दलित साहित्य में सामाजिक न्याय / देवेंद्र चौबे
|
समीक्षा / रचना:देवेंद्र चौबे
हिंदी में उपन्यास लेखन की परंपरा सौ साल से भी पुरानी है। आमतौर से 1870 में प्रकाशित गौरीदत्त के उपन्यास ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’, ईश्वरी प्रसाद और कल्याण द्वारा रचित ‘वामा शिक्षक’, श्रद्धाराम किल्लौरी कृत ‘भाग्यवती’ और राधाकृष्णदास द्वारा रचित ‘निस्सहाय हिंदू’ की चर्चा हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में होती है, लेकिन अँगरेज़ी ढंग का पहला हिंदी उपन्यास लाला श्रीनिवासदास कृत ‘परीक्षागुरू’ (1882) को ही माना जाता है। हिंदी में उपन्यास लेखन की यह परंपरा बाद में देवकीनंदन खत्री के सर्वाधिक चर्चित और लोकप्रिय उपन्यास ‘चंद्रकांता’ (1891)और ‘चंद्रकांता संतति’(1905) तथा ब्रजनंदन सहाय के ‘सौंदर्योपासक’(1911)आदि से होते हुए उस दौर में पहुँची , जिसका गहरा संबंध 1917 की रूस की अक्टूबर क्रांति, गांधी और स्वाधीनता आंदोलन, वामपंथी राजनीति के उदय और अंबेडकर के दलित सवाल आदि ऐतिहासिक-राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से है।
उपन्यास के इन कालों को क्रमश: प्रेमचंद (प्रेमचंद पूर्व हिंदी उपन्यास, प्रेमचंद युग: 1918-36 और प्रेमचंदोत्तर हिंदी उपन्यास) से जोड़ा जाता है।
1947 के बाद के उपन्यासों की चर्चा यद्यपि स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास(1947-70)और समकालीन हिंदी उपन्यासों (1970-2000) के रूप में होती है पर नवें दशक के प्रारंभ में मंडल कमीशन तथा बाबरी मस्जिद के ध्वस्त(1992) होने के बाद प्रकाशित कुछ उपन्यासों को छोड़ दिया जाए तो आज भी हिंदी उपन्यास प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु के प्रभाव से मुक्त नहीं है।
ख़ासकर ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ का गहरा प्रभाव हिंदी उपन्यासों की संरचना और उसकी थीम पर देखा जा सकता है। हाँ, स्त्री के सवाल पर ज़रूर कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, नासिरा शर्मा, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा, गीताजंलिश्री आदि ने नए ढंग से विचार किया, परंतु पहली बार दलित समाज पर दलित कथाकारों द्वारा लिखित उपन्यासों में प्रेमचंद और रेणु के लेखन के प्रभाव से मुक्त होने की कोशिश दिखाई पड़ती है।
यद्यपि प्रेमचंद और रेणु के यहाँ भी दलितों का सवाल एक बड़े सवाल के रूप में मौजूद है परंतु दलित कथाकारों ने उत्पीड़न के कारणों को भारतीय (हिंदू) समाज की संरचना के सवालों से जोड़ते हुए वर्ण और जाति व्यवस्था को वह केंद्रीय कारक माना जिससे सामाजिक विकास की प्रक्रियाएं प्रभावित होती हैं।
पिछले दशकों में प्रकाशित दलित उपन्यासों को देखने पर यह बात अपने आप साफ हो जाती है। चाहे वह जयप्रकाश कर्दम कृत ‘छप्पर’ हो या प्रेम कपाड़िया कृत ‘मिट्टी की सौगंध’, सूरज प्रकाश की ‘जस-तस नई सबेर’ हो या कौशल्या बैसंती कृत ‘दोहरा अभिशाप’ या मोहनदास नैमिशराय कृत ‘वीरांगना झलकारीबाई’ या एसआर हरनोट कृत ‘हिडिम्ब’। परंपरा से जुड़े सवालों को उठाते हुए भी इन उपन्यासों में दलित समाज के सवाल भिन्न नज़रिए से उठाए गए हैं और दलित समाज के शोषण और उत्पीड़न की प्रक्रिया को आर्थिक से अधिक भारतीय समाज की जटिल संरचनाओं में से एक वर्ण और जाति से जोड़ा गया है।
इन सारे संदर्भों में दलित साहित्य को लेकर उठ रहे सवालों में एक भिन्न सवाल यह है कि दलित साहित्य को हिंदी का नया साहित्य माना जाए अथवा एक भिन्न साहित्य या हिंदी साहित्य की एक नई धारा। कारण, दलित साहित्य की यह धारा आधुनिक साहित्य की लगभग सभी भाषाओं में मौजूद है।
ज्योंही हम दलित साहित्य को किसी भाषा से जोड़कर देखेंगे, उस भाषा और साहित्य की स्वीकृत परंपराएं अनेक तरह के संघर्षों को जन्म देंगी जैसा कि आज आधुनिक साहित्य में हो रहे विचारधारात्मक-आलोचनात्मक संघर्षों में दिखाई पड़ता है। एक तर्क यह दे सकते हैं कि कई बार साहित्य की नई धाराओं ने भाषा और देश की सीमा की दीवारों को लांघा है जैसा प्रगतिशील साहित्य ने। अगर दलित साहित्य को भी प्रगतिशील साहित्य के बरक्स खड़ा करके देखना चाहें तो इतिहास गवाह है कि इस साहित्य का संबंध औघोगिक क्रांति से लेकर रचना और विचार में आधुनिकता(धर्म को दरकिनार करते हुए)तक से रहा है और वह साहित्य में वर्ग केंद्रित सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने की माँग करता है।
सवाल है कि हम दलित साहित्य की किस नई सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हैं तथा इस व्यवस्था के लिए किस क्रांति को प्रस्थान बिंदु मानें। वर्ग की तरह वर्ण और श्रमिक समाज की तरह दलित समाज की स्थिति तो स्पष्ट है पर उसके आपसी संबंधों का आधार क्या होगा? मार्क्सवाद में तो ‘अर्थ’ है पर यहाँ क्या होगा यह अभी साफ नहीं है। यह सत्य है कि बौद्ध मत और उसके माध्यम से निर्मित सामाजिक संघर्ष से आधुनिक दलित साहित्य की एक धारा प्रेरणा लेती रही है और कई विचारक इसीलिए अंबेडकर के विचार और आंदोलन को दलित साहित्य का वैचारिक आधार मानते हैं, पर एक धारा ऐसी भी है जो संत रैदास से लेकर ज्योतिबाफुले तक को महत्व देती है।
प्रसिद्ध समाजशास्त्रीय चिंतक मिशेल जेराफ़ ने ‘फिक्शंस’ में उपन्यास की धारणा पर विचार करते हुए लिखा है कि ‘उपन्यास ऐसी कला है जिसमें मनुष्य सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टि से निरूपित होकर सामने आता है।’ तो क्या दलित उपन्यास में आए मनुष्य को सामाजिक और ऐतिहासिक दृष्टि से निरूपित होकर आए मनुष्य और उसके संघर्ष के रूप में ही देखा जाए?
यह एक मुश्किल सवाल है, परंतु दलित साहित्य अथवा उपन्यास पर विचार की प्रक्रिया में ऐसे सवालों से लगभग साहित्य के प्रत्येक अध्येताओं को गुजरना पड़ता है। इसलिए दलित उपन्यास पर विचार करते हुए भी यह देखना ज़रूरी है कि उसमें आया मनुष्य अथवा समाज किस प्रकार के सामाजिक और ऐतिहासिक प्रसंग अथवा संदर्भ को लेकर कृति में आ रहा है। अगर हम कौशल्या बैसंती के ‘दोहरा अभिशाप’ पर विचार करें तो पता चलता है कि दलित समाज सामाजिक और ऐतिहासिक परिवर्तन तथा विकास की प्रक्रिया में जिन सवालों से जूझता है, उनमें सबसे बड़ा सवाल है उसकी सामाजिक अस्मिता का, जो सामाजिक संरचनाओं से ही नियंत्रित होती है। भारतीय प्रसंग में इसकी बुनियाद ही वर्ण और जाति केंद्रित सामाजिक व्यवस्था पर टिकी हुई है, जिसकी व्याख्या मनुस्मृति में करते हुए कहा गया है कि ब्रह्मा ने ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों की निष्कपट भाव से सेवा करना ही शूद्रों का प्रधान कर्म बनाया है। कहना न होगा कि भारतीय समाज(हिंदू)में दलित समाज की इसी स्थिति से मुक्ति की कोशिश आधुनिक विचारकों में ज्योतिबाफुले, ईवी रामास्वामी नायकन पेरियार, अंबेडकर और गांधी सहित अनेक चिंतकों ने की है। ‘दोहरा अभिशाप’ सहित अन्य दलित उपन्यासों में धर्म केंद्रित इस सांस्कृतिक वर्चस्व के खिलाफ़ प्रतिरोध और संघर्ष की एक गहरी चेतना दिखाई पड़ती है।
भारतीय समाज में इस सांस्कृतिक वर्चस्व को निर्मित करने में सामंतवाद और ब्राह्मणवाद की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, क्योंकि एक जहाँ सत्ता को नियंत्रित और संचालित करता है वहीं दूसरा ज्ञान को। ‘दोहरा अभिशाप’ में एक स्त्री की नियति को ज्ञान और सत्ता के केंद्रीय कारक मिलकर तय करते हैं। तो क्या यह मानकर चला जाए कि नई सामाजिक व्यवस्था में स्त्री अथवा दलित ज्ञान और सत्ता में पूरी भागीदारी चाहते हैं। दलित कृतियां इसी आ॓र संकेत करती हैं। जयप्रकाश कर्दम ‘छप्पर’ में ज्ञान और सत्ता से वंचित रहने के कारण समाज की मुख्यधारा में हाशिए की ज़िंदगी जी रहे दलित समाज के उत्पीड़न के उस सच का बयान करते हैं, जिसे मुख्यधारा की संरचनाओं ने हमेशा अनदेखा किया है। इस अनदेखेपन का मुख्य कारण जन्म के कारण एक ख़ास जाति(दलित)में होना रहा है और इस जातीय भेद के कारण एक व्यक्ति क्या, पूरा समाज(सवर्ण)ज्ञान और सत्ता में हिस्सेदारी पाकर केंद्र में रहता है तो दूसरा(दलित) वंचित होकर परिधि पर। ज्ञान और सत्ता से वंचित रहने के कारण ‘छप्पर’ के चंदन जैसे दलित पात्र भूख से मुक्ति के लिए संघर्ष करते हैं और ज्ञान के अभाव में सामाजिक विकास की प्रक्रिया से बाहर हो जाते हैं। ‘हिडिम्ब’ में आरएस हरनोट ने शावणु के माध्यम से ज्ञान और सत्ता के खेल में दलित समाज के उत्पीड़न और आर्थिक शोषण का यथार्थ चित्रण किया है। यह दलित समाज का वह यथार्थ है, जिसे पिछले एक दो दशकों में प्रकाशित दलित उपन्यासों में चित्रित किया गया है। यानी हम मोहनदास नैमिशराय के उपन्यास ‘वीरांगना झलकारीबाई’ को देंखें तो साफ पता चलता है कि मिशेल जेराफ़ ने उपन्यास में मनुष्य के जिस सामाजिक और ऐतिहासिक संघर्ष के निरूपण की बात की है, उसे दलित कथाकारों ने पूरी संजीदगी के साथ चित्रित किया है।
वास्तव में औपनिवेशिक साम्राज्यवादी भारत और उससे मुक्ति के लिए किए गए संघर्ष के दौरान पेरियार, अंबेडकर, गांधी, भगतसिंह जैसे विचारकों ने सामाजिक असमानता के सवालों को उठाते हुए विचारधारा की दुनिया में जिस सामाजिक न्याय की परिकल्पना की थी, उसे दलित समाज पर केंद्रित उपन्यासों में दलित समाज के उत्पीड़न के प्रसंग से जोड़कर साफ तौर पर देखा जा सकता है। इसलिए ये गैर-दलितों द्वारा लिखित उपन्यासों से इस मायने में अलग हैं कि वे समन्वय की नहीं, संघर्ष की बात करते हैं, क्योंकि उनके साथ अन्याय हुआ है। उनके प्रसंग में ईश्वर भी न्याय नहीं करता है। इसलिए ये उस संघर्ष की बात करते हैं जो दलित समाज को वर्ण व्यवस्था से मुक्ति देगा, उसे ज्ञान और सत्ता की प्रक्रिया से जोड़ेगा, एक बेहतर समाज का निर्माण करेगा। यह एक महत्वपूर्ण बात है, जो पारंपरिक उपन्यासों से दलित उपन्यासों को अलग करती है।