दरिया का पानी -सी कविताएँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'

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हर एक व्यक्ति का अपना शब्दकोश होता है, जो उसके चेतन और अवचेतन मन का कहीं न कहीं हिस्सा बना हुआ होता है। मन में जो विचार आया, प्रकट कर दिया। भाव का कोई दबाव नहीं, तो भाषा का भी कोई दबाव नहीं। कोई आत्मानुभूति नहीं। जो अचानक सूझा, व्यक्त कर दिया। इस तरह का लेखन सर्जन बनने से रह जाता है।

सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आनन्द-व्यथा जब और जितना ऊर्ध्वमुखी होंगे, भाषा की त्वरा उतनी ही तीव्र होगी। साधारण शब्द भी भाव से जुड़कर निखर जाएँगे, ठीक उसी तरह जैसे कुंद धार वाला चाकू शाण पर धार देने से तेज़ हो जाता है। सही सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द मार्मिक भाव का संस्पर्श पाकर स्वतः आवेशित हो जाता है। छन्द या मात्राओं की गणना तक स्वयं को सीमित करने वाले, न कभी सर्जन-सुख अनुभव कर सकते हैं, न रसज्ञ को आनन्दानुभूति करा सकते हैं। भावों की गहनता से उद्वेलित होकर, संयमित भाषा के प्रयोग से अच्छा कवि अपनी भाव-सम्पदा को व्यापक रूप देकर व्यष्टि को समष्टि में बदल सकता है।

किसी भी रचना के नेपथ्य में सर्जक का जीवन-अनुभव, आत्मसंघर्ष, उसका परिवेश, उसकी मनःस्थिति एक साथ काम करते हैं। इनको अलग-अलग खण्डों में नहीं बाँटा जा सकता। भाषा भी इन्हीं का अनुगमन करती है। यही कारण है कि सहज भाव से लिखी रचनाओं में कुछ ऐसा अद्भुत भी लिखा जा सकता है, जिससे रचनाकार भी रोमांचित हो सकता है, अरे यह मैंने कैसे लिख लिया! जो गढ़ता है, रचता नहीं, उसे सृजन-सुख की अनुभूति नहीं होती। उसे केवल यही लगता है कि एक काम पूरा हुआ, पिण्ड छूटा। आत्म-मंथन और भावों की सान्द्रता से जो काव्य प्रस्फुटित होगा, उसका प्रभाव पाठक को उद्वेलित करेगा। सही कहा जाए, तो अच्छा काव्य वह है, जो रचनाकार और पाठक के बीच की दूरी कम कर सके. कवि और पाठक की फ्रीक्वेंसी जितनी अलग-अलग होगी, रचना की ग्राह्यता उतनी ही कम होगी। रश्मि शर्मा का काव्य-संग्रह 'वक़्त की अलगनी पर' सवेदनागत धरातल पर आज के बहुत से कवियों से अलग है। स्वत: स्फूर्त होने से एक अलग स्पर्श है, काव्य में एक अलग भाव-सुगन्ध है। इनकी सभी कविताएँ अछूते एव ताज़गी भरे भावों की सम्पदा हैं, अंत: उनमें से कुछ ही कविताओं का ही उल्लेख करूँगा।

इनकी 'वो नहीं भूलती' कविता को ही लें, तो भाव की अलग-अलग धारा-अन्तर्धारा का प्रवाह सामने आता है। यहाँ अमीर-गरीब या राजा-रंक की बात नहीं, मन के घाव किसी को भी व्यथित कर सकते हैं। इस व्यथा में सब कुछ भुलाया जा सकता है, पर दर्द नहीं। चाय में चीनी डालना, अपनी हीरे की महँगी अँगूठी भूल जाती है, मगर मन के घाव किसी भी तरह नहीं भूलती। ये घाव उसे सबसे अधिक व्यथित करते हैं। समय के प्रवाह में उसका सहज जीवन कहीं पीछे छूट गया–

इन दिनों वह भूल गई है / बरसात में भीगना

तितलियों के पीछे भागना / काले मेघों से बतियाना और / पंछियों की मीठी बोली

यह उसका प्रकृत रूप था, जिसे वह भूल गई. आपाधापी के इस युग में सब कुछ पाकर भी हम फ़ुर्सत के अपने दो पल खो चुके हैं। यह हमारी संवेदनाओं का सूख जाना ही तो है। इसका प्रभाव बहुत दूरगामी है, फिर भी-

मगर वह नहीं भूली / एक पल भी / वो बातें, / जो उसने की थी उससे / प्रेम में डूबकर

'पास कोई नहीं'-ऊबे हुए मन को एकांत चाहिए, लेकिन एकांत से भी जब मन ऊब जाए, उस समय अलग मन: स्थिति होती है। उस पल कोई सँभालने वाला होना चाहिए; किन्तु जिस समय ज़रूरत हो, तो तब कोई भी पास नहीं होता-

दुनिया अपने मन के जैसी / नहीं होती / आपको दुनिया के साथ-साथ / ख़ुद से भी लड़ना होता है;

क्योंकि / ज़रूरत के वक़्त आप / कभी किसी को पास नहीं पाएँगे।

'शाम नहीं बदलती कभी' वह मन: स्थिति है, जब व्यक्ति दिन भर की थकान से चूर-चूर होता है। यह थकान या ऊब तन से ज़्यादा, मन की होती है। प्रेम की एकनिष्ठता एकदम इतनी निजी होती है कि यह किसी को नहीं सौंपी जा सकती, किसी से साझा नहीं की जा सकती। इंतज़ार कभी ख़त्म नहीं होता, लेकिन उसका अंत क्या हुआ? यह बेधक प्रश्न हर प्रेम-समर्पित मन की व्यथा का उद्गीत बन जाता है-

न तुम लौटे / न कोई आ पाया जीवन में / तुम्हारे नाम सौंपी गई शाम पर /

किसी और का नाम / कभी लिख नहीं पाई / ; क्योंकि / कुछ के रास्ते बदल जाते हैं, कुछ की मंज़िलें

जितने भी सांसारिक सम्बन्ध हैं, उन सबकी नियति एक जैसी होती है, प्रेम को मोती की तरह पिरोना और ऊब होने पर कुम्हार का धागा बनकर समय के चाक से सम्बन्धों को सिरे से काटकर अलग कर देना-

धागा / , जो प्रेम का होता है, जो / मोती पिरोता है धागा, /

धागा, / प्रेम का हो या कुम्हार का / जोड़ता ही नहीं तोड़ता भी है।

वैचारिक वैषम्य और असामजस्य अन्तत: दु: ख का कारण बनता है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में की गई चूक सदा दाहक बन जाती है। रश्मि शर्मा ने प्रतीक रूप में 'गलत ईंट' कविता के माध्यम से विचार-वैषम्य को प्रस्तुत किया है-

दर्द / इतना हल्‍का भी नहीं / कि / शब्‍दों के गले लग / रो लें

XX

स्‍वीकारा मैंने। एक सूत बराबर थी / खाई / जोड़ने के बजाय / दो ईंट तुमने हटाईं / दो मैंने खिसकाई.

यहीं से सम्बन्धों की दरार बढ़ने लगती है।

'क्‍या करें हम!' सहज संवेदना की कविता है, जो बाह्य वातावरण से सामंजस्य बिठाने का प्रयास है। इसमें 'डाकिया' शब्द का प्रयोग नया होने के साथ-साथ अर्थ अभिव्यंजक भी है। 'डाकिया' शब्द के साथ पुकारने का भाव भी साथ चला आता है।

डाकिया बन बूँदें / पहुँचाती है यादों के ख़त / ऐसे में किवाड़ न खोलें / तो और क्या करें हम

जब कोई पुकारेगा तो मन-कपाट तो खोलने ही पड़ेंगे।

'यूँ भी होता है' कविता गहन अन्तर्द्वन्द्व की कविता है। जिस पर राई-रत्ती भी भरोसा नहीं, उसकी परेशानियों से दु: खी होना क्या है? यह अनुराग का वह सूक्ष्म तन्तु है, जिसको चाहकर भी नहीं तोड़ा जा सकता है, उसे भूलना भी मुश्किल-

एक दिन भी उसको / याद नहीं करना चाहती / मगर एक पल ऐसा नहीं बीतता

जो उसकी याद के साये में न गुज़रे /

जिसके प्रति 'दिल में जो हो प्यार तो नहीं है' लेकिन उससे दूर रह्नना भी मुश्किल-

उलझी हूँ उसके संग ऐसे / जैसे उलझा हो ऊन का गोला / रब ने एक स्वेटर-सा बुन दिया हमें

बने रहे साथ, उधड़े तो साथ-साथ / बचेगा बस टुकड़ा-टुकड़ा

सामाजिक सरोकार की बात करें तो समाज को दायित्व के अनुसार ही वर्गीकृत करना चाहिए, न कि स्त्री-पुरुष के रूप में बाँटना उचित है। 'पिता' कविता की भावभूमि और उसकी व्यापकता पाठक को बहुत गहरे तक आन्दोलित करती है। इस कविता में पिता की अनुपस्थिति और विपर्यय की उपस्थिति कवयित्री के गहन मंथन को हृदय पर भित्ति-चित्र की तरह उकेर देती है। पिता लोरियों में, कौर-कौर भोजन में नहीं होते। तब वे कहाँ होते हैं-

आधी रात को नींद में डूबे बच्‍चों के / सर पर मीठी थपकि‍यों में

पि‍ता जुटे होते हैं / थाली के व्‍यंजनों की जुगाड़ में

पि‍ता कि‍स्‍से नहीं सुनाते, तानाशाह लगते हैं, छद्म आवरण ओढ़कर नारि‍यल से कठोर दिखते हैं, पर दरअसल वटवृक्ष की तरह विशाल होते हैं, सारी नादानि‍यों को माफ़ करके आसमान बन जाते हैं। पिता की कठोरता बेटी की बिदाई के समय हिमशैल-सी गल जाती है। उस समय पिता की मन: स्थिति का मार्मिक बिम्ब प्रमाता के ह्रदय को द्रवित किए बिना नहीं रहता-

मगर बेटी की वि‍दाई के वक्‍त / उसे बाहों में भर / कतरा-कतरा पि‍‍‍‍घल जाते हैं पि‍ता

फूट-फूट कर रोते हुए / आँखों से समंदर बहा देते हैं पि‍‍‍‍ता

'नहीं भूल पाती माँ' कविता न होकर माँ का सम्पूर्ण शब्दचित्र है। बच्चों और पौधों को नहलाना, अमरूद तोड़ते समय बच्ची बन जाना, यह माँ का पोषण के साथ-साथ आत्मीयता वाला रूप है। बेटी के रोम-रोम में माँ का प्यार इस तरह घुल गया है कि वह माँ के किसी भी रूप को विस्मृत नहीं कर पाती-

वि‍दा कर दिया अपने ही घर से मुझको / पर बचपन अपना कभी नहीं भूल पाती माँ।

'प्रेम' संसार की ऐसी अनुभूति है कि इस पर जितना भी काव्य रचा जाए कम है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो प्रेम मनुष्य होने की एकमात्र पहचान है। यहाँ शब्द केवल साधन हैं। भावानुभूति की गहनता शब्द सामर्थ्य से परे की बात है। ऐसा ही कुछ भाव है इनकी 'मृगी' कविता में। यहाँ केवल भाव ही नहीं 'भाव-संस्कार' तक पैठ होनी चाहिए. इन पंक्तियों में प्रेम की तलाश और पाने की व्याकुलता की गहनता देखी जा सकती है-

मैं मृगी / कस्‍तूरी-सी / देहगंध तुम्‍हारी / ढूँढती फि‍रती / दसों दि‍शाएँ

आकर्षण और उद्दाम आवेग को जीवंत आकार देती ये पंक्तियाँ कवयित्री की भाषा के आवेश से अनुप्राणित हो जाती हैं। सपनों में आलिंगनबद्ध होना, अपने ही तन से सुगंध फूटना उत्कट प्रेम का प्रमाण है–

जब ख्‍वाबों में / होते आलिंगनबद्ध / फूटती है सुगंध / अपने ही / तन से

इस सबका सार है प्रेमी युगल का एकाकार होना सौन्दर्य का और आकर्षण की तन्मयता और अनुपूरकता-

मैं मृगनयनी / तुम कस्‍तूरी / जीवन में तुमसे ही / है सारा सुवास

'पटरि‍यों-सी ज़िन्दगी' कविता में यान्त्रिकता और सुख-वैभव से उपजी ऊब है। तलाश है एकांत की, तुलसी के बिरवे की, जो उस मिट्टी के घर की आस्था का प्रतीक है। जिसको रश्मि शर्मा ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है–

वहाँ / दूर पहाड़ के नीचे / ठीक / बादलों के पीछे / एक हरि‍याला गाँव है XX

मिट्टी के घर के / आँगन में / तुलसी का एक बि‍रवा / लगाना चाहती हूँ / संग तुम्‍हारे / घर बसाना चाहती हूँ

पहले वाली मोहब्‍ब्‍त,। कपास-सी छुअन, मोहब्‍बत बूँद है, जैसी अनेक भाव-प्रवण कविताओं के साथ 'अवि‍स्‍मरणीय गीत' की इन पंक्तियों का भाव-वैभव देखना ज़रूरी है-

मेरा मौन रुदन था / छलनी दि‍ल से नि‍कलती धुन / जो कहलाया दुनि‍या का सुंदरतम गीत

प्रकृति के प्रति रश्मि शर्मा का आकार्षण कोई फैशन नहीं बल्कि पैशन (passion) है, मनोवेग है, गहन अनुराग है, जो इनके यात्रा-संस्मरणों में देखा जा सकता है।

फि‍र खि‍ला अमलतास, दि‍न बैसाख के, साथी थी गौरैया, फगुआ पैठ गया मन में और कास का जंगल कविताओं में वह अनुराग गहरे से उभरा है

सूनी देहरी को / किसी के आने की है / आस / घर के बाहर / फिर खिला है / अमलतास

मन पलाश का बहके / तन दहके अमलतास का / कर्णफूल के गाछ तले / ताल भरा मधुमास का।

फगुनौटी बौछारों में / पछुवा बनी सहेली जैसी / तन सिहरन पहेली जैसी / और, फगुवा पैठ गया,

लिखने को बहुत है लेकिन भूमिका की सीमा है। यही कहूँगा कि रश्मि शर्मा की ये कविताएँ दरिया का पानी हैं, ह्रदय में निरंतर प्रवहमान, छलछलाती, सहृदय को भिगोती, सहलाती, स्पंदित करती हुई-

मैं दरि‍या का पानी / तू पतवार / आ चूम लूँ तुझको / फि‍र नई / चोट खाने से पहले। (मैं दरि‍या का पानी)

(ब्रैम्पटन (कैनेडा) ,विजया दशमी, 19 अक्तूबर, 2018)