दलित चेतना की पहचान / सूर्यनारायण रणसुभे / आत्मकथ्य
भारतीय सवर्ण मानसिकता की एक विशेषता यह है कि जो भी दलित या उपेक्षित द्वारा लिखा जाता है, वह स्तरीय नहीं होता । यह निर्णय वे उस रचना को पढ़ने से पूर्व ही ले लेते हैं । परिणामत: उस रचना की ओर वे पूर्वग्रह दृष्टि से देखने व सोचने लगते हैं । लेखक किस जाति का है, इस आधार पर कृति की श्रेष्ठता या कनिष्ठता निश्चित की जाती है ।
ऐसे लोगों से साहित्यिक बहस या संवाद हो भी तो कैसे ? विदेश के किसी रचनाकार की किसी निकृष्ट रचना को अगर कोई अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार (बुकर आदि ) प्राप्त हो जाए तो उस निकृष्ट रचना को भी श्रेष्ठ रचना के रूप में पढ़ने की प्रवृत्ति आज भी हममें मौजूद है ।
हमारे यहाँ अगर किसी सवर्ण की रचना में कुछ अश्लील शब्दों का प्रयोग हो, तो वह जायज है और अगर दलित की रचना में ऐसे शब्द अनायास आ जाएँ, तो अश्लील ! यहाँ निरन्तर दोहरे मानदंडों का प्रयोग किया जाता है । इसी कारण पूरी निष्ठा के साथ हमारे बीच जीने वाले किसी व्यक्ति या समूह के जीवन को पूरी सच्चाई के साथ जब कोई दलित लेखक सशक्त ढंग से व्यक्त करता है, तो भी उसे नकार दिया जाता है । उस पर बहस भी नहीं की जाती । इस मानसिकता को क्या कहें ?
इस देश में आज भी ज्यादात्तर ऐसे समीक्षक है जो अपनी भाषा में लिखी रचनाओं को लेखक की जाति को ध्यान में रखकर ही परखते हैं । सामान्य पाठक तो रचना की गुणवत्ता को ही प्रमाण मानकर उसे स्वीकारता अथवा नकारता है । परन्तु जो समीक्षक, परीक्षक निर्णायक हैं अथवा जो तथाकथित बुद्धिजीवी हैं, वे अभी तक जातिवादी मानसिकता से बाहर नहीं आ पाए हैं ।
प्रादेशिक अथवा राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता देनेवाली अथवा पहचान बनानेवाली जितनी भी इकाइयाँ या प्रसार माध्यम हैं, क्या वे व्यक्ति अथवा रचना की ओर प्रदेश, भाषा, जाति, धर्म के परे जाकर देख रहे हैं -आज यही यक्ष प्रश्न हमारे सामने है । जिसे आपके समक्ष पुस्तक 'दलित चेतना की पहचान' के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है ।
(पुस्तक के सन्दर्भ में डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे के विचार..... )