दलित महिलाएं एवं उनका सशक्तिकरण / तारा परमार
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समीक्षा लेखिका :डॉ. तारा परमार
मानव सभ्यता के इतिहास में महिला अस्मिता, उसके समान अधिकार और स्वतंत्रता का प्रश्न सदा से ही उलझनपूर्ण रहा है। महिला को लेकर जितनी भी व्यवस्थाएं बनी उनमें उसे प्रायः दोयम दर्जे का स्थान ही दिया गया है। महिलाएं दलितों में भी दलित मानी गई है। इसके लिये हमारी सामाजिक व्यवस्था और पुरुष प्रधान समाज की सोच पूर्णतः उत्तरदायी है। सामाजिक असमानता, निरक्षरता, अंधविश्वास, दहेज, जातिप्रथा, लिंग-भेद आदि मुद्दों के विरुद्ध आवाज उठती रही हैं और निरंतर उठ रही हैं। परंतु इन सब से पूरी तरह मुक्ति पाना अभी शेष है। घरेलू महिलाएं घर से बाहर निकलकर घर-परिवार की आवश्यकताओं के अनुरूप परंपरागत मान्यताओं और सामाजिक प्रतिबन्धों से कड़ा मुकाबला कर रही है और पुरानी पीढ़ी द्वारा आरोपित रूढ़ियों को तोड़कर खुश हो रही है। कुछ नया करने के लिए दुस्साहसिक कदम भी उठा रही है। भारतीय महिलाएं पुरुष निरपेक्ष नहीं बनना चाहती, अपनी अस्मिता बनाना और बचाना चाहती है - लेकिन पूरे अधिकार और सम्मान के साथ। हमारे यहाँ महिलाओं के मनोवैज्ञानिक संस्कार ही अधीनस्थता के हो जाते हैं। त्याग, सहिष्णुता और करुणा अतिवादी स्वरूप धीरे-धीरे महिलाओं को भीरू, असहाय और पराजित बनाते चले जाते हैं।
भारतीय संविधान ने महिला व पुरुष दोनों को समकक्ष रखकर उनके विकास के लिए समान अवसरों की गारंटी दी। अनेक प्रावधानों द्वारा महिला को सुरक्षा तथा संरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की गई। पर इन सबके बावजूद महिला की स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया, क्योंकि सामाजिक रवैये में बुनियादी बदलाव नहीं हुए। समाज ने महिला के प्रति अपने दायित्व के निर्वहन में कोताही बरती। दरअसल दुनिया के तमाम उत्पादन के साधनों पर उत्तराधिकार कानूनों के माध्यम से पुरुषों का स्वामित्व है और उत्पादन के साधनों पर वर्चस्व बनाये-बचाये रखने के लिए पुर्नोत्पादन के साधनों (यानी महिला की देह और कोख) पर भी संपूर्ण नियंत्रण अनिवार्य हैं जो विवाह संस्था के माध्यम से बनाया गया है। उत्तराधिकार के लिए वैद्य संतान और वैद्य संतान के लिए विवाह संस्था अनिवार्य है। विवाह संस्था से बाहर जन्मे बच्चे अवैद्य, नाजायज, हरामी हैं। इसलिये पिता की संपत्ति में कानूनी वारिस नहीं माने जाते। कानून और न्याय की नजर में वैद्य संतान पुरुष की और अवैद्य महिला की होती है। विवाह संस्था अनिवार्य है सो पुरुष की सम्पत्ति के असली (कानूनी) उत्तराधिकारी तो बेटे ही होंगे क्योंकि बेटियाँ तो परायाधन है और कन्यादान के बाद दहेज लेकर ससुराल चली जाएगी। संयुक्त हिन्दू परिवारों में सम्पत्ति का स्वामित्व केवल पुरुषों के नाम। बंटवारा करवाने का अधिकार केवल पुरुषों को। बेटा गर्भ में आते ही संपत्ति का हकदार लेकिन बेटियाँ भूण-हत्या की शिकार। परिवार या विवाह संस्था के मूल ढांचे में समता और समाज में न्याय (सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक) की नींव डाले बिना न कन्या भूण हत्या रोकना संभव होगा और न टूटते-बिखरते परिवार को बचाना। निःसन्देह पितृसत्ता को सिरे से दुबारा सोचना-समझना पड़ेगा। संपत्ति और सत्ता में महिलाओं को बराबर हिस्सा दिये बिना परिवार बचाना मुश्किल है। बेटियाँ नहीं होंगी तो बहू कहाँ से आएगी? वंश कैसे चलेगा? परिवार संरचना में आमूलचूल परिवर्तन की मांग को और अधिक टालना खतरे से खाली नहीं है।
महिला के लिए पहली चुनौती तो यही है कि बदलते परिवेश में सामाजिक मान्यताओं का सम्मान करते हुए वह समाज के दृष्टिकोण को बदल डाले कि 'स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु हैं।' महिलाओं की समस्याओं के हल हेतु महिलाओं को ही आगे आकर महिलाओं को समझना पड़ेगा, यह भी एक चुनौती है पर सबसे बड़ी चुनौती यही है कि महिलाएं अपने अनेक रूपों को (बहन, बेटी, पत्नी आदि) सहज रूप में बनाए रखकर अपनी लड़ाई लड़ सकती है या नहीं; क्योंकि अति उच्छृखलता, अतिउन्मुकता, अति परकीयकता भारतीय महिलाओं, भारतीय परिवेश और पारिवारिकता के विरुद्ध है। यदि रचनात्मक जीवन उसे जीना है और समाज में अपनी पहचान बनानी है तो उसे पुरुष समाज द्वारा खीची गई लक्ष्मण रेखा को लांघना ही होगा और समाज में जो भी स्थितियाँ, चुनौतियाँ आएगी, उनका डटकर मुकाबला करना होगा। कोई जरूरी नहीं यह लक्ष्मण रेखा लांघने के बाद उसे सब कुछ आसानी से मिल जायेगा। जिनसे पाना है या जिनके बीच से होकर गुजरना है वह आज जहाँ खड़ी है कही उससे अधिक भयानक स्थितियाँ उसके सामने आ सकती है लेकिन इसी के बीच से अपना सफर तय करना और अपनी पहचान भी बनानी है। क्या यह सत्य नहीं है कि निर्धन-कमजोर-गरीब लोगों एवं सभी प्रकार की महिलाओं का विराट जनता जनार्दन तो केवल उस ज्ञान पर आश्रित रहा जो उसे वांछित परंपरा द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिलता रहा और शस्त्रा एवं साहित्य शताब्दियों तक इस देश में राजा-महाराजाओं, सामंतो-उमरावों, धनवानों-उच्च कुलीनो के प्राधिकार में रहे? महिला कामगारों में चाहे घास काटने वाली हों, तेंदूपत्ते जमा करने वाली हो, बीड़ियाँ, अगरबत्ती आदि बनाने वाली हों, मिट्टी के बर्तन बनाने वाली हों, मछलियाँ ढोने और बेचने वाली हों या कपड़ा बुनने वाली हों इन सभी क्षेत्रों में उन्हें पुरुषों से अधिक मेहनती काम करने के बाद भी उनसे कम मजदूरी मिलती है, उन महिलाओं को प्रसूतिकाल की मजदूरी नहीं मिलती, क्या महिला साक्षरता अभियान से उनमें अपने अस्तित्व के संकट को पहचानने का सोच-विचार पैदा होगा और उनमें असमानता को समूल नष्ट करने के संघर्ष की चेतना जागृत हो सकेगी? इन सब बातों को महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में सोचना-विचारना बहुत आवश्यक है।
यद्यपि यह भी उल्लेखनीय है कि महिलाओं की बेहतरी के लिए कुछ विशेष योजनाएं बनाई गई। सर्वप्रथम ग्रामीण क्षेत्रों में महिला तथा बाल विकास कार्यक्रम (डी.डब्ल्यू.सी.आर.ए.) समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम (आई.आर.डी.पी.) की एक उपयोजना के रूप में 1 सितम्बर १९८२ में प्रारंभ किया गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य गरीबी की रेखा से नीचे बसरकर रहे ग्रामीण परिवारों की महिलाओं के लिए स्वरोजगार के उपयुक्त अवसर प्रदान करना है। तत्पश्चात् निर्धन महिलाओं की ऋण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए १९९२-९३ में एक राष्ट्रीय महिला कोष की स्थापना की गई। इसके साथ ही ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने व उनमें बचत की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने के लिए महिला समृद्धि योजना की शुरुआत २ अक्टूबर १९९३ से की गई। राज्य सरकारों द्वारा चलाए जा रहे महिला विकास कार्यक्रमों की सूची भी लंबी होती जा रही है। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 1 नवंबर १९९१ से विशेषतः ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों की महिलाओं के कल्याण एवं विकास हेतु 'पंचधारा योजना' शुरू की गई। इस कार्यक्रम के तहत वात्सल्य योजना, ग्राम्य योजना, आयुस्मति योजना, सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना और कल्पवृक्ष योजना सन्निहित है। हरियाणा सरकार ने अनुसूचित जाति व जनजातियों की बालिकाओं के लिए 'अपनी बेटी अपना धन योजना' प्रारंभ की गई। गुजरात सरकार द्वारा चलाई जा रही 'कुंवरबाई नु मामेरू योजना', 'महाराष्ट्र में प्रचलित काम धेनु योजना', आंध्रप्रदेश में 'बालिका संरक्षण योजना' आदि इस दिशा में किए जा रहे प्रयास हैं। बीस सूत्रीय कार्यक्रम के कुछ प्रावधानों और परिवार नियोजन कार्यक्रम को जो कुछ भी सीमित सफलता प्राप्त हुई उसका सीधा लाभ सबसे पहले महिलाओं को मिला। काहिरा सम्मेलन (१९९४) व बीजिंग में महिलाओं पर चतुर्थ विश्व सम्मेलन (१९९५) ने महिला व बाल स्वास्थ्य सुधार और महिलाओं के यौन स्वास्थ्य व अधिकारों जैसे अन्य मुद्दों को भारतीय नीतियों में दाखिल कर दिया। भारत सरकार सोची और तय की हुई नीतियों के साथ विदेशी हलकों से आयातित विचारों और सलाहों के चलते हुए कुछ आशाजनक स्थिति निर्मित हुई। साथ ही महिलाओं के पक्ष में किए गए कानूनी सुधारों ने भी महिलाओं की पैरवी की। लेकिन समितियों, रपटों, योजनाओं और सुधारों से परे हटकर यदि वास्तविकता देखी जाए तो महिलाओं से संबंधित मोटे-मोटे तथ्य ही उनकी स्थिति की पोल खोलते हैं। वर्ष १९९१ की जनगणना के अनुसार स्त्री-पुरुष अनुपात ९२७ महिलाएं प्रति हजार पुरुष रहा। वैवाहिक स्थिति के आंकड़े बताते हैं कि १५ से १९ वर्ष के आयु समूह में ७ प्रतिशत लड़कों और ३९ प्रतिशत लड़कियों का विवाह हो जाता है। कम आयु में विवाह और मातृत्व के बोझ के अलावा सामान्य तौर पर भी माताओं में कुपोषण, उनकी अस्वस्थता और मृत्यु दर के मुख्य कारण है। गर्भावस्था के दौरान और प्रसूति के बाद स्वास्थ्य की उपेक्षा आम बात है। यह परिस्थितियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक व्याप्त है। बालक की चाह आज भी अत्यंत तीव्र है और विज्ञान की दया से मादा भू्रण हत्याएं निरंतर वृद्धि पर है। बालिकाओं के साथ भेदभाव को भी कई स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है। टीकाकरण व पोषण के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं। बालिकाओं और महिलाओं पर यौन अत्याचार ने अकल्पनीय आयाम ग्रहण कर लिए हैं। स्वास्थ्य के अलावा मानव कल्याण के सबसे सशक्त माध्यम शिक्षा की भी हालत दयनीय हैं स्कूलों में नामांकन अनुपात शाला में उपस्थिति दर और विद्यालय त्याग अनुपात में लिंग-भेद के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। विद्यालयीन, सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत कारणों के चलते यह प्रवृत्ति स्कूली शिक्षा के आगे भी यथावत् बनी रहती है। पुरुषों में साक्षरता दर ६४.१३ प्रतिशत तथा महिलाओं में ३९.२९ प्रतिशत है। साक्षरता और शिक्षा के अभाव में स्त्रियाँ जिन अनेक लाभों से वंचित रहीं उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है रोजगार। १९९१ की जनगणना के आंकड़े दर्शाते हैं कि कार्यशील जनसंख्या का ७१.४२ प्रतिशत पुरुष थे और मात्रा २८.५८ प्रतिशत महिलाएं थीं जबकि असलियत यह थी कि ऊंची निरक्षरता दर के बावजूद अधिकांश महिलाएं काम करती थीं। इसी सांख्यकीय प्रमाण के पीछे बहुलता के कारण उनके कार्य की गणना नहीं की जाती। श्रम कानूनों के दायरे से बाहर ये महिलाएं कई प्रकार के शोषण का शिकार होते हुए भी आर्थिक तंगी के कारण इस क्षेत्र में अशिक्षित और सकल राष्ट्रीय उत्पाद के लगभग एक चौथाई हिस्से के बराबर योगदान करती हुई महिलाओं का कार्य पारिवारिक श्रम के रूप में विलीन हो जाता है। इसके अलावा कई महिलाएं तथाकथित स्त्री सुलभ नौकरियों, अंशकालिक कार्यों और स्व-रोजगार के कुछ क्षेत्रों तक सीमित रह जाती है। भारत के लिंग आधारित श्रम बाजार की एक विशेषता यह भी है कि इसके एक सिरे पर यदि अदृश्य आर्थिक योगदान करती उपेक्षित महिलाएं हैं तो दूसरे सिरे पर सफेद पोश नौकरियों, व्यवसायों व उच्च पदों पर आसीन महिलाएं भी हैं। ये बात अलग है कि व्यावसायिक शिक्षा की सीढ़ियाँ चढ़कर इन स्थितियों में पहुंचने के बाद भी ये महिलाएं कैरियर की प्रतिकूल मांगों और संस्कृतिजन्य पारिवारिक दायित्व के बीच सामंजस्य बैठाने में पिसती रहती हैं ऐसी महिलाओं की संख्या कम होते हुए भी स्त्री दशा में नाटकीय परिवर्तन दर्शाने के लिए पर्याप्त हो जाती है साथ ही दूसरे क्षेत्रों में महिलाओं के कार्य की अदृश्यता को ये आंकड़े ढांक लेते हैं। फलस्वरूप स्त्रियों की आर्थिक भूमिका को कम आंके जाने के दूरगामी परिणाम योजनाओं और विकास कार्यक्रमों की रूपरेखा तक देखे जा सकते हैं। इसीलिए यह आवश्यक हो जाता है कि महिला विकास कार्यक्रमों को पुनः परिभाषित किया जाए। भारतीय महिलाओं के संस्कारों की अच्छी विशेषताओं को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता प्रदान की जाए। साथ ही प्राथमिक शिक्षा से ही लैंगिक समानता के मुद्दों पर जोर डालना जरूरी हो जाता है। मानसिकता में बुनियादी परिवर्तन के बाद ही महिला सबलीकरण के अन्य बाह्य तरीके सफल हो सकते हैं।
यह बात भी उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश पांच साल पहले लागू की गई अपनी महिला नीति का आकलन किसी स्वतंत्रा एजेंसी से करवाना चाहती है, ताकि गत अनुभवों और इस अध्ययन-आकलन के निष्कर्षों के प्रकाश में नई नीति को सुदृढ़ आधार मिल सकें। सिद्धांततः प्रदेश में महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए किए गए कार्यों की एक प्रभावशाली सूची है। संस्थागत प्रजातांत्रिक ढांचे में नारी को नारायणी बनाने के प्रयास के फलस्वरूप तीस प्रतिशत पंच-सरपंच महिलाएं हैं। अब यह बात अलग है कि कुछ महिला सरपंचों के पतियों की जरूरत से ज्यादा सक्रियता ने एस पी यानी सरपंच पति नामक एक नया शब्द राजनीतिक मुहावरे में जोड़ दिया है। अन्य बातों के अलावा यहाँ शिक्षा-सहकारिता, नौकरियों आदि में महिलाओं के आरक्षण के साथ-साथ भूमि स्वामित्व में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने से नारी उत्थान के आर्थिक स्वावलंबन पक्ष, को निश्चय ही मजबूती मिलेगी। महिलाओं की स्थिति में सिद्धांततः सुधार के दावों के बावजूद व्यवहारतः मैदानी हालात में कोई निर्णायक अंतर शायद ही आया हो। अगर प्रदेश के उत्तरी जिलों में बालिका के जन्म को अभी भी इतना हतोत्साहित किया जाता है कि वहाँ स्त्री-पुरुष अनुपात डगमगा गया है। क्या बालिका शिशु की हत्या गोहत्या से कम पाप हैं? हो सकता है कि इस वर्ष के जनगणना के आंकड़े इस बिंदु पर आंखे खोलने वाले साबित हों। जहाँ दतिया, देवास या रायसेन जिले महिला आई.ए.एस. और आई.पी.एस. अधिकारियों की पदस्थिति के लिए जाने जाते हैं, वहीं स्वयं मुख्यमंत्री से संबंधित राजगढ़ और गुना जिले महिला उत्पीड़न के लिए रेखांकित है। स्थिति का व्यंग्य यह है कि खुद मुख्यमंत्री महिला जागरण और सशक्तीकरण के प्रबल प्रतिबद्ध पक्षधर हैं। इसका साफ मतलब है कि महिला उत्थान की तमाम योजनाओं को समाज की अपेक्षित स्वीकृति अभी भी मिलने को है। आखिर क्या कारण है कि दहेज, मौतों और बलात्कारों जैसे जघन्य अपराधों के मामले में मध्यप्रदेश देश के शीर्षस्थ प्रदेशों में से है? कहीं ऐसा तो नहीं कि महिला सशक्तीकरण की योजनाएं शासकीय दावों के कलश-कंगूरों की श्रृंगारिक शोभा बनकर रह गई है जबकि सामाजिक चेतना की नींव से उनका कोई नहीं है। महिलाओं के लिए मगर के आंसू बहाने से कुछ नहीं होगा। नारी को नारायणी बनाने के लिए उसके 'आँचल में है दूध और आंखों में है पानी' वाले हालात बदलने होंगे।
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और अन्य सभी अवसरों में सामाजिक विभेद उनके विवेक और चेतना को पंगु कर देते हैं। ऐसी स्थिति में सशक्तीकरण के सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों से औपचारिक शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और साख व रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाना आवश्यक है, परंतु इन अवसरों से लाभ उठाकर भी महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन आए यह आवश्यक नहीं है, इसलिए महिलाओं के आंतरिक सोच में परिवर्तन लाने के लिए प्रचार-प्रसार भी आवश्यक है। आत्मिकरूप से निर्भीक, बचपन से ही शारीरिक रूप से शक्तिशाली और आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाना, महिला सशक्तीकरण के चरण हो सकते हैं। इसके साथ ही विधिक साक्षरता और सहायता से इस जागृति को सही दिशा में गति दी जा सकती है जिससे सूक्ष्म से वृहद स्तर तक हो रहे प्रत्येक प्रकार के अन्याय और अपराध का सशक्त विरोध महिलाएं कर सके। पुलिस, प्रशासन और विधि से जुड़े संपूर्णतंत्र को इस संबंध में संवेदनशील बनाना सार्वजनिक नीतियों की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। इन सभी प्रयासों की सफलता समाज के और सबसे ज्यादा स्वयं महिलाओं के दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन पर निर्भर करती है स्वयं के प्रति आस्था और मानवीय मूल्यों में दृढ़ विश्वास से ही महिला सशक्तिकरण संभव है।
महिला सशक्तिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें न केवल संसाधनों पर उनको अधिकार दिलाने होंगे वरन् इस विचारधारा को भी बदलना होगा, जो भेदभाव के विचारों, दृष्टिकोण और विश्वास के जरिए लिंग-भेद को बनाये रखते हैं। इस विचारधारा वाले बिन्दु को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए क्योंकि इसमें परिवर्तन न होने के कारण ही सरकार की अनेक सशक्तिकरण योजनाएं निष्प्रभावी सिद्ध हुई हैं। तमाम सशक्तिकरण योजनाओं में संसाधनों के पुनर्वितरण, संसाधनों के पुनर्वितरण, संसाधनों पर समान पहुंच और अधिकार के जरिए महिला पुरुष के शक्ति संबंधों में और साथ ही ऐसे विचारों को आगे बढ़ाने वाली संस्थाओं व संरचनाओं में परिवर्तन लाना आवश्यक है। अतः सशक्तिकरण का प्रारंभ उस वैचारिक परिवर्तन पर आघात करके किया जाना चाहिए जो कि भेदभाव को आगे बढ़ाते हैं। इसके लिये महिला-पुरुष की समानता के विचारों को समाज में प्रसारित किया जाना चाहिए। महिलाओं के लिए शिक्षा अनिवार्य हो और शिक्षा के पाठ्यक्रमों में असमानता के मूल्यभारित अंशों को हटाया जाना भी आवश्यक है दूसरे, महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्म निर्भर बनाकर सशक्त किया जाएं। विभिन्न सेवाओं एवं क्षेत्रों में आरक्षण और दूसरी सुविधाएं देकर उन्हें आगे लाने के प्रयासों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए लागू की गई विभिन्न योजनाओं की समीक्षा कर बेहतर क्रियान्वयन की व्यवस्था की जाए। महिलाओं की स्थिति को सुधारने-संवारने के लिए अनेक कानून बनाये गये लेकिन इसके ठीक से क्रियान्वयन नहीं होने से वे अप्रभावी है। अतएव उनमें संशोधन एवं उनके क्रियान्वयन के लिए उत्तरदायी एजेन्सियों विशेषकर पुलिस और प्रशासन के साथ ही साथ न्यायपालिका को अधिक संवेदनशील बनाया जाना आवश्यक है।
(फैज़ाबाद में जन्मी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हिन्दी -प्रवक्ता पद पर कार्यरत शगुफ्ता नियाज़ के सौजन्य से)