दलित आत्मकथाओं का दौर / अज्ञात
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दलित-कथा की पूर्व परंपरा
साठोत्तर कालखंड के पचीस-तीस वर्ष पहले भी दलित चेतना की कहानियाँ प्रकाशित होती रहीं। अस्पृश्य लेखक तो लिखने ही लगे थे, लेकिन अदलित लेखकों में श्रीपाद महादेव भाटे ने मानवीय करुणा और सहानुभूति से युक्त उपेक्षितों के अंतरंग को पहचानने का जो प्रयास अपनी कहानियों में किया था, उसका स्थान मराठी कथा साहित्य के विकास में अनन्य है। भाटे सक्रिय लेखक थे फिर भी दलित तो नहीं ही थे। आरंभ के दलित कथाकारों की प्रतिभा क्षीण थी। डॉ. आंबेडकर का संघर्ष और मुक्ति का, शिक्षा और संगठन का संदेश आम दलित तक पहुँचाने का माध्यम कथा बन गई। बाबासाहब ने जो पत्र-पत्रिकाएँ अपने आंदोलन के दौरान चलाईं, उनमें यह साहित्य प्रकाशित होता था। तब उसे ‘दलित साहित्य’ का नामाभिधान प्राप्त नहीं हुआ था। तीस-पैंतीस के आसपास इस कहानी का आरंभ होता है, जिसका स्वरूप प्रचारात्मक, जागरणात्मक था। इन कहानियों के विषय प्राय: हिंदू धर्म की बुरी रूढ़ियों का विरोध था। दरिद्रता, अज्ञान, छुआछूत प्रथा, कर्ज, आदि विषयों की इन कहानियों का परिवेश प्राय: ग्रामीण ही था। फिर भी कथित ग्रामीण कथा से उसने अपनी अलग पहचान बनाना शुरू कर दिया था।
दलित-जीवन का सशक्त चित्रण करनेवाले पहले बड़े लेखक थे श्री अण्णाभाऊ साठे। साठेजी ने विविध कहानियाँ लिखीं। उनमें रंजकता के बावजूद समाज के निम्न स्तर के शोषितों, पीड़ितों के जीवन का संसार दिखाई देता है। यह विषय मध्यवर्गीय साहित्यधारा से भिन्न था। उन्होने जो जीवन जिया, उसी का चित्रण किया, उसमें कल्पना का अंश नहीं था। उनके पात्रों को रोटी-कपड़ा-मकान की मूलभूत जरूरतों के लिए खून-पसीना एक करना पड़ता था और सामाजिक अवमानना को भी झेलना पड़ता था। इसी परिवेश में विद्रोह के बीज बोए जाते हैं। आनेवाले परिवर्तन की आहट इन कथाओं में सुनी जा सकती है। साठेजी प्रतिबद्ध रचनाकार थे और आंबेडकर के आंदोलन से भी प्रभावित थे। वे शोषण के और धर्म-पाखंड के विरोधी थे। उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुईं, क्योंकि उन्होंने दलितों के उन्मुक्त जीवन का चित्रण किया। उन पर आदर्शवाद का भी प्रभाव था। उन्होंने अनुभव किया कि भारतीय समाज को जानने के लिए वर्ग-विश्लेषण पर्याप्त नहीं है।
इस कालखंड के एक और महत्त्वपूर्ण लेखक हैं बंधुमाधव। उनके आरंभिक कथा-लेखन पर समकालीन रोमांटिक चेतना का प्रभाव था। उन्होंने शुरू में प्रणय और श्रृंगार की कहानियाँ लिखीं लेकिन डॉ. आंबेडकर के आंदोलन ने उन्हें चेताया और उनकी कथा सार्थक होने लगी। उन्होंने अपनी कथाओं में अनिवार्य परिवर्तन का संकेत दिया। इसके लिए आवश्यक संघर्ष को अनुभव किया। अपनी अस्मिता के लिए, अपने मनुष्य होने की पहचान के लिए उनकी कथाओं में बलिदान, विद्रोह और संघर्ष के स्वर उग्र होने लगे। उनकी लिखी ‘वतनी कथाओं’ का इस पूर्व परंपरा में विशेष महत्त्व है। नए मानव की प्रतिष्ठा के लिए व्यवस्था को बदलने का संकेत उनकी मुक्त भावधारा की कहानियों में मिलता है।
महाराष्ट्र में दलित साहित्य आंदोलन ने अब दूसरे दौर में प्रवेश किया है। उसका क्षेत्र व्यापक हो रहा है, उसमें अन्यान्य जनजातियों का भी लेखन आने लगा है। संघर्ष के साथ आत्मसंघर्ष और विद्रोह के साथ, आत्मनुसंधान की भी प्रतीति होने लगी है। पहले दौर में विद्रोह, संघर्ष, आवेश, निषेध की प्रवृत्तियाँ प्रबल थीं। नारेबाजी और अपशब्द का जहर भी था। साहित्यिक आंदोलन मूलत: दलित पैंथर के सामाजिक आंदोलन का अनुगामी था। दलित कवि ‘मैं’ की शैली में नहीं, ‘हम’ की शैली में बात करता था। वह वास्तविक अर्थ में ‘प्रतिनिधि’ कवि था। सामूहिक मानस को अभिव्यक्त करता था। कहानियों में भी सामाजिक अन्याय और अत्याचार के चित्र विषमता के विरोध में खड़े हो जाने की प्रेरणा देते थे। कविता और कथा के पश्चात् आत्मकथाओं का दौर आया-उसमें ‘मैं’ शैली के बावजूद अपने बचपन के सामाजिक-आर्थिक विषमता के अनुभव दलितों के प्रतिनिधि के अनुभव ही होते थे।
शरण कुमार लिबाले की आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ इन आत्मकथाओं में अपना अलग ही स्थान रखती हैं; क्योंकि वह कबीर की तरह न इस जाति का था, न उस जाति का। असामाजिक, अनैतिक संबंधों से उत्पन्न अवैध संतति की, सवर्ण पिता और अछूत माता की संतति की इस व्यथा-कथा का सशक्त अनुवाद डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे ने किया है। उनका कहना है-
‘‘इस छोटी सी उम्र में इस युवक ने जो कुछ भोगा है, झेला है, वह मात्र उसका नहीं, अपितु अस्तित्व की तलाश में भटकने वाले उसके जैसे लाखों-करोड़ों का है।..श्री शरण के प्रश्न एक व्यक्ति के नहीं हैं, अपितु हमारी संपूर्ण परंपरा, धर्म, जाति, नैतिक मानदंड अर्थात् व्यवस्था की क्रूरता से जुड़े हुए हैं।’’
इन दलित आत्मकथाओं में जीवन का यथार्थ पहली बार इतने उग्र रूप में सामने आया। जैसा कि डॉ. भालचंद्र नेभाड़े ने कहा है,
‘‘दबाए गए मानव-समूहों को समाज के केंद्रस्थान में लाने का महत्कार्य ऐसे लेखकों के द्वारा संपन्न होता है, अत: इनका स्वागत करना चाहिए।’’
दलित साहित्य का मूल आदिस्वर है अस्मिता की पहचान, अस्मिता की खोज। कई दलित आत्मकथाओं के हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुए हैं, लेकिन गौर करने की बात है कि कई बार इन्हें ‘उपन्यास’ के नाम से प्रकाशित किया गया है।
आत्मकथा एक बार ही लिखी जा सकती है शायद। हजारों वर्षों के अन्याय, अत्याचार, विषमता की कहानियाँ कब तक दोहराई जा सकती हैं ? नया दलित लेखक अब इस पूँजी के चुकने का अनुभव करने लगा है। नवशिक्षित दलित युवक अनजाने में या स्वाभाविक रूप से मध्यवर्ग में शामिल हो रहा है। समकालीन जिंदगी की बिलकुल ही नई स्थितियों से गुजरते हुए उसे जीवन के नए साक्षात्कार और नए अर्थ प्रतीत हो रहे हैं। इन स्थितियों का चित्र इधर की नई दलित कथाओं में उभर रहा है। सामाजिक अभिसरण की प्रक्रिया में फिर अस्मिता के प्रश्न नया रूप धारण करने लगे हैं।
डॉ. शंकरराव खरात उसी बुजुर्ग पीढ़ी के लेखक हैं जिनकी आत्मकथा ‘तराल अंतराल’ का हिंदी अनुवाद डॉ. केशव प्रथमवीर ने किया है। मराठी कथा की मुख्य धारा इस समय रोमांटिक और आदर्शवादी थी। इस प्रभाव से यथासंभव बचते हुए खरातजी ने अपने परिवेश का यथार्थ चित्रण किया। साठोत्तर कालखंड में भी इनकी रचनाएँ मिलती हैं। उन्होंने खानाबदोश जनजातियों के चित्रण से कथा का परिक्षेत्र विस्तृत किया और दलित चेतना को व्यापक बनाया। इनके कथालेखन की प्रेरणा डॉ. आंबेडकर के विचारों में ही थी। सामाजिक संबंधों का जितना ब्योरेवार चित्रण खरातजी ने किया है, उतना शायद अन्य किसी लेखक ने नहीं किया होगा। उनकी रचनाएँ समाजेतिहास के दस्तावेज हैं। उनकी कथाओं में यथार्थ की उग्रता है, किंतु विद्रोह का स्वर संयत है।