मांग करता है। उसका तर्क है चूंकि उसका नाम अन्नू है तो वह हिंदू हुई। पर यह नाम किसी ग्राहक का दिया हुआ था। असली नाम तो उसका किसी को नहीं मालूम। जब वह यहाँ आई थी तो मुन्नी थी जो हिंदू-मुस्लिम दोनों का नाम है। बाद में किसी अज्ञात कुलशील ग्राहक ने उसे अन्नू का नाम दिया और वह अन्नू हो गई। कोठे में चूंकि ज्यादातर मुसलमान बाइयां हैं इस तर्क पर कोठे की सुरक्षा के लिए तैनात खब्बू पहलवान उसे मुस्लिम मानता है और मुस्लिम तौर-तरीके से उसे सुपूर्दे खाक करने की मांग करता है। पूरा शहर दो हिस्सों में बंट गया। लाठी-भाले और हथियार निकल गए। बाबरी मस्जिद विध्वंस के कारण पूरा शहर वैसे ही तनवाग्रस्त है। स्थिति पुलिस के वश से भी बाहर हो जाती है। जैसा कि लेखक कहते हैं
'मजहब का नशा सबसे सस्ता, सबसे टिकाऊ और सबसे खतरनाक होता है।'
वह नशा बस्ती के लोगों पर तारी हो गया। अब अन्नू कबीर तो थी नहीं कि उसका पार्थिव शरीर पफूल बन जाता और हिंदू-मुसलमान आपस में बांटकर खुश हो जाते। दंगे की स्थिति पैदा होने लगी। ऐसे में कोठे की बुजुर्ग बाई नवाबजान नुमायां होती हैं और कहती हैं कि अन्नू ने अपने किसी ग्राहक की कभी जाति-धर्म नहीं पूछी थी। अब आप लोग क्यों उसका मिट्टी खराब करने पर तुले हुए हो। अंततः हिंदू रिवाजों के मुताबिक उसकी अर्थी निकली और आगे जाकर जनाजे मे तब्दील हो गई। पर सांप्रदायिक दंगों को जब भारतीय संविधान की शपथ लेकर चल रही सरकारें नहीं रोक पाई तो बेचारी बूढ़ी नवाबजान क्या रोक पातीं? सो हिंदुस्तान की तरह बुरहानपुर में भी दंगा होता है और एक कभी न मिटने वाला विभाजन कर जाता है। इस तरह दराबा नामक मिठाई जो शुरू में अपनी किस्सागोई और गंगा जमुनी तहजीब की वजह से मीठा था अंत तक कड़वा और कसैला हो गया। भारतीय समाज के उत्तरोत्तर पतन की यह महागाथा कई उपकथाओं और भिन्न जीवनानुभवों से प्रमाणिक बन पड़ी है। असल में लेखक जयप्रकाश चौकसे को मानव व्यवहारों की गहरी समझ है। उनके जीवन में भी कापफी विविधता और गहराई रही है। उनके व्यापक जीवन-अनुभव पन्ने दर पन्ने उपन्यास को रोचक और प्रमाणिक बनाते हैं। इस वजह से उनका यह दावा कि उपन्यास काल्पनिक है पाठकों के गले नहीं उतरता। सही भी है कि आखिर पाठक क्यों उपन्यासकार की हर बात मानें।
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