दलित साहित्य, सामाजिक समता का साहित्य है / माता प्रसाद
{{GKRachna |रचनाकार=माता प्रसाद |संग्रह=दलित साहित्य आंदोलन
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समीक्षा लेखक: माता प्रसाद
दलित साहित्य अपमान, शोषण और अपमान की प्रतिक्रिया की दर्दभरी और रोषपूर्ण अभिव्यक्ति है। दलित शब्द का अर्थ - दबाया गया, गिराया गया, दो फाड़ किया गया, अपमानित, शोषित, पीड़ित, वंचित एवं बहिष्कृत आदि है। जब दलित शब्द साहित्य से जुड़ जाता है तो वह दबाये गये, उत्पीड़ित किये गये, अपमानित किये गये, शोषण किये गये और वंचितों का साहित्य हो जाता है। इस साहित्य में जहाँ पीड़ा की चीत्कार होती है वहीं व्यवस्था पर रोषपूर्ण प्रतिकार और उसके उपचार के लिए कड़वी घूट के समान है। इस कड़वी घूँट से कुछ लोग तिलमिला जाते हैं किन्तु अब अधिकांश लोग इसके उद्देश्यों से सहमत होते दिखायी पड़ते हैं।दलित साहित्य में यों तो आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पक्षों को उजागर किया जाता है लेकिन इसमें सर्वाधिक बल सामाजिक विषमता की खाइयों को पाटने पर जोर दिया जाता है। वर्ण व्यवस्था से उत्पन्न जाति व्यवस्था पर चोट कर समाज में समता की स्थिति पैदा करने का प्रयास किया जाता है।
इस प्रकार यह सामाजिक समता का साहित्य है। दलित साहित्य भाग्यवाद, पुनर्जन्म, अंधविश्वास, अवतारवाद, कर्मकाण्ड, मूर्तिपूजा और अंध परम्परा का विरोधी है। यह विज्ञान संबत बातों का समर्थक है। विश्व बंधुत्व स्वतंत्रता, लोकतंत्र, समता, न्याय सेक्युलरिज्म को मानता है। रंग, वर्ण, जाति, लिंग, क्षेत्रावाद और पूंजीवाद का विरोधी है। दलित साहित्य का केन्द्र बिन्दु मनुष्य है।
डॉ० अम्बेडकर के सामाजिक संघर्षों से यह प्रेरित है। दलित साहित्य तथागत गौतमबुद्ध की इस बात को भी मानता है कि जिसमें उन्होंने कहा था कि किसी ग्रन्थ में जो लिखा है उसे सही मत मानो, परम्परा में कोई बात चली आयी है उसे मत मानो, महापुरुषों ने कहा है उसे सही मत मानो, मैं भी जो कह रहा हूं उसे भी सही मत मानो बल्कि अपनी बुद्धि, विवेक और तर्क से जिस बात को सही समझो उसे ही सही मानो और उसी पर चलो।कुछ समय पहले दलित साहित्य को लोग अलगाववादी और जातिवादी साहित्य मानते थे इसलिए दलित साहित्य का विरोध होता था, किन्तु अब धीरे-धीरे लोगों की इस धारणा में परिवर्तन आता जा रहा है। क्योंकि जब तक समाज में दलित साहित्य की स्थिति को भी नकारा नहीं जा सकता है।
मराठी, गुजराती, कन्नड़, पंजाबी और मलयालम में पर्याप्त मात्रा में साहित्य लिखे जा रहे हैं। हिन्दी साहित्य में भी दलित साहित्य की तरफ रूझान बढ़ रही है। हिन्दी की कई पत्रिकाओं ने दलित साहित्य पर अपने विशेषांक निकाले हैं। इस समय देश के विश्व विद्यालयों में अनेक छात्र दलित साहित्य पर शोध कार्य कर रहे हैं कुछ को तो इस कार्य पर एम०फिल् और पी-एच०डी० की उपाधि भी मिल चुकी है।दलित साहित्य की पहचान उसकी सरल भाषा है। साहित्य में जो लिखा जाता है साधारण लोग भी उसकी भावना से अवगत हों इसलिए इसकी भाषा में क्लिष्टता, चमत्कारिता, छंद एवं अलंकार का अभाव होता है।
दलित साहित्य में अन्यायों के विरुद्ध लिखा जाता है इसलिए इसकी भाषा कटु और चुटीली भी होती है कहीं अपमान से उत्पन्न प्रतिकार की भावना होती है इसलिए कुछ लोगों को यह पसंद नहीं आती और वे इसे साहित्य की श्रेणी में नहीं मानते।
दलित साहित्य लेखन के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठाया जाता है कि दलित साहित्य दलित ही लिख सकता है यह उचित नहीं है, बल्कि गैर दलित साहित्यकार भी दलित साहित्यकार हो सकते हैं जैसे - प्रेमचन्द, निराला, नागर, नागार्जुन और धूमिल आदि ने दलितों पर अच्छा साहित्य लिखा है इसलिए यह भी दलित साहित्यकार की श्रेणी में आते हैं। इस सम्बन्ध में यह निवेदन करना है कि दलित साहित्य भुक्त भोगियों का साहित्य है।
जाके पांव न फटी बेवाई, वह का जाने पीर पराई।
जिस व्यक्ति के पांव में कांटा चुभता है उसको जो पीड़ा होती है वह पीड़ा कांटा चुभे व्यक्ति को देखने वाले को नहीं हो सकती। उसके प्रति उसकी सहानुभूति तो हो सकती है किन्तु पीड़ा नहीं। इस प्रकार दलित साहित्य स्वानुभूति का साहित्य है और दूसरे लोग दलित की पीड़ा से जो साहित्य लिखते हैं वह सहानुभूति का साहित्य है फिर भी जिन गैर दलित साहित्यकारों ने सहानुभूति के हिसाब से ही दलितों की पीड़ा को समाज के सामने रखा है उनका मैं हृदय से सम्मान करता हूँ। प्रेमचन्द, निराला, नागार्जुन, नागर आदि ने अपने साहित्य में दलितों की जो स्थिति अभिव्यक्ति की है वह दलित साहित्यकार के नाते नहीं एक ऊँचे साहित्यकार होने के नाते उनकी दृष्टि में दलित भी ओझल नहीं हो सका।
इस सम्बन्ध में डॉ० रमणिका गुप्ता कहती हैं -
प्रेमचन्द और निराला ने कतई इसे दलित साहित्य की दृष्टि से नहीं लिखा बल्कि मानवीय दृष्टि या जनवादी और प्रगतिशील दृष्टि से अथवा समाज की विकृतियों के विरोध स्वरूप लिखा था और उसकी जनवादी दृष्टि का केन्द्र भी मनुष्य ही था यह उनकी दलितों के प्रति सहानुभूति थी, दलितों की चेतना की दृष्टि नहीं। उनमें वर्गीय समानता की बात मुखर थी।(डॉ० रमणिका गुप्ता, दलित साहित्य की परिभाषा और सीमाएं, पृष्ठ ६-७)
वर्तमान काल में दलित साहित्यकार प्रचुर मात्रा में साहित्य के विविध स्वरूपों पर रचना कर रहे हैं। हिन्दी के अतिरिक्त मराठी, गुजराती, पंजाबी, तेलगू, मलयालम, कन्नड़ और बांगला में दलित साहित्य लिखे जा रहे हैं। हिन्दी की सभी विधाओं में यथा कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, समीक्षा, आलेख, शोध ग्रन्थ, आत्म कथा, लेखन और पत्रा सम्पादन पर्याप्त मात्रा में किये जा रहे हैं जो दलित साहित्य के उज्ज्वल भविष्य के प्रतीक हैं।
दलित साहित्य के कुछ साहित्यकार तो हिन्दी के नामी साहित्यकारों से लेखन में टक्कर लेते दिखायी पड़ रहे हैं इनमें डॉ० जय प्रकाश कर्दम, डॉ० एन० सिंह, श्री कंवल भारती, डॉ० धर्मवीर, डॉ० तेज सिंह, ओम प्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, डॉ० पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, एन० सागर, सी०बी० भारती, डॉ० कुसुम वियोगी, विपिन बिहारी, पारस नाथ, डॉ० श्योराज सिंह बेचैन, सूरजपाल चौहान, दयानन्द बटोही, डॉ० प्रेमशंकर, डॉ० सुशीला टाक भौरे, डॉ० बी०आर० जाटव, डॉ० सोहनपाल सुमनाक्षर, डॉ० अवन्तिका प्रसाद मरमट, डॉ० चमन लाल, डॉ० रघुवीर सिंह, डॉ० तारा परमार, बुद्ध शरण हंस, ईश कुमार गंगानिया के नाम प्रमुख रूप से लिये जा सकते हैं।