दलित बाभन / शम्भु पी सिंह
मुख्य सड़क से एक किलोमीटर पश्चिम थोड़ी कच्ची, थोड़ी पक्की सड़क से होते हुए ब्राह्मणों के प्रभुत्व वाला कोई दो सौ परिवारों की बस्ती। बहुतायत तो ब्राह्मणों की, लेकिन बीस घर के मुसहर दलितों की एक टोली। इस टोली में रहनेवाले अनपढ़, अकुशल, अशिक्षित मजदूर, जिनकी रोजी-, रोटी का जरिया ब्राह्मणों की दया पर निर्भर। खेत का काम हो, चाहे घर का झाड़ू बुहारू या गाय भैंसों की देखभाल। ब्राह्मणों में भी एक वर्ग कुलीन ब्राह्मणों का, तो दूसरा कंटाहा ब्राह्मण। कुलीनों में अधिकांश कान्यकुब्ज ब्राह्मण, चार घर बाहर से आये मैथिल ब्राह्मणों के बीच दस-बारह घर कंटाहा ब्राह्मण की एक छोटी-सी टोली। गांव की सार्वजनिक सुविधाओं पर कुलीन ब्राह्मणों का एकाधिकार। बात चाहे सरकारी चापाकल लगाने की हो, चाहे पुस्तकालय, स्कूल, मंदिर या फिर तालाब में मछली पालन सभी के सभी या तो इन कुलीनों के कब्जे में या सीधे न सही घुमा फिराकर निर्णय उन्हीं की। कंटाहा ब्राह्मण, ब्राह्मण होते हुए भी अल्पसंख्यक। शादी-विवाह हो या मरनी-हरनी भोज का हकार (न्योता) की शुरुआत कुलीनों से, के बाद ही कंटाहा की बारी, मुसहर टोली को खाने का नहीं, काम का न्योता। बात चाहे पूरे गाँव को खिलाने की चुल्हिया लेबार (घर में खाना बनाने की मनाही) की हो या फिर टोकन (एक घर से एक) न्योते की। विजय (खाने के समय की पुकार) की शुरुआत भी कुलीनों से। फिर कंटाहा की और सबसे अंत में महिलाओं की बारी। महिलाओं में किसी तरह का भेदभाव नहीं। गाहे-बगाहे सवर्णो में अल्पसंख्यक कंटाहा और दलित मुसहर का कॉम्बिनेशन कुलीन ब्राह्मणों की परेशानी का कारण बनता रहता। कुलीनों के सताए दोनों थे। श्राद्ध कर्म में घाटों की साफ-सफाई से लेकर घर की साफ-सफाई की जिम्मेदारी मुसहरों की, तो पूजा-पाठ, श्राद्ध कर्म की तैयारी का ठेका कंटाहा के जिम्मे। कुलीनों के खाते में मंत्र का उच्चारण मात्र। गांव से बाहर, खासकर क्षत्रियों के यहाँ श्राद्ध करने पर दक्षिणा के आधे हिस्से पर अधिकार कुलीनों का, एक चौथाई कंटाहा और एक चौथाई में नाई ठाकुर। गाय अगर दान की गई हो तो कुलीनों के हिस्से, तब कुलीनों के हिस्से के दक्षिणा के आधे का एक चौथाई कंटाहा को और नाई ठाकुर में बराबर की बांटेदारी। अगर श्राद्ध कर्म गाँव के ही किसी कुलीन ब्राह्मणों के घर करानी हो तो किसी को कोई दान दक्षिणा नहीं। इसे गाँव की सामाजिक जिम्मेदारी मानी जाती। बस भोजन से कर्म की इतिश्री मान ली जाती। हाँ मुसहर को चूंकि दान-दक्षिणा से कोई मतलब नहीं होता, इसलिए उन्हें दैनिक मजदूरी दूसरे गाँव से पचास रुपए कम। ऐसा इसलिए कि सामाजिक जिम्मेदारी में उनका योगदान भी आवश्यक होता। ऐसे सामाजिक कानूनों का अलिखित लेकिन सर्वमान्य पालन सुनिश्चित था। इसी गाँव की मुसहर टोली का सदेशर और कंटाहा टोली के पंडित उदयकांत के परिवार का वर्षों पुराना सम्बन्ध है। सदेशर के बाप-दादे ने भी पंडित उदयकांत के खेत-खलिहान में ही अपनी पूरी जिंदगी गुजार दी। मुसहर टोली से कभी कोई स्कूल तो नहीं गया लेकिन पंडित उदयकांत की इकलौती बिन माँ की बेटी सावित्री के साथ बचपन से ही सदेशर के दादा ने उसे स्कूल भेजना शुरू कर दिया। पण्डित उदयकांत ने भी कभी इसका विरोध नहीं किया। उसके दो कारण थे, एक तो सदेशर का पूरा परिवार इन्हीं के यहाँ काम पर लगा रहता। दादा और पिता खेत-खलिहान में, तो माँ सावित्री की देखभाल से लेकर घर के झाड़ू-पोछा तक की जिम्मेदारी निभाती। हाँ पण्डित जी ने सदेशर की माँ से कभी खाना नहीं बनवाया। उनका मानना था अन्य कार्य में दलितों की मदद ली जा सकती है, लेकिन खाना बनाने और पूजा-पाठ में हिस्सेदारी से ब्राह्मणों को परहेज करना चाहिए। पहले तो पण्डित जी खुद ही खाना बना लेते थे, थोड़ी बड़ी हुई तो सावित्री मदद करने लगी। अब तो खैर खाना बनाने से खिलाने की सारी जिम्मेदारी सावित्री ही निभा रही। सदेशर के परिवार से निकटता का दूसरा कारण कुलीनों से सताए जाने पर इस परिवार का हमेशा पण्डित जी को साथ मिलता रहा। एक समय ऐसा भी आया, जब कम मजदूरी के विरोध में मुसहर टोली वालों ने गाँव के ब्राह्मणों के घर काम करना बंद कर दिया, तब भी सदेशर की मां, सावित्री और उसके घर की देखभाल करती रही। टोली वालों ने विरोध भी किया तो उसकी माँ ने टका से जवाब दिया, मैं काम करने नहीं जाती, बेटी की देखभाल करने जाती हूँ। किसी के पास इस बात का विरोध करने की हिम्मत नहीं थी। पण्डित जी आज सदेशर के पूरे परिवार के एहसानमंद हैं। सावित्री तो 'आया मां' ही बोलती आई है। हाँ जब से सदेशर की माँ एक एक्सीडेंट में अपाहिज़ हो गई, थोड़ा मिलना-जुलना कम हो गया। सावित्री को पण्डित जी मुसहर टोली में जाने नहीं देते और वह बेचारी आ नहीं सकती। लेकिन दोनों के बीच सेतु का काम सदेशर करने लगा। जब भी सावित्री कुछ विशेष भोजन बनाती तो सदेशर के मार्फ़त 'आया मां' को जरूर भेज देती। सावित्री के साथ सदेशर भी मैट्रिक कर गया, लेकिन माँ के एक्सीडेंट के बाद आगे की पढ़ाई छोड़ दी। इस बीच उसके दादा भी गुजर गए। पिता तो पहले से शराबी था, दादा के गुजर जाने और माँ की लाचारी ने उसके पिता को और भी उन्मुक्त बना दिया। ताड़ी की लत बढ़ती ही गई। परिवार का सारा बोझ सदेशर के कंधे आ गया। चाहकर भी वह पढ़ाई जारी नहीं रख सकता था। पण्डित जी के यहाँ ही काम पर लग गया। इस बीच सावित्री ने एम.ए. कर लिया। पहली श्रेणी से पास हुई थी, आजतक उसे कहीं नौकरी नहीं मिली। काफी आवेदन डाले, लेकिन कहीं से कोई बुलावा नहीं आया। इसके लिए वह अपने आपको कम, सरकारी नियमों और आरक्षण जैसी व्यवस्था को अधिक जिम्मेदार मानती है। इस विषय पर कई बार सदेशर से उसकी बहस भी हो जाती, लेकिन अधिक पढ़ी-लिखी होने के कारण सदेशर को उसकी बात माननी ही पड़ती। खासकर तब, जब सावित्री सदेशर को कहती अगर मेरी जगह तुमने एम.ए. किया होता, तो आज तुम एक अफसर होते। सदेशर के पास इसका कोई जवाब नहीं होता, क्योंकि उसे भी पता है कि उसकी जातियों के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था है।
महंगाई के कारण सदेशर को अपने तीन सदस्यीय परिवार को चलाने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। आज वह अपनी मजदूरी को लेकर पण्डित जी से बात करना चाहा।
"अब मालिक जो भी कहिये। इस दर पर काम नहीं होगा। आस पड़ोस के गाँव में तीन सौ रुपया से कम कोई भी मजदूरी नहीं लेता है और हम हैं कि पिछले एक साल से दो सौ पचास पर आपके यहाँ काम कर रहे हैं। इससे तो अच्छा है कि मजूरि मत दीजिए, सोचेंगे ब्राह्मण आदमी को श्रम दान कर दिए।" पसीने से तरबतर सदेशर मांझी लकड़ी के गठ्ठर को आंगन में पटक, सर पर बंधे गमछे को खोल पसीना पोछने लगा।
"कौन कहता है? और किसको मिलता है तीन सौ रुपया की मजदूरी? अरे हम तो दो सौ पचास रुपए इसलिए दे देते हैं कि सब दिन तुम्हारा बाप-दादा हमारी चौखट पर काम के लिए नाक रगड़ता रहा है। कोनो मजदूर की कमी थोड़े ही न है। अरे सवीतिया दे दो इसको ढाई सौ। कल से मन होगा तो आएगा, नहीं तो किसी और को बुला लेंगे। सबसे अधिक होशियार यही है। मैं जा रहा हूँ दीनानाथ जी के पिता का श्राद्ध कर्म करवाने। खाते हुए लौटूंगा। दरवाजे की कुंडी लगा लेना।" पण्डित उदयकांत जी बेटी सावित्री को अपने जाने और आने की सूचना दे दरवाजे से बाहर निकल गए। सदेशर की ओर देखे तक नहीं। पंडित जी के बाहर निकलते ही सदेशर गमछे से चेहरे का पसीना पोछते आंगन में ही लाई गई लकड़ी के गठ्ठर के सहारे बैठ गया। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि कल से वह क्या करे। नई पगार पर कहीं नई जगह काम खोजने जाए या इसी मजूरी में पंडित का काम करता रहे। सावित्री को लगा कि वह निर्णय नहीं कर पा रहा है, नहीं तो बाबूजी को साफ-साफ बोल देता कि वह कल से काम पर नहीं आएगा। धीरे से सावित्री सदेशर के पास आई।
"क्या सोच रहे हो, अगर तुम्हें पोसाई नहीं पड़ता, इतनी मजदूरी में, तो दूसरा काम देख लो, बाबूजी ने तो तुम्हें क्लियर कह ही दिया है। अब इसमें किन्तु-परंतु की कोई गुंजाइश तो है नहीं।"
"मालकिन आप।भी..."
"हजार बार बोल चुकी हूँ, मैं तुम्हारी मालकिन नहीं हूँ। हम दोनों मैट्रिक तक साथ पढ़े हैं, एक ही स्कूल में बचपन से। मालकिन कैसे हो सकती हूँ। मेरा नाम सावित्री है और तुम मुझे इसी नाम से पुकारा करो। बचपन में तो कभी मालकिन नहीं कहा। अब क्या हो गया।"
"तब ऊंच-नीच, जात-पांत का भेदभाव नहीं पता था। अब सब कुछ समझ में आता है।" बिना सावित्री से नजरें मिलाए सदेशर कठोर, किन्तु सत्य कह गया।
"छोड़ो ये बेकार की बातें हैं, मैं नहीं मानती। चाय पिओगे" सावित्री बिना सदेशर की जवाब का इंतजार किए भनसा की ओर मुड़ गई।
"बाप घाव देता है, बेटी मरहम लगाती है, क्या जमाना आ गया" दबी ज़ुबान से वह कह गया।
"क्या कहा..." मुड़ते हुए सावित्री ने पूछा। शायद उसने सुन लिया था।
"कुछ नहीं। आपसे नहीं, अपने आप से कहा है" छुपाने या झूठ की गुंजाइश थी नहीं।
सदेशर ने बचपन से सावित्री के साथ-साथ पढ़ाई किया है, गाँव के प्राथमिक स्कूल से तीन किलोमीटर दूर बाज़ार के हाई स्कूल तक। बीस घर के मुसहर की बस्ती में इकलौता सदेशर ने ही मैट्रिक तक पढ़ाई पूरी की। चौथा-पांचवां से आगे उसकी बस्ती में कोई नहीं जा पाया। वह तो आगे भी पढ़ना चाहता था, लेकिन जुगाड़ु गाड़ी से महिलाओं के झुंड में उसकी माँ भी गंगा स्नान से घर आते वक्त चलती गाड़ी से गिर गई और दायाँ पैर टूट गया। सरकारी अस्पताल में सदेशर ले भी गया, समय पर इलाज़ भी शुरू हो गया, लेकिन पैसे के आभाव एवं थोड़ी लापरवाही से समय पर डॉक्टर को दिखा नहीं पाया और प्लास्टर हो जाने के बाबजूद अंदर ही अंदर इन्फेक्शन हो जाने के कारण दाहिना पैर घुटने के ऊपर काटना पड़ा, नहीं तो जान पर खतरा था। लोग कहते हैं कि डॉक्टर की गलती से ऐसा हुआ, लेकिन सदेशर इसे अपनी बदकिस्मती मानता है। मां के इस हादसे के बाद घर की जिम्मेदारी इसके कंधे पर आ गई। मां ने ही पण्डित जी एवं गाँव के दूसरे घरों में चौका बर्तन कर सदेशर को मैट्रिक तक पढ़ाया था। मां चाहती थी कि उसका बेटा और आगे की पढ़ाई के बाद नौकरी में लग जाए, तो उसके दिन बहुरेंगे। लेकिन एक घटना ने उसकी माँ और उसके सपने को चकनाचूर कर दिया। सदेशर का ममेरा भाई सचिवालय में क्लर्क है, उसकी माँ भी यही चाहती थी कि जैसे भतीजे की नौकरी ने भाभी और भाई का दुःख दूर कर दिया, वैसे ही उसका सारा कष्ट जाता रहेगा।
"लो चाय" सावित्री चाय लिए सदेशर के सामने खड़ी थी। सर झुकाये सदेशर भूत की लकीरों के सहारे अपने दुर्भाग्य के दिनों में खो गया था। सावित्री की आवाज से उसमें हरकत आई।
"जी.।" सदेशर ने चाय लेने को हाथ बढ़ाई।
"जी.।दांत कुछ नहीं। सावित्री सिर्फ सावित्री। एक हज़ार बार बोल चुकी हूँ।" सावित्री ने प्यार की डांट पिलाई।
" आप कुछ नहीं पंडितों से मुझे पिटवाईएगा। जो भी घर में एक अकेला कमाने वाला है उसकी भी हड्डी-पसली एक हो जाएगी। चाय की घूंट भी अभी गले के नीचे नहीं उतरी थी। सदेशर सामाजिक सच्चाइयों के प्रति अधिक ईमानदार था।
"अच्छा सा।सआ..." बाकी शब्द बाहर ही नहीं आ पाया।
"सा।आ।नहीं। बोलो सावित्री"।
"हाँ वही। आप एक बात बताइए, जब आपके बाबूजी होते हैं तो इतने प्यार से तो आप कभी बात नहीं करतीं। न ही चाय के लिए कभी पूछा। आप भी डरती हैं न अपने बाबूजी से कि कहीं उन्हें ये सब अच्छा न लगे।" बहुत दिनों से ये बात सदेशर को अखर रही थी, लेकिन पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाया, आज माहौल थोड़ा अनुकूल देख उसकी जुबान पर जड़े ताले खुल गए।
"क्या बताएँ तुम्हें। यह सच्चाई है। मैं ब्राह्मण की बेटी, तुम दलित मुसहर। कैसे हंस-बोल सकते हैं। इस समाज में हमारी भी स्थिति अच्छी नहीं है। कहने को तो हम ब्राह्मण हैं, लेकिन किसी खुशी के मौके पर अन्य ब्राह्मणों के साथ हम शरीक नहीं हो सकते। हमारी जरूरत सिर्फ श्राद्ध कर्म में होती है। कर्त्ता की उतरी तोड़ने के लिए ही हम बने हैं, वह भी प्रेतात्मा से मुक्ति दिलाने के लिए ही पिता जी को बुलाया जाता है। लोग कहते हैं कि अपने सम्बंधियों को मुखाग्नि देने वाले कर्त्ता पर श्राद्ध कर्म सम्पूर्ण होने से पहले तक प्रेतात्मा का वास होता है। कंटाहा पण्डित द्वारा उतरी तोड़ने के बाद ही प्रेतात्मा से उन्हें मुक्ति मिलती है और उस प्रेतात्मा का वास उतरी तोड़नेवाले कंटाहा ब्राह्मण में हो जाता है। लोग कहते हैं कि यही कारण है कि चाहे जितना भी दान-दक्षिणा मिल जाए कंटाहा ब्राह्मण कभी तरक्की नहीं कर सकता। हालांकि मैं ये सब बात नहीं मानती, लेकिन कहा तो यही जाता है कि प्रेतात्मा कभी बफा नहीं होने देता।" सावित्री एकबार में ही इतना सारा कुछ कह गई।
"बाप रे बाप यहाँ भी वही हाल है। इससे तो अच्छे हम हैं कि कम से कम हमारी विरादरी वाला तो हमारा तिरस्कार नहीं करता। आप तो अपने जात, अपने समाज में भी अछूत हैं और हमारे लिए पूजनीय। वाह रे वाह! क्या करिश्मा है।"
"खैर छोड़ो इन बातों को। तुमने क्या निर्णय किया। कल से काम पर आना है या नहीं। बाबूजी रात में आते ही पूछेंगे। क्या कहूंगी मैं। आज का तो ये ढाई सौ लो।"
"एक बात बताऊँ सा...सावित्री जी! आप ऐसे ही रोज एक कप चाय पिलाते रहिये तो चाहे आपके बाबूजी पैसे दें न दें, मैं कहीं नहीं जानेवाला।" एक हल्की मुस्कुराहट असर कर गई।
"भक! नासमझ। एक कप चाय में पचास रुपये का चूना लग रहा है। बड़ा महंगा सौदा है सदेशर जी। सोच लीजिए"
"क्या बात है आज पहली बार किसी के मुंह से मेरे लिए 'जी' निकला है। गांव में ज्यादातर लोग तो सदेशरा बोलता है। मेरी माँ मुझे सुदेश बोलती है। आपने तो जी लगा दिया। अरे वाह। मैं भी अब इसी ड्योढ़ी पर मरूँगा। लेकिन।"
"लेकिन क्या।" सावित्री को लगा सदेशर कुछ और कहना चाहता है।
"आप तो शादी कर चली जाएंगी फिर मेरा मरना कैंसिल।"
"भक! बुद्धू! ऐसा कुछ नहीं होने वाला। मरने के प्रोग्राम पर हम बाद में सोचेंगे। जाओ कल से काम पर आते रहो। हाँ एक बात और लोगों के सामने मैं भी तेरी मालकिन ही हूँ और सब के सामने ज्यादा मेरे से लपड़-चपड़ मत करना। सुबह शाम तुम्हें मेरी चाय मिलती रहेगी। जाओ अब अँधेरा होने को है।"
गमछा कंधे पर रख सदेशर घर जाने को उठ खड़ा हुआ। मन तो नहीं कर रहा था जाने को। सावित्री जैसी पढ़ी लिखी सवर्ण लड़की की प्यार भरी बातें पहली बार नसीब हुई थी। रास्ते भर वह कुछ से कुछ सोचता रहा। सावित्री का व्यवहार बिल्कुल बदला, लेकिन अपना-सा लगा। हलांकि सदेशर उसे पिछले बीस वर्षों से जानता है। एक ही गाँव का होने के कारण दोनों का स्कूल आना-जाना साथ होता था। स्कूल में भी पांचवीं क्लास तक पास-पास ही बैठा। छठी से लड़कों और लड़कियों के बैठने की रो अलग-अलग कर दी गई। लेकिन छुट्टी होने पर जो पहले क्लास से निकलता, वह गेट पर इन्तजार करता। आने जाने के साथ ने तो निकट ला ही दिया था। मां के अपाहिज हो जाने बाद इसकी पढ़ाई छूट गई और काम पर लग गया। पहले तो बाज़ार में काम करने जाता था, लेकिन एक दिन पंडित जी इसे बुला लाए। उस दिन सदेशर को बुरा भी लगा, जब अपने सहपाठी के यहाँ मजदूरी करनी पड़ी, लेकिन काम न करने का निर्णय भी उसके हाथ में न था। उसके पिता ने पंडित जी से एक हज़ार रुपये उधार ले लिया था और बीमारी के कारण काम पर नहीं आ पाया, तो पंडित जी के साथ सदेशर को लगा दिया। तब से वह यहीं काम कर रहा है। खेत-खलिहान से लेकर गाय-माल की जिम्मेदारी भी तो उसी के कंधे पर है। जितना ही दिमाग पर जोड़ डालता, सब कुछ उलट-पुलट-सा लगता। कभी अच्छे ख्याल भी आने लगते, कहीं पंडिताइन भँसिया तो नहीं गई है। लेकिन दूसरे ही पल उसे अपनी सामाजिक हैसियत का एहसास हो जाता। ऐसे सपने इस जन्म में तो पूरे होने से रहे। बात जो भी हो, जैसी भी हो, लेकिन सावित्री का जादू उसपर चल चुका था, जितना ही उससे दूर होने की सोचता, उतना ही उसके करीब पाता। सदेशर को नींद कब आयी उसे पता ही नहीं चला।
सुबह-सुबह जल्दी-जल्दी तैयार होने लगा तो उसकी माँ की आवाज उसके कानों में पड़ी "अरे सुदेश! इतनी सुबह कहाँ जा रहा है, रोटी तो अभी बनी नहीं, तेरा बाप लकड़ी चुनने गया है, लेकर आता ही होगा। थोड़ा सत्तू ही घोर कर पी ले"।
"रहने दे माँ पण्डित जी ने सवेरे बुलाया है, नास्ता खाना तो मुझे वहाँ मिल ही जाता है, बाबू को आने दो तुम आराम से खाना बनाना। मैं चलता हूँ।"
"ठीक है जा बेटा।"
पंडित जी के घर पहुँच सदेशर ने दरवाजे की कुंडी खटखटाई। दरवाजा पण्डित जी ने खोला। सदेशर को सामने देख पण्डित जी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
"अरे सदेशरा क्या बात है ईतना सवेरे! काम से मना करने आया है?"
"नहीं मालिक काम करने आया हूँ।"
"अरे इतना सवेरे। अभी सुबह के साढ़े सात बजा है। आठ से पहले तो तुम कभी नहीं आया। आज कैसे?"।
"जी.।जी.।छोटी मालकिन ने सवेरे बुलाया था, शायद घर का भी कुछ काम है"।
"अच्छा सावित्री! देखो सदेशरा आया है, क्या काम बोली हो, बता दो"।
"जी बाबूजी! अभी आयी"।
पंडित जी अपने पूजा-पाठ की तैयारी में चले गए थे। सदेशर आंगन में खड़े सावित्री का इंतजार करने लगा।
"क्या जी! सदेशर महाराज! आप झूठ भी बोलने लगे। मैंने कब आपको सुबह जल्दी बुलाया था। बोलिये तो जरा। बाबूजी के सवाल का जनाब जवाब न दे पाए तो मेरा नाम ले लिया।"
"क्यों आपने नहीं कहा था कि कल से सुबह-शाम मेरी ओर से चाय मिलेगी, चाय ही पीने तो आया हूँ, चाय पीने में जो समय लगेगा वह मेरा होना चाहिए न और आपसे बतियाना भी तो अच्छा लगता है।" शरमाते हुए सदेशर एक टक सावित्री को देख रहा था।
"भक! बदमाश! ऐसी बातें नहीं बोलते। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे।" सावित्री भी शरमा गई।
"क्यों आपको डर लगता है। कल तो बड़ी-बड़ी बातें कर रही थी। आज सब हवा हवाई.।। मैं किसी से नहीं डरता।"
"अच्छा! किसी से नहीं डरते। पक्का।"
"और क्या कच्चा! आप बोलो क्या करना है। जिसे कहोगे उसे पीट दूंगा (इशारा सावित्री के बाबूजी की तरफ था)"। ऐसी बातें सुन सावित्री जोर-जोर से हंसने लगी। फिर उसे बाबूजी के पूजा का ध्यान आया, तो मुँह को आँचल से बंद कर अपनी हंसी को काबू में किया।
"ठीक है सिदेशर महाराज! समय आएगा तो उसकी भी परीक्षा हो जाएगी। आप बैठिये मैं चाय बनाकर ला रही हूँ।"
जमीन को अपने गमछे से झार कर दरवाजे के पास ही सदेशर बैठ गया। रह-रहकर उसकी नजर भनसे (किचेन) की तरफ ही जाती। दो कप चाय लिए सावित्री को आते देख उसे तसल्ली हुई।
"लो ये तेरी चाय।" एक कप लिए वापस जाने लगी।
"और आपकी चाय"
"मेरी ही है, बाबूजी घर में हैं। तेरे साथ बैठकर तो नहीं पी सकती न। देश निकाला हो जाएगा, बेबकूफ"। धीमे आवाज में वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी और दस फीट दूर सीढ़ी के पास बैठ चाय पीने लगी।
पंडित जी के यहाँ काम करते एक साल से अधिक बीत गया, लेकिन उसकी मजूरी में कोई इज़ाफ़ा नहीं हुआ। इस बीच गाँव में इस बात की चर्चा सरेआम हो गई कि पंडित जी की लड़की का कुछ-न-कुछ चक्कर मुसहर के साथ है। यह बात पण्डित जी तक भी पहुँच चुकी थी। पंडित उदयकांत ने सदेशर को काम से हटा दिया और सावित्री के घर से बाहर जाने की पाबंदी लगा दी। दो साल के दौरान दोनों काफी करीब आ गए थे। एक शाम पंडित जी श्राद्ध कर्म से दूर गाँव गए थे, देर रात तक लौटने की संभावना थी। सावित्री ने शायद यही उचित समय समझ सदेशर को एक बच्चे के मार्फ़त जलावन की लकड़ी पहुँचाने के बहाने बुलवाया। शाम के छः बज रहे होंगे सदेशर अपने घर की लकड़ी का एक गठ्ठर कंधे पर उठाए पंडित जी के घर चल पड़ा।
दरवाजे पर सावित्री उसका इंतजार कर रही थी। उसे देखते ही अंदर आने का इशारा कर लकड़ी एक कोने में रखने को कहा और खुद सीढ़ी के पास बैठ गई। सदेशर हमेशा की तरह दरवाजे के अंदर आंगन में सावित्री के सामने चुकुमुकु बैठ आदेश की प्रतीक्षा करने लगा।
"सदेशर! मैंने एक जरुरी काम से तुम्हें बुलाया है। जीवन मरण का प्रश्न है। हम दोनों को लेकर पूरे गाँव में चर्चा है। अभी तक तो हम दोनों के बीच ऐसा कुछ भी नहीं है, जो हमे शर्मिंदगी हो, लेकिन लोगों ने हमें इस मुकाम पर ला खड़ा किया है। हम दोनों ने करीब दस साल तक साथ-साथ पढ़ाई की। मैट्रिक के बाद तुमने छोड़ दी, मैंने जारी रखी। आज मैं मास्टर डिग्री ले चुकी हूँ। लेकिन मेरे बाबूजी जल्द ही मेरी शादी कर लोगों का मुंह बंद करना चाहते हैं। दहेज दे नहीं सकते तो श्राद्ध कर्म करनेवाले अधेड़ विधुर के साथ मेरी शादी की बात चल रही है। कभी भी मुझे मंडप में बिठाया जा सकता है। मैं उससे शादी नहीं करना चाहती। तुम मेरी क्या मदद कर सकते हो?"
"आप जो कहें, हर स्थिति में मैं आपके साथ हूं"।
"देखो मैं जाति, धर्म में विश्वास नहीं करती। तुम्हारे साथ मेरा नाम जोड़ दिया गया है। अब मैं कहीं भी जाऊँ, गाहे-बगाहे ये चर्चा होगी। तो क्यों नहीं हम उसे सच ही कर दें।" सावित्री निर्णय की ठान चुकी थी। उसकी बातों में दृढ़ता थी।
"जी! मैं समझा नहीं। आप बस आदेश दें। मुझे क्या करना है।" सदेशर समझ कर भी नासमझ की तरह व्यवहार कर रहा था।
"भक! तुम भी न। बेवकूफ के बेवकूफ ही रह गए।"
"हाँ वह तो हैं"। इतने सहज, सरल जवाब सुन टेंशन में भी सावित्री अपनी हंसी नहीं रोक पाई।
"मैं तुम्हारे साथ भागना चाहती हूँ। घर बसाना चाहती हूँ। अब तुम्हें निर्णय करना है।" एक रौ में कह गई सावित्री।
"बाप रे! नहीं मालकिन ये नहीं होगा हमसे। ये पण्डित लोग मेरा बोटी-बोटी काट डालेगा। मेरी अपाहिज बूढ़ी माँ है उसे कौन देखेगा? आप जैसी पत्नी पाकर कोई भी धन्य हो जाएगा, लेकिन मेरे नसीब में ये सब नहीं हो सकता। लोग मेरे पीछे पुलिस लगा देगें। आप घर आ जाएंगी और मैं जेल। नहीं सावित्री जी! ये ठीक नहीं होगा। आप एक ब्राह्मण की बेटी हैं। मैं एक दलित मुसहर, दोनों का मेल कैसे हो सकता है। सालों से ऐसा नहीं हुआ है। हम मजदूर का काम कर अपनी और मां-बाप का पेट पालते हैं। कोई नौकरी भी तो नहीं है। कौन संरक्षण देगा हमें। नहीं सावित्री जी ये ठीक नहीं होगा"।
"ठीक है देख लिया और समझ भी लिया। तुम्हारे और मेरे में कोई अंतर नहीं है। इस समाज के लिए हम भी अछूत हैं। तुम दलित होकर अछूत हो, मैं सवर्ण होकर अछूत हूँ। अरे! तुम्हे तो कानून और सरकार का भी संरक्षण प्राप्त है। मुझे तो ये भी नहीं। मैं कंटाहा की बेटी हूँ, जिसका काम मरे से लोगों को मुक्ति दिलाना है। ठीक है तुम जाओ। मुझे क्या करना है, मैं जानती हूँ।" सावित्री हांफने लगी। सदेशर के पांव जाने को आगे बढ़े ही थे कि सावित्री की आवाज आई।
"लेकिन जाने से पहले एक बात सुनते जाओ सदेशर, एक ब्राह्मण कन्या का अपमान किया है तुमने। तुम अगर अपने समाज के सताए हुए हो, तो मुझे भी इसी समाज में अपमान की घूंट पीनी पड़ी है। अल्पसंख्यक तुम भी हो, तो अल्पसंख्यक मैं भी हूँ। रही बात तुम्हारे माँ और पिता की, तो मेरे लिए वह भी वही हैं, जो तुम्हारे लिए हैं। अरे! मैं तो तुम्हारी माँ की ही पाली-पोसी हूँ। वो तो मेरी 'आया मां' हैं। तुमने उन्हें मुझसे अलग कैसे समझ लिया? तुम्हारे साथ रहकर मैं सिर्फ अपना नहीं, तुम्हारी किस्मत भी संवारना चाहती हूँ। मैं तुम्हारी दुश्मन नहीं, हितैषी हूँ। तुम्हारे आगे की पढ़ाई पूरी कर तुम्हें सरकारी नौकरी करनी है। ब्राह्मण की बेटी बन बहुत ताने सुने हैं, एक मुसहर की बीवी बन ताने ही सुनूंगी तो क्या? किस्मत तो संवर जाएगी न। वैसे भी शहर में कोई किसी को ऐसे ताने नहीं देते। वहाँ किसी को किसी से कोई मतलब नहीं होता। सब अपने में मस्त होते हैं। वहाँ कोई ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं रखता और रखता भी है तो चुनांचे नहीं करता। अब सोचो तुम्हें जो सोचनी है। मैं भागूंगी तो जरूर। किसी बुढ्ढे के पल्ले तो मैं नहीं पड़ने वाली। तेरे साथ भागी तो ठीक, नहीं तो दुनियाँ से भागूंगी। उसपर तो मेरा अधिकार है न सदेशर महाराज।"
"बाप-रे-बाप ये बाभन की बेटी तो पूरी तैयारी कर चुकी है। अच्छा मालकिन एक बात बताइये, मेरे बच्चे क्या कहलाएंगे। दलित या बाभन।"
"भक!" दोनों अपनी हंसी नहीं रोक पाए।
"मैं बताऊँ, दलित बाभन।"
"चुप रहता है कि नहीं। अपना अभी ठिकाना नहीं और इन्हें बच्चों की पड़ी है।"
"अच्छा मालकिन बताइए, कब भागना है और कहाँ?"
"आज रात को दस बजे, बाबूजी ग्यारह से पहले नहीं आने वाले हैं। कहाँ जाना है, ये तो बाद में बताऊंगी। पहले यहाँ से तो निकलो।"
"ठीक है, बन्दा हाज़िर होता है हनुमान मंदिर के चौक पर। आप वहीं आ जाना। जय हनुमान जी। मैं अब चला।"
सदेशर तेजी से घर की ओर मुड़ गया। सावित्री एक टक उसे देखती रही, जब तक सदेशर उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गया।
(सोचा था दोनों को भागते देख लेता, लेकिन पता नहीं कब दस बजे से पहले ही मुझे नींद आ गई, जाते देख नहीं पाया। अगर आपने देखी हो तो बता देंगे, कहानी पूरी हो जाएगी) ।