दलित लेखन के सामने हैं यह सवाल / प्रताप सहगल
मनुष्य के जीवन में एक बात जो सामान्य रूप से रेखांकित की जा सकती है, वह है परिवर्तनशीलता, जिसे प्रायः नश्वरता समझ लिया जाता है, वस्तुतः है तो वह भी परिवर्तन ही। कुछ परिवर्तन हमें दिखता है, कुछ आंशिक रूप से दिखता है और कुछ अदृश्य रहता है। मनुष्य के जीवन में ही जब परिवर्तनशीलता है, प्रकृति में परिवर्तनशीलता है तो फिर यही परिवर्तनशीलता कलाओं एवं साहित्य में प्रतिध्वनित कैसे न होगी।
परिवर्तनशीलता का टाइम-स्पैन
समय के साथ-साथ साहित्य में परिवर्तनशीलता का टाइम-स्पैन कम हुआ है, लेकिन उसके आयामों में विस्तार हुआ है। दो दशक पहले तक ही हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य या नारीवादी साहित्य की चर्चा या तो नहीं थी, अगर थी भी तो उसे हाशिए पर या कई बार हाशिए से भी बाहर धकेल दिया जाता था, लेकिन धीरे-धीरे यह दोनों विमर्श केंद्र में आ गए और उन पर विभिन्न कोणों से चर्चाएँ होने लगीं। इसी के साथ आदिवासी साहित्य के बारे में चर्चा होने लगी। यहाँ हम दलित साहित्य से जुडे़ कुछ सवालों पर बात करेंगे।
साहित्य की पहचान का प्रश्न
सबसे पहले यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि साहित्य की हम पहचान कैसे करते हैं? एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो स्वयं को इस पहचान से दूर रखने की कोशिश में लगा रहता है। उनके लिए मनुष्यता बड़ी चीज़ है, मनुष्यता ही बड़ा मूल्य है और इससे इतर सब लेबल हैं, लेकिन क्या बिना लेबल के किसी को पहचान मिलती है? नाम तो हर मनुष्य का भी होता है तो फिर साहित्य की विभिन्न सरणियों पर लेबल लगाने में गुरेज़ क्यों? वस्तुत: देखा जाए तो अपनी पहचान स्थापित करने के लिए ही किसी लेबल की ज़रूरत पड़ती है। इसीलिए हम आज हिन्दी कविता को सगुणवादी, निर्गुणवादी, सूफी या संतकाव्यधारा से पहचानते हैं। उसे हम कहीं राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता का नाम देते हैं, कहीं छायावाद, प्रगतिवाद या फिर नयी कविता का। साहित्य के साथ दलित शब्द जोड़ने के पीछे भी इस मंशा के अतिरिक्त क्या हो सकता है कि उसे एक पहचान मिले। हम देखते हैं कि धीरे-धीरे दलित लेखकों का एक जमावड़ा समाने आया है और दलित लेखक कौन? दलित लेखन की प्रामाणिकता, उसकी अर्थवत्ता, परिमाण और गुणवत्ता को लेकर चर्चाएँ होती रही हैं, अब भी हो रही हैं। प्रश्न यह है कि दलित लेखन के मूल्यांकन के बिंदु क्या हो सकते हैं।
सामाजिक परिवर्तन के रास्ते
इससे पहले दो-एक बातें सामाजिक परिवर्तन के बारे में। अनायास परिवर्तन जो हाते हैं, उनका तो विश्लेषण ही किया जा सकता है, लेकिन जो सामाजिक परिवर्तन सायास होते हैं, उनकी दिशा, प्रक्रिया और उनके तरीकों पर भी बात की जा सकती है। मसलन परिवर्तन मार्क्स, लेनिन, गाँधी, अंबेडकर, सभी चाहते हैं, लेकिन इन परिवर्तनों की दिशाएँ और उनके तरीकों में फ़र्क है। मार्क्स तो चिंतक थे, उन्होंने दिशाओं की ओर ठोस संकेत किए, लेनिन ने उन्हें लागू किया, उधर माओ ने अपने ढंग से क्रांति की। भारत के संदर्भ में देखें तो समाज में आमूल परिवर्तन की दिशा तय करने वाले बुद्ध के बाद गाँधी ही हैं। गाँधी के समानांतर अंबेडकर को खड़ा किया गया है। गाँधी समन्वय, सह-अस्तित्व, अहिंसा एवं सत्याग्रह के रास्ते समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहते थे, तो अंबेडकर के अनुभवों में दलित, पिछड़े वर्गों की बदहाल ज़िंदगी तैर रही थी। गाँधी सामाजिक स्तर पर उन कसैले अनुभवों से नहीं गुजरे थे, जिन अनुभवों से अंबेडकर गुजरे थे, इसीलिए अंबेडकर के परिवर्तन का रास्ता अधिक मारक था, वह अपनी पहचान अलग मांगता था। उसमें संघर्ष की ध्वनियाँ गाँधी के संघर्ष की ध्वनियों से अलग थीं। कड़वाहट भरे अनुभवों, संघर्षों की दास्तानें, अपमानजनक स्थितियाँ दलित साहित्य का हिस्सा बनती हैं।
दलित लेखन बनाम दलित लेखक
इसलिए यह प्रश्न उठा कि जो लेखक स्वयं दलित नहीं है, जिसने दलित-जीवन के अपमानजनक पहलुओं को भोगा नहीं है, वह दलित साहित्य की रचना कैसे कर सकता है। नई कहानी के दौर में भी कमलेश्वर ने कभी भोगे हुए यथार्थ का प्रश्न उठाया था, तब भी यह बहस चल निकली थी कि लेखक की संवेदनशीलता का दायरा इतना तंग नहीं होता कि वह दूसरों के अनुभवों को अपनी मानसिकता में न ढाल सकें या वह दूसरों के सिरदर्द को अपना सिरदर्द न बना सके। लेखक की सफलता ही इसी में है कि वह दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा बनाकर उसे कला के स्तरों पर शब्दों में उतारे। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो यह बात सही नहीं लगती। सुई के चुभने की पीड़ा का अनुभव किसी को नहीं है तो वह किसी दूसरे व्यक्ति को सुई चुभने के अनुभव को अपना अनुभव कैसे बना सकता है। इसी तर्क के चलते दलित लेखकों ने दलितों के बारे में गै़र-दलितों द्वारा लिखे साहित्य को ख़ारिज़ करना शुरू कर दिया। मनोवैज्ञानिक आधार पर पहले कही गई बात सत्य है, लेकिन मनोवैज्ञानिक आधार पर ही यह भी सत्य है कि अति-संवेदनशील व्यक्ति दूसरे की पीड़ा में शामिल हो सकता है। उसका हिस्सा बन सकता है, अगर ऐसा नहीं तो पूछा जा सकता है कि राम और सीता कि पीड़ा देखकर सामान्य पाठक दर्शक विचलित क्यों हो जाता है? फ़िल्मों में ही मार्मिक दृश्य देखकर वह रोने क्यों लगता है? यह विरेचन है, साधारणीकरण है या आत्मदया है-इसे जो भी नाम दे लें, लेकिन सत्य यह है कि देखे, सुने, पढ़े और भोगे हुए यथार्थ से कहीं न कहीं तादात्म्य होना संभव है। इसलिए दलित लेखकों का यह आग्रह उचित नहीं लगता कि केवल दलितों द्वारा लिखा गया लेखन ही दलित लेखन है।
दलित लेखन: कितना साहित्य
इस सारी बहस में महत्तवपूर्ण प्रश्न यह है कि दलित लेखन के नाम पर जो लिखा जा रहा है, वह साहित्य के दायरे में कितना आता है। कला के प्रचलित या नए स्थापित मानों पर वह कितना ठहरता है या इसके पीछे किन्हीं दूसरे मंतव्यों की गंध आती है?
यह सत्य है कि सदियों से पिछड़े वर्गों में पढ़े-लिखों की जमात ने अपने स्वत्व को आज़ादी के बाद अधिक पहचानना शुरू किया है। जाति-व्यवस्था के भयावह बंधनों के चलते दलितों एवं पिछड़े वर्गों पर अत्याचार भी होते रहे हैं। आदिवासी, विमुक्त जातियाँ, पिछड़ी जातियाँ आदि सभी मनुवादी जाति-व्यवस्था का शिकार रही हैं। पहले यह एक राजनीतिक प्रश्न के रूप में उभरा। उससे पहले एक सामाजिक बुराई के रूप में, लेकिन जाति का बंधन इतना दृढ़ और इतने गहरे तक धँसा हुआ है कि वह छुड़ाए नहीं छूटता। कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर पर शिक्षित समाज भी जाति-व्यवस्था के चक्कर में बुरी तरह से फँसा हुआ है। वह भी इसे कर्म के साथ जोड़ने के बजाय जन्म से जोड़ता है। इसे विकास की प्रक्रिया में एक ऐतिहासिक सच्चाई मानने के बजाय इसे रक्त की शुद्धता से जोड़ता है। वर्णवादी, नस्लवादी और रंगवादी सोच के सामने वर्गवादी सोच ध्वस्त हो गई लगती है, इसलिए भारत के संदर्भ में 'कास्ट इज़ क्लास' की बात कही गई। इसमें अलग-अलग राय रखने वाले भी इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि समाज में कुछ जातियों का वर्चस्व रहा है। सत्ता एवं पूँजी-दोनों ही उनके कब्ज़े में रही हैं। ऐसे में दलित लेखन कई बार गाली-गलौज पर उतर आता है या उसमें एक जाति के प्रति विद्वेष नज़र आता है, तो वह अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन लगभग दो दशकों के बाद दलित साहित्य में सोच के गहरे सरोकार दिखने चाहिए।
दलित साहित्य: सौंदर्यशास्त्र का प्रश्न
दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र क्या है? इस पर जब लिंबाले या अन्य लोग लिखते हैं तो कहीं लगता है कि वे अभी भी परंपरागत साहित्यिक मानों और मूल्यों की पकड़ से पूरी तरह छूटे नहीं है। अभी भी कहीं रसवाद के प्रति एक मोह उनमें बैठा हुआ दिखाई देता है। यह तथा ऐसे ही कई अन्य प्रश्नों का सामना आज दलित लेखकों को करना होगा।
दलित लेखन के सामने हैं यह सवाल
पहला प्रश्न तो यही है कि दलित लेखक ही जब सुविधा संपन्न हो जाते हैं तो प्रायः वे भी उन्हीं आडंबरों का शिकार हो जाते हैं, जिन आडंबरों का शिकार तथाकथित अगड़ी जातियाँ या सवर्ण लोग हैं? वे भी कर्म-कांड और अंधविश्वासों के शिकार होकर उन्हीं के समान क्यों दिखना चाहते हैं, जिनका विरोध करके वे आगे बढ़े हैं। कहा जाए तो वे भी नाक कटवाकर भगवान के दर्शन करना चाहते हैं, क्यों? वे भी सामाजिक परिवर्तन के बजाय सामाजिक यथास्थिति को स्वीकार क्यों करने लगते हैं?
दूसरा प्रश्न यह है कि वे शास्त्रों द्वारा स्थापित साहित्यिक मानों के प्रति मोह क्यों रखते हैं और उनके अपने साहित्यिक मान क्या हैं?
तीसरा प्रश्न यह कि दलित लेखन में कुछ जातियों से जुड़े पात्रों की भूमिका, उनके चरित्रों में एकरूपता क्यों रहती है? यह मानना कहाँ तक सही है कि ब्राह्मण या क्षत्रिय होने से ही व्यक्ति दुष्ट हो जाता है। क्या इन वर्णों से जुड़े चरित्रों की मानसिकता भी अलग-अलग नहीं होती? लगता है यहाँ पर दलित लेखकों ने सुविधा का रास्ता अपनाया है। चरित्र की परख या पहचान की जगह पूर्वाग्रहों ने ले ली है, एक गोष्ठी में बहस के दौरान जब यही सवाल इस लेखक ने उठाया था तो एक दलित लेखक का जवाब था कि जिसे लाठी की चोट लगती है, वही जानता है कि उसका दर्द क्या है! यह बात पहले भी स्वीकार की जा चुकी है कि चोट का दर्द वही जानता है, जिसे चोट लगी है, फिर भी संवेदनशीलता तो इसी में है न कि दूसरा भी उस चोट के दर्द को महसूस करे। वह महसूस कर भी रहा हो और उसे कहा जाए कि यह तो छद्म है, या गाली देकर नवाज़ा जाए तो संवेदनशीलता किसी अन्य तरह की प्रतिक्रिया में बदल सकती है। इसलिए यह प्रश्न उठाना लाज़िमी है कि क्या चरित्र की पहचान पूर्वाग्रहों से संभव हो सकती है?
चौथा प्रश्न यह है कि स्वयं दलित-वर्ग में जो ब्राह्मणवाद पनप चुका है, उससे लड़ने के उपाय क्या हैं? सुविधाएँ मिलते ही क्रांति और परिवर्तन की बात भूलकर यथास्थिति का हिस्सा बन जाना उसे पुष्ट करना नहीं तो और क्या है? इस ब्राह्मणवाद से लड़ने की तैयारी दलित समाज के पास है या नहीं? या उससे लड़ने का मन भी है या नहीं याकि कहीं मन में यह भाव है कि जैसे-तैसे हम भी वहीं पहुँचे, जहाँ दूसरे पहुँच गए हैं। क्या यह सत्य नहीं है कि एक तरह की स्व-केंद्रित दृष्टि दलित समाज में पहले से कहीं अधिक हावी हुई है?
पाँचवां प्रश्न यह उठाया जा सकता है कि भूमंडलीकरण के दौर में, जब बाज़ार का वर्चस्व लगभग स्थापित हो गया है और ग्लोबल विलेज का स्वरूप भी उभर रहा है। प्रसंगवश यहाँ यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि ग्लोबल विलेज या विश्वग्राम को कई लेखक एक भौगोलिक इकाई के रूप में संकल्पित करके उसका मज़ाक उड़ाते हैं, लेकिन क्या विश्वग्राम कोई भौगोलिक इकाई है। यह तो संचार माध्यमों की सफलता है कि देश के देश विश्वग्राम के रूप में दिखने लगे हैं। यह दूरियाँ अभी और कम होंगी। लोगों के हाथों में क्रय-शक्ति अभी और बढे़गी। शीत-युद्ध के समाप्त होने के बाद जिस तरह से पूँजी का साम्राज्य बढ़ा है, अमरीका का वर्चस्व इतना बढ़ा है कि उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं रहा। ऐसे में जब तीसरी दुनिया कि संकल्पना ही तहस-नहस हो चुकी है, तब इस परिदृश्य में दलित-लेखन की भूमिका क्या है? हालाँकि यह प्रश्न समस्त लेखन के प्रसंग में उठाया जा सकता है, लेकिन भारतीय संदर्भों में दलित-लेखन पर इस दृष्टि से अलग से विचार करना अपेक्षित है।
छठा प्रश्न आरक्षणवाद से जुड़ा है, आरक्षण न कहकर आरक्षणवाद कहने का तात्पर्य यही है कि अब आरक्षण परिवर्तन का एक औज़ार कम और एक राजनीतिक नारा अधिक बन गया है। दलित लेखक मित्र डॉ॰ अंबेडकर को बड़ा दूरदर्शी मानते हैं, उन्होंने हिंदू धर्म की मनुवादी सोच पर गहरी चोटें की हैं। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि हिंदू-धर्म घृणा सिखाता है। यह सही भी है। शूद्रों, अछूतों के प्रति हिंदू समाज में घृणा का भाव रहा है-शहरों में भले ही वह टूट चुका है, लेकिन गाँवों में अभी भी वह मौजूद है। शहर में जाति की पहचान ख़त्म हो जाती है, जबकि गाँवों में यह पहचान रहती है। बिहार में, उत्तर प्रदेश में आज भी जब किसी को पानी पिलाने से पहले यह पूछा जाता हो कि 'कौन जात!' तो यह शर्मनाक लगता है। ऐसे में आज़ादी के बाद आरक्षण की ज़रूरत थी। लेकिन समझ में नहीं आता कि डॉ॰ अंबेडकर सहित संविधान के निर्माताओं ने तब यह कैसे मान लिया कि दस वर्षों में सदियों से पिछड़ा समाज आगे आ जाएगा और तब आरक्षण की ज़रूरत नहीं पड़ेगी? यह सर्वविदित है कि सामाजिक न्याय के नाम पर आरक्षण धीरे-धीरे परिवर्तन के स्थान पर वोट पाने का एक राजनीतिक हथियार बन गया और अब तो इसे एक हथकंडा ही कहना चाहिए। वस्तुतः आरक्षण की सुविधा केवल जाति के आधार पर देना एक भूल है। जिन जातियों को यह सुविधा मिली है, उनकी मानसिकता ही आरक्षण की हो गई है। अपनी सही क्षमता पहचानने की कुव्वत कम हुई है। यह एक तरह की लाठी है, जिसके सहारे वे आगे बढ़ते हैं और उन्हें भय है कि लाठी छिनेगी तो ये मुँह के बल गिर पड़ेंगे। आरक्षण शिक्षा तक हो, नौकरी में भी हो और पदोन्नति में भी हो, पहली पीढ़ी को ही मिले या पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिलता ही चला जाए-यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनसे समाज जूझ रहा है, लेकिन कोई सर्वसम्मत उत्तर सामने नहीं आता। यह प्रश्न ज़रा अलग है और विस्तार से चर्चा कि माँग करते हैं। वस्तुतः इन प्रश्नों को यहाँ उठाने का मंतव्य अलग है। कहीं बोलते हुए एक आलोचक ने कहा था कि दलित लेखक साहित्य में भी आरक्षण की माँग कर रहे हैं, जो कि सही नहीं है। आरक्षण से जुड़े तमाम प्रश्नों की रोशनी में इस प्रश्न पर भी चर्चा कि जा सकती है। होता यह है कि समय के साथ सभी की मानसिकता अपनी-अपनी तरह से विकसित होती है। इस विकास क्रम से कुछ कुंठाएँ भी घर कर लेती हैं। लगता यह है कि आरक्षण की सुविधा के साथ जो मानसिकता विकसित हुई है, उसमें कहीं यह कुंठा भी है कि बिना आरक्षण के उनके साहित्य को भी जगह नहीं मिलेगी।
साहित्य या तमाम दूसरी कलाएँ आरक्षण के सिर पर कभी भी पनप नहीं सकतीं। कलाओं का अपना संघर्ष है, जो समय से जुड़ा रहता है। उसमें स्मृति भी है और इतिहास भी। परंपरा भी है और अन्वेषण भी। अन्य कलाओं की तरह से साहित्य भी संघर्ष के रास्ते ही अपनी स्पेस खोजता ही नहीं, बनाता भी है। अगर उसकी स्पेस कभी भी, कहीं भी नहीं बनती तो, उसका मर जाना ही बेहतर है। आरक्षण देकर संभव है, उसे आप कुछ समय तक विश्वविद्यालयों में पढ़वा लें, संग्रहालयों में रखवा लें, लेकिन उसकी परंपरा कि निर्मिति तभी होगी, जब वह संघर्ष के रास्ते ही पाठकों की धमनियों में उतरेगा।
मुझे याद आता है कि अपने एक साक्षात्कार में कहीं मन्नू भंडारी ने एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था कि गुटबाज़ी लेखन के लिए नहीं, लिखे हुए को ज़माने के लिए की जाती है। इसके पीछे अवश्य ही उनके नई कहानी के दौर के अनुभव बोल रहे थे। यह सत्य है कि गुटबाज़ी के चलते एक गुट-विशेष से जुड़े लेखकों के लेखन को उछाला जाता है। उस पर बहस करवाई जाती है, उसे जमाया जाता है, इसका तात्कालिक प्रभाव भी होता है, लेकिन लेखन तो एक मैराथन रेस है। हो सकता है सौ, दो सौ मीटर की रेस कोई लेखक गुट बनाकर जीत भी जाए, लेकिन मैराथन जीतने के लिए या उसमें बने रहने के लिए भी बड़े दम-खम की ज़रूरत है। नई कहानी के साथ चलने वाले अनेक लेखक, जो उस दौर में चर्चाओं के केंद्र में रहा करते थे, आज कहाँ हैं! यह तो बहुत ही पास का इतिहास है। ज़रा पाँच-सात सौ साल पीछे लौटें तो स्थिति और भी स्पष्ट होने लगता है। प्रगतिवादी दौर की कविता मात्र एक ऐतिहासिक संदर्भ बनकर रह गई है।
दलित लेखन के सामने इस समय सबसे बड़ा ख़तरा ही अनुभवों को सँभालने का है। उनके पास बड़े ही गहरे और तल्ख़ अनुभव हैं। अनुभवों की आँच विचलित भी करती है, लेकिन तात्कालिक। अच्छी रचना तो उसे ही माना जा सकता है, जो बार-बार हमें आमंत्रित करे। और बार-बार उसके नए-नए अर्थ खुलें। क्या यह शक्ति दलित लेखन ने अर्जित की है। उसका पाठक भी अगर दलित लेखक ही है तो यह स्थिति ओर भी चिंताजनक है। समय, स्थितियाँ, सुविधा, राजनीति, नारा, गुट प्रायः लेखन को चर्चित करवा देते हैं, लेकिन इनसे जितना लाभ है, उससे ज़्यादा ज़रूरी है उनसे सावधानी। दलित लेखन भी इसका अपवाद नहीं हो सकता कि उसे इन सवालों के जवाब खोजने होंगे।