दर्रों की घाटी लद्दाख / संतोष श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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अक्टूबर का खुशनुमा महीना और श्रीनगर से कारगिल की ओर रवाना होती हमारी मिनी बस। बड़ा ही रोमांचक लगता है दुर्गम रास्तों का सफ़र। ऊंचे-ऊंचे भयानक खूबसूरती को समेटे पर्वत और अंधकार को गले लगाए गहरी-गहरी घाटियाँ।

मिनी बस के ड्राइवर का नाम हैदर था। हंसमुख पठानी मर्द। मैंने उससे रास्ते की जानकारी चाही तो तपाक से बोला "ओ जी चल रहे हैं वुहान कैंप। जहाँ से मिलिट्री एरिया शुरू होता है।"

मैंने देखा छल-छल बहते पारदर्शी पानी को चढ़ाई उतराई में संग-संग बहते। वह सिंधु नदी थी। हमारी बस श्रीनगर से लेह राष्ट्रीय राजमार्ग पर थी। रास्ते के दोनों ओर चिनार के पेड़ ही पेड़। चिनार के तांबे या हरे या हल्के लाल पत्ते पतझड़ में सड़क को ढंक देते हैं। तब पत्रविहीन चिनार की डालियाँ सूनी-सूनी निर्निमेष सामने के ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों को बस देखती रहती हैं। पहाड़ कहीं-कहीं बर्फ से ढके थे। रास्ते में चुने हुए पत्थरों के ढेर, नदी के किनारे भी गोलाकार सफेद पत्थर जैसे पत्थरों की नुमाइश लगी हो। नदी के ऊपर लकड़ी के हरे पेंट से रंगे पुल पर से जब बस गुजरती तो वह तेज़ आवाज कर खामोश वादियों को चौंका देता। सामने जोजिला पास। जोजिला पास से गुजरते हुए युद्ध के दिन याद आ गए। यहीं बहा होगा पाकिस्तानी सैनिकों से मुकाबला करते हुए भारतीय सैनिकों का लहू। उनकी स्मृति में जोजिला वार मेमोरियल बना है। लाल सफेद रंगों वाला स्मारक देखते ही दाहिना हाथ सेल्यूट की मुद्रा में माथे तक पहुँच गया। रास्ते में पड़ने वाले सभी गाँव बहुत कम आबादी वाले गाँव थे। टीन के शेड वाले बस 20 या 25 मकान होंगे। चाहे डुमरी एरिया हो या मीणा मार्ग सभी एक जैसे गाँव। समझ में नहीं आ रहा था कि पर्वत सड़क की दाहिनी ओर हैं या सामने या वैली से निकल रहे हैं क्योंकि रास्ता घुमावदार था। पर्वतों पर वनस्पति नहीं के बराबर लेकिन मिट्टी के विविध रंग जैसे प्रकृति ने होली खेली हो इन पर्वतों के संग। हरे, भूरे, गेरू रंग के पीले कहीं गुलाबी भी। पर्वतों के पीछे से झांकते बर्फीले पहाड़ उन्हीं में से एक टाइगर हिल है जिसका आधा हिस्सा पाकिस्तान में है और आधा हिंदुस्तान में। कारगिल युद्ध के दौरान टाइगर हिल पर बने सैनिक बंकरों ने भारी तबाही मचाई थी। इन बंकरों को पाकिस्तान के चंगुल से छुड़ाने के लिए भारतीय सेना को असाधारण नीति से काम लेना पड़ा था।

थोड़ी ही देर में हम द्रास पहुँच गए। द्रास विश्व का दूसरा सबसे अधिक ठंडा आबादी वाला स्थान है। सर्दी के मौसम में यहाँ तापमान शून्य से 50 डिग्री सेल्सियस नीचे तक पहुँच जाता है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस तरह की भीषण सर्दी में जीवन निर्वाह कितना मुश्किल होगा। गर्मी के चार, पाँच महीनों में ही खाद्य सामग्री, ईंधन, पेट्रोल तथा जरूरत की सभी चीजों का स्टॉक करना पड़ता है। बता रहे थे रेस्तरां के मालिक जगजीत जिनके रेस्तरां में हम ठंड से टकराते हुए उबलती चाय बिना फूंक मारे पी रहे थे। जगजीत ने बताया

"मैं तो यहाँ स्कूल में शिक्षक हूँ और यह रेस्तरां भी चलाता हूँ। अभी तो ऑफ सीजन है वरना यहाँ देशी-विदेशी पर्यटकों की भीड़ रहती है। द्रास में खूबानी खूब पैदा होती हैं। बाकी सामान जम्मू से आता है। सब सामान गर्मियों में ही स्टोर कर लेना पड़ता है। क्योंकि श्रीनगर लेह राजपथ और लद्दाख मनाली मार्ग दोनों बर्फ की ऊंची-ऊंची परतों से ढक जाते हैं। कृषि और उद्योग तो यहाँ नहीं के बराबर है।" एकाएक जगजीत के चेहरे पर पीड़ा झलक आई-"रह-रह कर पाकिस्तान की तरफ से अकारण गोलीबारी होती रहती है। कभी कोई जवान शहीद हो जाता है तो कभी कोई। कारगिल युद्ध की मार तो हम अभी तक नहीं भूल पाये हैं। 1999 से लगभग दो महीनों तक कारगिल, मुश्की, द्रास बटालिक नूबरा आदि क्षेत्रों में सेना और आतंकवादियों की झड़पें चलती रहीं। उस वक्त हम सबने मिलकर उनका सामना किया। हालांकि कईयों को घर छोड़ने पड़े और परिवारजनों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा। लेकिन उससे क्या। पाकिस्तान हमें जीने नहीं देगा तो क्या हम उसे जीने देंगे?"

जगजीत के रेस्त्रां की दीवारों पर लद्दाख की हसीन वादियों की, नक्शे की और शहीदों की तस्वीरें उसके देश प्रेम को प्रकट कर रही थीं। विदा लेते वक्त मैंने उसे "जय हिंद" कहा उसने भी तपाक से सैल्यूट किया-"जय हिंद मेरा भारत महान।"

कारगिल की ओर बढ़ते हुए हैदर ने बताया लद्दाख में बरसात द्रास तक ही होती है। इसके बाद पानी की बूंदे बर्फ बनकर गिरती है। " कारगिल में प्रवेश करते ही मन कई तरह के रोमांच से भर गया।

हमें जिस होटल "कारवां सराय" में रात बितानी थी वह बहुत ऊंचाई पर ढेरों सीढ़ियाँ चढ़कर था। यहाँ कमरा तापमान की तुलना में गर्म नहीं था लेकिन नीचे उतर कर जो डाइनिंग रूम था वह अपेक्षाकृत गर्म था। खाना पंजाबी तरीके से पकाया हुआ जायकेदार था। जम्मू के बाद अब अच्छा खाना नसीब हुआ। होटल के मैनेजर सरदार जी थे। बेहद सीधे एकदम किसान जैसे लग रहे थे। हमने खाने की तारीफ की तो खुश होकर गरम रोटियाँ मंगवाने लगे।

"बहन जी अभी तो ऑफ सीजन है। आपके लिए ही होटल खुला रखा है। कल तो बंद करके हम भी पंजाब चले जाएंगे।"

"यहाँ पर्यटक कब आते हैं?"

"जनवरी से लेकर जुलाई महीने तक तो कम भीड़ रहती है। अगस्त सितंबर में घाटियाँ और पेड़ों पर बसन्त आ जाता है। उस वक्त यहाँ की सुंदरता देखने बहुत पर्यटक आते हैं।"

यानी कि हम एक महीना लेट हो गए यहाँ आने में। खाना खाकर कमरे में आए तो नल खुल ही नहीं रहा था। वही सरदारजी छेनी हथौड़ी लिए नमूदार।

"अरे आप?"

"क्या करें सब छुट्टी पर चले गए।"

जब हम बालकनी में खड़े थे तो देखा सरदार जी इस कमरे से उस कमरे भाग रहे हैं छेनी हथौड़ी लिए गर्म पानी के नल को ठीक करने। सामने घाटी रात के अंधेरे में बेहद खूबसूरत दिख रही थी। गौरीकुंड याद आया। ऐसी ठंडी बालकनी में बैठकर मैंने दर्शन किए थे प्रकृति की खूबसूरती के। जब मैं केदारनाथ जा रही थी। वैली के घरों में बत्तियाँ जगमगा रही थीं।

लद्दाख के दो जिले हैं। कारगिल और लेह। कारगिल की आबादी 25 हज़ार है। पर्यटन ही मुख्य व्यवसाय है। बाकी मिलिट्री एरिया होने के कारण अन्य माल की खपत जम्मू से होती है। यहाँ इस्लाम धर्म के अनुयायी अधिक हैं। खासकर शिया धर्मावलंबी। ईरान से भी इनके लिए फंड आता है। चीन से भी माल आता है। लद्दाख प्रदेश सदियों से एशिया के साथ व्यापार सम्बंधों का द्वार रहा है। अपनी अद्भुत सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखते हुए आधुनिकीकरण की ओर बढ़ते कदम अनूठी मिसाल पेश कर रहे हैं। क्योंकि यहाँ जीवन बहुत अधिक विषम है। महंगाई बहुत अधिक है। क्योंकि 80% माल तो बाहर का ही होता है। रात हमने कारवां सराय में ठिठुरते हुए गुजारी।

सुबह नाश्ते के बाद लगभग 11 बजे हम लेह की ओर रवाना हुए। लेह कारगिल से 240 किलोमीटर की दूरी पर है और जम्मू से 800 किलोमीटर की दूरी पर। हैदर ने कारगिल फिलिंग स्टेशन से पेट्रोल भरवाया। ठंड अधिक थी। कारगिल में 40 फुट तक बर्फ गिर जाती है। इतनी ठंड में पाकिस्तानी सैनिकों ने जिनमें आतंकवादी भी शामिल थे कारगिल के टाइगर वैली में हथगोले, गोलियाँ और सारे युद्ध के हथियारों की वर्षा कर दी थी। कारगिल के सिविलियन भी सड़कों पर उतर आए थे। पूरा कारगिल युद्ध के मैदान में तब्दील हो गया था। भारी मन से मैं कारगिल की सड़कों को निहार रही थी और उन शहीदों को सलाम कर रही थी जो हमारी रक्षा करते-करते कुर्बान हो गए थे। लेकिन समय सबसे बड़ा मलहम है। मेरे भर आये मन पर यहाँ की अद्भुत प्रकृति ने फाहा फेरा। लिंक रोड पर पीले पत्तों वाले पेड़ों ने मन मोह लिया। सामने सिंधु ओर जन्सकर नदी का खूबसूरत संगम था। जंसकर नदी जनवरी-फरवरी में जम जाती है। पूरी नदी पर बर्फ की चादर बिछ जाती है। यही वह समय होता है, जब यहाँ पर्यटकों की बाढ़-सी आ जाती है। गाँव के लोग घर का पूरा सामान खरीदने निकलते हैं।

मुलबक से आगे खरबू गाँव में बौद्ध विहार हैं। गौतम बुद्ध की आदमकद मूर्ति और धम्मचक्र है। सफेद रंग से पुते चौकोन स्थल पर कलश जैसे रखे हैं। लाल सुनहरे कंगूरेदार स्थापत्य कतारबद्ध। घाटी में भी सफेद कँगूरे दार मकान हैं। पक्की सड़क जो लगभग 50 किलोमीटर तक चली गई है। बाईं तरफ रंग-बिरंगे अद्भुत पर्वत और दाहिनी ओर संग-संग चलती सिंधु चुपके-चुपके न जाने कब से मेरी हमसफर।

द्रास, मुलबक, मठाईयाँ गाँव से गुजरते हुए नमकीला पास आया। जहाँ नमक के पहाड़ सूरज की रोशनी में चमक रहे थे। मुंबई में समुद्र से नमक बनता है। यहाँ नमकीला ग्लेशियर की धार से। इस नमकीन धार को क्यारियों में इकट्ठा कर नमक बनाया जाता है। काँगरिल गाँव में कुछ तिब्बती बच्चे पत्थरों पर बैठे थे। हमने उनकी फोटो खींची तो खुश होकर बोले "थैंक यू" यानी शिक्षा वैली में बसे इस छोटे से गाँव तक पहुँच चुकी है। यहाँ रूरल डेवलपमेंट डिपार्टमेंट भी था। रंगीन पर्वतों के बीच एकमात्र हरी सफेद मस्जिद और फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के बोर्ड लगे थे।

रास्ते में नमयोरू, तलझी, फोटूला पास घाटियों से उभरता-सा यानी सबसे अधिक ऊंचाई वाला यह पास। यानी कि 13479 फीट ऊंचा ...

इन गाँवों को आगोश में लिए है।

फोटूला पास की ऊंचाई पर पानी तुरंत बर्फ बन जाता है। छोटे-छोटे 20 से 25 घरों वाले गाँव। हर गाँव में बौद्ध विहार, धम्मचक्र और मिलिट्री एरिया। शाँति, अहिंसा का संदेश देते ये विहार अशांति और हिंसा की गिरफ्त में क्यों कर हैं? क्यों शांति और अहिंसा की जीत नहीं हो रही है? लेह तक ये दृश्य बार-बार नजर के सामने आते रहे और मैं बार-बार सवालों से जूझती रही।

एक जगह मिलिट्री एरिया में सफेद ईंटों से सजा और बीच में लाल हरे सफेद रंगों से A1-105 लिखा शहीद स्मृति स्थल था। सब जगह शहीदों की स्मृतियाँ।

बड़ी अद्भुत निराली प्रकॄति दिखी यहाँ। ऊंचे पर्वतों को देखकर लग रहा था न जाने कितने रहस्य अपने में समेटे ये निर्विकार शांत खड़े हैं और तभी सिलसिला शुरू हो जाता है बर्फविहीन, रंग बिरंगी मिट्टी वाले पर्वतों का। आबादी छिटपुट... नहीं के बराबर। तभी अचानक बीच में छोटी-सी हरी-भरी घाटी दिखाई पड़ जाती है। जहाँ जिंदगी बड़ी ही सुस्त रफ्तार से चलती नजर आती है। कच्चे मकान इक्का-दुक्का, चरते हुए जानवर, खुबानी के हरे पेड़, हवाएँ तेज और ठंडी कँटीली सी। पिछले मौसम में झुरमुट में उगी वनस्पति सूखकर गहरी लाल, काली-सी दिख रही थी। मानो किसी ने गोबर के कंडे (उपले) बनाकर चिपकाए हों।

लरनायुरू गाँव में एक इकलौती दुकान थी जहाँ हमने लंच लिया। यह पूरा ADM एरिया था। पहाड़ों से उतरती वैली में कई लामा मेडिटेशन कर रहे थे। कहीं-कहीं पीले पत्तों वाले पेड़ खुद के होने का एहसास करा रहे थे। यहाँ भी फॉरेस्ट डिविजन का बोर्ड लगा था। घाट से उतरते चढ़ते इन पेड़ों की मौजूदगी बड़ी भली लगती थी। चेकपोस्ट पर बस रुकी। हैदर रुपए भरने ऑफिस की ओर गया और लौटने में काफी समय लगा दिया। चेक पोस्ट के गेट पर कई गाँवों के नाम लिखे थे। धोमकार, बायमा, दाह, गागारकोन, बटालिक, नुरूला, सन्सपोल और फिर लेह। वहाँ आधा घंटा रुकना पड़ा। अचानक पता चला कि हमारी दूसरी वैन पीछे रह गई।

शंकाएँ घिरने लगीं। अब तक आई क्यों नहीं? वह वैन भी हैदर की थी। उसे सवारियों से ज्यादा अपनी वैन की चिंता थी इसलिए पीछे लौटना पड़ा। पता चला वैन की ट्रक से टक्कर हो गई थी। सवारियाँ सही सलामत थीं पर वैन को नुकसान पहुँचा था। हैदर ने ट्रक वाले से 2000 हर्ज़ाना वसूला। रात घिर आई थी। अँधे मोड़, खतरनाक पहाड़ी रास्ते, आसमान में पूर्णिमा के बाद वाली चतुर्थी का चाँद चमक रहा था। शुभ्र ज्योत्सना बिखरी थी। लिहाजा टेंशन क्यों? रास्ता पार हो ही जाएगा। मैग्नेट हिल्स पर गाड़ी रोककर हमने अद्भुत दो मैग्नेट पर्वत देखे। साउथ और नॉर्थ हिल्स। इनकी मैग्नेट पहले गाड़ियों को खींचे रखती थी। अब भी गति में रुकावट आ ही जाती है। दोनों के बीच में पक्की सड़क बनी है और सफेद स्क्वायर बनाकर यह बताया गया है कि संभालकर गाड़ी चलाना। उतना एरिया मैग्नेटिक है। पास ही बोर्ड पर यह बात अंग्रेजी में लिखी है। हमें पत्थरसाहिब गुरुद्वारा भी देखना था। लेकिन वह बंद हो चुका था। प्रार्थना की तो सरदार जी ने अंदर आने दिया। 1517 ईस्वी में गुरु गोविंद सिंह तिब्बत से होते हुए लेह आए थे उसके बाद यह गुरुद्वारा बना। इसका नाम पत्थरसाहिब गुरुद्वारा क्यों पड़ा इसकी कहानी सरदार जी ने हमें हलवा प्रसाद खिलाते हुए बताई।

उस इलाके में एक दैत्य रहता था। जो लूटमार और हत्याएँ करके लोगों का जीवन दूभर किये था। जब गुरु गोविंद सिंह यहाँ आए तो लोगों ने दैत्य से छुटकारे की प्रार्थना की। वे समाधि लगा कर बैठ गए। उनकी हत्या के प्रयास में दैत्य ने एक भारी चट्टान पर्वत पर से उन पर गिराई। चट्टान गुरु गोविंद सिंह का स्पर्श करके वहीं थम गई। इस चमत्कार ने दैत्य का हृदय परिवर्तित कर दिया। वह उनकी शरण में आ गया। आज भी गुरुद्वारे में वह चट्टान है और गुरु गोविंद सिंह की आकृति उस पर उभरी है। जैसे किसी ने चट्टान को उसी रूप में तराशा हो। लेह पहुँचते-पहुँचते रात हो गई थी। हैदर को होटल नहीं मिल रहा था अतः पेट्रोल पंप पर होटल से किसी आदमी के आने का इंतजार करना पड़ा। इस वक्त यहाँ का तापमान 4 डिग्री था। तीखी हवा बदन को कंपाए डाल रही थी। भूख भी जोरों की लगी थी। होटल स्पिक-एन-स्पैन (3 स्टार) में बसेरा लेते रात के 9 बज गए। डाइनिंग रूम में गर्मागर्म डिनर हमारा इंतजार कर रहा था और बिस्तर पर पानी की गर्म थैलियाँ।

नींद कब आई पता ही नहीं चला।

इस बार लेह के दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए बड़ी तवेरा गाड़ी मिली। ड्राइवर नीमा स्वयं लद्दाखी था और काफी जानकारियाँ रखता था। वैसे तो पूरा लद्दाख 96.701 वर्ग किलोमीटर तक फैला है और आबादी 2 लाख है। अकेले लेह की आबादी 25 हज़ार है। यहाँ बौद्ध धर्म के अनुयायी सबसे अधिक हैं। ईसाई, मुसलमान भी हैं लेकिन सबसे कम संख्या हिंदू धर्मावलंबियों की है। ज्यादातर हिंदू होटल बिजनेस से जुड़े हैं। यहाँ लोहा, स्टील और पर्यटन आय के प्रमुख स्रोत हैं। लद्दाख जम्मू कश्मीर का हिस्सा है। सरकार लद्दाख के विकास के लिए जो करती है उससे कहीं अधिक इन्हें मिलिट्री हेल्प मिलती है। यही वजह है कि कारगिल युद्ध के समय इन्होंने सैनिकों की हर तरह से मदद की थी। यहाँ सूरज सुबह 7: 30 बजे उदित होता है और शाम 6: 00 बजे तक भरपूर चमकता है। धूप लद्दाख के बर्फीले पर्वतों को शीशे-सा चमकाती रहती है। इतनी ठंड के बावजूद धूप तीखी और त्वचा को जलाने वाली होती है। मई से अगस्त तक यहाँ की प्रकृति पूरे यौवन पर रहती है। खूबानिओं से पेड़ लद जाते हैं। खेतों में गेहूँ की फसल लहलहाती है। सभी तरह की सब्जियाँ, फल, सेव, अखरोट की पैदावार होती है। केला यहाँ नहीं होता इसलिए बहुत महंगा है। 40 से ₹50 दर्जन। केला श्रीनगर और चीन से आता है और महंगे दामों में बेचा जाता है। हम यहाँ के सबसे बड़े बौद्ध मठ हेमिस की ओर जा रहे थे। रास्ता सोने जैसे पत्तों, शाखाओं वाले यूलक पेड़ों से बेहद खूबसूरत नजर आ रहा था। इस पेड़ की लकड़ी घर बनाने के काम आती है। जून में यह पेड़ हरे पत्तों से लद जाता है। तब यहाँ बसन्त का मौसम होता है। काउंसलर ऑफिस और लेमटोन स्कूल सामने था। केंद्रीय विद्यालय भी हैं। स्तोक हिल की वैली में स्तोक गाँव बसा है। थोड़े से पीले रंग के मकान दिखे। सीधे सतर प्रहरी से खड़े पेड़ों ने मकानों को जैसे सुरक्षा-सी दी है। स्तोक हिल बर्फीला है। पीछे स्तोक ग्लेशियर भी है। चौकलामसर जगह से गुजरे तो बाजू में ही बौद्धों का प्रार्थना स्थल आया। बड़े ड्रम के आकार का धम्मचक्र ... खुली जगह और प्रार्थना स्थल। 1962 में जब तिब्बत से दलाई लामा लद्दाख आए तो उनके साथ कुछ तिब्बती भाग कर आए और चौक रामसर में शरणार्थी बनकर रहने लगे। कितने दुख की बात है, तिब्बत पहले भारत का अंग था। अब चीन में चला गया। अपने ही देश में लोग शरणार्थी हो गए। ध्यान केंद्र में 8 धम्मचक्र (छोस्तन) हैं।

जो मंत्रों के प्रतीक हैं इन चक्रों को घुमाने से मन शांत स्थिर हो ईश्वर में लौ लगाता है।

हेमिस में कई ऊंची-ऊंची सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं जो एक प्रांगण में जाकर खुलती हैं। खूबसूरत पच्चीकारी और सुनहले रंग से सजा गेट प्रांगण में कुछ स्तंभ। पांच मंजिल वाली पत्थरों पर बनी इमारत है। जो सफेद और गेरू रंग से रंगी है। ऊपर चढ़कर गौतम बुद्ध की विशाल मूर्ति है। उनके बाजू में जबोपेकार देवता हैं जो उनकी रक्षा करता है। सीढ़ियों पर धम्मचक्र बने हैं। जिन्हें घुमाते हुए मंदिर तक जाना होता है। दीवारों पर गौतम बुद्ध के जीवन की झांकी चित्रित है। म्यूजियम हम देख नहीं पाए। ऑफ़ सीजन के कारण बंद था। लामा बाल्यावस्था से ही बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर विवाह नहीं करने, घर-घर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करने और गरीबों की मदद करने का संकल्प लेते हैं। घुट सिर और कत्थई कपड़ों में लामा बहुत अच्छे दिख रहे थे। खासकर छोटे-छोटे बच्चे।

हेमिस खूबसूरत पहाड़ी जगह पर ऊंचे-ऊंचे यूलक वृक्षों के जंगल से घिरा है। चारों ओर पहाड़। वहीं एक गुफा में मेडिटेशन केंद्र भी है। हेमस में हर साल जून या जुलाई में पदमा संभवा की स्मृति में मेला भरता है। तब यहाँ बौद्ध अनुयायियों तथा स्थानीय लोगों के अलावा विदेशी पर्यटकों की भारी भीड़ गुंपा पूजा स्थान में इकट्ठी होती है। श्रद्धालु पारंपरिक रूप से नृत्य गायन द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करते हैं। इस अवसर पर महान लामा के सम्मान में विशेष कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं। हेमिस जाने के पूरे रास्ते में सिंधु नदी संग-संग बहती है। गोल-गोल पत्थर तलहटी में से दिखाई देते हैं। खारु सिटी में एक छोटे से झरने के रूप में सिंधु का पानी गिरता है। ऊंचाई पर नहर भी है जो कई किलोमीटर तक गई है।

त्रिशूल हिल के सामने लंबा चौड़ा मैदान है। जहाँ आर्मी को ड्राइविंग सिखाई जाती है। खारू मिलिट्री एरिया भी है। एक पूरी कॉलोनी सैनिकों की है। ठिकसे गाँव के बीच से सुनहले पेड़ों से घिरी सड़क से गुजरते हुए अद्भुत पर्वतीय सौंदर्य दिखाई देता है। ठिकसे मठ में पहुँचकर ऊपर तक निगाह गई। पत्थरों पर बसा अद्भुत शे पैलेस था। बड़े से गेट पर वही चित्रकारी, सुनहला रंग। पत्थर की 120 सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर गौतम बुद्ध की विशाल मूर्ति का मंदिर है और सामने प्रार्थना स्थल है। वहाँ लामा जोर-जोर से मंत्रोच्चारण कर रहे थे। उसके निचली मंजिल में भी बौद्ध मंदिर हैं। सामने पंच धातु से बने दो बड़े दीप कांच के शोकेस में जल रहे थे। थोड़ी सीढ़ियाँ चढ़कर गौतम बुद्ध की 7 .5 मीटर ऊंची मूर्ति है जो तांबा सोना और चांदी से बनी है। मूर्ति के सामने चांदी के दीपक लाइन से रखे थे। बाजू में सांख्यमुनि की मूर्ति है। छोटे-छोटे बच्चे सीढ़ियों पर धमाचौकड़ी मचा रहे थे। ऊपर से लेह सिटी का व्यू देखते ही बनता था। इसी में तीन मंजिल का शे पैलेस है जो लेह मनाली रोड पर सोलवीं सदी में राजा डेलदन नामग्याल ने बनवाया था। जिसकी ऊपरी मंजिल का कलश सोने का बना है। राजकीय परिवार 1834 में स्टोक महल में आ गया। स्टोक महल में राजपरिवार गर्मियों में रहता था और शे महल में सर्दियों में। शे महल में अब नूतन स्थापत्य का बौद्ध मठ है।

सीढ़ियाँ उतरकर सड़क के उस पार होली फिश पॉन्ड झील की शक्ल में है जहाँ सुनहरे धान नुमा पौधों के बीच काली सफेद बत्तखे तैर रही थीं। क्वें-क्वें की आवाज करती हमारे नजदीक आ गई। शायद खाने की चाह में।

हम सिंधु दर्शन के लिए रवाना हुए। पहले लोग सिंधु दर्शन के लिए पाकिस्तान जाते थे। सिंधु नदी हिमालय से निकलकर लद्दाख से बहती हुई पाकिस्तान जाती है और वहाँ से फिर भारत लौटती है। ऐसा भूगोल समझ आते ही लोग लेह में सिंधु दर्शन करने लगे। जिस समय भाजपा की सरकार थी। 1 जून 2001 को लालकृष्ण आडवाणी के हाथों सिंधु दर्शन का उद्घाटन हुआ और जब तक भाजपा रही हर वर्ष सिंधु दर्शन बड़े पैमाने पर महोत्सव के समान मनाया जाता रहा। अब कांग्रेस सरकार है। महोत्सव में वह जान नहीं रही फिर भी परंपरा निभाई जाती है। खूब लंबे चौड़े पक्के चबूतरे पर 12 छतरियाँ गेरू के रंग की हैं। दो-तीन सीढ़ी उतरकर मैंने सिंधु जल अंजली में भरकर होठों से लगाया तो खारा लगा। पहाड़ी पानी खारा और भारी होता है। पानी की लापरवाही से हिल डायरिया हो जाता है। यहाँ की हवा भी सूखी है। अगर शरीर में पर्याप्त गर्माहट नहीं पहुँची तो बुखार की चपेट में आ जाते हैं। हवा भी तेज थी धूप भी तीखी। अनोखा प्रदेश है लद्दाख। साल में करीब 300 दिन सूर्य पूरी अबताब के साथ चमकता है और रात होते ही बर्फीली ठंड अपनी करामात दिखाती है। बहरहाल हम लंच लेने होटल लौटे।

लंच के बाद थोड़ा सुस्ता कर 4: 00 बजे शांति स्तूप के लिए रवाना हुए। माने सर्कल से टर्न लेते ही तिब्बती रिफ्यूजी बाज़ार मिला, छोटा-सा। फिर लिंक रोड से शांति स्तूप गए। रास्ते में नीचे मिलिट्री रोड थी। जहाँ महाबोधि योग सेंटर था।

झक्क सफेद शांति स्तूप अधिक ऊंचाई पर स्थित गोल गुंबद पगोडा है जो बौद्ध अध्यापन का प्रतीक है। इसे 1983 में भिक्षु ग्योम्यो नाकामूरा ने जापानी आर्थिक सहायता से बनवाया। 1985 में दलाई लामा ने इससे संलग्न बौद्ध मंदिर बनवाया। विशाल प्रांगण में स्थित शांति स्तूप में तेज हवा ने धर दबोचा। दर्शन के बाद सभी गाड़ी में आ बैठे।

होटल लौटते हुए नीमा से लद्दाख के बारे में काफी जानकारी मिली। यहाँ शादी को बहुत बख्तसुन कहते हैं। लड़के का बाप लड़की के घर जाता है और रुपए देकर लड़की को अपने घर ले आता है। लड़की का एक रिश्तेदार शादी में शामिल होता है। केवल एक रिश्तेदार जो सारे साजो सामान के साथ आता है। लड़के के घर ही शादी संपन्न होती है। यहाँ चैंग देहाती भाषा में छंग नामक शराब का चलन है जो गेहूँ से बनाई जाती है। गेहूँ पकाकर दवाई डालकर घास में पैक कर देते हैं। सात आठ दिन बाद चेंग तैयार हो जाती है। हर घर में बनती है यानी हर घर एक लघु मधुशाला है। चैग पीना वर्जित नहीं है। स्त्री, पुरुष, युवा, वृद्ध, सभी इस गृह निर्मित मदिरा का पान करते हैं। किंतु नशे में धुत होकर कोई लड़ाई झगड़ा नहीं करते। बल्कि उससे बचाव के लिए लोगों के होंठों से चेंग ग्लू (लद्दाख के पेय गीत) फूट पड़ते हैं। बहुत अधिक ठंड पड़ने के कारण नियमित चैग पी जाती है। चेंग के बगैर कोई भी सामाजिक अथवा सांस्कृतिक कार्यक्रम पूरा नहीं माना जाता। शोक, मृत्यु में भी चेंग पी जाती है।

"तो क्या चेंग पीकर कोई झगड़ता ही नहीं?" मेरी जिज्ञासा उचित थी।

" बहुत कम ग्रामीण अक्सर चेंग से धुत होकर झगड़ते हैं। पर ऐसे मौकों पर चैंग ग्लू गाए जाते हैं। उन गीतों में चेंग की प्रशंसा होती है। इसे ईश्वरीय पेय मानते हैं। विशेष मौकों पर होने वाले नृत्य को शैब्स कहते हैं। शैब्स ब्रो लेह से दक्षिण पूर्व समुद्र तट से लगभग 14000 फ़ीट ऊपर एक पठार छेन्गतेंग क्षेत्र में लोकप्रिय है। लेकिन अब पूरे लद्दाख में प्रचलित हो गया है। नए साल को लोसर कहते हैं जो 17 दिसम्बर को होता है। गोम्पाज़ के जन्मदिन को भी त्यौहार के रूप में मनाते हैं। स्प्रिट गुस्तोथ, दोसमोछे, स्टोक गुरुसीथ, माथोनगरान, बौद्ध पूर्णिमा, हेमिस, यीशु, युरू कबज्ञत, जन्सकार कर्षा, फ्रैंग तस्थउप, कोरज़ोक गस्टर, डाकथोक शिशु, सन्त नारो नस्जल शशकुल गुस्टर, ठिकसे गुस्टर, छेमरे अनचुक यह सभी मुख्य त्यौहार बौद्ध गुरुओं की स्मृति में मनाए जाते हैं।

होली दिवाली दशहरा पारंपरिक रूप से मनाए जाते हैं। इन त्योहारों पर खास व्यंजन भी बनाए जाते हैं जिन्हें लद्दाखी बड़े चाव से आपस में बांट कर खाते हैं। पाबा, मोमो, खोलाक और ठूथा जो गेहूँ के विशेष आटे से बनाया जाता है।

सड़क पर काफी चहल-पहल थी। सूर्य अस्त हो चुका था। नीले निरभ्र आकाश पर तारे टिमटिमाने लगे थे।

"आप पूर्णिमा तक यदि लेह में रुकेगी तो चांद की खूबसूरती देख सकती हैं। बहुत सुंदर होती है यहाँ की चांदनी रातें। इसीलिए इसे चंद्र प्रदेश भी कहते हैं। रात के सन्नाटे में दूधिया चांदनी में नहाए इस प्रदेश का सौंदर्य देखते ही बनता है।" ऐसा कहते हुए नीमा के चेहरे पर लद्दाखी होने का गर्व छलक आया था। यहाँ का जीवन कठिन है फिर भी यहाँ के निवासी अपना प्रदेश छोड़ना नहीं चाहते। वे हर परिस्थिति का डटकर सामना करते हैं। विशालकाय बंजर पर्वतों के साए में रहकर इन में धैर्य सहिष्णुता विश्वास और हर प्रकार की चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत है। शायद इसीलिए लद्दाख की अपनी अलग संस्कृति है। अलग ही जीवन शैली है।

आज नीमा नहीं आया उसके बच्चे का जन्मदिन है।

आज हमारा ड्राइवर नामग्याल है।

हम मनाली चाइना बॉर्डर रोड पर हैं और समुद्र सतह से 17586 फीट की ऊंचाई तय करने वाले हैं। वहाँ से 13900 फीट पर स्थित 134 किलोमीटर लंबी पैंगोंग झील तक जाएंगे। बहरहाल मैं अपनी सीट पर जमकर बैठ गई और आसपास के दृश्यों को निहारने लगी। मिलिट्री पैरा ड्राइविंग एरिया सूना पड़ा था। नामग्याल ने बताया कि आज ड्राइडे है।

"यानी कि आज लोग शराब नहीं पियेंगे?"

"नहीं मैडम, आज यानी हर सोमवार को सड़क सीमा संगठन के आदमी पत्थरों को डायनामाइट लगाकर तोड़ते हैं। इसलिए गाड़ियों की आवाजाही रोक दी जाती है।"

इसी तरह पहाड़ों का सीना चीरकर यहाँ सड़कें, गुफाएँ, पुल बनाए जाते हैं। जिन पर चलकर हम दुर्गम स्थानों की सैर कर लेते हैं। खारू लेह लद्दाख रोड पर एक छोटे से चाय शॉप में नामग्याल ने नाश्ता लिया।

कोई कारू कहता है कोई खारु मिलिट्री एरिया में कारू लिखा था। कारू पुलिस चेकपोस्ट से चाइना बॉर्डर जाने के लिए परमिट लेना पड़ता है।

सूरज लगातार सिर पर है। ठंड इतनी मगर धूप चुभने वाली। लेह से 130 किलोमीटर दूर है पेंगुग लेक। यह लेक 134 किलोमीटर एरिया में फैली है जिसमें से 100 किलोमीटर चीन में है और 34 किलोमीटर भारत में। टंगसे रोड पर हमारी गाड़ी थी। सक्ती गाँव हम पहुँच गए थे। ज्यादातर मिलिट्री एरिया ही था। सड़क सीमा संगठन का काम भी जोरों पर चल रहा था। सक्ति गाँव वैली में था। बीस पच्चीस मकान ही होंगे। सच में जोखिम का काम है यहाँ रहना। तमाम जीवन उपयोगी असुविधाओं के साथ इस दुर्गम स्थान पर रहना... अद्भुत! चढ़ाई से भेड़े उतर रही थीं। पहाड़ों पर जहाँ थोड़ी हरियाली और पानी होता है वहीं भेड़ों को चराने ले जाते हैं। इन भेड़ों के ऊन को पशमीना कहते हैं जो बहुत कीमती होता है।


चांगथांग वैली में भी कुछ घर थे। एक झील मिली छोतक...छोटी सी... काली पूँछ वाले परिंदे उड़ रहे थे। काली गर्दन वाले सारस पक्षी भी थे। बहुत अधिक हिमपात होने पर यह दिखाई नहीं देते। न जाने कहाँ चले जाते हैं। समृद्धि के प्रतीक इन पक्षियों को मठों की दीवारों में उकेरा जाता है। लेहवासी इनके आगमन का इंतजार करते हैं। इस प्रजाति को कानूनी संरक्षण मिलना चाहिए। पर्यावरण विशेषज्ञ इस ओर अग्रसर हैं लेकिन सरकार! आगे दूर तक वैली में नदी के रूप में बहकर आया ग्लेशियर जम गया था। दाहिनी तरफ चन्गपा नामक बंजारों के लकड़ी के मकान हैं। बंजारों के पास 500 यॉक हैं तथा काफी तादाद में भेड़, बकरियाँ और भेड़िए हैं। भेड़ियों को यह अपनी सुरक्षा के लिए पालते हैं। यॉक के बालों से यह कंबल और अपने रहने के लिए तंबू बनाते हैं जिसमें यह बसन्त के खुशनुमा दिन बिताते हैं क्योंकि यहाँ ग्रीष्म ऋतु अल्प अवधि तक ही रहती है अतः जानवरों का भोजन यह उस अवधि में इकट्ठा कर लेते हैं और बसन्त बीतते ही लकड़ी के मकानों में आकर रहते हुए ठंड, हिमपात का सामना करते हैं। जो अमीर चंगपा होते हैं उनके पास ढाई लाख तक की गाड़ी होती है। यह बदलाव अब हुआ है। पहले तो यह बकरे की खाल से बनी मशक में यॉक के दूध से जमा दही बिलोकर मक्खन बनाते थे और शहरी इलाकों में उस मक्खन को बेचकर घरेलू सामान खरीदते थे। ये चूंकि बंजारे हैं इसलिए अपना सामान यॉक पर लाद कर ठिकाना बदलते रहते हैं।

चांगथांग कोल्ड डेजर्ट वाइल्ड लाइफ सेंचुरी से लगा टँग्स स्ट्रीम था। धूप में झिलमिलाता। आगे गढ़वाल बटालियन का सफेद हरा लाल चिह्न लगा था। गढ़वाल बटालियन 1962 में हुए भारत चाइना युद्ध में काफी सक्रिय रही। अब त्रिशूल में एयरपोर्ट भी बन गया है। यह एयरपोर्ट केवल मिलिट्री ही उपयोग में लाती है। सिविलियन नहीं।

चांगला दर्रा 17586 फीट ऊंचा है। बर्फीले पहाड़ की चोटी पर जब हम पहुँचे तो बर्फानी विरल हवा में साँस भरना मुश्किल हो गया। हवा का दबाव काफी कम था। कपूर सूंघते रहने से साँस नॉर्मल हुई। जो पर्वत दूर से बर्फ से ढका दिखता था अब वह सड़क के किनारे था। यानी हम 17586 फीट की ऊंचाई पर पहुँच चुके थे। तभी तो हवा का दबाव कम था। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान ने बाहों में भर लिया है। धरती नीचे छूटी जा रही है।

आज मैं ऊपर, आसमां नीचे।

अब हमें 3586 फीट उतरना था। जब 14 फीट की ऊंचाई पर पहुँचे। झील के दर्शन हुए। मोरपंखी रंगों वाली झील देखकर मंत्रमुग्ध जैसी स्थिति हो गई। नीला, हरा, बैंगनी, पीला, गाढ़ा नीला रंग का पानी कैसे है यहाँ! पीछे पर्वतों का सौंदर्य भी अद्भुत था। दो तीन रंग के पर्वत झील को अपनी गोद में समेटे थे। दूर चुशूल था ...वह लैंड जिसके इस पार भारत और उस पार चीन है। यही रंग बिरंगा पानी बहता हुआ चीन तक गया है। सर्दियों में झील जम जाती है। 5 फीट तक का पानी ठोस बर्फ बन जाता है। तब उस पर फौजी गाड़ियाँ चलती हैं। जो सीमा पर सैनिक शिविर में सामान पहुँचाती हैं।

झील के किनारे सीजन के समय टैंट लग जाते हैं। जिनमें देशी-विदेशी पर्यटकों को थ्री स्टार होटल ऐसी सुविधा दी जाती है। पास ही रेस्टोरेंट और सोविनियर शॉप भी है। इक्का-दुक्का फौजी गश्त लगा रहे थे। सोविनियर शॉप में भी वे बैठे दिखे। इतने ठंडे सुनसान एरिया में सैनिक हमारे देश की रक्षा के लिए डटे रहते हैं।

पैक्ड लंच लेकर हम दूर तक झील के किनारे-किनारे गाड़ी से गए और अथाह सौंदर्यवान झील को सलाम कर लेह की ओर लौटने लगे।

ड्राइवर ने लद्दाखी गानों की सीडी लगाई। गाने काफी सुरीले थे। हमने पूछा "इस सीडी का नाम क्या है?"

उसने बताया "मिच्छू"

उसी सिलसिले में हमने थिएटर आदि की जानकारी ली।

" यहाँ 2 थिएटर हैं। एक मिलिट्री का एक सिविलियन का। हिन्दी फिल्में काफी पसंद की जाती है लेकिन इन थियेटरों की बड़ी दुर्दशा है। केवल मजदूर वर्ग ही जाता है वहाँ।

लद्दाख डिग्री कॉलेज, केंद्रीय विद्यालय, लद्दाख मिशन स्कूल, लद्दाख पब्लिक स्कूल, दिल्ली पब्लिक स्कूल, टेन प्लस टू स्कूल, आदि कई स्कूल हैं। जहाँ उच्च शिक्षा प्रदान की जाती है लेकिन टेक्नीशियन शिक्षा के लिए बाहर जाना पड़ता है। प्रकाशन के क्षेत्र में लद्दाख पीछे है। वैसे यहाँ बौद्ध अखबार निकलता है। बस एक इकलौता दैनिक अखबार। बाकी के उर्दू, अंग्रेजी, हिन्दी अखबार श्रीनगर, जम्मू, दिल्ली से आते हैं। हिंदी की पत्रिकाएँ नहीं के बराबर आती हैं। लेकिन डिस्ट्रिक्ट लाइब्रेरी में हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी और बौद्ध संस्कृति पर लिखी पुस्तकें उपलब्ध हैं। इन पुस्तकों को बड़े चाव से पढ़ा जाता है। तिब्बती बौद्ध परंपराएँ यहाँ की समस्त परंपराओं की केंद्र बिंदु हैं। बौद्ध धर्म के प्रति इतनी आस्था है कि 10 वर्ष के बालक को यह मठ को सौंप देते हैं। उन्हें पता है कि उसका बचपन छिन रहा है और वह सांसारिक सुखों से वंचित किया जा रहा है। अब उसे सारा जीवन वरिष्ठ लामा की देखभाल में बिताना है और बौद्ध भिक्षु बनना है। इसमें कहीं भी उसकी मर्जी को कोई स्थान नहीं है। बौद्ध धर्मावलंबियों का मानना है कि वे निर्माण धम्मचक्र घुमाएंगे और जीवन मरण के चक्र से मुक्ति पा लेंगे। वे शामया नामक लामा को अवतारी लामा मानते हैं। साथ ही प्रखर विद्वान भी।

मठों में भिक्षुणी विहार भी हैं। बौद्ध भिक्षुणियाँ गुरु की निगरानी में प्रार्थना ध्यान करती हैं। "

"आप लोग सारस को समृद्धि का प्रतीक मानते हैं। मठों की दीवारों में भी मैंने उनके चित्र देखे।"

"जी हाँ, यह मान्यता तो पुराने जमाने से चली आ रही है। हम तो घरों की दीवारों पर भी सारस के चित्र बनाते हैं। सारस के जोड़े बसन्त आने पर दलदल में खुले हरे टापुओं पर घोंसले बनाते हैं। इन्हें गलियों के कुत्तों और लाल लोमड़ी से खतरा रहता है। वे उनके बच्चों को खा जाते हैं लेकिन 4 फुट ऊंचे पिता सारस से उन्हें पहले निपटना पड़ता है। पिता सारस चार से सात फुट चौड़े डैने फैलाकर इन बच्चों की रक्षा करता है। मादा सारस छोटी होती है और अक्सर भोजन की तलाश में घोसले से बाहर रहती है।"

अचानक नामग्याल ने गाड़ी रोक दी। सामने चॉकलेटी और सफेद घोड़ों का झुंड खड़ा था। गाड़ी की आवाज से वह तितर-बितर हो गया।

"बहुत खूबसूरत हैं ये घोड़े।"

"हम इन्हें क्यान कहते हैं।"

कहते हुए उसने फिर गाड़ी में ब्रेक लगाया। इस बार क्यान के लिए नहीं बल्कि हमारे होटल के लिए।

सुबह खिलखिलाती चमकदार थी। आसमान में एक भी बादल का टुकड़ा नहीं था। हम लेह से सुबह 9: 00 बजे खरदुंगला टॉप के लिए रवाना हुए। खरदुंगला टॉप दुनिया की सबसे ऊंची सड़क है जो अत्यंत दुर्गम बर्फीले पर्वतों पर 18380 फीट की ऊंचाई पर बनाई गई है। प्रकृति पर विजय के इस एहसास को कौन अपनी स्मृति में संजोकर नहीं रखना चाहेगा। इस सड़क तक गाड़ियाँ आती हैं। यानी कि ट्रैकिंग नहीं करना पड़ता। कुछ साहसी नौजवान तो मोटरसाइकिल से भी जाते हैं।

इस बार हमारी गाड़ी काफी आरामदायक थी। जैसे-जैसे हम ऊंचाई पर चढ़ते गए, पर्वत नीचे होते गए। सभी बर्फीले मोड़दार रास्तों के किनारे भी बर्फ कंगूरे की रेलिंग के रूप में मौजूद थी। मात्र 49 किलोमीटर दूर है लेह से खारदुंगला टॉप। फिसलन भरे रास्ते पर कार ड्राइव करना काफी जोखिम भरा था। ऊंचाई पर हवा का दबाव कम होने के कारण हमें लगातार कपूर सूँघना पड़ रहा था। खरदुंगला टॉप पहुँचते ही बर्फीली हवा ने हमें कँपा डाला। सिर से पैर तक ऊनी कपड़ों और विंडचीटर के बावजूद बदन कांप रहा था। गाड़ी से उतरते ही चारों ओर बर्फ के सिवा कुछ दिखाई नहीं दिया। बर्फीली धरती, बर्फीले पहाड़। इतनी ऊंचाई पर पक्की सड़क बनाना काबिले तारीफ है। माइनस 5 तापमान के बावजूद हम बर्फ पर खूब खेले, खूब फोटो खिंचवाई। कई जगह फिसले, गिरे। लेकिन बहुत रोमांचक था सब कुछ। छः सात मिलिट्री के ट्रक जिन पर व्हीकल फैक्ट्री जबलपुर लिखा था लाइन से खड़े थे। सामान से लदे ट्रकों पर फौजी जवान सवार थे। नीचे उतर कर वे ट्रक के चकों में लोहे की चेन बाँधने लगे। क्योंकि रास्ता फिसलन भरा था। दो-चार दिन पहले गिरी बर्फ पर पैर फिसलने लगता है। ताजी बर्फ भुरभुरी थी। पैर को आहिस्ता से अपने में समेट लेती थी।

फौजी ने बताया कि यह सभी ट्रक लेकर हम सियाचिन जा रहे हैं। जो चाइना बॉर्डर पर है। वहाँ माइनस 45 से 60 तक तापमान हो जाता है। इन ट्रकों में 6 महीने की रसद भरी है। मैंने मन ही मन उन्हें सलाम किया। देश की रक्षा करते ये जवान जमा देने वाली ठंड में दुनिया के सुखों से वंचित रहते हैं।

जब ट्रक चले गए तब हम भी लेह की ओर रवाना हुए। होटल में लौट कर थोड़ा सुस्ता कर हम बाज़ार घूमने गए। छोटा-सा बाज़ार, तिब्बती बाज़ार अलग। ऐसा कुछ भी नहीं था जो आकर्षित करता। अधिकतर गर्म कपड़े और ख़ूबानियाँ बिक रही थीं। कुछ स्कूली लड़कियों को देख कर मन खुश हो गया। सिलेटी फ्रॉक, सलवार, लालकोट। शायद यहाँ की यूनिफार्म थी।

लद्दाख के विषय में अधिक जानकारी के लिए मैंने होटल के मालिक निसार से संपर्क किया। उन्होंने अपने केबिन में मुझे सम्मान पूर्वक बैठाया और यह जानकर कि मैं पत्रकार और लेखिका हूँ वे बहुत चाव से हमें जानकारी देने लगे।

" सबसे पहले तो मैं यह बता दूं कि लद्दाख का अर्थ है दर्रों की घाटी। यहाँ दर्रे यानी पास बहुत अधिक हैं। इसीलिए इसका नाम लद्दाख पड़ा। उत्तर में काराकोरम और दक्षिण में हिमालय रेंजेज से घिरा लद्दाख विश्व के सबसे ऊंचे प्रदेशों में से एक है। यहाँ नुन, कुन, वाइट नीडल, पिनेकल, जेड वन चोटियाँ है। जो समुद्र सतह से हजारों फीट ऊंची हैं। नुब्रा घाटी में ऊंटों पर सवारी की जाती है। सीजन के समय वहाँ पर्यटकों की भीड़ रहती है। अच्छा हुआ आप नहीं गई। इस वक्त तो वहाँ ऊंट भी नहीं मिलते। वैसे नुब्रा से काराकोरम की सभी चोटियाँ, पेड़-पौधे, ग्लेशियर देख सकते हैं। अद्भुत पर्वतीय सौंदर्य और बौद्ध संस्कृति से पूर्ण लद्दाख को लिटिल तिब्बत भी कहते हैं। बौद्ध धर्म के अलावा यहाँ तिब्बती संस्कृति भी है। लेह लद्दाख की राजधानी है जो समुद्र सतह से 3505 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। जिसके पूर्व में जम्मू-कश्मीर है।

पूरे लद्दाख में साल भर में 90 मिलीमीटर वर्षा होती है। आप यहाँ तक आई है तो कुल्लू मनाली भी घूम लें। मनाली यहाँ से 473 किलोमीटर है। भारी हिमपात में यह रास्ता बंद हो जाता है। लेह में अक्सर फिल्मों की शूटिंग होती है। फिल्मी यूनिट से होटल भरे रहते हैं। "

"यहाँ के आदिवासी क्या कल्चरड हो गए हैं?"

"हाँ अब वैसे नहीं रहे जैसे आज से 20 25 साल पहले रहा करते थे। यहाँ के आदिवासी नॉमेट्स कहलाते हैं जो खरनक गाँव में रहते हैं। पहले इनके तंबू यॉक के बालों से बने होते थे। अब उनके घर आधे जमीन के अंदर आधे ऊपर होते हैं। जैसे उत्तरी ध्रुव में बर्फ के होते हैं। ये पश्मीना ऊन वाली भेड़ें यॉक और बकरियाँ पालते हैं। हर पशमीना भेड़ से 200 ग्राम पशमीना बनता है। जिनसे वैभव की प्रतीक पशमीना शॉल बनाई जाती है। अब तो ये हिन्दी भी बोलने लगे हैं और शहरी तौर तरीके को अपनाने लगे हैं।"

"और जनजाति?"

"दाह और बियामा गाँव में मूल आर्य नस्ल के डूकृपा जनजाति के लोग रहते हैं। बड़ा कठिन जीवन है इन धरती पुत्रों का।"

"चीन बहुत डिस्टर्ब करता होगा आप लोगों को?"

"उतना नहीं जितना मीडिया उछालता है। हमें मीडिया से बहुत शिकायत है। अभी कुछ दिन पहले चीनी फौजियों ने पेट्रोलिंग करते हुए भारत सीमा के पत्थरों पर चीनी भाषा में कुछ लिख दिया था। क्या लिखा था वह हम समझ नहीं पाए पर मीडिया ने इसे गर्मागर्म खबर बना दिया। भारत की इतनी तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था है कि अब शायद ही कभी चीन से युद्ध हो। हालांकि चीन ने पाकिस्तान से हाथ मिला लिया है। काराकोरम सियाचिन और पाकिस्तान तक हाईवे बन गया है। जिस पर दोनों देशों का आवागमन होता है।"

निसार से बातचीत करना अच्छा लग रहा था लेकिन हमारे पास समय नहीं था। सुबह लेह से दिल्ली 9: 00 बजे की फ्लाइट थी। सामान पैक करना था और ठंड बढ़ती जा रही थी। लिहाजा निसार को अलविदा कहना पड़ा।

सुबह 8: 00 बजे एयरपोर्ट केबीआर पहुँच गए। केबीआर तिब्बती गुरु कुशोबा बाकुला रिंपोचे हैं। उन्हीं के नाम से इस एयरपोर्ट को पहचाना जाता है। शार्ट में केबीआर एयरपोर्ट कहते हैं। हवाई जहाज में बैठते ही मैंने खिड़की के शीशे के उस पार लेह के बर्फीले पर्वत देखे। विदा लेह। ये पाँच दिन मेरी यादों में अद्भुत दिनों के रूप में बसे रहेंगे।

रचनाकाल अक्टूबर 2009