दर्शक के रक्तचाप, ह्रदयगति का अध्ययन / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
दर्शक के रक्तचाप, ह्रदयगति का अध्ययन
प्रकाशन तिथि :05 नवम्बर 2015


धावक के शरीर पर सूक्ष्म तारों से मशीनें लगाकर विज्ञान यह मालूम करने के प्रयास करता है कि दौड़ते समय हृदयगति, रक्तचाप इत्यादि में क्या परिवर्तन होते हैं तथा मस्तिष्क में कौन से विचार कौंधते हैं। इस तरह के अध्ययन के कारण ही तैराक के शरीर के सारे बाल निकाल दिए गए, क्योंकि इनसे तैरने की गति में अत्यंत सूक्ष्म हानि होती है। आजकल हर प्रतियोगिता के लिए विज्ञान की मदद से मनुष्य की क्षमता को बढ़ाने के प्रयास होते हैं। गौरतलब यह है कि सिनेमा दर्शक पर ये प्रयोग नहीं हुए हैं। क्या फिल्म देखते समय दर्शक के रक्तचाप या हृदय गति में कोई अंतर आता है? क्या दर्शक अपनी विचार शैली को स्थगित कर देता है ताकि वह परदे पर प्रस्तुत संसार में अपने आपको खो सके? यह सर्वविदित है कि सिनेमाघर में अनेक दर्शक एक ही दृश्य पर तालियां बजाते हैं या कहीं उनकी आंखें नम होती हैं परंतु ये ही दर्शक जब एकांत में किताब पढ़ते हैं, तो उनकी प्रतिक्रियाएं अलग-अलग होती हैं गोयाकि सिनेमा के प्रभाव से सारे दर्शकों का एक ही दल हो जाता है। घर में डीवीडी पर देखी फिल्म का यह प्रभाव नहीं होता, क्योंकि परिवार के लोग फिल्म देखते समय अापस में बतियाते रहते हैं और कुछ खाना-पीना भी चलता रहता है। किंतु सिनेमाघर में दर्शक एक द्वीप के वासी हो जाते हैं। उपरोक्त बातें सभी सिने दर्शकों पर लागू नहीं होती, क्योंकि कुछ लोग वहां ताका-झांकी के लिए जाते हैं और कुछ जीवन की बोरियत से थके-मांदे लोग वातानुकूलित सिनेमा में ऊंघने लगते हैं परंतु उपरोक्त बातें अधिकतम दर्शकों पर लागू होती हैं।

सच तो यह है कि सिनेमा दर्शक की प्रतिक्रिया का सामाजिक अध्ययन नहीं किया गया है और मेडिकल विज्ञान भी इस विषय में उदासीन है अन्यथा हमें यह मालूम पड़ जाता कि मारधाड़ की फिल्म और प्रेमकथा मंें रक्तचाप, हृदयगति अौर चीनी की मात्रा में क्या कमी या अधिकता आ जाती है। मेडिकल विज्ञान और मनोरंजन के रिश्तों की जांच-पड़ताल नहीं हुई है। यहां तक कि पौधों के सामने संगीत बजाने पर उनके जल्दी बढ़ जाने का आकलन हुआ है। इंदौर में डॉ. मधुसुदन द्विवेदी ने अपने कैंसर वार्ड में मध्यम स्वर में संगीत सदैव बजाते रखने की व्यवस्था की थी। मुंबई के एक डायबिटीज अस्पताल में फिल्म गीत हमेशा बजाए जाते हैं। मजे की बात यह है कि जब 1869 से ही अमेरिका, इंग्लैंड व फ्रांस में चलते-फिरते चित्रों को लाने की विधा सोची जा रही थी, तब अमेरिका के वैज्ञानिकों का विचार था कि यह विधा औद्योगिक विकास में सहायता करेगी।

इंग्लैंड में विचार था कि यह फोटोग्राफी रोगों की जानकारी देगी और फ्रांस के लोग इसे कथा प्रस्तुत करने के माध्यम के रूप में देखते थे। दरअसल, इस विधा ने तीनों ही उद्‌देश्य पूरे किए। आज सूक्ष्मतम कैमरे मनुष्य की आंतों में प्रवेश कर रोग का मूल कारण मालूम करते हैं। इसकी कथा कहने की ताकत के कारण यह विधा भारत में खूब पनपी है, क्योंकि हम कथावाचकों और श्रोताओं के अनंत राष्ट्र हैं।

यह भी सच है कि खाली कैप्यूल में शकर भर-भरकर रोगी को दवा कहकर देते हैं, जिसे प्लेसेबो कहते हैं और रोगी ठीक हो जाता है। मनुष्य मनोविज्ञान रहस्यमय संसार है। खाली कैप्यूल में साइकिल के छर्रे रखने पर हथेली पर वह कैप्यूल खड़ा हो जाता है और हथेली के किंचित कंपन से वह हथेली पर थिरकने लगता है। मैंने अपनी फिल्म 'शायद' में इसका इस्तेमाल किया था कि एक अनिच्छुक मरीज कैप्सूल से दवा फेंककर यही काम करता है। ज्ञातव्य है कि दशकों पूर्व नशीले पदार्थ पर लिखे उपन्यास का नाम था, 'वैली ऑफ कैप्सूल।' इस तरह की कैप्यूल व गोलियों से भरी घाटी किसी फिल्म के स्वप्न दृश्य में रची जा सकती है।

कई मनुष्यों का भ्रम होता है कि वे बीमार हैं और उन्हें इलाज की आवश्यकता है। शायद इन्हें हाइपोकोन्ड्रिक कहते हैं। दशकों पूर्व अंग्रेजी की हास्य फिल्म 'सेंड मी नो फ्लावर्स' बनी थी। उसका नायक ऐसे ही भ्रम से पीड़ित है और किसी और की रिपोर्ट को अपनी समझकर वह शीघ्र मरने वाला है- ऐसी भावना उसे घेर लेती है और अपनी युवा पत्नी के लिए अपने ही जीवनकाल में दूसरा पति खोजने का प्रयास करता है और इस काम में मदद करने वाला उसका अन्यतम मित्र उससे कहता है कि यार तुमने कभी मुझे इस यग्य नहीं समझा। बहरहाल, इस फिल्म की नकल भी भारत में बनी है। कुछ मनुष्य अपनी बीमारी अपने परिजनों से छिपाते हैं कि उन्हें चिंता होगी और रोग लाइलाज हो जाता है। हंसने-हंसाने से दर्द कम होता है। आजकल सुबह सैर पर जाने वाले लोग लाफ्टर क्लब बनाते हैं। यह संदेह की बात है कि नकली ठहाके लगाने से रोग कैसे दूर होता है। हंसी तो स्वाभाविक रूप से हृदय से निकले तो जलप्रपात की तरह हो सकती है। नकली हंसी, नकली आंसुओं से बदतर मानी जा सकती है। फिल्म बनाते समय अश्रु बहाने के दृश्य के समय कलाकार की आंखों में ग्लिसरीन डालते हैं। 'जागते रहो' में गुदगुदी से हंसाने का महत्वपूर्ण दृश्य है। मीना कुमारी का मन अनजान उदासी से भरा रहता था। अत: उन्होंने ग्लिसरीन का प्रयोग कभी नहीं किया।