दर्द का इलाज़ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'
दर्द आदमी का ऐसा साथी है, जो ताउम्र साथ लगा रहता है। हर प्रकार के दर्द का अपना महत्त्व है। दर्द से आदमी के स्टेटस का पता चलता है। बदहज़मी के कारण अगर दर्द हो गया हो, तो ऐसे दिल का दर्द कहने की आदत, दर्द की हैसियत बढ़ाने के लिए होती है। अगर एक बार हार्ट अटैक हो गया हो, तो सही-सलामत बचे रहने में विशिष्ट गौरव की अनुभूति होती है। ऐसा व्यक्ति अगर दूसरों को दर्द सप्लाई करने का मन बना ले, तो उसे निश्चित रूप से सफलता मिलती है। दूसरों को दर्द से छटपटाते देखकर इनका रक्तसंचार सही रास्ते पर आ जाता है। दवा पर खर्च होने वाले पैसे भी बच जाते हैं।
रचनाकार का दर्द अलग प्रकार का होता है। जब उसकी रचनाएँ सखेद वापस आती हैं, तो संपादकों को मजा चखाने का निश्चय उतना ही दृढ़ हो जाता है। यह दर्द को कार्यान्वित करने में सहायक होता है। उसे उन संपादकांे पर गुस्सा आता है जो रचना वापस करते समय 'सहयोग के लिए धन्यवाद' लिखकर घाव पर और नमक छिड़कते हैं। 'अन्यत्र उपयोग में ला सकें, इसलिए वापस किया जा रहा है' का सुझाव और भी मर्माहत करने वाला होता है। भला कोई इन सम्पादकों से पूछे कि अन्यत्र उपयोग की चिन्ता तुम्हें कब से हो गई। वापस न करके इन्हें रद्दी में बेच देते या जलाकर एक वक्त की चाय बनाने में काम ले सकते थे। श्री करुणेश जी ने संपादकों के व्यवहार से संतप्त होकर एक पत्रिका 'मरण-ज्वर' निकालने का निश्चय किया। रचनाएँ मिल जाने पर करुणेश जी संपादकीय ज्वर से ग्रस्त हो गए।
अब करुणेश जी के पास एक मात्र कार्य था-रचनाओं की चरणबद्ध वापसी। प्रत्येक रचना पर (अलग से नत्थी करके नहीं) अपनी अभ्युक्ति जड़ना शुरू कर दिया। जिस लेखक की रचनाएँ बड़े संपादक ससम्मान छापते थे, उनकी रचना के कोने पर लिखा-'कृपया चुटकुलेबाजी से बचिए। रचना इस शर्त के साथ वापस की जा रही है कि आप इसे अन्यत्र नहीं भेजेंगे। सम्पादक यह रचना वापस करके खेद नहीं वरन् हर्ष का अनुभव कर रहा है।' प्रतिष्ठित लेखक को रचना आने पर हर्ष हुआ। उनकी एक अच्छी रचना बर्बाद होने से बच गई। लेकिन करुणा जगाने वाली कहानी को करुणेश जी चुटकुला समझते हैं, चुटकुले को शायद उपन्यास समझें। यह सोचकर लेखक जी दुखी हुए। 'मरण-ज्वर' के प्रति शोक-संवेदना प्रकट करने के अतिरिक्त और कर भी क्या सकते थे।
एक संपादक की रचनाओं को वापस करते समय टिप्पणी लिखी-'आपको स्मरण होगा कि आपने गत वर्ष मेरी दस रचनाएँ वापस की थीं। मैं भी आपकी रचनाएँ लौटा रहा हूँ। आपकी रचनाएँ कैसी हैं, मैं बताने में असमर्थ हूँ; क्योंकि मैंने रचनाएँ पढ़ीं ही नहीं। मेरा विश्वास है कि इन रचनाओं में सुधार की पर्याप्त गुंजाइश है।' करुणेश जी का दर्द कुछ कम हुआ।
अब 'मरण-ज्वर' कार्यालय बंद है; परंतु कार्यालय के बाहर वाले पीपल पर करुणेश जी का प्रेत गाहे-बगाहे नए लेखकों पर सवार हो जाता है।
श्री निराकार जी का दर्द कुछ अलग प्रकार का है। पाँच साल पहले इन्होंने अफसर बनने की सोची थी। य़़द्यपि सोच पूरी हो नहीं पाई। तो भी ये आधे अफसर बन ही गए। अपने साथियों को अफसर की तरह आदेश देने लगे। अपने अफसर के साथ इनका टकराव जगजाहिर है। एक बार इनके अफसर ने नाराज़ होकर इनसे पूछा-"मि।निराकार, आपके साथ कैसा व्यवहार किया जाए?"
"जैसा एक अफसर दूसरे अफसर के साथ करता है।" निराकार जी ने महाराज पुरु के लहजे में कहा।
"ठीक है, आज के बाद मेरे दफ्तर में पाँव नहीं रखोगे।"
तबसे निराकार जी बाहर चबूतरे पर बैठकर गारियाने लगे हैं। गालियों का धारावाहिक विमोचन करने से इनका कंठ परिमार्जित हो गया है। गले की घरघराहट दूर करने के लिए अब किसी दवाई का सेवन नहीं करना पड़ता।
श्री नयन सुख जी जीवन-भर किराए के मकान में दिन काटते रहे हैं। जीवन के अंतिम दिनों में इन्हें मकान-मालिक बनने का अवसर मिल गया। किराएदारों को सुखी देखकर इनका खून वैसे ही सूखने लगा जैसे जेठ की लू में तालाब का पानी सूखने लगता है। धीरे-धीरे दधीचि ऋषि का रूप धारण करने लगे। जब-जब कोई किराएदार बीमार होता, तब इनके शरीर में नई स्फूर्ति जाग उठती। चेहरे पर लाली झलकने लगती। सुबह-शाम पूजन शुरू हो जाता। इसी से इनको विश्वास होता है कि ईश्वर का अस्तित्व है। अगर ईश्वर न होता, तो किराएदार बीमार क्यों होता। या यों कहिए-किराएदार आपदाग्रस्त होता है, इससे सिद्ध होता है कि ईश्वर कहीं-न-कहीं ज़रूर है। दुर्भाग्य ही कहिए कि इसके किराएदार की तरक्की हो गई है। नयनसुख का विश्वास बँसखट की तरह चरमराने लगा है। चेहरे की रंगत उड़ गई है। अब इन्होंने फतवा जारी कर दिया है कि ईश्वर मर गया है। दर्द और भारी होने लगा है। जब ये मेरी आवाज में देर रात को गुनगुनाने लगे हैं-'हम जी के क्या करेंगे।'