दलपतित का सौभाग्य लाभ / अमर गोस्वामी

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अपने देश की शस्‍य-श्‍यामला माटी में आजादी का यूरिया पड़ते ही जो तीन चीजें खूब फलने-फूलने लगी हैं, वे हैं, गुंडे, दलाल और नेता। अपने दलपति सिंह भी पहले एक साधारण कोटि के गुंडे थे, जो बाद में अपनी प्रतिभा से मध्‍यम कोटि के दलाल हुए और फिर मौका पाकर उत्तम कोटि के नेता बन गए। एक वरिष्‍ठ मंत्री के आशीर्वाद से वे खूब फलने-फूलने लगे। उन्‍हें एक सरकारी संस्‍थान का अध्‍यक्ष बना दिया गया। जनता की भलाई के लिए उन्‍होंने जो भी काम किया, उसका उन्‍हें हाथों-हाथ फल मिला। इतना कि उसे समेटने के लिए उन्‍हें कई खाते खोलने पड़े।

पर जैसा कि आप जानते हैं, कैसा भी घूरा हो, एक दिन समतल हो जाता है, वैसा ही एक सफाई अभियान में दलपति सिंह के साथ भी हुआ। उनके गुप्‍त कामों की टंकी में लीक हो जाने से जो बदबू फैली और जो कीचड़ बहा, उससे न केवल उनके सरपरस्‍तों की साँस घुटने लगी बल्कि लगा कि पूरा दल ही दलपति सिंह के दलदल में डूब जाएगा। सलाहकारों की राय मानकर दलाधिपति ने जनहित में दलपति सिंह को दलपतित कर दिया।

दलपतित होते ही दलपति सिंह के दिन पूस की रात में बदल गए। पद की ताकत खत्‍म होते ही उनके बैंक बैलेंस पर भी उसका असर पड़ने लगा। उनके खिलाफ एकाधिक जाँच आयोग भी बैठा दिए गए। सभा-सम्‍मेलनों में जो मुख्‍य अतिथि का दिखाऊ आसन होता है, उसके लिए वे एकाएक अनुपयोगी समझ लिए गए। यहाँ तक कि साहित्यिक संस्‍थाओं से भी लोगों ने उन्‍हें बुलाना छोड़ दिया। वे 'दो शब्‍द' कहने के लिए तरस गए।

दलपति सिंह को अपने इस शीघ्रपतन पर बहुत चिंता हुई। उनकी रातें उनके लिए वैरी बन गईं। दिन उनके काटे नहीं कटते थे। वे इतने शक्तिहीन बन गए कि हफ्तों गुजर जाने पर भी वे किसी का बाल बाँका नहीं कर पाए। मजबूर होकर दलपति सिंह ने धर्म की लाठी को कसकर पकड़ लिया। निर्बल के बल राम! सुबह होते ही वे नगर के हर बड़े मंदिर का घंटा हिलाने लगे। यहाँ तक कि तांत्रिकों और कापालिकों के चरणों में सिर रगड़-रगड़कर अपनी टोपी गंदी कर ली। उँगलियों में रत्‍न धारण किया, गले में रत्‍नमालाएँ। मगर कोई फायदा नहीं हुआ। इन तमाम चीजों के धारण से उनका अपना वजन तो बढ़ गया, पर सत्ता में अपना 'वेट' नहीं बढ़ा सके।

हार कर दलपति सिंह ने अपने धार्मिक सलाहकार भोलेनाथ भंडारी की शरण ली। भोले भंडारी कैलाश टॉवर के बाइसवें मंजिल के एक भव्‍य वातानुकूलित कमरे में ध्‍यानमग्‍न रहते थे। उनके पास पहुँचना आसान काम नहीं था, पर दलपति सिंह अपनी श्रद्धा भक्ति और पूर्व संबंधों के बल पर उन तक पहुँच ही गए। भोलेनाथ के कमरे में पहुँचकर उन्‍हें बड़ी शांति मिली। उनका तन और मन दोनों ठंडा हो गया। आखिर क्‍यों न होता! भोले भंडारी का हिमालय ब्रांड एयर कंडीशनर इस देश का लाजवाब एयर कंडीशनर जो था।

भोलेनाथ भंडारी तमाम वीआइपियों से घिरे हुए थे। सबको कोई-न-कोई संताप था। उनसे निपटकर जब काफी समय बाद एकांत मिला, तब उन्‍होंने दलपति सिंह की सुध ली। दलपति सिंह उनके चेंबर में पहुँचकर उनके चरणों में लोट गए। वे अपना दुखड़ा रोते हुए एक कतरा आँसू किस्‍तों में बहाने लगे। दलपति सिंह को इतना विचलित देखकर भोलेनाथ भंडारी ने सामने रखी भंग की पिंडी में से एक गोला बनाकर उन्‍हें देते हुए कहा, 'इस सिद्धि को ग्रहण करो। मन चंगा हो जाएगा।'

दलपति सिंह उस भंग के गोले को प्रसाद समझकर निगल गए। वैसे वे इसके पहले भी कई बड़ी योजनाएँ निगल चुके थे, इसलिए इसे निगलने में कोई परेशानी नहीं हुई। वे बगैर जल के ही इसे गटक गए। भंग के प्रभाव से वे जल्‍दी ही खुद को तरोताजा महसूस करने लगे।

दलपति सिंह थोड़ा सँभल गए तो वे बोले, 'प्रभो, आपसे कुछ छिपा नहीं है। सत्ता की काली कमरी का सुख तो आप जानते ही हैं। मुझे वही काली कमरी दिलवा दीजिए। मुझ पर चढ़ने से रहा, प्रभो दूसरा रंग।'

'सत्ता की काली कमरी!' भोलेनाथ हँसने लगे। बोले, 'अपने पतन का कारण जानकर भी तुम्‍हारा मन नहीं भरा। अब तो इस अँधेरे रंग से डरो।'

दलपति सिंह हाथ जोड़कर बोले, 'इसीलिए तो आपकी शरण में आया हूँ भोलेनाथ! मुझे इस अँधेरे से प्रकाश की ओर ले चलिए! प्रकाश तक पहुँचने के लिए अँधेरे से गुजरना ही पड़ता है। इसीलिए मुझे अँधेरा पसंद है। जगमग दीवाली भी इस अँधेरे में ही होती है।'

भोले भंडारी हँसने लगे। बोले, 'नेता हो न, तभी काले से प्रेम है।'

दलपति सिंह ने कहा, 'अब जैसा भी हूँ, आपकी शरण में हूँ। मुझे एक बार फिर से शक्तिशाली बना दीजिए। इतना कि मैं पुनः अपने शत्रुओं का मर्दन कर सकूँ।'

'इसके लिए तुम्‍हें शक्ति की पूजा करनी पड़ेगी।'

'करूँगा। पूरी निष्‍ठा से करूँगा।'

'शक्ति को प्रसन्‍न करने के लिए तुम्‍हें अपनी प्रिय वस्‍तु की बलि भी देनी होगी।'

'बलि?'

'चौंको मत। किसी की जान नहीं लेनी है। अपनी किसी प्रिय चीज का त्‍याग करना ही काफी होगा।'

दलपति सिंह सोच में पड़ गए। क्‍या है उनकी प्रिय वस्‍तु? किसे वे सबसे अधिक प्‍यार करते हैं? प्‍यार तो उन्‍हें अपनी पत्‍नी तक से नहीं था। हाँ, इधर वह एक सोशल वर्कर से जरूर प्रेम करने लगे थे। अपने तीखे नैन-नक्‍शों के कारण वह उन्‍हें बहुत प्रिय लगने लगी थी। मगर दिक्‍कत यह थी कि उसे एक सीनियर मंत्री भी चाहने लगे थे। उसे वे अपनी रिजर्व सीट बना चुके थे। बेचारे दलपति सिंह की जब वह सीट ही नहीं बन पाई थी तो उसे त्‍यागने का सवाल ही नहीं उठता था।

'क्‍या सोच रहे हो?' भोले भंडारी बोले।

'यही कि किसे त्‍यागूँ? समझ नहीं पा रहा हूँ।' दलपति सिंह ने सकुचाते हुए कहा।

भोलेनाथ हँसने लगे। बोले, 'कुर्सी से प्रिय तो तुम्‍हें कुछ है नहीं। उसे त्‍याग नहीं सकते। यह सारा खेल उसी के लिए है। सोचो, देखो तुम्‍हारी सेकेंड च्‍वाइस क्‍या है।'

'कुछ वक्‍त दीजिए भोलानाथ!' दलपति ने कहा। भोलेनाथ गंभीर हो गए। बोले, 'हमें तो यही पता था कि सफल नेता सोचते-विचारते नहीं। वे बस डिसीजन लेते हैं। सोचने-विचारनेवाले कुछ कर नहीं पाते। लेखकों की दुर्गति देखते हो न। निर्णय में इतना वक्‍त लोगे तो मुकाबला कैसे कर पाओगे?'

'तो मैंने भी डिसीजन ले लिया।' अचानक दलपति सिंह हाथ उठाकर नाचने लगे, 'जय-जय भंग भवानी! तोड़ दुश्‍मन की मियानी।'

भोलेनाथ ने हाथ उठाकर दलपति सिंह को शांत करते हुए पूछा, 'किसकी बलि दोगे, दलपति?'

'अपने ही संस्‍थान का एक सीनियर अफसर है प्रभो!' दलपति सिंह ने कहा, 'नियम-कानून की शक्‍कर को ढोनेवाला चींटा। वैसा ही मेहनती और कतार में चलनेवाला। मेरी बड़ी इज्‍जत करता रहा है, पर हर बात आँख मूँदकर मानते हुए डरता भी रहा है। मैं उसे लाख समझाता रहा, अरे नियम कानून तो बनानेवाले हम हैं। हमारे होते क्‍यों डरते हो? जैसा कहूँ, वैसा करते चलो। मगर उस मूर्ख की अक्‍ल की गुफा का दरवाजा खुला नहीं। लाख प्रलोभनों से 'सिम-सिम खुल जा, खुल जा, खुल जा' किया, मगर सब बेकार हुआ। शुरू-शुरू में मैं उसकी बड़ी कद्र करता था। मुझे वह बहुत प्रिय था। मगर ऐसा आदमी जो हरदम नैतिकता को ब्रह्मचारी की लँगोट की तरह कसकर बाँधे रखता हो, मेरे किस काम का। मैंने काफी दिनों तक उसे सहा। अपनी आदत के विरुद्ध। मुझे खुद आश्‍चर्य है।'

'हूँ!' भोलेनाथ गंभीर हो गए।

अपने नथुने फड़काते हुए दलपति सिंह ने कहा, 'मुझे इस वक्‍त न जाने क्‍यों ऐसा महसूस हो रहा है कि मेरे पतन में मेरे उस प्रिय अफसर का भी हाथ है। भले ही मेरी उससे नहीं पटी, पर काफी समय तक मैं उस पर भरोसा करता रहा। मेरे सिस्‍टम से वह वाकिफ था। उसी ने पलीता लगाया होगा। जो शख्‍स कभी मेरी नाक का बाल था, अब उसे जड़ से उखाड़ फेंकूँगा।'

गुस्‍से में दलपति सिंह ने अपनी नाक का एक बाल उखाड़ लिया।

भोलेनाथ बोले, 'तुम्‍हारा यह निर्णय अटल है?'

'बिलकुल!' दलपति सिंह ने सीना तानकर कहा, 'एक बार जो ठान लिया, पठान की तरह मान लिया।'

भोलेनाथ कुछ सोचने लगे। बोले, 'किसी के कैरियर की बलि! यह तो नर बलि हुई। मगर शक्ति साधना के लिए उत्तम कोटि की बलि!'

'अति उत्तम कोटि की कहिए भोलेनाथ!' दलपति सिंह उत्‍साह से बोले, 'इस अफसर के सेंट्रल में जाने के चांसेज थे। अब गया काम से। इस बलि से देवी जरूर प्रसन्‍न होंगी।'

'जरूर!' भोलेनाथ बोले, 'सोचा था, मैं उनसे तुम्‍हारी सिफारिश कर दूँगा, पर तुम मेरी कल्‍पना से भी ज्‍यादा तेज निकले। सच है दलपतित नेता भी सवा लाख होता है।'

'सब आपकी इस सिद्धि का प्रताप है। दिमाग के सभी झरोखे एक साथ खुल गए।' दलपति सिंह के चेहरे पर पहली बार मुस्‍कान उभरी। गंदे जल से सहसा उछल गई एक मछली की तरह।

दलपति सिंह ने दलपतित होते हुए भी कुछ ऐसा चक्‍कर चलाया कि बेचारा ईमानदार अफसर राजनीति का शिकार बन गया। दलपति सिंह के अपकर्मों के मल ने उसके दामन को भी दागदार बना दिया। वह संदेह के घेरे में आ गया और उसके खिलाफ इन्‍क्‍वायरी की चर्चा होने लगी। इस अपमान और अन्‍याय को सह नहीं पाने के कारण उस नेक अफसर ने त्‍याग-पत्र दे दिया। इस तरह राजनीति के मारे हुए अनेक लोगों में वह भी शामिल हो गया। उसके इस्‍तीफे की खबर से दलपति सिंह को पलक झपकने भर का अफसोस हुआ जो दूसरे ही पल महाशून्‍य में विलीन हो गया। ताकतवर बनने और कुछ हासिल करने के लिए ऐसी न जाने कितनी बलियाँ जरूरी होती हैं।

उस अफसर के त्‍याग-पत्र का नैवेद्य सजाकर धूप-दीप-गंध-पुष्‍प सहित दलपति सिंह महाशक्ति की आराधना करने पहुँचे। अपने चंचल मन को बलपूर्वक बाँधकर वह देवी की वंदना करने लगे। उस अधर्मी पुरुष की धर्म के प्रति ऐसी तात्‍कालिक तन्‍मयता देखकर महिषासुर मन-ही-मन मुस्‍करा पड़ा। सिंहवाहिनी दुर्गा का त्रिशूल अगर उसके सीने में गहरे न गड़ा होता तो वह जरूर ठठाकर हँस पड़ता।

अपनी गंदी प्राण वायु से शंखनाद करते हुए दलपति सिंह ने अफसर का त्‍याग-पत्र ज्‍यों ही देवी के चरणों में डाला, देवी की आँखें खुल गईं। वे बोलीं, 'तुम दलपतित हुए दलपति सिंह हो न?'

'आपने ठीक फरमाया महादेवी!' दलपति सिंह कमर तक झुककर बोले।

मगर महाशक्ति को जीता-जागता अपने सामने देखकर दलपति सिंह का कलेजा मुँह को आ गया। कथक नाचनेवाले की तरह उनकी टाँगें थरथराने लगीं। शेर से भी उन्‍हें बड़ा डर लगता था। सर्कस में शेर के तमाशे के वक्‍त वे तंबू छोड़कर बाहर आ जाते थे। यहाँ तो साक्षात रायल बंगाल टाइगर बब्‍बर सिंह की तरह सामने डटा था।

यह देखकर महिषासुर को गुस्‍सा आ गया। उसने कहा, 'क्‍यों मेरी नाक कटा रहा है दलपति? सदियों से देवी दुर्गा का त्रिशूल सीने पर झेलते हुए उनके सामने डटा हुआ हूँ। उनका सिंह मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाया। और एक तू है कि महा‍शक्ति को देखते ही थरथराने लगा! कैसा असुर है तू? तो फिर शक्ति को ग्रहण कैसे करेगा? जिसकी आराधना करता है, उसी से डरता है?'

देवी दुर्गा ने महिषासुर को टेढ़ी नजरों से देखा। महिषासुर सीधा होकर चुप हो गया।

'क्‍या चाहिए तुम्‍हें?' महादेवी ने पूछा।

दलपति सिंह ने काँपते हुए कहा, 'माँ, आप भक्‍तों के मत की बातें जानती हैं। फिर भी कहता हूँ, मुझे शक्ति का वरदान दीजिए, जिससे सत्ता हासिल कर सकूँ। सत्ता से हटते ही मैं किसी लायक नहीं रहा। मेरा अतीत मुझे डराने लगा है।'

'तुम्‍हारा अतीत ही तुम्‍हारे दलपतित होने का कारण है।'

'मुझे अपने अतीत से मुक्ति दीजिए। मैं आपका बालक हूँ। मैं क्‍या-क्‍या करता हूँ, खुद ही समझ नहीं पाता।' दलपति सिंह ने विनती करते हुए कहा, 'अगर आपने मुझे शक्ति का वरदान नहीं दिया और मेरी धन की बर्बादी को नहीं रोका तो मैं यहीं अपनी भी बलि दे दूँगा।'

देवी दुर्गा मुस्‍कराने लगीं। बोलीं, 'हठी बालक, जा तेरी मनोकामना पूरी होगी।'

'यह भी वरदान दीजिए माँ, कि मुझे धन की कमी कभी न हो, मैं निरंतर ऐश्‍वर्यशाली बना रहूँ।'

देवी ने परिहास किया, 'ऐश्‍वर्य के वाहक तो हमेशा उल्‍लू होते हैं।'

'और शक्ति के वाहक असुर!' महिषासुर ने टिप्‍पणी की। यह सुनकर सिंह गुर्राने लगा। देवी दुर्गा ने दोनों को डाँटकर चुप कराया।

दलपति सिंह कमर तक झुककर बोले, 'आपका व्‍यंग्‍य मेरे सिर माथे।'

'ऐश्‍वर्य के लिए तुम महालक्ष्‍मी को प्रसन्‍न करो। वही तुम्‍हारी धन की प्‍यास को शांत करेंगी।'

'माता, जरा आप उनसे मेरी सिफारिश कर दीजिए। वे आपका कहा नहीं टालेंगी।' दलपति सिंह ने प्रार्थना की।

'तुम उनसे मिल तो लो!' यह कहकर देवी अपनी प्रतिमा में विलीन हो गईं।

दलपति सिंह नैवेद्य सजाकर महालक्ष्‍मी की सेवा में पहुँचे। पास ही कुबेर बैठे बही-खाता देख रहे थे और आसपास कई उल्‍लू मँडरा रहे थे। उनमें से कुछ देश के भी थे, कुछ विदेश के। सब एक से बढ़कर एक थे। अद्वितीय।

दलपति सिंह को वहाँ देखकर लक्ष्‍मी का खास उल्‍लू बेचैनी से पंख फड़फड़ाने लगा। दलपति सिंह ने उस पर ध्‍यान नहीं दिया। वे सीधे देवी के चरणों में कटे हुए पेड़ की तरह गिरकर लेट गए। इसी तरह लेटे हुए उन्‍होंने अपनी पूरी विनयपत्रिका सुना दी। इसके बाद भी जब काफी देर तक वे देवी लक्ष्‍मी के चरणों में इसी तरह पड़े रहे तो चंचला लक्ष्‍मी ने एक मृदु पदाघात करके उन्‍हें उठा दिया।

दलपति सिंह को बहुत अच्‍छा लगा। पैसों के लिए लोग दिन-रात न जाने कैसों-कैसों की लातें सहते हैं। उनके लिए तो यह आशीर्वाद था। वे फिर उन चरणों की वंदना करने लगे।

दलपति सिंह की पद्धति को देखकर कई उल्‍लू हैरान होकर अपना पंख फड़फड़ाना भूल गए। कुछ देशी उल्‍लूओं को दलपति सिंह से जलन भी होने लगी।

लक्ष्‍मी बोलीं, 'तुम्‍हारी इच्‍छा का मुझे पता है। तुम महाशक्ति से आशीर्वाद लेकर आए हो। मैं तुम्‍हें निराश नहीं करूँगी। इस दीवाली पर तुम्‍हारे आँगन के पार के द्वार से घुसकर कुबेर तुम्‍हारी इच्‍छा पूरी कर देंगे। घर का दरवाजा खुला रखना, नहीं तो छप्‍पर फट जाएगा।'

दलपति सिंह खुश होकर नाचने लगे। वे बोले, 'हर दरवाजा खुला रखूँगा देवी। मगर कुबेर को लाने में देर मत करना।'

कुबेर अपने बही-खाते से सिर उठाकर बोले, 'आने में अबेर-सवेर तो हो ही सकती है। मुझे और भी लोगों के यहाँ जाना है।'

दलपति सिंह की उतावली देखकर लक्ष्‍मी हँसने लगीं। बोलीं, 'निश्चिंत रहो, दलपति!'

दलपति सिंह उमंग से दमकते हुए बाहर निकलने लगे। तभी एक सुंदर और स्‍वस्‍थ युवक ने उन्‍हें रोकते हुए कहा, 'बधाई हो, दलपतित दलपति जी!'

दलपति सिंह ने उनका वीर वेश देखकर पूछा, 'कौन हैं आप?'

'नहीं पहचाना?' उस सुदर्शन युवक ने कहा। दलपति सिंह असमंजस में पड़ गए। वे अपना सिर खुजलाने लगे। बोले, 'इधर मेरी कुछ दिनों से पहचान गड़बड़ा गई है, तभी तो दलपतित हो गया। पहचान नहीं पाया कि कौन मेरे अपने हैं, कौन पराए? सच कहूँ तो अब मुझे खुद को ही पहचानने में दिक्‍कत होती है।'

'मैं कार्तिकेय हूँ! मुझ पर भरोसा कर सकते हो। माँ महाशक्ति का आशीर्वाद तुम्‍हारे साथ है। बहन लक्ष्‍मी की कृपा तुम पर है। इसलिए मैं भी तुम्‍हारा हितैषी हुआ। अब तुम्‍हें चोट पहुँचानेवाला कोई भी व्‍यक्ति मेरा शत्रु होगा।'

दलपति सिंह गदगद होकर बोले, 'अब मैं आपको पहचान गया। मैं आपकी क्षमता को प्रणाम करता हूँ।'

कार्तिकेय बोले, 'जाते हुए तुम गणेश भैया से भी आशीर्वाद लेना मत भूलना!'

'भला मैं उन्‍हें कैसे भूल सकता हूँ। मैं तो हर समय 'श्रीगणेशजी सदा सहाय' का जाप करता रहता हूँ।'

गणेशजी द्वार के पास ही पद्मासन लगाए बैठे थे। उनका नटखट चूहा उनकी धोती में घुसकर उछल-कूद मचा रहा था। वे उसे डाँट रहे थे।

गणेशजी के सामने खड़े होकर दलपति सिंह बोले, 'भक्‍त दलपति का प्रणाम स्‍वीकार करें देव!'

गणेशजी ने सूँड़ हिलाते हुए आशीर्वाद दिया, 'सौभाग्‍यशाली बनो! तुम्‍हारा हर कर्म सफल हो!'

'कुकर्म भी?' कहते हुए दलपति सिंह ने अपनी जीभ काट ली। अक्‍सर उनकी जुबान से शब्‍द फिसल जाते थे। जैसा कि इस वक्‍त भी हुआ। वे घबड़ा गए, कहीं गणेशजी नाराज न हो जाएँ।

मगर गणेशजी नाराज नहीं हुए। वे दलपति सिंह को सौभाग्‍य का वरदान दे चुके थे।

गणेशजी गंभीर होकर बोले, 'अब तुम समर्थ व्‍यक्ति हो गए हो दलपति! समर्थ व्‍यक्तियों के कुकर्म भी सत्‍कर्म बन जाते हैं। उनसे भी कई लोगों का हित सधता है। समरथ को दोष नहीं लगता।'

'आपकी कृपा दृष्टि मुझ पर ऐसे ही बनी रहे।' दलपति सिंह हाथ जोड़कर बोले।

गणेशजी ने गौर से दलपति सिंह को ओर देखा। उन्‍हें उनके बालों में एक जूँ चलती हुई नजर आई। दलपति सिंह का खून चूसकर जूँ बहुत पुष्‍ट हो गई थी। गणेशजी ने सूँड़ की फूँक से उस जूँ को लापता कर दिया।

दलपति सिंह गदगद होकर गणेश वंदना करने लगे, 'जय हो विघ्‍न विनाशक!' उनके सिर की खुजली शांत हो चुकी थी। उनका उद्वेग शांत हो चुका था। दलपति सिंह को लग रहा था, जैसे वे महाशक्ति में तैर रहे हों।

गणेशजी से विदा लेकर, अपना झुका हुआ माथा अब गर्व से उठाकर दलपति सिंह वहाँ से चल पड़े। अकड़ के मारे उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। शक्ति के प्रताप से उनके शरीर में इतना उत्ताप भर गया था कि वे जिधर से गुजर रहे थे उधर की हरियाली तक झुलसी जा रही थी।

वहीं नजदीक ही सरोवर के किनारे एक कुंज में देवी सरस्‍वती अपने ध्‍यान में डूबी हुई वीणा बजा रही थीं। वीणा की मधुर स्‍वर-लहरियों से पूरे वातावरण में दिव्‍यता छा गई थी। ठंडी-ठंडी हवाओं में तैरते हुए वीणा के स्‍वर्गिक स्‍वर ने पूरे परिवेश को सुहावना बना दिया था।

अचानक सरस्‍वती को मौसम कुछ बदला हुआ नजर आया। हवा कुछ गर्म हो गई थी। सरस्‍वती की उँगलियाँ रुक गईं। उनका ध्‍यान भंग हो गया। उन्‍होंने एक व्‍यक्ति को चपल गति से उधर से गुजरते हुए देखा। तभी दलपति सिंह की नजरें भी देवी सरस्‍वती पर पड़ीं। दलपति सिंह ने अपना मुँह मोड़ लिया और झाड़ियों को लाँघते हुए वे विपरीत दिशा में चले गए।

सरस्‍वती ने चकित होकर हंस से पूछा, 'कौन था यह उद्धत व्‍यक्ति?'

हंस बोला, 'माँ दुर्गा, देवी लक्ष्‍मी, भैया कार्तिकेय और गणेशजी का नवीनतम कृपापात्र! एक सत्ताधारी धनपति!'

'धनपति!' सरस्‍वती के स्‍वर में व्‍यंग्‍य उभरा। बोलीं, 'पर यह इतना उद्धत क्‍यों है? क्‍या इसे हमारा आदर नहीं करना चाहिए? क्‍या यह हमें पहचान नहीं पाया?'

'इसे आपके आशीर्वाद की जरूरत नहीं है देवी!' हंस ने कहा, 'अब यह अपने धन की ताकत से हर चीज हासिल कर लेगा। विद्या-बुद्धि को पैसों से तौलेगा। विद्वानों को भरी सभा में उपदेश देगा। जिसके पास सत्ता है और धन है, वह आज सबसे बड़ी ताकत है। अब विद्वानों से ज्‍यादा सम्‍मान सत्ता पर बैठे लोग और पैसेवाले पाते हैं। वे हर जगह पूजे जाते हैं।'

'इतनी गलत बात लोग कैसे मान लेते हैं?' सरस्‍वती चकित होकर बोलीं।

'एक गरीब देश की य‍ही नियति होती है।' हंस बोला।

सरस्‍वती उदास होकर वीणा के तारों पर अपनी उँगलियाँ फेरने लगीं।