दर्द का रिश्ता हरसिंगार का गीत / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :17 अप्रैल 2018
कुछ फिल्मों का प्रभाव बहुत लंबे समय तक बना रहता है। सिनेमाघर में एग्ज़िट अर्थात निकास द्वार इसीलिए रोशन होता है कि फिल्म के प्रभाव में डूबा दर्शक बाहर के रास्ते तक पहुंच सके। शूजीत सरकार की फिल्म 'अक्टूबर' का प्रभाव भी कुछ एेसा ही है। वह दर्शक को सुन्न कर देती है। ऐसा आभास होता है कि फिल्म की नायिका की शवयात्रा में आप शामिल हैं। 'बदलापुर' की तरह वरुण धवन की यह फिल्म भी उनकी अभिनय क्षमता से हमें परिचित कराती है। नायिका की भूमिका बनीता संधु तथा मां की भूमिका गीतांजलि राव ने अभिनीत की है। फिल्मकार शूजीत सरकार को फिल्म माध्यम का गहरा ज्ञान है और वे अपने कलाकारों से श्रेष्ठ अभिनय कराने में पारंगत हैं। उनकी फिल्म 'कहानी' में ही विद्या बालन ने खुद की क्षमताओं का विस्तार किया था। बनिता संधू फिल्म के अधिकांश हिस्से में कोमा में पड़ी किरदार हैं परंतु उनके चेहरे पर भाव उभरते हैं जैसे एक चित्रकार अपने ब्रश से कैनवास को छूता नहीं है परंतु हवा में ही जैसे ब्रश ऊपर से गुजरा है और प्रभाव उत्पन्न हो गया है। फिल्म में डॉक्टर कहता है कि शरीर कोमा में चला जाता है तब भी आत्मा कोमा में नहीं जाती और इसी आत्मा में उठी दर्द की लहरें बनिता संधु के चेहरे पर थम-सी जाती है। चेहरा दर्द की गठान बन जाता है और कहीं कोई बल पड़ता नज़र नहीं आता। यह गति का स्थिरता में ठहर जाना है। अपनी धुरी पर घूमता हुआ लट्टू स्थिरता का भ्रम पैदा करता है। धरती भी घूमती है। शूजीत सरकार इसी तरह बयां होते हैं कि अनकही भी अनहद नाद की तरह गूंजती है। मां की भूमिका में गीतांजलि राव खामोश रहते हुए भी 'मदर इंडिया' सा प्रभाव पैदा करती है।
फिल्म का नाम 'अक्टूबर' है, क्योंकि हरसिंगार (पारिजात) के फूल थोड़े समय के लिए खिलते हैं और अक्टूबर मास में उनकी संक्षिप्त यात्रा का अंत हो जाता है। बंगाली भाषा में इस फूल को 'शिवली' कहते हैं। शूजीत सरकार ने अपने केंद्रीय पात्र का नाम ही शिवली रखा है। शूजीत के सिनेमा की बुनावट अत्यंत मार्मिक होती है। उनकी फिल्में रहीम के दोहों की तरह दूर तक और देर तक मार करती है। इस तरह की फिल्में दर्शक पर अमिट प्रभाव छोड़ती हैं। इसके प्रभाव में दर्शक अपने जीवन के टुच्चेपन को कुछ समय के लिए भूल जाता है। अंग्रेजी साहित्य में शोक गीत को एलेजी कहते हैं और प्रशंसा गीत को ओड कहते हैं। अगर 'कहानी' महिला शौर्य की ओड है तो 'अक्टूबर' एलेजी है।
इस फिल्म में प्रस्तुत प्रेम-कथा आपको चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' की 'उसने कहा था' की याद दिलाती है। वह भी बस इस अर्थ में कि कहानी का नायक अपने बचपन की मित्र के पति की रक्षा करते हुए शहीद हो जाता है, क्योंकि 'उसने कहा था'। इस फिल्म की नायिका अपनी सहेली से पूछती है कि उनके साथ काम करने वाला वरुण कहां है? उसका वरुण के साथ कोई प्रेम संबंध नहीं है। वह बस साथ में काम करने वाला एक व्यक्ति है। इसी क्षण वह रैलिंग से फिसलकर तीस फीट नीचे गिर जाती है। उसे लंबे समय तक अस्पताल के गहन चिकित्सा वार्ड में रखा जाता है। वह कोमा में चली जाती है। उसके इलाज पर बेतहाशा रुपए खर्च हो रहा है, जो परिवार को दीवालिया कर देता है। मेडिक्लेम के कानून कायदे अग्नि के आविष्कार के समय बने थे, जो अब बुझी राख में बदल चुके हैं। इस तरह के दावों को अस्वीकृत करने की कला में माहिर होते ही कंपनी अधिकारी को पदोन्नति दे देती है। यह खाकसार के साथ किया जा चुका है।
एक रिश्तेदार शिवली की मां से कहता भी है कि प्लग हटाकर इसे मरने दें, क्योंकि कोमा से बाहर आने पर भी वह न चल फिर पाएगी न ही कुछ बोल सकेगी। अंग्रेजी भाषा में ऐसे रोगी को 'वेजिटेबल' होना कहते हैं, जो सब्जियों के साथ गहरा अन्याय है। उनमें तो प्राण होते हैं। शिवली की मां इसकी इज़ाज़त नहीं देती। माताएं तमाम उम्र गर्भाशय बनीं रहना चाहती हैं, जिसमें शिशु सुरक्षित रहता है।
फिल्म का नायक प्रतिदिन सुबह-शाम कोमा में पड़ी शिवली के पास बैठता है। वह अपना सारा संचित धन भी दवा खरीदने में खर्च कर देता है। शिवली नायक की रिश्तेदार नहीं हैं, प्रेमिका भी नहीं है परंतु नायक रिश्ते का एक सेतु रचता है। इस प्रयास में वह नौकरी पर भी नहीं जाता। उसके संगी साथी उसका काम करते हैं ताकि मालिकों को हानि न हो और नायक का काम पर नहीं आना छिपा रह सके। इस तरह शिवली का दर्द और नायक की करुणा की लहर दूर-दूर तक जा रही है। अगर फिल्मों के लिए नोबेल पुरस्कार होता तो यह फिल्म मजबूत दावेदार होती। फिल्म में नोबिलिटी अर्थात भलमनसाहत कूट-कूटकर भरी है। अगर यह ऑस्कर प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व करें तो निश्चित ही ऑस्कर पाएगी, क्योंकि ऑस्कर चयनकर्ता ईश्वरीय कमतरी या अन्य असाध्य रोगों से प्रेरित फिल्मों को अपना मत देते हैं और यह कार्य उनकी करुणा नहीं वरन भय के कारण होता है। वे बहुत डरे हुए नागरिकों का देश है। कैमिकल हथियारों के संदेह में ही वे एक देश के नेता को पहले मार चुके हैं और हाल ही में सीरिया पर आक्रमण का आधार भी कैमिकल वैपन की शंका ही है। यह अमेरिकी विचार प्रक्रिया का 'केमिकल लोचा' है।
बहरहाल, 'अक्टूबर' फिल्म हिंदुस्तानी सिनेमा में मील के पत्थर की तरह हमेशा याद की जाएगी। यह 'अक्टूबर' बारहमासी है। शूजीत सरकार को नमन। इस फिल्म की स्मृति हरसिंगार की सुगंध का एहसास देगी।