दर्द गौरैया और गुलाब का / सुधा गुप्ता
इक्कीसवीं शती के दूसरे दशक में अन्तरजाल पर सक्रिय हाइकुकारों का प्रकृति-वर्णन तथा पर्यावरण प्रदूषण / संरक्षण के प्रति चेतना उल्लेख्य है।
हिन्दी हाइकु का सफ़र लगभग छह दशक की दूरी तय कर चुका। प्रत्येक दशक में नए-नए हाइकुकार आकर इस कारवाँ में जुड़ते जाते हैं। आज के परिप्रेक्ष्य में युवा पीढ़ी के रचनाकार आशा जगाते हैं।
इक्कीसवी सदी के दूसरे दशक का आरंभ एक विशेष दृष्टि से महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में रेखांकित किया जा सकता है-अंतर्जाल पर हिन्दी वेबसाइट 'हिन्दी हाइकु डॉट नेट' के माध्यम से दर्जनों नए हाइकुकार सामने आए (संपादक श्री रामेश्वर काम्बोज-डॉ.हरदीप संधु) ये सभी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ हाइकु रचना में जुटे हैं। डॉ.अनिता कपूर, डॉ.अमिता कौण्डल, डॉ.उमेश महादोषी, उमेश मोहन धवन, ऋतु शेखर मधु, कमला निखुर्पा, कृष्णा वर्मा, चन्द्रबली शर्मा, डॉ.जेन्नी शबनम, ज्योतिर्मयी पंत, डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा, तुहिना रंजन, दविन्द्र कौर सिद्धू, दिलबाग सिंह विर्क, प्रगीत कुँअर, प्रियंका गुप्ता, भावना सक्सैना, मंजु मिश्रा, मुमताज़ टीúएचú खान, रचना श्रीवास्तव, वरिन्द्र जीत सिंह, बराड़, डॉ.श्यामसुंदर 'दीप्ति' संगीता स्वरूप 'गीत' सरस्वती माथुर, सारिका मुकेश, सीमा स्मृति, सुभाष नीरव, सुशीला शिवराण, शशि पाधा जया नर्गिस, डॉ.नूतन गैरोला आदि। (यह सूची 'यादों के पाखी' हाइकु संकलन सम्पादक श्री रामेश्वर काम्बोज हिमांशु डॉ.भावना कुँअर डॉ.हरदीप कौर संधु, प्रथम संस्करण 2012, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली की भूमिका से साभार ली गई है। यह निर्विवाद है कि इन हस्ताक्षरों का हाइकु सृजन, सम्पादक मण्डल के सतत् प्रोत्साहन, मार्ग-निर्देशन एवं सुरुचिपूर्ण ब्लॉग संचालन के माध्यम से निखर रहा है, इस सूची में कई नाम ऐसे हैं जो लघुकथा, कविता, व्यंग्य आदि विधाओं में रचनारत रहे हैं और चर्चित नाम है; किन्तु हाइकु रचना कि ओर पिछले कुछ समय से ही प्रवृत्त हुए हैं।
स्वयं रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी लघुकथाकार, व्यंग्य, कविता, गीत, समीक्षा जैसी विधाओं के जाने माने कवि-लेखक के रूप में विख्यात रहे, हाइकु लेखन भी आप 1982 से करते और छपते भी रहे किंतु आपकी धमाकेदार प्रविष्टि (एंट्री) 'मेरे सात जनम' हाइकु संग्रह, प्रú संú 2011 और 'चंदन मन' हाइकु संकलन (सम्पादनः डॉ.भावना कुँअर के साथ) , प्र. सं.2011 के द्वारा हुई और हाइकु सृजन / प्रकाशन / ब्लॉग संचालन के द्वारा आपने हिन्दी हाइकु रचना क्षेत्र में अभूतपूर्व तीव्र गति से कार्य किया।
इन हाइकुकारों की एक विशेषता जो पिछली पाँत से इन्हें पृथक् करती है, वह है इनका प्रकृति के प्रति लगाव, पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता, प्रदूषण के प्रति विद्रोह और विश्व पर मँडराते आसन्न संकट का सामना करने की चुनौती को स्वीकारना।
सबसे पहले प्रकृति प्रेम और प्रकृति-चित्रण पर एक दृष्टि डालें। 'पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश' ने इन हाइकुकारों का मन बहुत मोहा है। ऋतुओं की विविधता, प्रकृति की चित्रपटी पर उभरते चित्र, जड़-चेतन प्रकृति के क्रिया-कलाप, सभी कुछ हाइकुकार की लेखनी का विषय बना है। 'हिमांशु' जी एक सिद्धहस्त चित्रकार हैं, उनके कुछ अनुपम चित्र द्रष्टव्य हैं-
1-बजा माँदल / घाटियों में उतरे / मेघ चंचल
2-चढ़ी उचक / ऊँची मुँडेर पर / साँझ की धूप
3-नन्हा सूरज / भोर ताल में कूदे / खूब नहाए
4-लहरें झूला / खिल-खिल करता / चाँद झूलता
5-शोख़ तितली / खूब खेलती खो-खो / फूलों के संग
6-सिहरा ताल / लिपटी थी धुंध की / शीतल शॉल
डॉ.हरदीप संधु के कुछ चित्र:-
7-हरे पात पे / यूँ बन गई मोती / ओस की बूँदें
8-तट से खेले / लहरों को धकेले / नादान नदी
9-शीत के दिनों / सर्प-सी फुफकारें / चलें हवाएँ
10-जेठ महीना / अंगार हैं झरते / तपता सूर्य
अब अन्य नवोदित हाइकुकारों के 'छवि-चित्रकोश' (एल्बम) से कुछ मनोरम चित्र देखिए-
11-वर्षा पहने / बूँदों-सजा लहँगा / मटक चले-रचना श्रीवास्तव
12-भरे गागर / ऋतु पनिहारिन / छलक जाए-रचना श्रीवास्तव
13-पोखरा नाचे / पड़ी पावस-धार / किनारे खुश-रचना श्रीवास्तव
14-बादल छाए / बाँध बूँदों के घुँघरू / मोर ज्यों नाचे-रचना श्रीवास्तव
15-धानी चुनरी / जब ओढ़ी धरा ने / वसन्त आया-मंजु मिश्रा
16-पानी की बूँदे / छम-छम करती / छेड़ें संगीत-मंजु मिश्रा
17-अल्हड़ नदी / हिरनी जैसे भगी / छलांगे मार-प्रियंका गुप्ता
18-दौड़ता आया / धूल की गठरी ले / हवा का घोड़ा-प्रियंका गुप्ता
19-सजीला चाँद / दूल्हा बन के आया / तारे बाराती-प्रियंका गुप्ता
20-हवा टहली / पहन के पाजेब / तरु, घास पर-डॉ.सरस्वती माथुर
21-घन श्यामल / बिजली की कटार / जल संगीत-अमिता कौण्डल
22-घन मृदंग / बनी विद्युत वीणा / बरखा राग-अमिता कौण्डल
23-झरे बरखा / मेघों की गरजन / सिरजे गीत-कृष्णा वर्मा
24-नदिया क्लांत / ओढ़े श्वेत लिहाफ / सोई हो शांत-कृष्णा वर्मा
25-हवा छिछोरी / छेड़े कली बेबस / सिहरी जाए-कृष्णा वर्मा
26-हरी ओढ़नी / रँगी कशीदाकारी / क्या फुलकारी!-कृष्णा वर्मा
27-मिट्टी से सने / वृक्ष खूब नहाए / पत्ते हर्षाए-रेनू चंद्रा
28-आया सावन / खिलखिलाई धरा / नाचे झरने-शशि पुरवार
29-नाचे सावन / बरखा कि झांझर / बूँदों का गीत-डॉ.नूतन डिमरी गैरोला
30-आए बसंत / धारे बैजन्ती माल / रूपसी धरा-सुशीला शिवराण
31-थका सूरज / सो गया ओढ़कर / काली चादर-सुभाष नीरव
32-बूँदों से बातें / धरती ने फिर दीं / प्यारी सौगातें-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
33-टूटा कहर / जानलेवा वर्षा का / बाढ़ बन के-मंजु गुप्ता
34-गुनगुनाते / पर्वतों के दरख़्त / गीत हवा का-भावना सक्सेना
35-शाम सुरसा / निगल गई गोला / सूरज वाला-डॉ.अनीता कपूर
जैसे ताजे-टटके-मौलिक-अनछुए चित्रें ने हिन्दी हाइकु रचना संसार को समृद्धि प्रदान की है।
जो रचनाकार प्रकृति से जुड़ा होगा, वही प्रकृति के विनाश से व्यथित भी होगा। आज पर्यावरण प्रदूषण की समस्या विश्व के सामने विकराल रूप में सामने आ खड़ी हुई है। प्रगति की झोंक में मानव ने महानगरीय सभ्यता का विकास तो कर लिया किन्तु अंधाधुंध वृक्ष कटान के दुष्परिणाम स्वरूप अपने प्रिय पृथ्वी ग्रह की शोभा / स्वरूप विकृत कर दिया और अब उसका कुफल भुगतने को बाध्य है। हमारे हाइकुकार इस समस्या से गहरे रूप में आन्दोलित हुए हैं। पर्यावरण प्रदूषण / असंतुलन, ग्लोबल वार्मिंग जैसे विषय उनके हाइकु के केंद्र में उपस्थित हुए हैं। प्रदूषण के पाँचों स्तर-वायु, जल, मृदा, ध्वनि एवं आकाशीय प्रदूषण की समस्या से रू-ब-रू होते हुए नानाविध प्रभावी ढंग से अपनी चिंता तथा आक्रोश व्यक्त किया है। पहले अंधाधुंध वृक्ष कटान की चर्चा। हरीतिमा-विहीन, सूनी, उजाड़ धरती की शोभाविहीन दशा का वर्णन देखें-
1-उठते गए / भवन फफोले-से / हरी धरा पर-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
2-ठूँठ जहाँ हैं / कभी हरे-भरे थे / गाछ वहाँ पर-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
3-घायल पेड़ / सिसकती घाटियाँ / बिगड़ा रूप-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
4-लोभ ने रौंदी / गिरिवन की काया / घाटी का रूप-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
5-हरी पगड़ी / हर ले गए बाज़ / चुभती धूप-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
6-हरीतिमा की / ऐसी किस्मत फूटी / छाया भी लूटी-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
7-छाया तलाशे / पथ के राहगीर / उजड़े वृक्ष-डॉ.भावना कुँअर
8-ढूँढने चले / गुलमोहर वृक्ष / उजड़े मिले-डॉ.भावना कुँअर
9-सूनी है कोख / प्रदूषण के कारण / धरती रोए-रचना श्रीवास्तव
10-हरे पेड़ों को / काट दिया, धरती / रोए, बिलखे-मंजु मिश्रा
11-वृक्ष ही नहीं / मिले छाया कहाँ से / धूप ही धूप-मंजु मिश्रा
12-तरु तन से / खींच ली चुनरिया / सिसकी धरा-मंजु मिश्रा
13-कराहें कभी / वन, वृक्ष, कलियाँ / धरा उन्मन-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
14-जंगल कटे / धरा कँपकँपाए / सुनामी लाए-सुभाष नीरव
15-हर टहनी / जीवन से भरी थी / काट दी मैंने-सुदर्शन रत्नाकार
16-प्यारी वसुधा / प्राकृतिक सम्पदा / खोई तुमने-ऋता शेखर मधु
17-हरी चुनरी / तार-तार हो गई / लुटा संसार-तुहिना रंजन
18-धरा व्याकुल / देख अपनी काया / फफोलों-भरी-रचना श्रीवास्तव
19-धानी चूनर / कैसे हो गई काली / सोचते खेत-रचना श्रीवास्तव
20-प्रदूषण से / कहीं आती सुनामी / कहीं है सूखा-मंजु गुप्ता
21-गूँगे जंगल / जार-जार रो रहे / ज़ख्मी आँचल-डॉ.हरदीप सन्धु
वायु प्रदूषण-अंधाधुंध वृक्ष-कटान एवं कंक्रीट-निर्माण कुफल स्वरूप हरीतिमा का विनाश हुआ। मनुष्य इतना निर्मम हुआ कि उसने पृथिवी के 'हरे फेफड़े' काट डाले, वह साँस ले तो कैसे? वायु जिसके बिना जीवन ही सम्भव नहीं है, लगातार प्रदूषित होती जा रही है फलस्वरूप जड़-चेतन के अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया, मनुष्य तो मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, सृष्टि का कण-कण बिलख उठा है। शीतल मन्द सुगंध मलयानिल को जहरीले धुएँ में बदलता देख हाइकुकारों का आक्रोश इस प्रकार फूटा हैः-
1-कड़ुआ धुआँ / लीलता रात-दिन / मधुर साँसें-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
2-सुरभि रोए / प्राण लूट रही हैं / विषैली गैसें-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
3-वसन्ती हवा / चलती अब कहाँ / उड़ता धुआँ-डॉ.हरदीप सन्धु
4-उखड़ी साँसें / जहरीली हवाएँ / चिंता सताए-डॉ.हरदीप सन्धु
5-मैला शंृगार / प्रकृति है लाचार / चंदा बीमार-डॉ.हरदीप सन्धु
6-दूषित हवा / पंछी को हुआ दमा / झील कराहे-रचना श्रीवास्तव
7-काली हवा ने / जलाए वृक्ष सारे / झील उदास-रचना श्रीवास्तव
8-बंजर हवा / बोए कौन खुशबू / सोचे मौसम-रचना श्रीवास्तव
9-धुआँ उगलें / ये दौड़ते वाहन / साँसें घुटतीं-मंजु मिश्रा
10-श्वास-निश्वास / हुआ अब दुश्वार / दूषित प्राण-तुहिना रंजन
11-कोमल कली / जहरीली गैस से / मूर्च्छित हुई-ऋता शेखर मधु
12-धूल, ईंधन / बारूद से दूषित / जग हो गया-अनिता ललित
13-वायुमण्डल / अँटा अब धुएँ से / अम्ल की वर्षा-सुशीला शिवराण
14-वन संहारे / प्रकृति से जो खेले / दूषित वायु-अमिता कौण्डल
15-सोंधी महक / स्वच्छ वातावरण / कहाँ खो गया!-अनिता ललित
16-ज़हर धुआँ / चिमनी ने उगला / बंजर धरा-रचना श्रीवास्तव
17-दूषित हवा / नहाए मल-मल / होए न साफ-रचना श्रीवास्तव
18-हो गई स्याह / दूधिया चाँदनी भी / दूषित हवा-रचना श्रीवास्तव
19-दूषित हवा / पूरी रात खाँसता / चाँद बेचारा-रचना श्रीवास्तव
20-फूलों से रंग, / खुशबू गए कहाँ / पूछती हवा-डॉ.श्यामसुन्दर 'दीप्ति'
21-रोक न सका / फूल का मुरझाना / माली सयाना-डॉ.श्याम सुन्दर 'दीप्ति'
वायु-प्रदूषण से ग्रस्त इस संसार में वह दिन दूर नहीं जब हर प्राणी अपनी पीठ पर ऑक्सीजन सिलेण्डर ढोने को विवश होगा।
जल-प्रदूषण:
आधुनिकता कि अंधी दौड़ में मानव ने जल, जो जीवन है, की पवित्रता को नष्ट कर दिया / नदियों को अपशिष्ट, मल-मूत्र, कचरे और अधजले शवों से भरकर सर्वथा अनुपयोगी बना डाला, संसार भर में जल के स्रोत सूख रहे हैं-त्रहि-त्रहि मची है—-दूरदर्शी वैज्ञानिकों, भू-गर्भ शास्त्रियों का दावा तो यहाँ तक है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा! आज के सचेत हाइकुकार का आक्रोश इस प्रकार व्यक्त हुआ है:-
1-मुँह बाए हैं / प्यासे पोखर जहाँ / नीर वहाँ था-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
2-तरसे कूप / दो घूँट मिले जल / सूखा हलक-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
3-गीत न फूटे / अब सूखे कण्ठ से / मौसम रूठे-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
4-प्यासा सागर / सर्द हुआ सूरज / चाँद झुलसा-डा.भावना कुँवर
5-ज़हर घुले / गंगा-यमुना मैली / पाप न धुले-डॉ.हरदीप सन्धु
6-गँदला पानी / रो रही मछलियाँ / जाएँ वे कहाँ-डॉ.हरदीप सन्धु
7-कहाँ से लाएँ / धुआँ-धुआँ बादल / निर्मल जल-डॉ.हरदीप सन्धु
8-सूखे अधर / थकी प्यासी धरा के / देखें आसमाँ-डा.भावना कुँअर
9-रास्ते बदले / नदियों की धारा ने / प्यासी धरती-मंजु मिश्रा
10-धरा के आँसू / बादल की आँख से / अम्ल बरसे-मंजु मिश्रा
11-पानी दूषित / नदी छोड़ मछली / तट पर रोए-रचना श्रीवास्तव
12-सूखी बारिश / बादल ने निचोडे़ / चिटके खेत-रचना श्रीवास्तव
13-कचरा गिरा / घायल हुई झील / सिमट गई-रचना श्रीवास्तव
14-न घोलो विष / जल-जीव व्याकुल / तृषिता धरा-डा. ज्योत्स्ना शर्मा
15-पीर नदी की / कैसे प्यास बुझाऊँ / तप्त धरा कि-डा. ज्योत्स्ना शर्मा
16-निर्मल धार / धो-धो सबका मैल / हुई श्यामल-सुशीला शिवराण
17-हैं प्रदूषित / जल के स्रोत सभी / रोगी मानव-सुशीला शिवराण
18-गंगा-यमुना / प्रदूषण की मारी / हुई उसाँसी-सुशीला शिवराण
19-गंगा क्यों रोए / पाला जिन्हें सदियों / वही सताएँ-डॉ.अमिता कौण्डल
20-पाप मैं धोती / यह दिया बदला / मैली कर दी-डॉ.अमिता कौण्डल
21-गोमुख बँधा / सिमट गई धार / करो उपाय-डॉ.अमिता कौण्डल
22-पाखी भटके / न तरु, सरोवर / छाँव न पानी-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
23-मत्स्य व्याकुल / आपदा पड़ी भारी / जल है म्लान-तुहिना रंजन
24-अब हैं शेष / ये निर्जल नदियाँ / सुनामी यहाँ-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
25-उजड़े तट / न उतरेंगे हंस / किनारे सोचें-रचना श्रीवास्तव
26-उजड़ी कोख / सूखी सारी फसलें / रोए धरती-रचना श्रीवास्तव
27-सूखे-से ताल / जल बिन मछली / हाल बेहाल-शशि पाधा
नदियों और समुद्रों में अपशिष्ट-विसर्जन से सृष्टि के अनेक अनुपम जीव, वनस्पतियों की दुर्लभ प्रजातियाँ विलुप्त हो रहे हैं, जल-चर जीवों पर भारी संकट आ पड़ा है, जहरीले जल के कारण चंद घंटों में हजारों-लाखों मछलियाँ लोथ में बदल जाती है, भूखे मानव मछलियों को खाकर अकाल मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं-कहाँ तक बखान किया जाए? मनुष्य विकसित होने का 'तमगा' छाती पर लटकाकर अपनी कब्र खोद रहा है।
मृदा-प्रदूषण
कभी वे दिन भी थे जब बचपन मिट्टी में लोटता था और माँ की आँख बचाकर चुपके से थोड़ी-सी मिट्टी मुँह में डाल लेता—स्वाद के साथ खाता—केवल कृष्ण कन्हैया ही माटी खाने पर माँ की डॉँट-फटकार (और थोड़ी-सी पिटाई भी।) नहीं झेलते थे, आज से कुछ सात-आठ दशक पूर्व जन्मी पीढ़ी भी मिट्टी में लोटी-खेली है—फ़्राक और कुरते में धूल भरी है और 'स्वादिष्ट' मिट्टी चखी भी है! वे दिन तो मायावी इन्द्रजाल जैसे विलुप्त हो गए; किन्तु इतना तो अति-आधुनिक नगरीकरण के बाद भी बचा रह गया था कि वर्षा कि पहली फुहार पड़ने पर आस-पास की कच्ची मिट्टी से सोंधी गंध उठकर नथुनों में भर उठती थी और हम लम्बी-लम्बी साँसें लेकर उस सुगंधि को स्वयं में समो लेने को उतावले हो उठते थे। धन-लोलुप, स्वार्थी मानव की तृष्णा का अंत नहीं है—आज स्थिति यह है कि प्यारी धरती के गर्भ को औद्योगिक अपशिष्ट और पोलिथीन के कचरे से पाटा जा रहा है, रासायनिक उर्वरकों, कीट नाशकों के सतत प्रयोग से रत्नगर्भा वसुंधरा अपनी दिव्य गंध खो बैठी है, आज वर्षा कि पहली फुहार सोंधी गंध नहीं, दुर्गंध फैलाती हैः
1-सुगंध लुटी / पहली वर्षा में लो / दुर्गंध उड़ी-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
2-वसुधा-तन / रोम-रोम उतरा / विष हत्यारा-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
3-करे सवाल / बोए क्यों रे ज़हर / मिट्टी घायल-डॉ.हरदीप सन्धु
4-दुर्गंध बने / घातक रसायन / माटी मिलके-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
5-नीलकण्ठ-सी / करती विषपान / मृदा है क्लांत-तुहिना रंजन
6-हानि की जड़ / करें मृदा का क्षय / खोटे उद्योग-तुहिना रंजन
7-हँसती सृष्टि / महकती प्रकृति / अब चीत्कारे-अनिता ललित
8-माटी अपनी / उपजाऊ इतनी / करो सम्मान-अनिता ललित
9-गर्भ इसके / अमृत परिपूर्ण / सींचों स्नेह से-अनिता ललित
10-महके माटी / प्रकृति गोद झूले / ये देखे स्वप्न-अनिता ललित
11-इत्र नहाई / सोने से लदी-फँदी / खुश थी जमीं-डॉ.भावना कुँअर
12-नर्म और सोंधी / हवाओं की पिटारी / खोलती चली-डॉ.भावना कुँअर
13-घोलता कौन / पिटारी में ज़हर / पूछती चली-डॉ.भावना कुँअर
14-धन लालसा / कर दी जहरीली / धरा सुहानी-डॉ.अमिता कौण्डल
15-खाँसती धरा / छटपटाता नभ / जाएँ तो कहाँ-डॉ.आरती स्मित
सारांश यह कि मानव एवं पशु-निष्कासित पदार्थ, वायरस एवं बैक्टीरिया, कूड़ा-करकट, उर्वरक, कीट नाशक, क्षार, फ्रलोराइड, रेडियो-धर्मी पदार्थ, औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थ आदि के प्रयोग एवं भूमि पर फेंकने से हमारी प्यारी पृथ्वी की प्रथम परत दूषित / दुर्गंधित / क्लांत एवं अनुपयोगी होती जा रही है। अत्यधिक उपज लेने के अंधे मोह ने आज किसान को दिग्भ्रमित कर दिया है वह नहीं जानता कि सीमाविहीन कीट-नाशकों के छिड़काव से वह मनुष्य का खाद्य पदार्थ और पशुओं का चारा दोनों को विषमय बना रहा है / अचरज नहीं यदि दो-चार दशक बाद इन फसलों को खाकर मनुष्य और पशु पंगु / विकलांग पैदा होने लगें।
ध्वनि प्रदूषण:
मनुष्य ने जब सृष्टि में आँखें खोलीं तो उसका परिचय 'शब्द' से हुआ: शब्द-नाद-स्वर संगीत!
उसने पंछियों का चहचहाना सुना, निर्झर का कल-कल छल-छल संगीत सुना और भौंरे की गुन-गुन से भी परिचित हुआ, तभी किसी माँ ने पेड़ की डाली में कपड़े की झोली का झूला बनाकर अपने दुधमुँहे लाल को उसे झुलाते हुए पहली लोरी गाई होगी! अनादि काल से संगीत की मधुरिम लहरियों पर तैरता हुआ मानव कहाँ से कहाँ पहुँच गया। पतन की भी कोई सीमा होती है! आज जिस युग में हम जीने को विवश हैं वहाँ न संगीत है न लोरी न गुनगुन—बचा है केवल फैक्टरियों का कान फाडूँ शोर, वायुयानों का गर्जन, उद्योग-मशीनों का दहाड़ता हुआ निर्मम फूत्कार, संगीत के नाम पर शेष रह गया है बधिर कर देने वाला डी.जे. का हाहाकार, चीत्कार—कहाँ तक गिनाया जाए? प्रगति के नायाब नमूने हैं ये, प्रगति के बढ़ते शोर ने मानव नस्ल को खतरे का निशान पार करते हुए 'बहरेपन' 'बधिरता' का उपहार दे डाला है, आज का मोबाइल फोन जो सुविधा कि दृष्टि से बहुत 'काम्य' बन गया है, कल मानव की भावी नस्ल को पूर्णतः बधिर बना देगा, 'ध्वनि प्रदूषण' एक विकराल समस्या के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। हमारे हाइकुकार सचेत रूप में इस समस्या को अपने हाइकु-सृजन द्वारा सामने ला रहे हैंः-
1-अंधड़ कैसा / जो मधुर स्वरों में / नीम है घुली-डॉ.भावना कुँअर
2-छीन ले गई / कानों की शक्तियाँ भी / एक न चली-डॉ.भावना कुँअर
3-व्याकुल धरा / सुने कौन किसकी / व्याप्त है शोर-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
4-कोलाहल में / डूबता हर स्वर / खोया संगीत-तुहिना रंजन
5-भविष्य पूछे / क्यों हुआ बहरा मैं / ऐसा क्या किया-रचना श्रीवास्तव
6-बहरे हुए / हवाओं के कान भी / अब तो चेतो-रचना श्रीवास्तव
7-गाँव की शांति / बढ़ गए वाहन / बनी है शोर-डॉ.अमिता कौण्डल
8-बहरे जन / खाते अब ज़हर / अन्न जल में-डॉ.अमिता कौण्डल
9-बधिर हुए / बसे स्टेशन पास / गरीब लोग-सुशीला शिवराण
10-हवा में शोर / ध्वनि प्रदूषण है / बहरापन-शिवमंगल सिंह मानव
11-वाहन-शोर / धरती-गगन में / निराशा घोर-शशि पाधा
पक्षपात और हठवादिता से बचने के लिए हमें यह तो स्वीकार करना ही होगा कि प्रकृति तथा मानव दोनों ही ध्वनि प्रदूषण को जन्म देते हैं-मेघ गर्जन, करकापात, ओलों की वर्षा, भीषण तूफान और झंझावात के साथ-साथ भूस्खलन, ज्वालामुखी, विस्फोट जैसी तीव्र ध्वनिकारक क्रियाओं के द्वारा प्रकृति अपना कोप प्रकट कर ध्वनि प्रदूषण को उत्पन्न करती तो है किन्तु प्रकृति सयानी है, वह संतुलन बनाए रखना भी जानती है। और अल्पकालिक शोर के बाद दीर्घ कालिक शांति की स्थापना कर असंतुलन को संतुलन में परिवर्तित कर देती है जब कि मानव मूढ़ है, मानव ने अपने स्वार्थी, धन लोलुप घृण्य इरादों के कारण नगरीकरण, औद्योगीकरण, परिवहन, खनन जैसी गतिविधियों के द्वारा ध्वनि प्रदूषण की गंभीर / हानिकारक / खतरनाक स्थिति उत्पन्न कर दी है। स्वचालित वाहन जैसे रेल, मोटर दुपहिया वाहन, वायुयान, जल पोत जैसे साधनों के विकास और बढ़ोतरी से समस्या और बढ़ी है, उद्योग-धंधों, कल कारखानों के शोर, खनन-विस्फोट, कृषि उपकरण जैसे ट्रैक्टर-ट्रॉली, पंपसैट, क्रेन आदि, मनोरंजन के साधन (संगीत उपकरण) घरेलू उपकरण (मिक्सर ग्रांइडर, वाशिंग मशीन) तथा आतिशबाजी के शोर ने आज मानव की श्रवण शक्ति को ही चुनौती दे डाली है—मानव नस्ल एक खतरनाक मोड़ पर आ खड़ी हुई है।
आकाशीय प्रदूषण-
वैज्ञानिक जटिल शब्दावली का आश्रय न लेते हुए, सामान्य जन तक सम्प्रेषित होने वाली सीधी-सादी भाषा में इसे यूँ कहा जा सकता है-
1-सूर्य एक अनवरत जलता अग्नि पिण्ड (आग की भट्टी) है जिसमें सदैव हीलियम-हाइड्रोजन गैसे जलती रहती हैं। जिनसे ऊर्जा उत्पन्न होती है।
2-पृथ्वी सूर्य का वह टूटा हुआ टुकड़ा (खण्ड, पिण्ड) है जो अरबो-खरबों वर्ष पूर्व जलते पिण्ड के रूप में गिर कर सूर्य से पृथक् हो गया था, बाद में ठण्डी होने पर इसमें जीवन का विकास हुआ। यह सौर-परिवार का एक सदस्य है।
3-सूर्य-किरणों से निकलती सौर-ऊर्जा पृथ्वी ग्रह के लिए जीवनदायी अतः आवश्यक है।
4-सूर्य की भयंकर ज्वालाओं से अनेक प्रकार की गैसें निकलती हैं जिनमें पराबैंगनी किरणें घातक हैं। ये किरणें सृष्टि पर नाना प्रकार का कुप्रभाव डाल सकती हैं। यदि ये किरणें बे रोक-टोक धरती पर सीधी आ पड़ें तो मानव-समाज में सन-बर्न, अंधत्व और त्वचा कैंसर जैसे जटिल रोग उत्पन्न हो सकते हैं।
5-पृथ्वी के वायु मंडल में एक निश्चित दूरी तक-धरातल से 15 किमी से 50 किमी की ऊँचाई तक 'ओजोन' की चादर तनी रहती है। यह ऑक्सीजन-कुल की है; अतः ऑक्सीजन की बहन भी कही जाती है। यह स्वास्थ्य रक्षक / मानव हितकारी है, जिसे 'ओजोन-रक्षा-कवच' (रक्षा-छतरी भी) कहा जाता है। इस रक्षा कवच के कारण ही पराबैंगनी किरणों का विकिरण पृथ्वी को कुप्रभावित नहीं कर पाता।
6-विज्ञान ने मानव की भौतिक सुविधा के लिए शीत-गृह, एयर कंडीशनर, फ्रिज और रूम रिफ्रैशनर जैसे उत्पाद विकसित किए हैं। विकसित तथा विकासशील देशों में इनका प्रयोग बहुत अधिक बढ़ रहा है। इन उत्पादों में सीúएफúसीú (क्लोरो फ्रलोरो कार्बन) गैसों का प्रयोग बहुत अधिक मात्र में होता है। विनष्ट किये जाने पर भी इन उत्पादों से सीएफसी गैस प्रभूत मात्र में विसर्जित होती है, जो ओजोन परत को विदीर्ण करने / क्षतिग्रस्त करने का मुख्य कारण है, यही आकाशीय प्रदूषण है। यदि मानव समुदाय-सी एफसी गैस के विसर्जन पर वैधानिक रोक नहीं लगाएगा, तो वह दिन दूर नहीं जब ओजोन की चादर / छतरी जिसमें अभी बड़े-बड़े छेद हो गए हैं, पूरी तरह विनष्ट हो जाएगी और मानव कुफल भुगतेगा, अंधा होकर त्वचा कैंसर से पीड़ित होकर, पूरे शरीर पर, जले हुए के कभी न पुरने वाले घाव लेकर अपने हाथों किए हुए अपने विनाश को निरुपाय होकर देखता रहेगा!
दुर्भाग्य यह है कि अमेरिका और कनाडा जैसे विकसित देश और उनके 'पिछलग्गू' विकासशील चीन, भारत इण्डोनेशिया, ब्राजील भी किसी भी विश्व / अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में 'वैज्ञानिक रोक' का प्रस्ताव पारित नहीं होने देते, ऊर्जा कि बढ़ती खपत को रोकने को भी तैयार नहीं हैं फलत सृष्टि के विनाश की भावी दुःखद पटकथा तैयार हो रही है।
आकाशीय प्रदूषण अर्थात् ओजोन छतरी में छेद की ओर सन्दर्भित हाइकुकारों का ध्यान गया है और उन्होंने अपने सशक्त हाइकु द्वारा इस ओर पाठकों का ध्यानकर्षण किया हैः-
1-क्षय-पीड़ित / हुआ नील गगन / साँसे उखड़ी-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
2-तन झुलसा / घायल सीने का भी / छेद बढ़ा है-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
3-त्वचा है लाल / घायल जब हुई / ओजोन पर्त-रचना श्रीवास्तव
4-नभ में छेद / कैसे हो दूर अब / अम्बर सोचे-रचना श्रीवास्तव
5-ओजोन छाता / धरा लिये है खड़ी / चमड़ी बची-डॉ.हरदीप संधु
6-करते रोज / रासायनिक इत्र / नष्ट ओजोन-डॉ.हरदीप संधु
7-बींध दी गई / ओजोन की छतरी / प्रकृति रोई-डॉ.हरदीप संधु
8-हमें बचाता / सोख यू वी किरणें / ओजोन छाता-डॉ.हरदीप संधु
9-ओजोन छिद्र / न रुके विकिरण / मिले कैंसर-सुशीला शिवराण
10-ओजोन फटी / परा-बैंगनी रश्मि / झाँकने लगी-ऋता शेखर मधु
11-अरि-सी रश्मि / रक्षा कवच भेद / झुलसा देगी-तुहिना रंजन
12-अक्षत रहे / धरती का चूनर / ओजोन पर्त-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
13-कुपित रवि / किरणें करें मार / धरा सहमी-डॉ.ज्त्योत्स्ना शर्मा
दर्द गौरैया और गुलाब का-
1-गुलाब दुखी / बिछुड़ी है खुशबू / माटी हो गया-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
2-घास जो जली / धरा गोद में पली / गौरैया रोए-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
जैसे इस धरती से जुड़े, यथार्थ की ठोस जमीन पर सृजित सशक्त हाइकु अपनी गंभीर अर्थवत्ता को लिये, आज के मानव की कोमल संवेदनाओं को जाग्रत करने में पूर्णतः समर्थ हैं और धरती के उस रोग की नस पकड़ने को प्रेरित करते, जो आज उसकी रग-रग में समाकर धरती का सौंदर्य, सृष्टि-क्षमता, मनोरम छवि सब कुछ लूट रहा है। पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या सुरसा कि भाँति मुँह बाए, मानव ही नहीं सम्पूर्ण सृष्टि को लील जाने को आतुर-आकुल है।
1-रोग, अनिद्रा / विकास की कीमत / चुकाएँ लोग-सुशीला शिवराण
2-आज घायल / दूषित हवा पानी / भविष्य रोए-रचना श्रीवास्तव
3-दमा, तनाव / रक्तचाप का रोग / दे प्रदूषण-सुशीला शिवराण
4-खाते जूठन / पॉलिथीन लिपटी / मरते पशु-सुशीला शिवराण
5-बढ़ती जाती / है ग्लोबल वार्मिंग / छाया संकट-मंजु गुप्ता
6-उजाला स्याह / बदरंग लगता / धानी दुपट्टा-डॉ.हरदीप संधु
7-डरी-सी ज़मीं / धुआँ-धुआँ आसमाँ / लुटी चाँदनी-डॉ.हरदीप संधु
8-निगले धुआँ / पहनें धुआँ-धुआँ / जीवन धुआँ-डॉ.हरदीप संधु
9-धुआँ ही धुआँ / तनाव के घेरे में / विक्षिप्त मन-अनिता ललित
प्रगति और विकास की अंधी दौड़ में बदहवास हो कर भागते मानव को हाइकुकार सम्हल जाने के लिए चेतावनी देते हैंः-
1-ओ रे मनुष्यो! / स्वच्छ पर्यावरण / बचा के रखो-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
2-सम्हल जाओ / कहीं खो न जाएँ / हँसीं वादियाँ-ऋता शेखर मधु
3-जल जाएगी / हरी-भरी धरती / सम्हलों अब-मंजु मिश्रा
4-रोक दो अब / प्रकृति को छेड़ना / डरो क्रोध से-मंजु मिश्रा
5-आते रहेंगे / सुनामी औ' भूकम्प / नहीं रुके तो-मंजु मिश्रा
6-प्रकृति-सखी / तुम भी सखा बन / रहो तो ज़रा-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
7-जल जीवन / जाने हैं तो मानें भी / सहेजें धन-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
8-प्रदूषण से / ऋतुएँ हैं बिगड़ीं / करें उपाय-मंजु गुप्ता
डॉ.हरदीप संधु वनस्पति जगत् के प्रति अपना स्नेह सद्भावना एवं कृतज्ञता ज्ञाापित करते हुए कहती हैंः-
9-दुःख-सुख में / पेड़ देते हैं सदा / साथ हमारा
10-पेड़ चुकाते / ऋण की पाई-पाई / धरती माँ की
11-वायु मंडल / बचाएँ औ' मनाएँ / ओजोन पर्व
मंजु गुप्ता प्राकृतिक सम्पदा कि रक्षार्थ मानव की क्रूरता का तिरस्कार कर, वर्जना करती हैः-
12-पशु-वन हैं / प्रकृति का सृजन / न काटें इन्हें
उन्होंने रचना-चातुर्य से 'काटें' शब्द का प्रयोग कर पशु-हिंसा तथा वनस्पति-कटान दोनों को लक्षित कर दिया है।
आज के मानव को यह स्वीकारना ही होगा कि यदि प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ बंद न की गई और मानव की क्रूरता का शिकार होती रही, तो वह दिन दूर नहीं जब सृष्टि की अनेक सुंदर चित्रवलियाँ-वृक्ष-पादप और पक्षि-जगत् की अनमोल सम्पदा विलुप्त हो जाएगी! जब गौरैया जैसा प्यारा जीव (जो विलुप्ति के कगार पर है) केवल कागज की तस्वीरों में ही दिखाई देगा।
लुप्त गौरैया / तस्वीरों में दिखेगी / चहचहाती-ऋता शेखर मधु
उपर्युक्त अध्ययन से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि 'हिन्दी हाइकु' अंतरजाल पर सक्रिय हाइकुकार एक सत्साहित्यकार के दायित्वबोध से पूर्णतः सम्पन्न हैं। विश्व-समाज में व्याप्त तथा आगामी समस्याओं की ओर संकेत करती उनकी लेखनी अपने गुरुतर दायित्व का वहन करती हुई सकारात्मक भूमिका निभा रही है; जो प्रशंसनीय है।
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