दर्द / जिंदर / सुभाष नीरव
कुछ हफ़्तों से मैं अकेला नहीं रहता। अकेला होऊँ तो मुझे जमील की याद आ जाती है। मैं परेशान हो उठता हूँ। ज़ख़्मी हुआ जमील मेरे सामने आ खड़ा होता है। मेरी ओर सीधा ही देखते हुए पूछने लगता है, "तुम्हारे मज्हबी ग्रंथ मौत के बारे में क्या कहते हैं?" मुझे यह बात समझ में नहीं आती कि वह यही सवाल बार-बार मुझसे क्यों पूछता है। मैंने उस दिन उसे बताया तो था। उसकी तसल्ली करवाई थी। मैंने उसे यह भी बताया था कि जब मैंने पम्मे को रस्सियों के ऊपर से उल्टा होकर गिरते हुए देखा था तो मुझे पहली बार मौत का ख़ौफ़ आया था। मैंने जाना था कि मौत यह होती है। पम्मा मेरा दोस्त था। हम एक साथ फ़ौज में भर्ती हुए थे। साथ लगते गाँव के थे। एक दूसरे के हमराज़ थे। दुख-सुख की साँझ थी। उसने ज़ोर डालकर अपना नाम मेरी कंपनी में डलवाया था। उसकी मौत ने मुझे पूरी तरह हिलाकर रख दिया था। पर युद्ध का मैदान होने के कारण मैं उसके बारे में अधिक कुछ नहीं सोच सका था। मैंने तो सामने से आ रही गालियों से बचने के लिए पूरी ताकत लगा रखी थी। गोलियाँ दागने के लिए एकाग्रचित्त हुआ था। पर जब भी किसी जवान की लाश देखता था तो मुझे पम्मा दिखाई पड़ता था। मैं गुस्से में भर उठता था। शत्रु को गिरते देख मुझे संतुष्टि होती थी। मुझे पम्मे का गोलियों से उड़ा सिर प्रायः दिखाई देता रहता है। युद्ध की घटनाएँ याद आने लगती हैं तो मैं एकदम अपना ध्यान दूसरी तरफ मोड़ने का यत्न करता है। अपनी पत्नी कुलवंत को आवाज़ लगाता हूँ या ट्रांजिस्टर ऊँची आवाज़ में लगा लेता हूँ। घर में मेरे करने के लिए कोई खास काम नहीं है। यदि कोई हो भी तो कुलवंत करने नहीं देती। झट आगे बढ़कर स्वयं करने लग पड़ती है। मेरा मुख्य काम तो अख़बारों में एक्स-सर्विसमैन अथवा हैंडीकैप्ड लोगों के लिए छपे रिक्त स्थानों को देखने का है। मैंने कई जगहों पर अप्लाई किया हुआ है। दो-चार जगहों पर इंटरव्यू भी दे आया हूँ। अभी तक कहीं से कोई जवाब नहीं आया है। शाम के वक्त लंबी सैर का मैंने रुटीन बना लिया है। मेरे कुर्ते की जेब में हमेशा छोटा ट्रांजिस्टर रहता है। आते-जाते कोई न कोई मिल जाता है तो मैं ट्रांजिस्टर की आवाज़ मद्धम कर देता हूँ। आगे बढ़कर आवाज़ फिर ऊँची कर देता हूँ। कभी कभार नानकसर गुरुद्वारे की तरफ भी चला जाता हूँ। उधर से गुरबाणी की आवाज़ आती है। जैसे जैसे मैं गुरुद्वारे के करीब होता जाता हूँ, यह आवाज़ तेज होती चली जाती है। मेरा एक घंटा अच्छा व्यतीत हो जाता है। मेरी सोच किसी तरफ भी नहीं जाती। इस तरफ जाते हुए राह में मुझे कोई नहीं मिलता। न जाते हुए, न ही वापसी पर। मैं स्वयं को इतना भर थका लेता हूँ जिससे रात में मुझे जल्दी नींद आ जाए। करीब दस बजे तक कुलवंत बातें करती रहती है। बच्चे अपनी अपनी कक्षाओं की बातें सुनाकर 'बीबी' के पास सोने चले जाते है। फिर मैं कुलवंत की छातियों के बीच सिर देकर सोने का यत्न करता हूँ। वह मेरे सिर में तब तक मालिश-सी करती रहती है जब तक मैं सो नहीं जाता।
आज मुझे नींद नहीं आ रही। कुलवंत ने थककर करवट बदल ली है। मेरे दाएँ टखने के पास लगातार जलन-सी हो रही है। यह बढ़ती हुई घुटने तक चली आती है। मैं खाज करते करते थक और ऊब जाता हूँ। सोचता हूँ कि यहाँ किसने काटा था। शायद, यह जलन काँटेदार बूटियों के कारण हैं। बारीक बारीक काँटे आज भी चमड़ी के साथ चिपटे हुए हैं। मैं कुलवंत के कान के पास मुँह करके धीमे स्वर में पूछता हूँ, "जाग रही हो या सो गई?" वह मेरी तरफ करवट लेकर पूछती है, "तुम सोए नहीं। मुझे तो लगा, तुम सो गए थे। क्या बात हो गई? तुम्हें नींद क्यों नहीं आई? क्या बजा है?" उसने एक साँस में कितने ही सवाल पूछ लिए हैं। मैं अपनी खाज के बारे में बताता हूँ। उससे कहता हूँ कि वह मुझे तेल ढूँढ़ कर दे। मैंने आहिस्ता से उठकर तेल की शीशी ढूँढ़ी थी, पर मुझे वह कहीं नहीं मिली थी। वह तेल की शीशी ढूँढ़ने की बजाय खाज वाली जगह पर खाज करने लग पड़ी है। मुझे सुकून मिलता है। मेरा मन करता है कि वह लगातार खाज करती जाए। कुछ देर बाद मैं उससे कहता हूँ कि वह बाएँ टखने के पास खाज करे। मुझे लगता है कि अब दाएँ टखने की तरह बाएँ टखने के पास भी खाज होना शुरू हो गई है। वह उठकर बैठ जाती है। उसकी आह निकल जाती है। मैं उससे पूछता हूँ कि वह खाज क्यों नहीं करती। अगर थक गई है तो तेल लगा दे। मेरा चित्त बेचैन होने लगता है। मैं उसे फिर कहता हूँ तो वह धीमे से कहती है, "तुम्हारा बायाँ टखना तो है ही नहीं।"
मैं ज़ोर देकर कहता हूँ, "है, है तभी तो खाज हो रही है।"
"तुम्हें भ्रम होता है। घुटने के पास होती होगी।"
"घुटने के पास नहीं, टखने के पास से शुरू होती है, फिर ऊपर को आ जाती है।"
मेरा सारा ध्यान बाएँ टखने पर होती खाज पर लगा हुआ है। मुझे अपने दोनों पैर सही-सलामत लगते हैं।
शायद, कुलवंत सोचती है कि मैं अर्द्ध-चेतनावस्था में से गुजर रहा हूँ। इसीलिए वह बत्ती जलाकर मुझे इस बात का अहसास कराने की कोशिश करती है कि मेरी बाईं टाँग घुटने से नीचे है ही नहीं। पर मुझे तो ऐसा महसूस होता है कि मेरी बाईं टाँग भी ठीकठाक है। अगर ठीकठाक है तभी तो खाज होती है।
"तुम पहले अपनी टाँग पर हाथ फेर कर देखो।" वह मुझे झिंझोड़कर कहती है।
"मैं कोई झूठ बोलता हूँ।"
"मैंने यह कब कहा?"
"तू जल्दी जल्दी खाज कर। मेरी टाँग भी है। जमील भी है।"
"कौन जमील?" वह उतावली में पूछती है।
"पाकिस्तानी फ़ौज का सिपाही।"
"उसे क्या हुआ था?"
"शायद, मैंने उसे मारा था।"
"यह कौन सी नई बात है। तुमने खुद ही बताया था कि पम्मे की मौत के बाद गुस्से में आकर तुमने कई पाकिस्तानी मारे थे। किसी पर भी तरस नहीं खाया था।"
"पर जमील उनमें से नहीं था।"
"फिर वह कौन था?"
"वह मेरा यार था... छोटा भाई था... दुश्मन था... और पता नहीं क्या क्या था।"
"मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा, तुम कहना क्या चाहते हो।"
"वह बहुत सुंदर जवान था। आठ-दस घंटों में ही वह मेरे बहुत करीब आ गया था। वह अभी भी मेरे करीब है। अंग-संग है। मैं उसे कभी नहीं भूला। कभी भी नहीं।"
"तुम्हें कितना समय हो गया है, घर आए को। पहले तो कभी उसकी बात नहीं की। सपनों में बड़बड़ाते हुए 'जमील' 'जमील' किया करते हो। मैंने जितनी बार भी पूछा, तुमने कुछ नहीं बताया। आख़िर, कहानी क्या है। बताओ। अभी बताओ। तब तक मैं तुम्हें सोने नहीं दूँगी। खुद भी नहीं सोऊँगी।" उसने मेरी आँखों में सीधे ही झाँकते हुए कहा है।
"पहले मुझे पानी का गिलास ला कर दे। फिर चाय बनाकर ला। मैं तुझे सारी कहानी सुनाऊँगा।"
कारगिल में कुछ ऐसी चौकियाँ हैं जहाँ नवंबर-दिसंबर के महीने में बहुत ज्यादा बर्फ़ गिरती है। बर्फ़बारी से पहले अक्सर ही हम इन चौकियों को खाली करके पीछे हट जाते हैं। वहाँ उस खाली जगह पर हमारे जवान बीस-पच्चीस दिन के बाद चक्कर लगाते हैं। पिछली बार उन्हें चक्कर लगाने में देर हो गई थी। फिर, जैसे ही मार्च का महीना बीतता है, हम वापस इन चौकियों पर चले जाते हैं। कितने ही वर्षों से हम अपनी सहूलियत के लिए ऐसा करते आ रहे हैं। पाकिस्तानी फ़ौज ने कभी भी हमारी इस सहूलियत में दख़ल नहीं दिया। पिछली बार ठंड पड़ने से पहले हम पीछे हटे तो पाकिस्तानी फ़ौज के नए बने जनरल के मन में बेईमानी आ गई। उसने योजना बनाई कि क्यों न इन चौकियों पर कब्ज़ा कर लिया जाए। बाद में, श्रीनगर और लेह-लद्दाख को जाने वाली बड़ी सड़क को अपने नियंत्रण में लेकर ऊपर वाले एरिये को बाकी देश से काट दिया जाए। उस समय दोनों देशों के हालात भी इतने खराब नहीं थे। दोनों देशों के प्रधानमंत्री लाहौर में मिलकर पक्की दोस्ती के लिए हाथ आगे बढ़ाने की तैयारी कर रहे थे। उधर पाकिस्तानी फ़ौज का जनरल इस शांति वार्ता को हर तरीके से असफल करना चाहता था। फिर शांति वार्ता का समय आया। जब दोनों देशों के प्रधानमंत्री भविष्य में न लड़ने के वायदे करके एक-दूसरे से गले मिल रहे थे, तो पाकिस्तानी फ़ौज का जनरल तब तक बहुत सारा एरिया अपने कब्जे में कर चुका था और तेजी से आगे बढ़ रहा था।
हमारे जवान चक्कर लगाने गए तो उनका सामना गोलियों से हुआ। हमारे अफ़सरों ने हैलीकॉप्टरों से सर्वे किया तो पला चला कि पाकिस्तानी फ़ौज तो हमारी चौकियों पर कब्ज़ा जमाए बैठी थी।
जो कुछ होना था, वो हो चुका था। आने वाली बड़ी लड़ाई सामने दिख रही थी। हमारी फ़ौजें कारगिल की तरफ एकत्र होने लगीं। फौज़ियों की छुट्टियाँ रद्द करके उन्हें वापस बुलाया गया। ऐसे ही मुझे भी छुट्टी बीच में ही छोड़कर वापस जाना पड़ा था। तुझे याद है न, उन दिनों तेरे भाई का विवाह तय हो रखा था। तू सारी रात मुझे न जाने के लिए मनाती रही थी। मेरे सामने सरकारी ड्यूटी थी। तू बार-बार यही कहती गई थी, "कोई गोली नहीं चल गई। तुम मेडिकल लीव ले लो। विवाह का दिन बिता लो।" मैंने तुझे बहुत मुश्किल से मनाया था। बताया था कि फ़ौज की नौकरी में बहानेबाज़ी नहीं चला करती। यदि मैं न गया तो परिणाम बुरा निकलेगा। हमें हुक्म हुआ है कि हम तगड़ा हमला करके पाकिस्तानी फ़ौज को लाइन आफ कंट्रोल से पीछे धकेल दें। लड़ने वाली बटालिनों में मेरे वाली कंपनी सबसे आगे थे। जवानों को कंपनियों में बाँटकर आगे बढ़ने की ट्रेनिंग दी गई थी। हर रोज़ ट्रेनिंग प्राप्त कंपनियाँ, चौकियों को वापस लेने के लिए पूरी तैयारी के साथ आगे बढ़तीं और दुश्मन पर हमला करतीं। आमने-सामने की लड़ाई में अनगिनत जवान मारे गए। पाकिस्तानी फ़ौज फायदे में थी। एक तो वह ऊँचाई पर बैठी थी, दूसरा वो सुरक्षित ठिकानों में थी। हम खुले मैदान और नंगे धड़ लड़ रहे थे। इसीलिए हमारा बहुत नुकसान हो रहा था। इतना नुकसान करवाकर भी हमारा आगे बढ़ना जारी था। आख़िर, पाकिस्तानी फ़ौज के पैर उखड़ने लगे। हम और आगे बढ़ने लगे। पाकिस्तानी फ़ौज कब्ज़े वाली चौकियाँ एक-एक करके खाली करने लगीं। हम फिर से अपनी चौकियों पर झंडा लहराने लगे। ज़ोरों का युद्ध हो रहा था। दोनों तरफ के जवान मर रहे थे। जब हमारे अफ़सरों को यह यकीन हो गया कि पाकिस्तानी फ़ौज इतनी जल्दी सभी चौकियाँ खाली नहीं करने वाली, तो उनके दिमाग में एक और विचार आया।
कारगिल से पहले एक प्वाइंट ऐसा है जो ऊपर जाती सड़क के बिलकुल करीब रह जाता है। इस प्वाइंट का नाम द्रास प्वाइंट है। वैसे तो यह हर समय हमारे खास पहरे के नीचे रहता है, पर इस वक्त पूरा ज़ोर कारगिल में लगा होने के कारण फ़ौजी नज़रिये से यह प्वाइंट कमज़ोर था। हमारे अफ़सरों का विचार था कि पीछे हटती पाकिस्तानी फ़ौज कहीं तगड़ा हमला करके यह द्रास प्वाइंट ही न हथिया ले। इससे अगली फ़ौज की सप्लाई काटी जा सकती थी। ऐसी स्थिति का सामना करने के लिए अफ़सरों ने जंगलों में युद्ध की माहिर फ़ौज की स्पेशल कंपनियाँ मँगवाईं। इन स्पेशल कंपनियों ने यह सारा एरिया कवर कर लिया। इस तरफ जंगल था। ऊँचे-लंबे दरख़्त। इस फ़ौज को जैसी ट्रेनिंग दी जाती थी, उसने उसी ढंग से अपना काम आरंभ किया। इन जवानों ने पेड़ों से लंबे-लंबे रस्से बाँधे। एक पेड़ को दूसरे पेड़ से जोड़ा। ऐसा करते हुए सारे एरिये के पेड़ों को आपस में जोड़ दिया। इन रस्सों के सहारे जवान एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर होते हुए सारा जंगल घूम सकते थे। इतना ही नहीं, कोई भी जवान एक पेड़ पर बैठा अपने हाथ वाले रस्से के सहारे ऊपर-नीचे भी आ-जा सकता था।
पूरी तैयारी करके जवान रात में ही पेड़ों पर चढ़कर बैठ गए। हमारे अफ़सरों का अंदेशा सच साबित हुआ। अगले दिन कारगिल से पीछे हटी पाकिस्तानी फ़ौज ने तड़के ही द्रास प्वाइंट पर हमला कर दिया। जैसे ही पाकिस्तानी फ़ौज आगे बढ़ने लगी तो पहले से ही दरख़्तों पर चढ़े बैठे हमारे जवानों ने उन्हें भूनना शुरू कर दिया। वे 'या अली' 'या अली' के नारे लगाते हुए आगे बढ़ते पर हमारे जवान उन्हें वहीं का वहीं ढेर कर देते। पाकिस्तानियों के लिए बड़ी मुश्किल यह थी कि उन्हें पता नहीं चल पा रहा था कि गोलियाँ किधर से आ रही हैं। पाकिस्तानी फ़ौज सामने से हो रही गोलाबारी के कारण पीछे हटने लगी थी। पीछे से उनके अफ़सर उन्हें फिर से आगे धकेलने लगे। सारा दिन इसी तरह गुजर गया। द्रास प्वाइंट पाकिस्तानी फ़ौज के लिए मौत की जगह बन गया। कोई ज़ोर न चलता देख पाकिस्तानी अफ़सरों ने द्रास प्वाइंट से फ़ौज को वापस बुला लिया। लाशों के ढेर छोड़कर शेष बची पाकिस्तानी फ़ौज द्रास प्वाइंट को खाली कर गई। इधर हमारे जवानों को भी लौटने के आदेश हो गए। शाम हो गई थी। हमारे जवान बंदरों की भाँति रस्से टापते और उछलकूद करते वापस लौटने लगे। वापसी पर मैं पीछे रह गया। एक बार पीछे छूटा तो फिर दूसरों से पीछे ही छूटता चला गया। मैं रस्सों की दुनिया में ऐसा खोया कि आसपास रास्ता तलाशता मैं और ज्यादा खो गया। इधर-उधर घूमता थक गया। कुछ देर आराम करने के लिए एक पेड़ के दो शाखाओं में बँटे तने के बीच पीठ टिकाकर बैठ गया। प्यास के मारे मेरा बुरा हाल था। मैंने अपनी बोतल हिलाई। उसमें एक बूँद भी पानी नहीं था। मेरी बाईं टाँग में गोली लगी हुई थी। मैंने अपने सूखे होंठों पर जीभ फिराई। फिर, अपने साथियों की आवाज़ें सुनने की कोशिश करने लगा, पर मुझे कोई आवाज़ न सुनाई दी। सूरज छिप चुका था। मैंने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं, पर पेड़ों के सिवाय मुझे वहाँ कुछ भी दिखाई नहीं दिया। मैं यह अंदाजा लगाने की कोशिश करने लगा कि मैं पाकिस्तान वाले हिस्से में हूँ अथवा हिंदुस्तान की तरफ। तभी मुझे नीचे की ओर हलचल सुनाई दी। मैं मोटे दरख़्त के तने के साथ छिपकर बैठ गया। एक पाकिस्तानी फ़ौजी झाड़ियों में से निकलकर मेरे सामने आ गया। वह एक छोटे से पहाड़ी टीले पर खड़ा हो गया। जहाँ वह खड़ा था, वह जगह मेरे ऐन सामने पड़ती थी। वह घबराया हुआ सा इधर-उधर देख रहा था। उसकी हालत देखकर मैं समझ गया कि वह भी अपनी कंपनी से बिछड़ा हुआ सिपाही था। वह कभी बैठ जाता, कभी खड़ा होकर दूर-दूर तक नज़र दौड़ाता। उसे भी इस जंगल में से निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा था।
"अभी लड़ाई जारी है, यह मेरी दुश्मन फ़ौज का सिपाही है।" मैंने यह सोचते ही राइफ़ल उसकी ओर सीधी करते हुए ट्रिगर पर उँगली रख ली। पहाड़ी टीले पर बैठा पाकिस्तानी एक बार फिर खड़ा हुआ। उसने आसपास देखा। वह कंधे के ऊपर से पीछे की ओर हाथ करके पीठे पर हुए ज़ख़्मों पर हाथ फेरने की कोशिश करता, पर ज़ख़्मों तक हाथ न पहुँचने के कारण वह दाँत भींच कर रह जाता। मैं उसकी हरकतें देखता रहा।
"अगर उसने ऊपर मेरी तरफ देख लिया तो वइ गोली मारने में एक मिनट नहीं लगाएगा।" यह सोचते ही मैं और अधिक सावधान हो गया। लेकिन मैं उससे बेहतर पोजीशन में था। उसके गोली चलाने से पहले ही मैं ट्रिगर दबा सकता था। वह दूसरी तरफ देखता हुआ मेरी ओर पीठ करके खड़ा हो गया।
अब मुझे कोई खतरा नहीं था। मेरे हाथ ढीले पड़ गए। फिर मुझे ख़याल आया कि वह मेरे निशाने की मार के नीचे है। क्यों न उसे ललकार कर उसके हथियार गिरवा लूँ। उसे क़ैदी बना लूँ।
मैंने देखा कि वह नीचे खड़ा फिर मुड़ने लगा था। अब उसकी नज़र मेरे बाएँ हाथ के दरख़्त की ओर थी। वह दरख़्तों के ऊपर से देखता हुआ दिशा का अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहा था। दरख़्तों की ओर देखते देखते उसकी नज़र धीरे-धीरे मेरे वाले दरख़्त की तरफ आ गई। मैं सावधान हो गया। वह थोड़ा-सा और मुड़ा तो मैं उसके बिलकुल सामने था। हैरानी से उसकी नज़रें मेरे चेहरे पर टिक गईं। उसने देख लिया था कि मैं उसकी तरफ राइफ़ल ताने ट्रिगर पर उँगली रखे बैठा था। ट्रिगर दबने की देर थी कि बस ठांय...। फिर उसका बायाँ हाथ दाएँ हाथ में पकड़ी राइफ़ल की ओर बढ़ा।
"हथियार फेंक दे, नहीं तो गोली चला दूँगा।" मैंने चीखते हुए कहा।
उसका हाथ रुक गया। मेरी आवाज़ सुनकर उसने कंधे से उतार कर राइफ़ल दूर फेंक दी। दोनों हाथ ऊपर करके खड़ा हो गया।
मैं उसके खाली हाथ देखकर नीचे उतरा। उसकी तलाशी ली। उसकी राइफ़ल अपने कब्ज़े में की। उसके हाथ पीछे की ओर मोड़ने लगा तो वह कराह उठा।
"मेरी पीठ पर गोलियाँ लगी हुई हैं।" उसकी आवाज़ में अथाह दर्द था। मैं उसके पैर बाँधने लगा। उसके पैर भी लहुलूहान थे।
"गोलियों से तो मैं छलनी हुआ पड़ा हूँ। भागने लायक कहाँ हूँ मैं। मैं कहीं नहीं भागता। मुझे कसम है मेरे अल्लाह पाक की, मैं तुझे धोखा नहीं दूँगा। सच पूछता है तो तुझसे मिलकर बड़ा सुकून मिला है।"
"अच्छा, बैठ जा फिर।" मेरे इतना कहने पर वह बैठने की बजाय लेट गया था।
"बहन..., क्या नाम है तेरा?"
"गाली क्यों देता है? प्यार से बात कर। सारी रात मिलकर गुजारनी है। मेरा नाम जमील अहमद है।"
"पीछे कौन सा गाँव है?"
"कसूर के पास मेरा गाँव है फतिहाबाद। करीब दो साल पहले फ़ौज में भर्ती हुआ हूँ। घर में भाँग भुजती थी। भूखा मरता क्या न करता। छह बहनें और मैं उनका इकलौता भाई। अब्बा नहीं चाहता था कि मैं फ़ौज में भर्ती होऊँ। पर मेरे सामने दूसरा कोई रास्ता नहीं था। घर के सदस्यों को खाने-पीने के लिए कुछ चाहिए था। अब घर मेरे भेजे गए पैसों से चलता है। अगर मैं न रहा तो उस घर का क्या होगा - अल्लाह ही जानता है।"
उसकी कथा सुनकर मुझे उससे हमदर्दी होने लगी थी।
"भाई, तू अभी से चुप हो गया। बातें कर। मुझे अधिक बातें नहीं आतीं। तू भी अपने बारे में बता दे।"
"मेरी भी हालत तेरे जैसी ही है। मैं भी भूख का मारा फ़ौज में भर्ती हुआ हूँ। मेरा बाप सुनार का काम करता था। सोने का भाव बढ़ गया। लोगों ने गहने बनवाने बंद कर दिए। मेरे बाप को रात में बोतल पिये बिना नींद नहीं आती थी। घर में जो चार पैसे थे, वे भी खत्म हो गए। रोटी-पानी के लाले पड़ गए। मुझे घरवालों ने बी.ए. तक पढ़ाया, पर नौकरी नहीं मिली। न सरकारी, न ही प्राइवेट। अगर प्राइवेट मिली भी तो तनख्वाह इतनी कम थी कि मेरा अपना खर्च ही पूरा नहीं होता था। घरवालों से चोरी ही मैं फ़ौज में भर्ती हो गया। फ़ौज में होने के कारण ही मेरा विवाह हुआ। अब पीछे दो बच्चे हैं। बड़ा लड़का और छोटी लड़की स्कूल में पढ़ते हैं।" इससे आगे मुझसे बताया नहीं गया था।
"फिर तो हम एक जैसे हैं।"
"हूँ।"
प्यास के मारे मेरा बुरा हाल हो गया था। मेरा पानी खत्म हो गया था। मैंने उससे पूछा, "तेरे पास पानी है?"
उसने कुहनी के बल होकर बोतल का ढक्कन मुँह में लेकर खोला। बोतल मेरे मुँह में उंडेल दी। पूछा था, "अब कैसा है?"
"पानी पीकर कुछ राहत मिली है।"
वह दर्द में कराह उठा था। मैंने अपने पिट्ठू में से पट्टी निकाली। उसकी पीठ के ज़ख़्म पर रखी। अपनी पगड़ी में से लंबी-सी लीर फाड़ी और बाँध दी। उसे कुछ राहत मिली।
"भाई, तूने अपना नाम तो बताया नहीं।" कुछ देर बाद उसने पूछा।
"मेरा नाम अजायब है। मुझे लगता है कि तेरी बगल के पिछले हिस्से में बड़ा ज़ख़्म है।"
"गोली मेरी बगल के पास से निकल गई। पसली तो बच गई पर लगता है, मांस का लोथड़ा उड़ गया। अब इस पेट का क्या करूँ?"
"क्या हुआ?"
"मैं सवेर का भूखा घूम रहा हूँ। खाने को मेरे पास कुछ नहीं।"
"इस बात की तू फिक्र न कर। मेरे पास बहुत सामान है।" मैंने पिट्ठू खोलकर दोनों के मध्य रख लिया। हम दोनों शक्करपारे, गुड़ और भुजे हुए चने खाने लगे।
"यार जमील, ठंड लगने लग पड़ी है।" हाथ मलते हुए मैंने आसपास देखा।
"ठंड तो भाई हो ही रही है, ऊपर से रात उतर आई है।"
बातें करते हुए हमें पता ही नहीं चला कि हमारे इर्दगिर्द अँधेरा पसर चुका था। चारों ओर धुंध-सी फैलने लगी थी। ठंडी बयार चलने लगी थी।
"आ फिर, जैसे तैसे लकड़िया इकट्ठी करें।" हम दोनों घुटनों के बल होते हुए घासफूस और छोटी-छोटी टहनियाँ इकट्ठी करने लगे। कुछ ही देर में अच्छी-खासी ढेरी बन गई। जमील ने पिट्ठू में से कपड़ा निकाला और जेब में से माचिस निकाल कर आग जला ली। आग के सेंक से हमारी देहों में गरमाहट आई। हम कुछ ठीक ठीक महसूस करने लगे।
"तू दरख़्त पर क्यों चढ़ा बैठा था?"
"छोटे भाई, पेड़ों पर तो मैं सुबह से ही दौड़ा फिरता था। हमारी कंपनी पेड़ों पर बैठकर युद्ध किया करती है।"
"तभी हमारे सिपाहियों को मक्की के दानों की तरह भूनते रहे।"
"तुम्हें इस बात का बिलकुल भी पता नहीं चला कि गोलियाँ तो दरख्तों के ऊपर से आ रही हैं?"
"दरअसल हम उलझन में फँस गए। एक तो तुम सामने से बहुत ज़ोरदार गोलाबारी कर रहे थे। दूसरा पीछे से हमारे अफ़सर टिकने नहीं दे रहे थे। हाँफते हुए सिपाहियों को कुछ सूझ नहीं रहा था। वे अंधाधुंध हमें आगे की ओर धकेले जा रहे थे। हमें सोचने का मौका ही नहीं मिला कि हम करें तो क्या करें।"
"लड़ाई में तो ऐसा ही होता है।"
"मुझे यह बात समझ में नहीं आई कि मैं तेरा दुश्मन तकरीबन दस मिनट तेरे सामने खड़ा रहा, पर तूने मुझे मारा क्यों नहीं?"
"लड़ाई में दुश्मन को मारना ही ज़रूरी नहीं होता। अगर तुम उसके हथियार फिंकवा कर उसे क़ैदी बना लेते हो, तो भी जीत तुम्हारी ही होती है। और एक बात और...।"
"वह क्या?"
"मैंने सोचा कि अगर तेरे हथियार फिंकवा कर मैं तुझे क़ैदी बना लूँ तो कम से कम इस उजाड़ जंगल में रात काटने के लिए किसी का साथ तो मिल जाएगा। अकेले को तो जंगल में जानवर ही खा जाएँगे।"
"यह बात तो मेरे मन में भी आई थी।"
"अच्छा !"
"मुझे पता चल गया था कि संकट के इस मुकाम पर न तू मुझे मारेगा, न ही मैं तुझे मारूँगा।"
"यह बात तूने कैसे सोची?"
"ऐसी हालत में तो आसपास के दरख़्त भी साथी तलाशते हैं। हम तो फिर भी इनसान हैं। शायद, तुझे पता नहीं, एक बार तो मैं तुझे गोली मारने ही लगा था। मार भी सकता था। पर मुझसे घोड़ी नहीं दबाई गई। क्या मालूम, खुदा के फ़जलो-करम से तू बच गया...।" वह बताते-बताते रुक गया। मानो उसे पीछे से किसी ने रोक लिया हो। फिर वह बोला था, "अब हम एक-दूजे का आसरा बने हुए हैं। दिन चढ़ते ही ड्यूटी निभानी है हमें। हम फिर एक दूसरे की जान के दुश्मन बन जाएँगे।"
"ड्यूटी की ड्यूटी के साथ रही। पर फ़ौजी कौन सा इनसान नहीं होते। वे भी तो रब के बनाए लोग हैं।"
"यह बात तो तेरी बिलकुल दुरुस्त है।"
फिर हम कितनी ही देर चुप रहे।
मेरी टाँग में से दर्द की लहरें उठकर सिर की ओर बढ़तीं। मेरे हाथ-पैर झूठे पड़ने लगते। मैं सोचता कि मेरे सामने बैठे जमील का क्या हाल होगा। उसके चेहरे पर अजीब-सा कसाव था। मैंने दर्द को भूलने के लिए उसे झिंझोड़कर पूछा, "क्या सोचने लग पड़ा?"
"कुछ नहीं।"
"क्यों झूठ बोलता है?"
"झूठ क्यों बोलना। मैं अपनी अम्मी के संग बातें कर रहा था। वह मुझसे बहुत मोह करती है। जब उसे मेरी वफ़ात का पता चलेगा, वह आधी तो उसी वक़्त मर जाएगी। तुझे कौन याद आ रहा है?"
"मेरी घरवाली एक गीत गाया करती है - इन अँखियों में डालूँ कैसे कजरा, रे अँखियों में तू बसता।... मुझे यह गीत याद आ गया।"
मुझे इस बात का पता नहीं चल रहा था कि क्या मुझे नींद आ गई थी या ज़ख़्मों के दर्द ने मुझे अपने आसपास की कोई सुध-बुध नहीं रहने दी थी या मैं कुछ समय के लिए बेहोश हो गया था। मेरी आँख खुली थी तो मैंने घबराकर आसपास देखा था। मुझे जमील कहीं दिखाई नहीं दिया था। मेरे मुँह से गाली निकली, "...कर दी न दुश्मनों वाली बात।" एक ओर बैठे जमील ने मेरी बात सुन ली थी। उसने सामान्य से कुछ ऊँची आवाज़ में कहा था, "घबरा न भाई, मैं तो इधर बैठा हूँ। मैं तो अल्लाह के क़हर से डरता इधर आ गया था। यदि मैं सो जाता तो मुमकिन था कि मेरे जिस्म को आग लग जाती। मैं दोज़ख की आग में जल मरता। फिर अल्लाह को क्या जवाब देता।"
हम दोनों के बीच एक लंबी चुप पसर गई थी मानो कोई बात करने वाली न रह गई हो। या फिर यदि काई बात कहना चाहते भी थे तो वह हम कह नहीं पा रहे थे। फिर पहल करते हुए मैंने पूछा था, "जमील, कोई बात कर।"
"रात को हम भाइयों जैसे थे। अब दुश्मन...।"
"फिर वही बात... तू ऐसा क्यूँ सोचता है?"
"यह वक़्त का सच है।"
"मुझे लगता है, भीतरखाने कोई और बात है।"
वह खामोश रहा था।
"खुलकर बता भी।" मैंने ज़ोर डालकर पूछा था।
"तू मेरे पर एक फ़ज़ल करना - मुझे कब्र खोदकर दबा देना।"
उसकी बातों ने मेरा सिर घुमा दिया था। मुझे लगा था कि वह धीरे-धीरे अपने मन की गाँठें खोल रहा था। मैं स्वयं चाहता था कि वह मन की गाँठें खोले। ऐसा करने से उसे दर्द की लहरों से कुछ समय के लिए राहत भी मिल सकती थी।
"कुछ और?"
"तू मेरा दर्द नहीं जान सकता।"
"यार बता तो सही।"
"मैं बहुत दुखी हूँ। मुझे लगता है, मैं बचूँगा नहीं। जब बचना नहीं तो यूँ ही दर्द-तक़लीफ़ें सहने का क्या फायदा? यदि तू भले का काम कर सकता है तो मुझे गोली मार दे। अब मैं मरना चाहता हूँ। मुझसे यह दर्द बर्दाश्त नहीं हो रहा। अल्लाह पाक के घर से तेरा पुण्य होगा।"
मैंने दूसरी तरफ़ देखना आरंभ कर दिया था।
"भाई, तुम्हारे मज्हबी ग्रंथ मौत के बारे में क्या कहते हैं?" उसने बमुश्किल साँस लेते हुए पूछा था।
"तू मौत के बारे में क्यों पूछता है? ज़िंदगी के बारे में बातें कर।"
"पहले तू मौत के बारे में तो बता।"
"छोटे भाई, मैं कोई गुणी-ज्ञानी तो हूँ नहीं। मेरी माँ रोज़ गुरुद्वारे जाती है। पिता कृष्ण भगत हैं। घरवाली सभी देवी-देवताओं को मानती है। जो बातें मैं तुझे बताने जा रहा हूँ, वे भी मैंने घर से ही सीखी हैं। मौत के बारे में भगवत गीता में लिखा है कि जो जीव आया है, उसने जाना ही जाना है। जीव क्या, हरेक चीज़ नाशवान है। जैसे आदमी पुराने वस्त्र उतार कर दूसरे नए वस्त्र पहन लेता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर दूसरे नए शरीर को धारण कर लेती है। गुरबाणी भी कहती है - राम गइयो, रावनु गइयो, जा कउ बहु परवार। कहु नानक थिरू कछु नाहीं, सुपने जिउ संसारू।"
"जो वक़्त से पहले मर जाते हैं?"
"उनकी रूहें भटकती रहती हैं। उन रूहों का ध्यान घर में ही रहता है। वे हमारे सपनों में आती हैं। हमें अंदर और बाहर चलती-फिरती दिखाई देती हैं। उन्हें कीलना पड़ता है। एक धार्मिक स्थान है। पहेवा। उनकी वहाँ जाकर गति करवानी पड़ती है। फिर कहीं जाकर वे पीछा छोड़ती हैं।"
हमारे बीच फिर एक लंबी चुप पसर गई थी।
उसने मौत के विषय में सोचना शुरू कर दिया था। वह किसी मौलवी के कहे शब्द दोहराने लगा, "यह दुनिया तो बस चंदरोज़ा फायदा है और जो आखिरत (परलोक) है, वही पायेदार घर है।" फिर वह पैदाइश से लेकर मौत, आलमे-बर्ज़ख (स्वर्ग और नरक के बीच का लोक) और कियामत की दुनिया के बीच विचरने लगा था। उसे ऐसा लगा था जैसे दो फ़रिश्ते उससे मिलने आए थे। उन्होंने हाथों में उसका आ'मालनामा पकड़ा हुआ था। एक फ़रिश्ते ने उसको उसका आ'मालनामा दाएँ हाथ में पकड़ाया था। उसने फ़रिश्ते को बताया था, "मैं अपनी सरज़मीन के लिए शहीद हुआ हूँ।"
मेरा गला बार बार सूख रहा था। पानी वाली बोतल खाली हो गई। फिर मैंने उसे बातों में लगाना चाहा था। उसने कहा था, "मैं कभी ज्यादा बोला ही नहीं। बस, सुनता ही हूँ। तू सुनाये चल।" मैंने दूसरी तरफ़ मुँह घुमा लिया था।
उससे और अधिक इंतज़ार नहीं हुआ था। उसने दाँतों तले जीभ दबाकर करवट बदल ली थी, "भाई, मैं बहुत कष्ट में हूँ। तू मार दे न मुझे गोली। ज़ख़्मों में बहुत चीसें उठ रही हैं। खुदा के नाम पर यह करम कर दे।"
मुझे उसकी हालत पर तरस आया था। मेरा एक मन कह रहा था कि गोलियों की बौछार करके उसकी गति कर दूँ। ऐसी ज़िंदगी से मौत भली। मुझे इस बात का भी पूरा यकीन हो गया था कि वह बचेगा नहीं। वह कुछ घंटों या दो-चार दिनों का मेहमान था। दूसरा मन कह रहा था कि यह बहुत बड़ा पाप होगा। एक तरफ़ तो मैं उसे छोटा भाई कह रहा था, दूसरी तरफ़ उसकी जान ले लूँ। यह एकतरफ़ा का न्याय है।
मुझे लगा था कि सीज़-फायर हो गया था। सूरज दरख़्तों के सिरों पर आ चढ़ा था। किसी तरफ़ से भी गोलियों के चलने या बम के धमाकों की आवाज़ नहीं आ रही थी।
मैंने उससे कहा था, "चल, मैं तुझे तेरी हद में छोड़ आऊँ। लगता है, लड़ाई खत्म हो गई है।"
उसके चेहरे पर रौनक आ गई थी। मैं खुद लंगड़ाता हुआ उसे कितनी दूर तक ले गया था। वह चलते-चलते थक गया था, पर उसने हिम्मत नहीं हारी थी। एक स्थान पर आकर वह बैठ गया था। उसने लंबी लंबी साँसें ली थीं। दोनों हाथ जोड़कर कहा था, "भाई, मैं तेरा कैसे शुक्रिया अदा करूँ। तू मुझे मेरी सरज़मी पर ले आया।"
मैंने उसकी तरफ़ देखा था। फिर एकाएक मुझे रस्सों पर से पम्मा गिरता हुआ दिखाई दिया था। पम्मे की चीख़ सुनाई दी थी। अब जमील पाकिस्तानी फ़ौज का सिपाही था। फिर मैं गुस्से में पागल हो गया था। मुझे सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना दुश्मन दिखाई दे रहा था। अब जमील मेरा दुश्मन था।
मैंने उसकी ओर निशाना साधकर राइफ़ल के ट्रिगर पर उँगली का दबाव डालना शुरू किया था कि मुझे एक आवाज़ सुनाई दी थी। फिर मुझे इस बात का पता नहीं चला था कि गोली मैंने चलाई थी या मेरी कंपनी के किसी जवान ने। जब होश आया तो मैं अस्पताल के बैड पर पड़ा था।