दलित दमन की फिल्में और साहित्य / जयप्रकाश चौकसे

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दलित दमन की फिल्में और साहित्य
प्रकाशन तिथि :11 अप्रैल 2018


जिस तरह यह मालूम किया जाता है कि तापमान चालीस डिग्री सेल्सियस है या सुबह, दोपहर और शाम बदलता रहता है, उस तरह जनमानस के आक्रोश को आंकने का कोई तरीका नहीं है, क्योंकि आंदोलन भी प्रायोजित होने लगे हैं। आज तक ज्ञात नहीं हुआ कि अण्णा हजारे के आंदोलन के समय मौजूद लाखों लोगों के लंच पैकेट्स किसने बांटे और खर्च किसने भरा। भ्रष्टाचार के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के प्रायोजक का भी पता नहीं चला परंतु उस आंदोलन ने कुछ नेताओं को जन्म दिया जिनमें से एक अभी भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में बंद है। आंदोलनों के इतिहास में केवल महात्मा गांधी के सत्याग्रह में अवाम स्वेच्छा से शामिल हुआ था। अब तो हालात इस कदर बिगड़े हैं कि दंगे करवाना और आंदोलन, आयोजन लगभग एक-सा हो गया है परंतु हाल में दलित आक्रोश प्रायोजित नहीं है। दलित दमन राष्ट्रीय कुंडली में पैर जमाए सदियों से बैठा है।

सत्यजीत रे की मुंशी प्रेमचंद की कथा से प्रेरित 'सद्‌गति' में दिखाया गया है कि विवाह का मुहूर्त निकलाने आए दलित से बामन इतना कठोर परिश्रम कराता है कि उसकी मृत्यु के अंदेशे पर बामन की चिंता यह है कि इसकी मृत देह को अपने आंगन से बाहर कौन निकालेगा।

हिमांशु राय की अशोक कुमार एवं देविका रानी अभिनीत 'अछूत कन्या' पहली फिल्म थी, जिसमें उच्च जाति का नायक एक अछूत से प्रेम विवाह करता है। वह महात्मा गांधी के प्रभाव काल की फिल्म थी परंतु गोविंद निहलानी की 'अर्धसत्य' न केवल इस विषय पर बनी सबसे अधिक प्रभावशाली फिल्म थी, वरन् वह युवा आक्रोश की भी पहली सच्ची फिल्म थी। लोकप्रिय पत्रकारिता 'जंजीर' को आक्रोश छवि की पहली फिल्म जताती रही है परंतु उसका नायक अपने माता-पिता के कत्ल का बदला ले रहा है। उस दौर की अमिताभ बच्चन अभिनीत तमाम फिल्में बदला लेने की कहानियां हैं। उन्हें जनआक्रोश की फिल्में मानने का कोई कारण नहीं है। वे उत्तेजक एवं मनोरंजक अवश्य हैं। गोविंद निहलानी की 'तमस' दलित आक्रोश की सबसे अधिक प्रभावोत्पादक रचना है। प्रतिक्रियावादी ताकतों ने इसके भाग तीन और चार को टेलीविजन पर प्रसारित नहीं किए जाने के बहुत जतन किए परंतु जस्टिस लेंटिन ने रविवार को अदालत खुली रखी और चार घंटे की 'तमस' को देखा तथा उसके प्रदर्शन की आज्ञा दी।

दलित आंदोलन की एक विशेषता यह थी कि इसका कोई नेता नहीं था। लगातार हो रहे अन्याय के प्रति यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। कई प्रांतों में दलितों की हत्या का विरोध स्वत: जन्मा है। विमुद्रीकरण और जीएसटी के खिलाफ कोई जन आंदोलन नहीं हुआ और जहां भी विरोध हुआ, उसे चतुराई से समाप्त किया गया परतंु दलित आंदोलन ने हुकुमत को आश्चर्यचकित कर दिया। वे इसके लिए तैयार नहीं थे। उनकी पहली प्रतिक्रिया यह आई कि उन्होंने बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्तियों को भगवे रंग से कपड़े से ढांकने की बचकानी हरकत की, जबकि मूर्तिभंजन के खिलाफ उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की थी। उत्तर प्रदेश के तमाम सरकारी दफ्तरों में बाबासाहेब आंबेडकर के चित्र लगाने का आदेश हुआ है। इस तरह के काम से मानसिकता नहीं बदलती। बकौल निदा फाज़ली 'तस्वीर बदलती रहती है परंतु दीवार वही रहती है'। दमित के प्रति दोषपूर्ण सोच की दीवार आज तक नहीं बदली है। अब 'दलित मित्र' छवि गढ़ी जा रही है। वे मुतमइन हैं कि विज्ञापनों द्वारा इस आंदोलन को दबाने में उन्हें सफलता मिलेगी। विगत कुछ महीनों में दलितों के खिलाफ अन्याय के चालीस हजार प्रकरण हुए हैं। इस आंदोलन का बीज तो उसी समय पड़ा जब रोहित वेमुला को गैर-दलित साबित करने के प्रयास किए गए। दलितों की आबादी सतरह प्रतिशत है और चुनाव प्रभावित करने की क्षमता रखता है।

प्रकाश झा की फिल्म 'दामूल' में दलितों को मतदान नहीं करने दिया जाता। यह माना जाता है कि हर अठारह मिनट में दलित अत्याचार होता है। प्रतिदिन औसतन तीन दलित महिलाओं के साथ गलत होता है। प्रतिदिन दो दलित मारे जाते हैं। अनेक दलित शिशु कुपोषण से मरते हैं। सरकारी पाठशालाओं में छात्रों को मुफ्त में भोजन दिया जाता है। परंतु अधिकांश पाठशालाओं में पढ़ने वाले दलित बच्चों को अलग स्थान पर बैठाया जाता है। दलितों पर अत्याचार हमेशा जारी रहा है और सदियों पुरानी दकियानूसी सोच बदल ही नहीं पा रही है। सारे जतन जख्मों पर सतही मरहमपट्‌टी बनकर रह जाते हैं। एक दलित को देश का सर्वोच्च पद देने मात्र से कुछ नहीं होता, जबकि दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण दलितों का दमन किया जा रहा है।

कुछ वर्ष पूर्व चैतन्य ताम्हाणे की फिल्म 'कोर्ट' का प्रदर्शन हुआ था। यह एक लोकगायक की कथा है, जिस पर यह मुकदमा कायम किया गया है कि उसके क्रांतिकारी गीत सुनकर एक दलित ने आत्महत्या कर ली है, जबकि सत्य यह है कि गटर की गंदगी साफ करते हुए उसकी मृत्यु हुई है। यह लीक से हटकर बनी फिल्म दलित दमन की कथा कुछ यूं बयान करती है कि दर्शक को लगता है कि कहीं यह किसी और सदी का सत्य तो नहीं है। वह दलित आशु कवि है। उसे कागज कलम की भी आवश्यकता नहीं है। कविता उसकी सांसों में बसी है। फिल्मकार ने संभवत: कबीर से प्रेरणा ली है।

बिमल रॉय की 'सुजाता' भी इसी विषय पर एक महान फिल्म है। इस फिल्म में दलित कन्या के रक्त से उच्च वर्ग की महिला के प्राण बचते हैं तब जाकर उसके पूर्वग्रह मिटते हैं। हाल ही में हुए दलित आंदोलन में भी धरती रक्तरंजित हुई है। देखना है कि क्या यह लहु भी रंग दिखाएगा। दलित लोगों द्वारा रचा साहित्य भी महान है।