दर्ज़ी / हेमन्त शेष
सद्दाम हम लोगों का बड़ा पुराना दर्जी है, हर छोटी-बड़ी सिलाई के लिए हम उसी की दुकान पर जाते हैं. वह दिन भर अपने काम में मशगूल रहता है, बाकी दर्जियों की तरह दिन भर गुटका नहीं फांकता, न आसपास के दुकानदारों के यहाँ बैठ कर ही-ही ठी-ठी में वक्त ज़ाया करता है, ठीक सवा दस पर “सद्दाम-मैंस-वीयर” खोलता है, शाम आठ बजते ही शटर गिरा देता है, बेनागा, हर जुम्मे, मोहल्ले की ‘इलाही-मस्जिद’ में नमाज़ अदा करने अपने दोनों बेटों के साथ वक्त पर पहुँचता है, कभी अपने ग्राहकों को चक्कर नहीं कटवाता, डिलीवरी का जिस दिन का वादा कर दिया- समझिए पत्थर की लकीर! और सबसे बड़ी बात ये कि दर्जी होते हुए भी सद्दाम ईमानदार है....ग्राहकों के कपड़े की चिंदी तक नहीं खाता! कभी नहीं!!
एक दिन मेरे जन्मदिन पर बीवी ‘कौट्स-वूल’ कमीज़ का बेहद उम्दा कपड़ा ले कर आयी वही, जिसे बेहद महंगा होने की वजह से दो सप्ताह पहले हम दोनों छोड़ आये थे- रेमंड के सेल्समेन से ये शाश्वत बहाना बनाते कि ‘भैया! कपड़ा पसंद नहीं आया...फिर आएँगे’! बहरहाल, मैं बीवी की दरियादिली पर मुग्ध होते हुए कमीज़ की नीले चेक वाली डिज़ाइन पर फ़िदा उसी वक्त “सद्दाम मैंस-वीयर” की तरफ चल पड़ा...पत्नी ने मुझे फाटक पर देखा तो भीतर से चिल्ला कर कहा भी – “अरे! अचानक जा कहाँ रहे हो? तुम्हारी पसंद की उडद की दाल बनाई है...खा कर जाओ ठंडी हो जाएगी....” पर मैंने अनसुना करते हुए स्कूटर की किक लगा दी. .सद्दाम ने कपड़े पर प्यार से दो तीन दफा हाथ फिराया, गौर से कपड़े का मुआयना किया और बोला – “बहुत शानदार कपड़ा है साहब! आप पर इसकी कमीज़ बहुत फबेगी!” बहरहाल, साहब की कमीज़ बनी और खूब बनी, जिसने देखा तारीफ़ की. कइयों ने तो पूछा तक भी कि “कहाँ से लिया ये कपड़ा?”
मैं खुश था कि एक दिन मेरी खुशियों पर तुषारापात हो गया...जब मैंने सद्दाम के सबसे छोटे बेटे को हू-ब-हू मेरी जैसी रेमंड की नीले चेक वाली डिज़ाइन की कमीज़ में देखा!
मुझे लगा सब दर्जी एक से होते हैं. मन ही मन जलते-भुनते मैंने सोचा आखिर सद्दाम भी अपवाद कैसे हो सकता है. पता नहीं किस तरकीब से ये दर्जी लोग कपड़ा बचा लेते हैं.... मैंने बीवी से उसी रात इस बात का ज़िक्र भी किया और हम इसी नतीजे पर पहुंचे कि “कलियुग इसे कहते हैं. हे भगवान... जिसे हम ईमानदार समझते थे वो कैसा निकला....” हमने तय कर लिया कि अब हम कभी सद्दाम से कपड़े नहीं सिलवाएंगे!
संयोग देखिए कि दो सप्ताह बाद जब कपड़े देखने के लिए हम उसी शोरूम पर पहुंचे- सद्दाम वहीं खड़ा था! मुझे उसकी सूरत देख कर बड़ा तैश आया, पर सद्दाम ने जब नम्रता से नमस्ते किया तो बिना मुस्कुराए मैंने अपनी मुंडी थोड़ी सी बस हिला दी- जैसे मैं उसके अभिवादन का अहसान लौटा रहा होऊं. हमने देखा बिलकुल मेरी वाली जैसी रेमंड की नीले चेक वाली डिज़ाइन की कमीज़ का कपड़ा उसके लिए काटता हुआ वही पुराना सेल्समन काउंटर पर था- जो हमें देखते पहचान गया! उल्लास और व्यंग से वह मेरी पत्नी से कह रहा था - “मैडम... आप लोग उस दिन जिस कपड़े को पसंद नहीं कर रहे थे, उसी को दूसरी बार खरीद कर ये भाई सा’ब ले जा रहे हैं!“