दर्द दिखता क्यों नही / इला प्रसाद
आजकल मैं एक अजीब सी समस्या से जूझ रही हूँ। सारे वक्त कहीं- न -कहीं दर्द होता रहता है। दादी माँ का नुस्खा आजमाया। गर्म पानी का बैग बनाया और रख दिया दर्द वाली जगह पर। थोड़ी देर को दर्द गायब। फिर वही। कहीं और प्रकट हुआ। अब सारे वक्त इस दर्द के पीछे कौन लगा रहे। सो टायलेनाल की गोलियाँ ले ली। अब लोगबाग कहने लगे हैं आराम से सोते रहने के लिए अच्छा बहाना ढूँढा है। आजकल मेरे अन्दर का लेखक भी सुस्त महसूस करता है। अरसे से कोई कविता- कहानी लिखी नहीं गई, सो ऐसा कहना स्वाभाविक है। टायलेनाल खाने से नींद बहुत आती है। अब तो पतिदेव को भी उनकी बात में दम नजर आने लगा है। लेटा देखकर पूछते हैं - फिर दर्द है? मैं परेशान हूँ कि दर्द दिखता क्यों नहीं? बुखार होता है। हाथ पैर गरम हो जाते हैं। थर्मामीटर लगाया, लो इतना बुखार है! जुकाम हुआ है - आँ छी आँ छी के मारे नाक में दम है। किसी को पूछने की जरूरत नहीं। लोग बचते फिर रहे हैं। छूत न लगे उन्हें भी। तमाम किस्म के रोग हैं। दिखाई देते हैं। कैट स्कैन, एक्स रे, एम आर आई किसी तरह तो दिख ही जाते हैं और यह मुआ दर्द है कि दिखाई ही नहीं देता। अच्छे से अच्छा यहाँ मात खा जाता है। "अरे क्या , पार्टी में जाने का मन नहीं होगा। कह दिया, दर्द है। अब थोड़ी-सी ऐक्टिंग तो हम भी कर सकते हैं। लेकिन हम वैसे नहीं है। इतना भी नहीं सोचते पैसे बचाने की। एक गिफ़्ट खरीद कर दे ही दी तो इतना भी क्या गया!" पीछे से सब सुन रही थी। सुनाने के लिए ही कहा गया होगा। सिर दर्द से फट रहा था लेकिन सुनने को मिला कि अच्छी अभिनेत्री हूँ।
अब ऐसा भी नहीं है कि लोग नाटक नहीं करते। हमने भी किए हैं। स्कूल जाने का मन न हो तो पेट दर्द या सिरदर्द का बहाना सर्वश्रेष्ठ होता है। वैसे पकड़े जाने की संभावना भी रहती है। अच्छे भोजन से वंचित रह जाने की भी। झेला है वह भी। कालेज के दिनों में अपनी ही कक्षा की माधुरी अपने ब्वाय फ़्रेंड के स्कूटर की आवाज सुनते ही सिरदर्द का बहाना बना लेक्चर के बीच में क्लास से फूट लेती थी। हम हैरान होते रहते कि इसे उसके स्कूटर की आवाज कैसे समझ में आती है। हमें तो सारे स्कूटर की आवाज़ें एक-सी लगती थीं। लेकिन प्रेम में क्या नहीं होता! खैर...
अब कोई अनपेक्षित मेहमान आ गया, चाय बनाने का मन नहीं तो थोड़ा मुँह बनाया, गिरी हुई आवाज में धीमे से बोले - "क्या बताऊँ , इतना दर्द है पीठ में। न उठा जाता है, न बैठा जाता है।"
उन्होंने साहस बँधाया - "नहीं, नहीं। आप आराम कीजिए। मैं फिर आ जाऊँगा।"
बस हो गई मुक्ति।
अब हमें भी समझ में आता है। कहाँ हम अपेक्षित है, कहाँ अनपेक्षित। कई बार यह भी हुआ कि किसी महफ़िल में किसी महिला मंडली में अनजाने ही शरीक हो गए। नए-नए लोगों से परिचय करना चाहिए। लेखन का सामान और कहाँ से जुटाएँ हम? वह भी जब अपने अन्दर सूखा पड़ा हो। ऐसा ही एक वाकया है। उनकी गुफ़्तगू चल रही थी। उन्होंने हमें देखा। चेहरे पर मुस्कान बिखेरी। फिर उनमें से एक बोली-" आप तेलुगु हैं ?" "नहीं तो"- मैं चौंकी। "लेकिन हम हैं।" वे प्यार से मुसकुराईं। मैंने सोचा, अब तक तो हिन्दी में बोल रही थीं। फिर पूछा- "आप सब ?" "नहीं, ये तमिल है। और यह राजस्थानी। वंदना पंजाबी है। हम सब अच्छी सहेलियाँ हैं। " जवाब मिला। "अच्छा "- मैं मुसकुराई- "मैं बिहार से हूँ। मुझे तमिल या तेलुगु तो नहीं आती लेकिन पंजाबी समझ लेती हूँ।" वे आगे बढ़ीं-"हम सब हाउस वाइव्स हैं। आप? " "मैं लिखती हूँ।" मैंने कहा। "अरे वाह ! कुछ हमारे बारे में लिखिए।" वे सब मेरे करीब सिमट आईं। मैं खुश हुई। क्या भाव हैं हमारे। लेकिन जल्द ही समझ में आ गया कि यह तो मुझे बाहर करने की कोशिश थी। उनका परनिंदा पुराण खुला हुआ था और न वक्ता, न पात्रों से परिचित थी मैं। वे इस मामले में मुझसे अच्छी कथाकार थीं। मैं भाग निकली। खड़े-खड़े पैर में दर्द हो गया, कहकर। जाते हुए उनकी खिलखिलाहट पीछा करती रही।
उस दिन बच गई थी। लेकिन विश्वास कीजिए अक्सर झूठ सुना है। दर्द की शिकार मैं ही रही। आपको नहीं लगता, दर्द मापने का कोई यंत्र होना चाहिए? थर्मामीटर की तरह? - इतने डिग्री दर्द है। पंद्रह डिग्री। बीस डिग्री। अरे नहीं, झूठ बोलता है। कुछ दर्द-वर्द नहीं हैं। ये देखो। दर्द-मीटर देखो। कुछ नहीं है। और हो गई झूठ बोलने वाले की मिट्टी पलीद।
ऐसा हो सकता है न? बन सकता है दर्द मीटर। इतने बड़े- बड़े आविष्कार हुए लेकिन किसी ने ऐसा मीटर नहीं बनाया अब तक, क्यों? मुझे लगता है, वे वैज्ञानिक भी डरते हैं। आखिर कभी न कभी तो दर्द का बहाना बना कर काम से छुट्टी की संभावना बनी रहनी चाहिए। दर्द की आड़ में आप कितना कुछ कर सकते हैं। है न? लेकिन मीटर तो बनाया ही जा सकता है। उसकी कीमत इतनी उँची रखो कि आम आदमी की पहुँच से बाहर रहे। फिर क्या है! चित भी आपकी , पट भी आपकी। आपको दर्द है। आप भाग लीजिए। दूसरों के झूठ पकड़िए। उन्हें झूठा साबित कीजिए। आखिर मीटर तो आपके पास है। थोड़ी हेरा फेरी भी की जा सकती है। अब दिल्ली बम्बई के ऑटो-रिक्शा , टैक्सी वाले ज्यादा भाड़ा वसूल नहीं करते क्या ? कैसे ? मीटर उनका है। गाड़ी उनकी है और रास्ते की जानकारी उन्हें है। यह तमाशा मैंने न्यूयार्क में भी देखा। कहाँ- कहाँ से घुमा ले गया टैक्सीवाला। पूरे पच्चीस डॉलर का बिल बन गया। बाद में जाना, वहाँ तक तो पैदल भी जा सकते थे।
तो इसी तर्ज पर बन जाए दर्द मीटर। आप विश्वास करें न करें , मैं इस मसले पर गंभीरता से सोच रही हूँ। अपना आयडिया पेटेन्ट करवाने की अर्जी भी दे दी है। यहाँ सब लोग पहले पेटेन्ट लेते हैं फिर बात करते हैं उसके बारे में। मैं बेवकूफ़ थोड़े ही हूँ। दे रक्खी है अर्जी, तब बोल रही हूँ। लेकिन इसके मूल में एक भुक्त भोगी की व्यथा है जो सचमुच दर्द से परेशान है। देश की तमाम समस्याओं को सोच-सोच कर होने वाला दर्द, विदेश में रहने का दर्द , लेखक होने का दर्द , न लिख पाने का दर्द, लिख पाने का दर्द, शरीर का दर्द, मन का दर्द , इतने किस्म के दर्द हैं जो मुझे परेशान करते हैं। और किसी को दिखता भी नहीं। झूठा समझते हैं मुझे। भारत देश की दुर्दशा का दर्द तो हमारे नेताओं की चीज है। दुख में मोटे हो रहे हैं। कृपया आप हँसें नहीं। दुख में कुछ लोग अधिक खाते हैं और खा-खाकर मोटे हो जाते हैं। यह वैज्ञानिक तथ्य है। अपने नेताओं को भी यह बीमारी हो सकती है। कुछ थोड़े से दर्द हैं जो आम आदमी के हैं। बड़े-बड़े दर्द बड़े लोगों की चीज हैं। मैं उनके बारे में नहीं सोचती। मैं आम आदमी के दर्द की सोचती हूँ और उसका मीटर बनाना चाहती हूँ। सस्ता सुन्दर और टिकाऊ ! आप मेरे साथ हैं न?