दलित विमर्श की महत्वपूर्ण कविता है केशव अनुरागी / महेश चंद्र पुनेठा
मंगलेश डबराल की कविताओं को पढ़ने से कोई भी समझ सकता है कि उनका संगीत से गहरा लगाव रहा है इसलिए उनकी ऐसी कुछ कविताएं हैं जो संगीत से जुड़े लोगों पर लिखी गयी हैं जिनमें से केशव अनुरागी एक महत्त्वपूर्ण कविता है। 'केशव अनुरागी' मंगलेश डबराल की एक चरित्र प्रधान कविता है जो एक कलाकार को उसका आत्मसम्मान और सामाजिक रुतबा न मिल पाने की कसक को व्यक्त करती है। यह कविता एक ढोल बाजगी पर पर लिखी गयी है। ढोल बजाना उत्तराखंड में एक ऐसा पेशा माना जाता है जिसे केवल एक विशेष जाति के लोग ही करते हैं। ढोल जीवन के हर भले -बुरे अवसर पर बजाया जाता है। कोई भी उत्सव या संस्कार उसके बिना पूरा नहीं माना जाता है। कुमाउॅ अंचल में तो ढोल का बजना एक सगुन के रूप में लिया जाता है।पर बिडंबना देखिए इसके बजाने वाले को अछूत माना जाता है। इस कार्य को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। ढोल बजाने वाले के लिए गुसाई राठों के यहाॅ घर के बाहर ही जगह होती है। उसकी कला को कोई सम्मान नहीं दिया जाता। इसी का कारण है कि आज उत्तराखंड में ढोल बाजगी की समृद्ध कला कम होती जा रही है। यदि कोई इसे अपना भी रहा है तो मजबूरीवश। अन्यथा हर ढोल बाजगी चाहता है कि उसके बच्चेां को कोई छोटी -मोटी नौकरी मिल जाय ताकि उन्हें दूसरों की देहरी पर जाकर यह ढोल बाजगी का काम ना करना पड़े। ढोल बाजगी की इस विडंबना को मंगलेश जी ने अपनी 'केशव अनुरागी' कविता में बड़ी सूक्ष्मता से चित्रित किया है। साथ ही उन्होंने ढोल बाजगी की कला की गहराई, विविधता और ऊॅचाई को भी व्यक्त किया है।
कविता की शुरूआत कुछ इस तरह से होती है-
यह ढोल एक समुद्र है केशव अनुरागी कहता था
कि इसमें बीसियों ताल हैं सैकड़ों सबद
और कई तो मर-खप गये हमारे पुरखों की ही तरह।
यहाॅ ढोल बाजगी और ढोल जैसे एक दूसरे के पर्याय हो गये हों। दोनों की स्थिति कमोबेश एक-सी ही देखता है कवि। 'मर-खप गये' के प्रयोग से कवि न केवल एक वाद्य यंत्र की स्थिति को बल्कि दलित जीवन की त्रासदी को भी सामने रख देता है।इस प्रयोग के पीछे लगता है कवि का उद्देश्य कहीं न कहीं दलित जीवन की त्रासदी को दिखाना रहा होगा।पीढ़ियों से ढोल बाजगी का काम करते रहे नयी -नयी ताल और सबद रचते रहे पर क्या पाया एक आदमी का जीवन भी ठीक से नहीं जी पाये। भरपेट भोजन नहीं मिल पाया सम्मान तो दूर की कौड़ी रहा। ढोल के तालों के साथ जन्म लिया और तालों के साथ ही मर गये।कला के नाम पर क्या मिला उन्हें केवल 'त्यार बाॅण'़। बावजूद इसके बना हुआ है उनका अस्तित्व जैसे ढोल के तालों का -
फिर भी हैं संसार में आने और जाने के अलग-अलग ताल
साल षुरू हो या फूल खिलें तो उसके भी अलग
बारात के आगे-आगे चलती इसकी गहन आवाज
चढ़ाई उतराई और विश्राम के अलग बोल।
निःसंदेह कितनी समृद्ध है ढोल बाजगी की यह कला।ढोल के महात्म्य पर केशव अनुरागी आगे कहता है-
और झोड़ा चाॅचरी पांडव नृत्य और जागर के वे गूढ़ सबद
जिन्हें सुनकर पेड़ और पर्वत भी झूमते हैं अपनी -अपनी जगह
जीवन के उत्सव तमाम इसकी आवाज के बिना जीवनहीन।
इन पंक्तियों से ध्वनि निकलती है कि कैसी अजीब बात है जीवन को स्पंदित करने वाली इस आवाज को पैदा करने वाला 'केशव' खुद जीवनभर आवाजविहीन रह जाता है।अपने साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार के प्रति विरोध के दो शब्द नहीं बोल पाता है।आखिर क्यों 'देवताओं को नींद से जगाकर मनुष्य जाति में शामिल' करने वाला एक उद्भट कलाकार स्वयं मनुष्य जाति में शामिल नहीं हो पाता अर्थात मनुष्य होने का दर्जा नहीं पा पाता है। कैसी बिडंबना है यह, हमारे जीवन को आनंद से भर देने तथा उसको सजाने -सॅवारने वाला एक कलाकार केवल इस कारण कि उसका जन्म एक छोटी कहलाने वाली जाति में हुआ है कलाकार कहलाने के सम्मान से वंचित रहता है। उसकी कला को सम्मान नहीं प्राप्त हो पाता, जबकि दबीजुबान से -लोग कहते वे केशव अनुरागी ढोल के भीतर रहता है, ढोल सागर के भूले-बिसरे तालों को खोजनेवाला बेजोड़ गायक जो कुछ समय कुमार गंधर्व की संगत में भी रहा। गढ़वाल के गीतों को जिसने पहॅुचाया शास्त्रीय आयामों तक उसकी प्रतिभा के सम्मुख सब चमत्कृत, अछूत के घर कैसे जन्मा यह संगीत का पंडित!
यह कैसी ट्रेजडी है कि यदि किसी अछूत में योग्यता होती है तो आश्चर्य व्यक्त किया जाता है।उसको स्वाभाविक नहीं माना जाता है।जैसे मरूस्थल में पानी। बाह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त लोग यह मानने के लिए तैयार ही नहीं होते हैं कि दलितों में भी योग्यता या गुण हो सकते हैं।यदि कहीं उन्हें 'केशव अनुरागी' जैसी प्रतिभाएं दिख जाएं तो उसे वह अपवाद कहने लग जाते हैं।उसी मानसिकता को इस कविता में दिखाने की कोशिश की गयी है।केशव अनुरागी के अंदर सब कुछ है, कला की सारी बारिकियों से वह भरा पड़ा है। उसकी बाजगी में बादलों का गर्जन है, वर्षा की फुहार है, नदी के बहने का अहसास है, सागर की विराट प्रकृति गुंजायमान है बाबजूद इसके वह कलाकार कहलाने का अधिकारी नहीं है यही वह सवर्णवादी मानसिकता है जिसने प्रतिभा को कुठित करने का षड्यंत्र किया।प्रतिभा को एक वर्ण विशेष के लिए आरक्षित मानकर सच्ची प्रतिभा का मनोबल गिराने का काम किया। कवि जैसे यहाॅ उसी षड्यंत्र को उजागर करते हुए बताना चाहता हो कि कैसे एक वर्ण विशेष ने प्रतिभा को अपनी बपौती बना लिया।यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि बार-बार अगर किसी की प्रतिभा को लेकर प्रश्न खड़ा किया जाता है तो उसे भी अपनी प्रतिभा पर शंका होने लगती है वह भी स्वयं को कमतर आॅकने लगता है। उसका मनोबल लड़खड़ाने लगता है। उसके भीतर हीनता का भाव पैदा हो जाता है। इस कविता में भी इस तथ्य को देखा जा सकता है केशव अनुरागी एक कुशल कलाकार होने के बावजूद अपनी कला के प्रदर्शन के लिए नशे का सहारा लेता है। अपनी रौ में तभी दिखायी देता है जब वह थोड़ी पी लेता है। पर आज सवर्णवादी इस चालाकी को दलित समझने लगे हैं। तभी तो केशव अनुरागी कहता है - लेकिन मैं हॅू एक अछूत कौन मुझे कहे कलाकार / मुझे ही करना होगा आजीवन पायलागन महाराज जय हो सरकार।ये पंक्तियाॅ सीधे सह्दय के मर्म को भेदती हैं।ये कविता की सबसे अधिक मार्मिक पंक्तियाॅ हैं। पाठक को सोचने को मजबूर करती हैं कि ऐसा क्यों है? एक अच्छी कविता का यह काम भी है। इन पंक्तियों के माध्यम से जहाॅ एक ओर मंगलेश जी ने हमारे समाज में व्याप्त सवर्णवादी दुष्चक्र को रेखंाकित किया वहीं दलित चेतना को स्वर दिया है।'मुझे ही करना होगा आजीवन पायलागन' में एक दलित के मन की गहरी पीड़ा एवं आत्मसम्मान प्राप्ति की छटपटाहट दिखती है।साथ ही हमारी भेदभाव पूर्ण सामाजिक व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य।ऐसी पंक्तियाॅ वही कवि लिख सकता है जिसको इस विसंगति ने तिलमिलाया हो, निरंतर बेचैन किया हो तथा जो सच्चे अर्थों में दलित चेतना का पक्षधर हो।इस पीड़ा का अहसास या तो उसी को हो सकता है जो उसे झेल रहा हो या फिर एक सच्चे कवि हृदय को। जो कवि केवल शब्दों की बाजीगरी करके कवि कहलाना चाहता है उसे कदापि नहीं। इधर दलित साहित्य आंदोलन की गॅूूज के बाद से यह कहा जा रहा है कि दलित जीवन के बारे में एक दलित ही लिख सकता है पर इन पंक्तियों को पढ़कर यह बात ग़लत सिद्ध हो जाती है। मंगलेश ने दलित नहीं होते हुए भी दलित के मन की पीड़ा को यहाॅ पूरी संवेदना की गहराई के साथ व्यक्त किया है।पर एक बात अवश्य है जैसा कि दलितों पर गैर दलित द्वारा लिखे साहित्य के लिए अक्सर कहा जाता है कि उसमें दलित -जीवन के दुःख -दर्द तथा संघर्ष तो होते हैं लेकिन प्रतिरोध नहीं होता। यह सीमा हमें इस कविता में भी दिखायी देती है। यहाॅ केशव अनुरागी ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर व्यंग्य तो करता है परंतु उस व्यवस्था पर उसका कोई आक्रोश नहीं फूटता। प्रतिरोध के संकेत तक भी यहाॅ दृष्टिगोचर नहीं होते। शायद यह कविता यदि किसी दलित द्वारा लिखी जाती तो केशव अनुरागी का
'एक अछूत कौन मुझे कहे कलाकार' यह पंक्ति एक ऐसा कटु सत्य व्यक्त करती है जिससे हमारा सामना बार-बार होता रहता है।पिछले दिनों उस समय मेरे मस्तिष्क में लगातार गूॅजती रही जब में एक दूरस्थ गाॅव में एक बारात में गया हुआ था और वहाॅ मुझे 13-14 वर्ष के तीन बच्चे ढोल-दमाउ बजाते हुए दिखे। वे जिस लय-ताल तथा बिजली की गति के साथ इन्हें बजा रहे थे। उसे देख मैं चमत्कृत था। यदि वे किसी सवर्ण परिवार से जुड़े या कोई आधुनिक वाद्य बजा रहे होते देखने वाले सभी दाॅतो तले अंगुली दबा रहे होते और मीडिया की सुर्खियों में जगह पा गये होते। पर बात वहीं आकर अटक जाती है- लेकिन मैं हॅू एक अछूत कौन मुझे कहे कलाकार। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि चमत्कृत कर देने वाली प्रतिभा के होने के बावजूद भी एक अछूत को हमारा सामंती समाज कलाकार मानने को तैयार नहीं होता। उसके अद्वितीय हूनर को कला का दर्जा नहीं देता है। समाज की नजर में उसकी कला कला न होकर मामूली-सा करतब मात्र होकर रह जाती है। क्योंकि उन्हें पता है अगर उस कला को कला का दर्जा दे दिया गया तो उनका जो जातीय श्रेष्ठता का तर्क है वह खोखला सिद्ध हो जाएगा। फिर भला वे कैसे कह पाएंगे कि अछूत के घर कभी पंडित पैदा नहीं हो सकता है।
जहाॅ तक मुझे ही करना होगा आजीवन पायलागन महाराज जय हो सरकार की बात है आज भी उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में यह आम दृश्य है एक दलित कितना ही बड़ा कलाकार, संगीतकार या बड़े से बड़े पद में आसीन हो जाए उसे ही सवर्ण को पायलागन कहना होता है। चाहे सवर्ण उम्र या प्रतिभा में उससे कम ही क्यों न हो। एक अछुत कभी भी अभिवादन पाने का अधिकारी नहीं होता। यह मन को कचोटने वाली बात है। एक संवेदनशील व्यक्ति इससे विचलित हुए बिना नहीं रह सकता है। कविता में एक पंक्ति आयी है ' यह जितना बाहर बजता है उतना अपने भीतर भी यह बात मुझे जितनी ढोल के बारे में सटीक लगती है उससे कम किसी दलित व्यक्ति के बारे में नहीं। दलितों के कष्ट जितने शारीरिक हैं उससे अधिक मानसिक हैं।जितना उन्हें रोटी, कपड़ा और मकान की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना पड़ता है उससे कहीं अधिक समाज में अपने स्वाभिमान को बचाये रखने और सम्मान को प्राप्त करने के लिए करना पड़ता है।
यहाॅ एक बात और उभर कर आती है कि केशव अनुरागी की कला की उपेक्षा का कारण जहाॅ एक ओर उसका दलित होना है वहीं दूसरा कारण कला का लोक से जुड़ा होना है। उसकी कला को कोई अपनाना नहीं चाहता क्योंकि उसके साथ एक अपमान और तिरस्कार का भाव जुड़ा है। न इस कला का समाज में कोई सम्मान है और न कलाकार का।इसलिए -
किसी ने अपनायी नहीं उसकी कला
अनछपा रहा वर्षों की साधना का ढोल सागर
इस बीच ढोल भी कम होते चले गये हमारे गाॅवों में
कुछ फूट गये कुछ पर नयी पूड़ें नहीं लगी
उनके कई बाजगी दूसरे धंधों की खोज में चले गये।
यदि केशव अनुरागी किसी ऐसी कला से जुड़ा होता जिसका संबंध अभिजात्य कला और संगीत से होता तो वह बिना शिष्य का नहीं रहता। एक पूरी परम्परा होती उसकी। बकायदा उसका एक लिखित इतिहास होता। आज लोक से जुड़ी हर चीज की यही स्थिति है।लोक कला हो या लोक शिल्प। उससे जुड़े लोग दूसरे धंधो की खोज में चले गये हैं और जो बच गये हैं वे कुठित, निराश तथा नशे के कीचड़ में फॅस चले हैं। लोककला और लोक जीवन की इस विडंबना को यह कविता बहूत गहराई से व्यक्त करती है। यह कविता दलित कलाकार की त्रासदी के साथ -साथ लोक कलाओं की त्रासदी को भी सामने रखती है।इस तरह लोक की उपेक्षा की कथा कहती हुई कविता है। यह उपेक्षा आज कहीं न कहीं लोकधर्मी तथा जनपदीय साहित्य को भी झेलनी पड़ रही है। लोक पर लिखे साहित्य को पिछड़ी संवेदना का साहित्य कहा जा रहा है।कुछ समय पूर्व दिल्ली के एक स्वनामधन्य आलोचक ने तो लोक पर लिखे साहित्य को पलायनवादियों की आरामगाह तक कह दिया। इस कविता को पढ़ते हुए थोड़ा सकून मिलता है, दिल्ली में रह रहे हमारे कुछ वरिष्ठ कवि लोक को इस दृष्टि से नहीं देखते।