दलित और दलित साहित्य से तात्पर्य / अशोक कुमार शुक्ला

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दलित साहित्य से तात्पर्य
लेखक: अशोक कुमार शुक्ला

दलित का अर्थ

दलित शब्द में छिपी भावना को अनुभव करने के लिये बचपन का एक किस्सा याद आता है जब अपने बालपन में पिता के साथ जनपद पौडी में रहा करता था । पुराना चोपडा मार्ग पर स्थित जिस मकान के निचले हिस्से में (जिसे स्थानीय भाषा में ओबरा कहा जाता है) हमारा परिवार रहता था वह पहाडी राजपूत रावत जी का मकान था। इस मकान के नीचे सडक के बाद एक और मकान था जिसमें मेरे बचपन के दोस्त सूरी, देबू आदि रहा करते थे। देबू के पास एक तीन पहिये की साइकिल थी जिसे वह और उसके अन्य कई भाई बहिन सडक पर दिन भर चलाया करते थे। बच्चों को सामूहिक रूप से खेलते देख मेरे बाल मन में भी उनके साथ जाकर खेलने की इच्छा जागृत हुयी परन्तु हमारे परिवार को मकान मलिक की ओर से यह सख्त हिदायत दी गयी थी कि सडक के नीचे जाकर इन बच्चों के साथ नहीं खेलना है और अगर ऐसा किया गया तो हमें मकान खाली करना होगा । मेरा बालमन इस बंदिश को मानने को राजी नहीं हुआ और मैं सूरी और देबू के साथ सडक पर तिपहिया साइकिल के साथ खेलने चला गया। यह क्रम अभी कुछ दिन ही चल पाया था कि एक दिन मकान मालिक ने मुझे उन बच्चों के साथ खेलते हुये देख लिया और मेरे कान पकडकर ले आये और आकर मेरी मां से बोले:

"देखो मैने मना किया था कि उन बच्चों के साथ नहीं खेलना है लेकिन ये तो माने ही नहीं अब आप लोग अपने लिये कहीं और मकान देख लो।"

यह कहकर मकान मालिक तो चला गया लेकिन मेरा बालमन यह न समझ सका कि इन बच्चों के साथ खेलने के लिये क्यों मना कर रहा था । मैने जिज्ञासावश अपनी मां से पूछा कि

"मां! ऐसा क्या है कि हमारा मकान मालिक उन बच्चों के साथ हमारे खेलने की दशा में हमें अपने मकान में किराये पर भी नहीं रखना चाहता?"

मां भी बात को टाल गयी परन्तु उसने सूरी और देबू के साथ मेरे खेलने पर कोई रोक नहीं लगायी । धीरे धीरे समय बीतता गया इस छोटी सी घटना से उछे प्रश्न ने बालमन पर ऐसी पैठ बनायी कि आखिर में मैने इस प्रश्न को किसी और से पूछने की ठान ली। एक दिन मैं देबू के घर पर उसे खेलने के लिये बुलाने गया था तो देबू चाय की चुस्कियों के साथ मंडुवे की रोटी (मंडुवा एक मोटा पहाडी अनाज है ) खा रहा था। काले रंग की उस रोटी को देखकर मुझे लालच आ गया तो मैने भी उसे खाने की इच्छा प्रगट कर दी । इस पर देबू की मां सकपका गयीं बोलीं

"बेटा ! तुम हमारे यहां खाओगे तो तुम्हें घर पर डांट पडेगी।"

मैने पूछा "डांट क्यों पडेगी?"

अब देबू की मां का उत्तर बहुत संजीदा और संयत करने वाला था

‘‘ बेटा हम लोग डोम हैं ना! इसीलिये हमारे यहां खाने से मना करते हैं ?’’

मुझे लगा कि ऐसी कोई बंदिश तो मेरी मां ने नहीं लगायी है सो मैने आग्रहपूर्वक मंडुऐ की आधी रोटी ली और चाय के साथ उसे गटकने लगा।

उस समय तक मैं नहीं जानता था कि डोम क्या होता है सो मैने फिर पूछा ‘‘ये डोम क्या होता है?’’

इस बार देबू की मां ने कोई उत्तर नहीं दिया और कहा कि

‘‘तूने हमारे यहां चाय पी है और रोटी खायी है यह बात किसी को मत बताना।’’

यह वाक्य कहते हुये देबू की मां के चेहरे पर जो भाव आये उसे मै जीवन पर्यन्त कभी नहीं भूल पाया ।

समय के साथ और भी अनेक आयाम आते रहे परन्तु यह घटना और देबू की मां का चेहरा मुझे कभी नहीं भूली

(यहां यह बताना प्रासंगिक होगा उत्तराखण्ड के स्थानीय नागरिक मैदानी नागरिकों को सामान्यतः देसी कहकर अनुसूचित जाति के स्थानीय नागरिको के समान दोयम दर्जे का नागरिक ही मानते हैं)

दूसरी घटना इस घटना से लगभग बीस वर्ष बाद की है जब मैं प्रशासनिक अधिकारी की हैसियत से पर्वतीय कस्बे नरेन्द्र नगर में तैनात हुआ तो ऐक अनोखा मुकदमा मेरे सामने आया जब अनुसूचित जाति शिल्पकार का एक प्रमाण पत्र जारी करने के लिये माननीय उच्च न्यायानय पंजाब हरियाणा चंडीगढ ने मुझे एक नोटिस जारी किया।

(पर्वतीय क्षेत्रो की अनुसूचित जाति जिसे तद्समय डोम कहा जाता था अब एक सम्मानित नाम शिल्पकार देकर इसका विस्तार कर दिया गया है)

मामला सिर्फ इतना सा था कि पर्वतीय जनपद के एक मूल निवासी जो तत्समय चंडीगढ में किसी राजकीय विभाग में कार्यरत था के द्वारा आवेदन करने पर मैने उसके पक्ष में प्रमाण पत्र जारी कर दिया जिसे संबंधित कर्मचारी ने अपने विभागीय अभिलेखों में अंकित कराकर प्रोन्नति प्राप्त कर ली थी।

अन्य विभागीय सहयोगी इस आधार पर उच्च न्यायालय गये थे कि जो व्यक्ति सेवा आते समय सामान्य जाति का था वह इतनी सेवा अवधि व्यतीत कर लेने के बाद कैसे अनुसूचित जाति का हो सकता है?

घटना के विस्तार में जाने पर मैने यह पाया कि पर्वतीय जनपदों में निवास करने वाले अनेक अनुसूचित जाति के व्यक्ति पहाड में तिरस्कार और हिकारत भरे व्यवहार से बचने के लिये पलायन कर अन्य राज्यों के मैदानी क्षेत्रों में बस गये थे । वहां जाकर उन्होने अपनी मूल पहचान को भुलाकर शर्मा, मौर्या, या शुक्ला जाति के संबोधनों को स्वतः अंगीकार कर नये सिरे से अपना जीवन आरंभ किया । लगभग तीन दशक बीतने के बाद समाज में आयी परिवर्तन की लहर ने ऐसे अनुसूचित जाति के व्यक्तियों के लिये बेझिझक अपनी जाति को उद्घोषित करने का साहस प्रदान किया ।

ऐसे ही साहस से प्रेरित होकर उन सज्जन ने अपनी जाति की उदघोषणा के उद्देश्य से अपना जाति प्रमाण पत्र बनवाया और विभाग में अपने लिये निर्धारित पद पर प्रोन्नति को प्राप्त किया था।

इन दोनो घटनाओं के मूल में दलित समुदाय की मानसिक दशा और सामाजिक स्थिति को बखूबी समझा जा सकता है ।

दलित मुद्दों पर प्रमुखता से लिखने वाले हिन्दी के साहित्यकार डॉ० निरंजन कुमार ने अपने एक शोध आलेख में दलित शब्द का अर्थ इस प्रकार ढूंढा है:-

दलित शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के धातु दल् से हुई है जिसका अर्थ है तोड़ना, कुचलना। संस्कृत शब्दकोशों में दलित शब्द के निम्न अर्थ किए गए हैं -दलित-दला गया, मर्दित, पीसा गया। मानक हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोशों में दलित शब्द के लिए डिप्रेस्ड (depressed) मिलता है, इसके अतिरिक्त डाउनट्रोडेन (Down trodden) भी मिलता है।

हिन्दी शब्दकोशों में भी संस्कृत और अंग्रेजी के समान ही दलित' का अर्थ है - मसला हुआ, रौंदा हुआ, खंडित, विनष्ट किया हुआ इस प्रकार दलित शब्द के विभिन्न शब्दकोशों में विभिन्न अर्थ संदर्भ मिलते हैं लेकिन उनकी व्यंजना कमोबेश एक है।

दलित वर्ग इसी दलित शब्द से ही सम्बद्ध है।

ऐतिहासिक परिद्वश्य

प्राचीन भारत की जानकारी सामान्यतया ईस्वी पूर्व 1599 से मिलती है। प्रख्यात समाज शास्त्री एमएन श्रीनिवास ने सन् 1966 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘सोशलाजिकल स्टडी आफ मार्डन इंडिया’ में लिखा है-

‘वैदिक काल में ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से जो वर्ण व्यवस्था चली, वह आज भी जारी है। यहां तक कि अंग्रेजों के शासन काल में भी वर्ण व्यवस्था को प्रोत्साहित किया गया। हालांकि, अंग्रेजों ने सती प्रथा, मानव बलि व दास प्रथा को रोकने का प्रयास किया, लेकिन इसका लाभ उच्च वर्ग को ही मिला, जबकि शिक्षा और जागरुकता के अभाव में दलित इससे वंचित रह गये।’

दलित साहित्य का मूल

हिन्दी के साहित्यकार डॉ० शिवकुमार मिश्र भी दलित हिन्दी साहित्य के परिचय के संदर्भ में अवगत करते हुये बताते हैं कि:-

दलित साहित्य से तात्पर्य दलित जीवन और उसकी समस्याओं पर लेखन को केन्द्र में रखकर हुए साहित्यिक आंदोलन से है. दलितों को हिंदू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता तथा स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया। उन्हें अपने ही धर्म मे अछूत या अस्पृश्य माना गया। दलित साहित्य की शुरूआत मराठी से मानी जाती है जहां दलित पैंथर आंदोलन के दौरान बडी संख्या में दलित जातियों से आए रचनाकारों ने आम जनता तक अपनी भावनाओं, पीडाओं, दुखों-दर्दों को लेखों, कविताओं, निबन्धों, जीवनियों, कटाक्षों, व्यंगों, कथाओं आदि के माध्यम से पहुंचाया।

शरण कुमार लिंबाले के अनुसार

“दलित साहित्य, अपना केंद्र बिन्दू मनुष्य को मानता है, दलित वेदना, दलित, साहित्य की जन्म दात्री है। वास्तव में यह बहिष्कृत समाज की वेदना है।”

दलित साहित्य की अवधारणा

उपरोक्त अर्थ संदर्भों से यह तथ्य तो स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि समाज के उस वर्ग को, जिसे सबसे निम्न समझा जाता है, जिसका उच्च वर्गों के लोगों में दलन किया, दबाकर रखा, दलित वर्ग कहा गया। लेकिन यह दलित वर्ग की सामान्य या अभिधात्मक संकल्पना है। देखा जाए तो आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक, सांविधानिक लिंगीय दृष्टिकोणों से दलित शब्द भिन्न-भिन्न आयाम ग्रहण करता है। आर्थिक दृष्टि से दलित एक वर्गीय शब्द है। भारत एक गरीब देश है। यहाँ की आधी से ज्यादा आबादी आर्थिक दृष्टि से दलित ही है। दलित साहित्य की अवधारणा को लेकर लंबी बहसें चलीं. यह सवाल दलित साहित्य में प्रमुखता से छाया रहा कि दलित साहित्य कौन लिख सकता है, यानी स्वानुभूति ही प्रामाणिक होगी या सहानुभूति को भी स्थान मिलेगा. प्रमुख दलित साहित्यकारों ने कहा चूंकि सवर्णों ने दलितों की पीडा को भोगा नहीं, इसलिए वे दलित साहित्य नहीं लिख सकते.

हिन्दी विकीपीडिया के अनुसार दलित लेखक बंधु आग्रह पूर्वक अपनी इस बात पर अड़े हुए हैं दलित रचना वही है जिसका रचनाकार दलित हो, जबकि गैर-दलितों में ऐसे वरिष्ठ लेखक हैं जो अपने आग्रहों के नाते इस बात को नहीं मानते। वे दलित रचना उसे मानते हैं जिसकी अंतर्वस्तु दलित जीवन संदर्भों वाली हो, और जिसमें दलितों के सरोकार संन्निहित हो। तार्किक द्वष्टि से देखा जाय तो यह बात तर्क संगत प्रतीत होती है , परन्तु दलित लेखक उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। । दलित साहित्यकार तर्क देते हैं कि जिस स्वानुभूति में दलित गुजरता है वह गैर-दलित को हो ही नहीं सकती। जो भोगता है वही जानता है क्योंकि आपबीती का कोई विकल्प नहीं होता।

हिंदी तथा मराठी में दलित साहित्य की तुलना

हालांकि दलित साहित्यकारों का यह मत ज्यादा दिनों तक टिका नहीं, लेकिन आरंभ में बहस का मुद्दा बना रहा. यह प्रश्न मराठी की तुलना में हिंदी में अधिक उठा. अंत में इस बात पर राय बनती नजर आई कि दलित साहित्य अस्सी और नब्बे के दशक में उभरा एक साहित्यिक आंदोलन है जिसमें प्रमुखता से दलित समाज में पैदा हुए रचनाकारों ने हिस्सा लिया और इसे अलग धारा मनवाने के लिए संघर्ष किया.

प्रमुख भारतीय भाषाओं के दलित साहित्यकार

आज लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं मराठी ,हिंदी, तेलुगु , गुजराती, कन्नड, में दलित साहित्य रचा जा रहा है जिसमें प्रमुख दलित साहित्यकार सर्वश्री कैलाशचंद चौहान, बिहारी लाल हरित, आनंद स्वरूप, महाशय नत्थु राम ताम्र मेली, प्रोफ़ेसर शत्रुघ्न कुमार, ओमप्रकाश वाल्मीकि, धर्मवीर, मोहन नैमिशरायदास, कँवल भारती, संजीव खुदशाह, श्योराज सिंह बेचैन, तेज़ सिंह, सूरजपाल चौहान, जयप्रकाश कर्दम, तुलसी राम, चमनलाल, विमल थोरात, बुद्धशरण हंस, दयानंद बटोही, कौशल्या बैशंत्री, माता प्रसाद, एन सिंह, चंद्रभान प्रसाद, सी.बी. भारती, उमराव सिंह जाटव, अजय नावरिया, डॉ० निरंजन कुमार ,डॉ० शिवकुमार मिश्र, रूपनारायण सोनकर, रत्न कुमार साम्भरिया. कर्मशील भारती , कालीचरण प्रेमी, राजेश कुमार बौद्ध, प्रेम कपाडिया, शरण कुमार लिंबाले, रजत रानी मीनू, कावेरी, रजनी तिलक, अनीता भारती, मुकेश मानस, तेजपाल सिंह, सुदेश तनवर, सूरज बडत्या, दिलीप कठेरिया, बजरंग बिहारी तिवारी, शुकदेव सिंह , राज वाल्मीकि, पूनम तुषामड़, मुद्राराक्षस, कैलाश दहिया, जयप्रकाश लीलवान, कैलाश वानखेड़े, राजेन्द्र बडगुजर, आदि हैं