दलित साहित्य रचना : एक सकारात्मक पहल / रश्मि जोशी

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दलित साहित्य रचना : एक सकारात्मक पहल
समीक्षा: सुश्री रश्मि जोशी

'दलित लेखन की मूल प्रेरणा मेहनतकश, शोषित और दलित व्यक्ति है। हिन्दू समाज व्यवस्था के निकृष्ट रूप ने उनको हमेशा पददलित किया।'

प्राचीन समय में भारतीय संस्कृति ने व्यक्ति के गुण, कर्म एवं स्वभाव को आधार बनाकर व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार कर्म व्यवस्थावर्ण व्यवस्था की थी, जो बुद्धिधर्मी थे, वे ब्राह्मण, जो शक्तिमान थे, वे क्षत्रिय, जो अर्थवान थे, वे वैश्य तथा जो इनसे रहित थे, किंतु श्रम के विश्वासी थे, वे शूद्र कहलाये। इस वर्ण व्यवस्था का मूल उद्देश्य था, 'समाज का विकास एवं प्रगति'। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म एवं श्रम के आधार पर एक निश्चित वर्ण में रहता था, किंतु धीरे-धीरे इस व्यवस्था का रूप बिगड़ने लगा और वर्ण-व्यवस्था में कर्म के स्थान पर जन्म निश्चित हो गया और इसी ने दिया जाति व्यवस्था को जन्म। समाज जन्म के अनुसार एक निश्चित जाति का कहलाने लगा और संकीर्णता आ गयी। जाति-व्यवस्था के दूरगामी परिणाम हुये, 'एक उच्च वर्ग और एक निम् वर्ग'। उच्च वर्ग द्वारा निम्-वर्ग को दबाना, उन्हें असवर्ण संबोधन कर एक घिनौनी प्रथा का जन्म हुआ - 'छुआछूत'।

जाति व्यवस्था ने समाज को इतना संकीर्ण कर दिया कि विवाह, त्यौहार तथा अन्य सामाजिक आदान-प्रदान अपनी-अपनी जातियों में सिमट गये, जिसका भावी परिणाम आज दृष्टव्य है। समाज की व्यवस्था का आधार जाति एवं अर्थ हो गया और इसी के फलस्वरूप एक निम्न वर्ग 'दलित' के रूप में सामने उभरा। दलितों के अंतर्गत अनुसूचित, खानाबदोश और आदिवासियों के साथ भूमिहीन मजदूरों और गरीब किसानों को भी समाविष्ट किया जा सकता है।

वस्तुत: दलित संबोधन से समाज के पददलित, अधिकार-विहीन और सामाजिक-धार्मिक उपेक्षा के शिकार असवर्ण का बोध होता है। आजकल प्रचलित डिप्रेस्ड क्लास, शिडूल्ड कास्ट, गुलाम वर्ग, हरिजन आदि इन्हीं पददलितों के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं। इस दलित-वर्ग के सामाजिक-राजनीतिक उत्थान, समानता व सम्मान के लिए डॉ. भीमराव अंबेडकर ने आंदोलन चलाया था। इस प्रकार 'दलित साहित्य' आंदोलन की प्रेरणा महात्मा ज्योतिबा फूले की विचारधारा एवं डॉ. भीमराव अंबेडकर का दलित-मुक्ति आंदोलन बने। दलित-साहित्य की अवधारणा का जन्म सर्वप्रथम मराठी साहित्य में हुआ।

दलित साहित्य को लेकर दो अभिमत हैं। आलोचकों का एक वर्ग दलितों की नियति पर रचित-साहित्य को दलित-साहित्य मानता है, चाहे उसका लेखक सवर्ण ही क्यों न हो। इसके विपरीत कुछ दलित लेखक दलितों द्वारा दलितों के लिए रचित साहित्य को दलित-विमर्श की संज्ञा देते हैं। यह मत आज अधिक प्रचलित है।

डॉ. एन.सिंह के अनुसार -

दलित साहित्य दलित लेखकों द्वारा लिखित वह साहित्य है, जो सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और मानसिक रूप से उत्पीड़ित लोगों की बेहतरी के लिए लिखा जा रहा है।

दलित साहित्य पर आलोचकों ने अनेक प्रश्न उठाये हैं - क्या साहित्य भी दलित हो सकता है? दलित साहित्य में साहित्य कितना? साहित्य में आरक्षण क्यों? क्या सवर्ण लेखकों द्वारा सहानुभूतिपूर्वक दलितों की समस्याओं को लेकर खिला गया साहित्य दलित-साहित्य नहीं है।

हाल ही में कुछ दलित साहित्यकारों ने हिन्दी में दलित साहित्य की आवश्यकता को रेखांकित करते हुये स्पष्ट किया है कि दलितों के द्वारा दलितों के जीवन पर लिखा गया साहित्य दलित साहित्य है। किसी गैर-दलित द्वारा लिखे गये दलित संबंधी साहित्य को वे दलित साहित्य मानने को तैयार नहीं हैं। उनकी दृष्टि में ऐसा साहित्य सहानुभूति या दया का साहित्य है, चेतना का नहीं। वह चाहे प्रेमचंद, दिनकर, निराला, प्रभृति ही क्यों न हो?

इन उपरोक्त पंक्तियों के समर्थन में दलित साहित्यकार मोहनदास नैभिषराय का कहना है कि - दलित साहित्य दलितों का ही हो सकता है, क्योंकि उन्होंने जो उपेक्षापूर्ण जीवन भोगा है, वह कल्पना की वस्तु नहीं, वह उनका भोगा हुआ यथार्थ और जख्मी लोगों का दस्तावेज है। वह उनकी मुक्ति का संदेश है। वह चेतना का उगता हुआ सूरज है, उसमें गुस्सा और नफरत अनुभूति प्रेरित है। उसे कला के लिए छलने की जरूरत नहीं।

दलित साहित्य धर्म पर आधारित परम्पराओं, रूढ़ियों और विचारों के प्रति विद्रोह है। इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि समाज से पृथक होना है, वरन् समाज में रहकर ही जो कल्याणकारी है, उसके लिए पूर्व परंपराओं से विद्रोह कर नवीन परम्पराओं को स्थापित करना है। हिन्दू धर्म की जटिल समस्याओं की ओर इंगित करते हुये मराठी साहित्यकार खांडेकर ने लिखा है -

दलित साहित्य केवल विद्रोह प्रतिकार या प्रतिशोध नहीं है या केवल नकार या निषेध नहीं है, बल्कि जो कुछ मंगल और शुभ है, उन सब की निर्मिति के लिए यह पूर्व परंपराओं से विद्रोह है। यह विद्रोह हिन्दू धर्म पर आधारित परंपराओं, रूढ़ियों और विचारों से है और उस समाज के विरूद्ध, जिसने उन्हें पददलित, शूद्र और अस्पृश्य नाम देकर अन्याय, अत्याचारों के द्वारा अपने मन में छिपी बर्बरता का पूरा-पूरा परिचय दिया। यह कहना उचित होगा कि विद्रोह ही दलित-साहित्य का मूल धर्म और उसकी विशिष्टता है।

दलित साहित्य वेदनामय अहसास, भोगे हुये यथार्थ का प्रामाणिक दस्तावेज है। जिसका उद्देश्य इनसे मुक्ति है। दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभवदग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। यह एक ऐसी समाज व्यवस्था है, जो अत्यंत क्रूर और अमानवीय है, दलितों के प्रति असंवेदनशील। दलित साहित्यकार का मुख्य स्वर इस समाज व्यवस्था के पति आक्रोश और विद्रोह है। वस्तुत: यह साहित्य दया या सहानुभूति की भीख नहीं है, वरन् दलितों में पैदा हुए आत्म-विश्वास की धधकती हुई मशाल है, जिसकी मुख्य शक्ति है चेतना। दलित साहित्य किसी जाति विशेष के प्रति विद्रोह नहीं होकर दलितों द्वारा अपने 'स्व' की खोज, अस्तित्व की स्थापना एवं सड़ी-गली प्राचीन रूढिवादी परम्पराओं के विरूद्ध गुस्सा, नफरत की अनुभूति प्रेरित अभिव्यक्ति है। यद्यपि हिन्दी साहित्य में सवर्ण लेखकों के द्वारा दलित की समस्याओं को अनुभव कर साहित्य में अभिव्यक्त करने की लंबी परंपरा रही है। दलित साहित्यकारों की यही पृष्ठभूमि है। प्रेमचंद की कहानियां - 'सद्गति', 'ठाकुर का कुआं', 'सवा सेर गेहूं', 'कफन' आदि साहित्य जगत के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिनमें दलितों का शोषण, उत्पीडन, विषमता, असंवेदनशीलता, अमानवीयता प्रस्तुत हुआ है। ये कहानियां भोगे हुये यथार्थ के दलित लेखकों की कहानियों की बराबरी करती हैं। इसी प्रकार 'गोदान' (उपन्यास) में मातादीन को दलितों द्वारा मुंंह में हड्डी का टुकड़ा ठूंसना दलित चेतना का ही उदाहरण है।

इसी प्रकार प्रेमचंद के अतिरिक्त अनेक ऐसे कहानीकार हुए, जिन्होंने अनुभूति प्रेरित दलितों पर कहानियां लिखी, जिनमें प्रमुख हैं - मुद्राराक्षस की 'प्रतिहिंसा', महेश कटार की 'बगल में बहता सच', पून्नी सिंह की 'धनीराम', रमेश उपाध्याय की 'बराबरी का खेल', मार्कण्डेय की 'हल योग'आदि हैं तथा उपन्यास जगत में अमृतलाल नागर का 'नाच्यो बहुत गोपाल', जगदीश चंद्र का 'नरक कुंड में वास', गिरिराज किशोर का 'परिशिष्ट', नीलकांत का 'बंधुआ रामदास', मन्नू भंडारी का 'महाभोज' आदि। इन कहानियों एवं उपन्यासों में न केवल दलित जीवन की त्रासदी और संघर्ष कथा चित्रित है, बल्कि अन्याय, शोषण के प्रति विरोध एवं विद्रोह है, जो कि अनुभूत यथार्थ लिखने वाले लेखकों के साहित्य की बराबरी करता है। इन कहानियों एवं उपन्यासों का मूल विषय-विधान सदियों से उपेक्षित, तिरस्कृत, शोषित, सताए हुए दलितों के प्रति अमानवीय क्रूरता को निरूपित किया है, साथ ही इन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए जागृत किया है। दलित जीवन का सामाजिक त्रासदिक भयावह यथार्थ, उनके जीवन का पीड़ा बोध, इनके साहित्य में अभिव्यक्ति पाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि गैर-दलित लेखकों द्वारा लिया गया साहित्य किसी भी प्रकार दलित लेखकों द्वारा लिखे गये साहित्य से कम नहीं है।

यद्यपि दलित लेखकों द्वारा दलित साहित्य का निर्माण अभी अल्प ही है, किंतु वह अनुभव की आंच पर तपकर निकला हुआ सत्य है। इन लेखकों की प्रमुख कहानियां है - 'हैरी कब आयेगा' (सूरज पाल चौहान),'पुटूस के फूल'(प्रहलाद चंद दास), 'अवाजें' (मोहनदास नेमिषराय), 'सुरंग' (दयानंद), 'यातना की परछाइयां', 'काले हासिए पर'(सं. डॉ. एन. सिंह), 'चार इंच की कलम' (कुसुम वियोगी), 'रक्तबीज' (सत्यप्रकाश), 'दृष्टिकोण' (अरविंद राही), 'हुकुम की दुग्गी' (रत्न कुमार सांभरिया), 'दूसरी दुनिया का यथार्थ' (सं. रमणिका गुप्ता) तथा ओम प्रकाश वाल्मीकि की 'पच्चीस चौका डेढ सौ', 'सलाम बिरमा', 'कमीन', 'शव यात्रा', 'यह अंत नहीं' विशेष उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त उपन्यास के क्षेत्र में 'मुक्ति पर्व' (नेमिषराय), 'झूठन' आत्मकथात्मक उपन्यास (ओम प्रकाश वाल्मीकि), 'जस-तस भई सवेर' (सत्य प्रकाश) विशेष उल्लेखनीय है। इन कहानियों एवं उपन्यासों में बेबस, मेहनतकश, शोषित-पीड़ित और दलित की करूण चीखें यहां अभिव्यक्ति पाती हैं। इनमें दलितों के तमाम कष्टों, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं, यातनाओं को भोगे हुये यथार्थ के आधार पर प्रामाणिक एवं मार्मिक अभिव्यक्ति मिली है। साथ ही दलित-चेतना को पूर्ण शक्ति के साथ विद्रोही चेतना का स्वर मुखर होकर सामने आया है।

समग्रत: कहा जा सकता है कि दलित साहित्य की रचना एक सकारात्मक पहल है तथा उसके फलस्वरूप दलितों में उत्पन्न हुई आत्मचेतना, अपने 'स्व' की तलाश तथा अस्तित्व की पहचान इस पहल की सफलता की द्योतक है, किंतु यदि गैर-दलित लेखकों को भी साहित्य लहर की इस चेतना में जोड़ लिया जाए तो एक स्वस्थ एवं नवीन दृष्टिकोण निर्मित होगा, जो निश्चित ही समाज एवं व्यक्ति के लिए उपयोगी होगा।

203-बी, सिविल लाइंस, मुख्य डाकघर के पास,नयापुरा कोटा।