दलित साहित्य में गैरदलित साहित्यकार की भूमिका / रमेश चन्द मीणा

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दलित साहित्य में गैरदलित साहित्यकार की भूमिका
समीक्षा लेखक: डॉ. रमेश चन्द मीणा

दलित साहित्य संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। दलित और गैर-दलित दोनों ही इस पर लेखनी चला रहे हैं। दलित साहित्यकार दावे के साथ कह और लिख रहे हैं कि उनका लिखा ही दलित साहित्य है, बाकी जितना भी लिखा गया है वह महत्त्वहीन है। दलित चेतना सम्पन्न साहित्य वही है जिसने दलित घर में जन्म लेकर पीडा भोगकर लिखना आरम्भ किया है। प्रेमचन्द की रचनाओं में दलित उत्पीडन की आहट आने लगी थी। हिन्दी पट्टी में मराठी के बाद दलितों द्वारा दलित जीवन पर लिखा गया। डॉ. धर्मवीर ने हर उस आलोचक को नकारा जिसने कबीर का मूल्यांकन किया। कोई भी आलोचक वह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ही क्यों न हो, जिन्होंने रामचन्द्र शुक्ल की स्थापनाओं के खिलाफ पहली बार कबीर को कबीर साबित किया, उनको भी दलित चिंतक की निगाह में ब्राह्मणवादी साबित कर दिया जाता है। मुद्राराक्षस जैसे दलित विमर्श के समर्थक दावे के साथ कह उठते हैं कि सवर्ण को दलित पर लिखने का हक नहीं है। चर्चित दलित लेखक श्योराज सिंह बेचैन का भी मानना है कि

दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है।

ओमप्रकाश वाल्मीकि का भी यही कहना है कि

अम्बेडकरवादी विचार ही उसकी एकमात्र प्रेरणा है।

विचारणीय सवाल यह है, क्या दलित लेखन की पहचान का एकमात्र जरिया जाति विशेष में जन्म होना है या दलित शोषण, उत्पीडन और जातीयदंश को उजागर करना है। दलित साहित्य बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में रचा/लिखा जाने लगा है। जो आलोचक कल तक इसे साहित्य ही नहीं स्वीकार करते थे वे ही कुछ वर्षों बाद हाँ-हाँ म गीत गाने लगे हैं। दलित साहित्य को लेकर न केवल गैर-दलित, बल्कि दलित साहित्यकारों में मतविभिन्नता देखी जा सकती है।

अनुभूति और स्वानुभूति के तर्क पर खडा दलित साहित्य का अधिकांश समय विमर्श करने में ही लाखों पन्ने रंग डाले गए हैं। एकरसता, विषयवस्तु में बदलाव का न होना, समय से पूर्व आत्मकथाओं का लिखा जाना ऐसे सवालों से मुठभेड करने के साथ-साथ स्वानुभूति में लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है। इस बात को पिछले तीन दशक से दलित साहित्यकार कलम को तलवार की तरह से बाँझता नजर आता है। बहुत-से गैर दलित साहित्यकार जो कि उदारवादी रहे हैं उनके साहित्य को नकारने में दलित रचनाकारों ने खूब मेहनत की है। दलित संगोष्ठियों में पहुँचने वाले आक्रोश में पूर्व लिखित साहित्य को एक ही साँस में नकार कर रख देते हैं। दलित साहित्य के पैरोकार राजेन्द्र यादव इस कडवी सच्चाई को मानते हैं कि दलित साहित्यकार यह कभी साबित नहीं कर पायेंगे कि किसका लेखन सच्चा दलित लेखन है। वैसे भी साहित्य ऐसा लोकतंत्र है जहाँ हरेक को अपनी बात कहने और लिखने की आजादी है। दलित साहित्य सिर्फ दलित ही लिख सकता है, इसे वे व्यर्थ का विवाद मानते हैं। दलित कहानीकार रत्नकुमार सांभरिया किसी दलित साहित्य की अलग से जरूरत ही नहीं मानते हैं।

सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने भारत रत्न डॉ. अम्बेडकर राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त करते हुए स्वीकार कर लिया है कि,

दलित साहित्य उगता हुआ सूरज है।

आगे कहा कि जिस तरह कबीर को

हरि मिले थे। वैसे ही, आज मुझे डॉ. अम्बेडकर के रूप में हरि मिल गये हैं।

यह बताने की जरूरत नहीं है कि ये वही नामवर सिंह हैं, जिन्होंने हंस की संगोष्ठी में इस तरह के किसी भी साहित्य को गैर जरूरी माना था। हिन्दी साहित्य में वादों आंदोलनों और महान् पुरुषों से प्रभावित साहित्य लिखा जाता रहा है और देर सवेर उसके महत्त्व को भी स्वीकार किया जाता रहा है। इस आलेख का यहाँ इतना ही उद्देश्य है कि जो दलित साहित्य गैर-दलित रचनाकारों द्वारा लिखा गया है, उसकी संवेदना, गहन अनुभूति और सामाजिक सरोकार की पडताल करना है।

दलित विमर्श, आंदोलन और साहित्य इस समय संक्रमण के दौर में होने से आये दिन अलग-अलग विचार सुनने को मिल जाते हैं। दलित के प्रति जिन रचनाकारों की पक्षधरता है, उन्हें गैर दलित कह कर उसका मूल्यांकन सहानुभूतिपरक माना जा रहा है तो दूसरी तरफ दलित होकर जो भी लिखा जा रहा है उसका स्वानुभूतिपरक, संवेदनशील और स्वयं के भोगे हुए घावों के दर्दों का बयान मानकर उदारता से मूल्यांकन करने की साहित्यिक राजनैतिक रूढ को अपनाया जा रहा है।

डॉ. धर्मवीर ने जब से बेचैन के संपादन में �बहुरि नहीं आवना� पत्रिका निकाली है तब से साफ हो गया है कि यह तीन चार दलित लोगों का मुखपत्र होगा जो नैमिषराय की मासिक �बयान� से बिल्कुल अलग है, जिसमें डॉ. धर्मवीर द्वारा लिखित रचनाओं का प्रचार-प्रसार किया जा सकेगा। वैसे भी यह दौर बाजार बनाने के लिए विज्ञापन पर आश्रित है। �अम्बेडकर मिशन�, �अम्बेडकर इन इंडिया�, �कमेरी दुनिया� और �दलित टुडे� आदि पत्रिकाएँ दलित की ऐसी कहानी बयान करती है जिससे लगता है कि दलित विमर्श में कई छोटे-छोटे धडे हैं, जो मिलकर ही दलित साहित्य कहे जा सकते हैं। झाडू से जुडी जातियाँ और चमडे का काम करने वाली जाति में मोटा भेद दिखाई देने लगा है। �मैं भंगी हूँ� के लेखक भगवान दास, �एक भंगी कुलपति की अनलिखी कहानी� श्यामलाल जेदिया, �जूठन� के ओमप्रकाश वाल्मीकि और �शिकंजे का दर्द� की लेखिका सुशीला टाकभौरे की इन आत्मकथाओं में मैला ढोता और जूठन खाते भारत की कहानी है जो मोहनदास नैमिषराय, बेचैन, डॉ. धर्मवीर और बुद्धशरण हंस में उसी वर्ण व्यवस्थागत जातीय भेद की एक स्पष्ट लकीर है। कोई भी आंदोलन हिन्दी साहित्य में दो-तीन दशक से अधिक नहीं चल सका है। छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कहानी नई कविता अकविता, अकहानी से होते हुए स्त्री विमर्श और दलित विमर्श को देख रहे हैं कि अब फिर एक नये विमर्श व आंदोलन की आहट को सुनने की दरकार है। जो अति शीघ्र जंगल, पहाडों में बसने वाले आदिवासियों के रूप में आ रहा है। तब तक दलित विमर्श के मर्सिया को पढा जा सकता है। एक तरफ दलित साहित्य विमर्श के बतौर समापन की ओर अस्ताचलगामी हो रहा है तो ऐसे भी हिंदी जगत् में है जिनको इस विमर्श की खबर तक भी नहीं है कि हिन्दी साहित्य में अधुनातन प्रवृत्ति दलित साहित्य है जो सदियों से दबे-कुचले मूक समाज की आह, वेदना और आक्रोश के रूप में दर्ज हो चुका है।

आज भी ऐसे साहित्यकार और पाठक मिल जाएँगे, जिनको दलित आंदोलन और साहित्य से न कोई लेना देना है और न ही किसी तरह का सरोकार ही है। पत्र-पत्रिकाओं से दूर कक्षाओं तक सीमित रहकर पठन-पाठन करने वाले हिंदी के अध्यापकों, प्राध्यापकों तक को इस तरह के किसी साहित्य की खबर ठीक से नहीं है। वे साहित्यकार जो आध्यात्मिक, रहस्यवादी और स्त्री व प्रकृति की सुन्दरता पर आज भी रीतिकालीन रचनाएँ लिखने में मशगूल हैं। उनके लिए कौन दलित और कौन दलन कर्त्ता है*? यह सब महज माया है जो यहीं रह जायेगी। अपने आगामी जन्म को सुधारने हेतु तुलसी के अनुरूप स्वांतसुखाय साहित्य रचने में व्यस्त हैं। इस तरह के परम्परागत साहित्य की मान्यताओं को तोडता, खंडित करता हुआ अपनी वेदना को पूरे विश्वास के साथ व्यक्त करने वाला साहित्य है। दलित विमर्श में दो-तीन दशक में पहचान बनी है फिर भी अगर देखा जाए तो ऐसे रचनाकार रहे हैं जिन्होंने दलित पीडा को अभिव्यक्ति दी है। सही मायने में दलित साहित्य के संबंध में डॉ. तुलसीराम का चिंतन गंभीरता से विचारणीय है, �दलित साहित्य वर्ण-व्यवस्था के विरोध में लिखा गया साहित्य है। अब इस तरह से चाहे जो भी लिखे। गैर-दलित भी यदि ऐसा साहित्य लिखता है तो वह भी दलित साहित्य का अभिन्न हिस्सा कहलायेगा।� मराठी में सन् ६० के बाद हुए दलित साहित्य के प्रादुर्भाव को भी इस आंदोलन के लेखन स्रोत को बुद्ध से जोडकर देखते हैं। गैर-दलित रचनाकारों की दलितों के प्रति पक्षधरता, प्रतिबद्धता और सामाजिक सरोकारों के चलते, बिना अम्बेडकर से प्रेरित होते हुए भी दलित रचनाएँ लिख रहे हैं, उनको नजर अंदाज करने की सोची समझी राजनीति पर भी विचार करना समसामयिक होगा।

हिन्दी साहित्य में दलितों की पीडा को अभिव्यक्ति देने और वर्ण-व्यवस्था के मुखर विरोध की लम्बी परम्परा रही है। जैसे स्वर मुखरित नहीं हो सके हों। संतों की वाणियों में बुद्ध के विचारों की गूँज साफ तौर पर सुनी जा सकती है। रविदास के कई पदों में बुद्ध के विचारों का ज्यों-का त्यों अनुवाद पाया जाता है, जैसे जन्म से न कोई ब्राह्मण, न कोई शूद्र, बल्कि कर्म से ही ब्राह्मण और कर्म से ही शूद्र आदि। इसी तरह कबीर के साहित्य में दुख की अवधारणा एवं जाति विरोध सीधे-सीधे बुद्ध से अवतरित हैं। बुद्ध का प्रभाव संतों से लेकर बाद तक भी देखा जा सकता है।

मुल्कराज आनंद का १९३२ में अंग्रेजी में प्रकाशित �अछूत� अछूतों की व्यथा पर लिखा गया पहला दलित उपन्यास कहा जा सकता है। प्रेमचन्द साहित्य में दलित अत्याचार विरोध के स्वर सुनाई देते हैं। प्रेमचन्द ने दलित को नायकत्व देने में पहल की इसका श्रेय उनको जायेगा ही, चाहे दलित विमर्श में आज उन्हें इंकार किया जा रहा हो। प्रेमचन्द गाँधी दर्शन से प्रेरित रहे हैं,यह उस समय की महती माँग कही जा सकती है। हमें इसे उसी संदर्भ में देखना चाहिए। �रंगभूमि� का सूरदास गाँधी का प्रतिनिधि पात्र कहा जा सकता है। क्या यह विचारणीय नहीं है कि अगर सामयिक राजनीति में गाँधी का होना यथार्थ था तब फिर साहित्य में सूरदास जैसे चरित्र का गढा जाना कैसे यथार्थ विरोधी हो सकता है। माना कि दलित आंदोलन के अनुसार सूरदास दलित का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाता, क्योंकि जाति से चमार भर होने से यह सम्भव नहीं हो जाता, फिर उसकी लडाई गाँधी की तरह गाँव के हित में जनसेवक के औद्योगिक दानव के जबडे से पांडेपुर वालों को बचाने की लडाई लडता है और लडाई भी गाँधी की तरह लडता है। सूरदास की झोंपडी के लिए मंदिर शब्द का प्रयोग होना अम्बेडकर के मंदिर प्रवेश आंदोलन की प्रतिक्रिया कह सकते हैं। छायावाद के चार स्तम्भों में से एक निराला की कविताओं में दलित समाज का चित्रण का पूर्व रूप मिलता है, तो इन गैर-दलित कवियों की अनुभूति और संवेदना का सम्मान करना भी आवश्यक है, क्योंकि दलित साहित्य से पूर्व में ही लिखे जा चुके गैर-दलित साहित्यकारों की दलित संवेदना में इनकी भी अहम भूमिका मानी जायेगी। दलित साहित्यकार डॉ. अम्बेडकर के आंदोलन से प्रेरित होते हैं ऐसे में पूर्व के गैर-दलित कवि व रचनाकार के लिए अम्बेडकर गाँधी के समतुल्य रहे हैं। �नाच्यौ बहुत गोपाल� की ब्राह्मणी श्रीमती निर्गुनिया और �गोदान� के पंडित मातादीन की जो स्वानुभूतियाँ हैं, उनके प्रति दलित लेखक चाहे संवेदनशील न हों, लेकिन उनकी सहानुभूतियों को संवेदनशीलतापूर्वक अपनी श्रद्धांजलि तो दे ही सकते हैं।�

रामेश्वर उपाध्याय की �दुखवा में बीतल रतिया�, चन्द्रमोहन प्रधान की �जूठे भात का सच� और अखिलेश की कहानी �ग्रहण� निश्चित रूप से एक गैर-दलित लेखक द्वारा दलित पृष्ठभूमि पर लिखी महत्त्वपूर्ण और वृहत्तर कहानियाँ हैं। जैसे �ग्रहण� कहानी का पात्र अपने जख्मों का इलाज करने के लिए जिम्मेदार लोगों द्वारा तिरस्कृत, दंडित होकर अंततः अपने समस्त जख्मों के साथ सडक पर चलने लगता है। जैसे पात्र या अमृतलाल नागर का �नाच्यौ बहुत गोपाल�, जगदीश चन्द्र के �धरती धन न अपना� और �नरक में वास� गोपाल उपाध्याय का �एक टुकडा इतिहास� जैसी रचनाओं और रचयिताओं की भावना को महसूस करने की महती आवश्यकता है।

निराला, नागार्जुन और रामविलास शर्मा जैसे कवियों की लम्बी जमात मिलती है। नागार्जुन की �हरिजन गाथा�, अदम गोंडवी की �चमारों की गली�, धूमिल की �मोचीराम�, वीरेन डंगवाल की �घुटनों-घुटनों भात हो मालिक� और लम्बी कविताओं में से हैं, लीलाधर जगूडी की �बलदेव खटीक� विष्णु खरे की �सिर पर मैला ढोने की प्रथा� आदि। निराला ने आज से साठ वर्ष पूर्व अपनी �जल्द-जल्द पैर बढाओ� कविता में दलित अशिक्षा के अंधकार को चिह्वित करते हुए लिखा है -

आज अमीरों की हवेली

किसानों की होगी

पाठशाला

धोबी, पासी, चमार, तेली

खोलेंगे अंधेरे का ताला

एक पाठ

पढेंगे टाट बिछाओ।

गैर दलित तबके के कवि अपनी कविताओं में दलित को मुकम्मल आवाज प्रदान करते हैं। �वह तोडती पत्थर� जैसी कविता लिखने वाले निराला के महत्त्व को उजागर करते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा है, �समाज में ऊँच-नीच का भेद-भाव मिटाने के लिए अनेक आंदोलन हुए और निराला ने उन सब का समर्थन किया, किन्तु वह उनसे अलग और उन सब से आगे भी थे, क्योंकि शिखासूत्र, त्यागकर आचार और विचार दोनों दृष्टियों से वह द्विज और शूद्र की समानता घोषित कर रहे थे।� नागार्जुन की �हरिजन गाथा� में दलित बालक को निम्न वर्ग का नायक नयी ऋचाओं का निर्माता, नये वेद का गायक कह कर आह्वान किया जाता है। रामविलास शर्मा �श्रेष्ठियों के देवता� में लिखते हैं,

�अंध कूप में पडे हुए तुम

मढे हुए सोने से अनुपम

ऊँची छत, खम्भे पर खम्भा

मंदिर क्या है एक अचम्भा।�

बेचैन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल चौहान और सुशीला टाकभौरे की कविताओं में ठेठ दलित स्वानुभूति प्रस्फुटित होती है। मैला ढोते समाज की अनुभूति, अनुभूति नहीं स्वानुभूति है। �हमारे हिस्से का सूरज� में कवयित्री का आक्रोश, गुस्सा और दलित चेतना यूँ स्वर पाते हैं,

�लाख कोशिशें की हैं दुश्मनों ने

हमारे हिस्से के सूरज को ढाँकने की

फिर भी

चमका है दुनियाँ के आकाश में

हमारा क्रांति सूर्य।�

साहित्यकारों के रचनागत सरोकारों को तटस्थता से मूल्यांकित करने की जरूरत है। अगर किसी गैर-दलित का अपने पात्र के साथ तादात्म्य होता है तो वह अनुभूति उस दर्द को सहलायेगी अवश्य। इस दृष्टि से �नाच्यौ बहुत गोपाल� की लेखन प्रक्रिया के दौरान अमृतलाल नागर का दलित समाज के प्रति गहरा आत्मीय तादात्म्यीकरण हो गया था। वे उनके साथ उठने-बैठने, खाने-पीने लगे थे। उन्होंने कहा था,

मैं आजकल मेहतर बन गया हूँ...अब तक जो लिखा है, उसे बस महसूस किया है और आभासित पाया है, पर इसे तो क्षण-प्रतिक्षण जी रहा हूँ।

वे दलित की पीडा, दमन और शोषण को महसूस कर द्रवित हुए हो ऐसा नहीं लगता अपितु अपने पूर्वजों द्वारा किये कृत्यों के लिए शर्मसार भी हुए। यह रचना शर्मसार होने को ही बयान करती है। इसमें वर्णविहीन समाज की पक्षधरता, परिवर्तन और नवनिर्माण की आकांक्षा वैसे ही दिखती है जैसे आज दलित साहित्य में दिख रही है। उपन्यास के दलित नायक में जातीय चेतना और आत्म प्रतिष्ठा अर्जित करने की उत्कंठ चाहना उसे अपने बराबर वालों से अलग करती है। वे सब अन्याय-अपमान, उत्पीडन और जातीयदंश सह सकते हैं पर वह नहीं। अपने अंग्रेज मालिक द्वारा मेहतर कह देने पर उसकी आँखों में खून उतर आता है, वह उसकी हत्या करके ही शांत होता है। विरोध और विद्रोह की प्रबल भावना नायक �मोहना� में तब उजागर होती है जब निर्गुन अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन यह कहकर करती है कि

मेरे पास रुपिया है किसी दूसरे शहर में चले चलो। कहीं पान बीडा या बिसातखाने की दुकान खोलकर बैठ जाना है। कौन तुम्हें पहचानेगा।

मोहना को इसमें अपनी पत्नी के उच्चजातीय अहंकार की गंध मिलती है। उपन्यास में नायक के उग्र तेवर और स्वाभिमान के अलावा सवर्णता के दर्प को मटियामेट करने के संकल्प की झलक मिलती है। मोहना निर्गुनिया से घरवालों के पैर स्पर्श करवाके, हुक्का भरवाके, माँस पकवाके और मैला उठवाके उसे सवर्ण और स्वामी दोनों पदों से गिरा कर दम लेता है। प्रतिहिंसा की भावना तब चरम पर पहुँचती है जब वह जलती सिगरेट से उसके शरीर के किसी न किसी भाग को दागता है। उनके आनन्द की पराकाष्ठा है।� मोहना की माई को उससे मैला उठवाकर वही संतोष हुआ जो दुनियाँ के सिकन्दरों, तैमूरों और चंगेजखानों को सारी दुनिया को अपने कदमों में झुका कर मिला होगा। सदियों से अन्याय, अत्याचार और अपमान सहने वाली कौम में यदि प्रतिकार की भावना जाग्रत हो जाये तो क्या कुछ हो सकता है*? लेखक का उद्देश्य सवर्णों को आघात पहुँचाना है कि अब तक तुम क्या करते आये हो, उसको अब तुम्हें इस तरह से भी भुगतना पड सकता है। ऐसे में ओमप्रकाश वाल्मीकि के द्वारा यह कहना कि, ��दलितों की व्यथा और उनकी पीडा में अभिव्यक्ति सिर्फ दलित ही कर सकता है, दूसरा नहीं।� अतिवादी और अतिउत्साही नजरिया भर लगता है। �नाच्यौ बहुत गोपाल� जैसी रचनाओं का उचित मूल्यांकन उसके पूर्वाग्रह मुक्त पाठ से ही हो सकता है कि किसी गैर-दलित रचनाकार की लेखकीय दृष्टि कितनी असम्पृक्त रह सकी और कितनी नहीं। उपन्यास का मूल संदेश व्यवस्था परिवर्तन रहा है। दलितों की चली आ रही सामाजिक व्यवस्था में सामाजिक सम्मान, समानता और समकक्षता का हक मिलना चाहिए, उपन्यास के समूचे कथानक, संवाद और वक्तव्य विभिन्न प्रकार से इसी बात को स्वर देते हैं। डॉ. कुसुम वार्ष्णेय का यह कहना विचारणीय है, �यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो उपन्यास दलित अस्मिता की रक्षा करता है, दलित चेतना को ऊर्जा देता है, दलित से मुक्त होने की प्रेरणा देता है, और वर्णविहीन समाज की पक्षधरता करता है, उसे दलित साहित्य में शामिल नहीं किया गया है।� यह दलित साहित्यकारों का अतिवादी रवैया ही कहा जा सकता है।

दलित साहित्य में ब्राह्मणवादी वर्ण-व्यवस्था का मुखर विरोध है और इस व्यवस्था का विरोध अश्वघोष से लेकर वर्तमान दौर का उदार ब्राह्मणवादी रचनाकार (कृपाशंकर चौबे और बजरंग बिहारी तिवारी) भी विभिन्न माध्यमों से कर ही रहा है तो हर समय उसकी सोच में पल रहे षड्यंत्र की जासूसी करना उनकी संवेदनाओं पर प्रहार करना उचित नहीं है।

अनन्तमूर्ति की �घटश्राद्ध� कहानी पर बनी �दीक्षा� महत्त्वपूर्ण फिल्म दलित यातनाओें पर झकझोर देने वाली, भयंकर ब्राह्मणी कर्मकांडों पर आधारित थी। जिस टीम में चालीस ब्राह्मणों ने काम किया है। बजरंग बिहारी तिवारी �कथादेश� में दलित-प्रश्न के तहत पिछले तीन-चार वर्षों से लगातार देश की विभिन्न भाषाओं में लिखने वाले रचनाकारों का साक्षात्कार लेकर महत्त्वपूर्ण कार्य को अंजाम दे रहे हैं। कृपाशंकर चौबे और बजरंग बिहारी तिवारी को अपने घर वालों की हिकारती नजरों का सामना करना पडता है उन्हें भी दलित के साथ खडा होने पर कहीं-न-कहीं लडना पड रहा है। पुरातनपंथी ब्राह्मण और उदारवादी में भेद करना ही होगा। दोनों को एक ही डंडे से हाँकना उचित नहीं है। जातीय उत्पीडन के शिकार दलित ही होते रहे हैं, यह तो सच ही है पर इसका शिकार सवर्ण भी हो सकता है। अनिल चमडया जब यह लिख रहे हैं कि

�प्रगतिशीलों को भी जातीय उत्पीडन की आत्मकथाएँ लिखनी चाहिए�,

कृपाशंकर चौबे को मध्य नजर रखते हुए लिखा है जो कि उल्लेखनीय है

�उन जैसों के खिलाफ जो जातीय उत्पीडन होता है वह उतना ही त्रासद, नृशंस, खौफनाक और दिल को दहला देने वाला है।...जातीय उत्पीडन का यह भी एक रूप है।�

अगर दलित रचनाकार की तरह ही कृपाशंकर चौबे और बजरंग बिहारी तिवारी के साथ जो कुछ घटित हो रहा है और वे अपना आत्मकथ्य लिखेंगे तो निश्चित ही जातीय उत्पीडन की स्थिति को दूर करने का संघर्ष तेज ही होगा। क्योंकि जातीय उत्पीडन के खिलाफ दलित आत्मकथाओं में अब तक जितना उभरकर आया है फिर भी आश्चर्य तो यह है कि दलित ही आज जाति से और अधिक चिपकता जा रहा है। अनिल चमडया लिखते हैं,

��ब्राह्मण विद्यार्थी ब्राह्मण उपनाम से पुकारे जाने पर चिढने लगे हैं। दूसरी तरफ दलित गर्व से अपनी जाति लगा रहे हैं। जातिवाद से लडने के लिए दलित और गैर दलित साहित्यकार दोनों को अपने-अपने हथियारों से समान रूप से सहयोग करके ही हिल-मिलकर इस लडाई को लडना होगा।