दलित साहित्य / जितेन परमार

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दलित साहित्य
समीक्षा: डॉ.जितेन परमार

दलित साहित्य सातवे दशक के हिन्दी साहित्य की एक विशिष्ट विधा के रूप में अस्तित्व में आया । हिन्दी साहित्य मे दलित, पीड़ित जनसमूह को आधार बनाकर लिखे गए साहित्य को दलित साहित्य कहा गया । दलित साहित्य क्या है ? इसकी उतप्ति, संकल्पना, अर्थ, स्वरूप और अस्तित्व पर विचार करना आवश्यक है ।

संकल्पना : दलित शब्द को समझे तो संस्कृत की 'दल' धातु से 'दलित' शब्द बना है । जिसका अर्थ है तोड़ना, कुचलना । इसके विभिन्न अर्थ है - टूटा हुआ, पिसा हुआ, फैला हुआ आदि । दलित साहित्य वह साहित्य है जो सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक क्षेत्रो में पिछड़े हुए उत्पीड़ित, अपमानित, शोषित जनों की पीड़ा को व्यक्त करता है ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से आज तक की उनकी आर्थिक, सामाजिक व शैक्षणिक स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है और इसका जिम्मेदार और कोई नहीं हमारा समाज ही है । इन अपेक्षित जनसमूह की पीड़ा, वेदना, कुंठाए, परम्पराए, पर्वो, उत्सवो, व्यवसायों, अज्ञानता आदि को जिस साहित्य मे अभिव्यक्त किया गया हो वह दलित साहित्य है ।

हिन्दी उपन्यास साहित्य में इन दलितों के जीवन विषयक कई उपन्यासों की रचना हुई है । जैसे 'एक चिथड़ा इतिहास', 'बंझर धरती', 'ग्राम सेवक', 'ग्राम देवता', 'गोदान', 'बहुत नाच्यों गोपाल' आदि ।

डॉ रामदेश शुक्ल कृत 'ग्रामदेवता' उपन्यास हरिजन समाज के एक युवक की मनोदशा का सफल चित्रांकन है । गोपाल अध्याय कृत 'एक चिथड़ा इतिहास' में हरिजनो की स्थिति का चित्रण है । प्रेमचंद कृत 'गोदान' में अछूत समस्या को विस्तृत रूप से चित्रित किया गया है । उनके एक और उपन्यास 'कर्मभूमि' में भी धर्म, कर्म की चर्चा की गई है । प्रेमचंद के विचारों में कहे तो -

"जो दलित है, पीड़ित है, वंचित है चाहे वह व्यक्ति हो या समूह उसकी वकालत करना साहित्यकार का दायित्व है ।"

हिन्दी साहित्य में निर्गुण सैट कवियों की वाणियों में दलित साहित्य के बीज छिपे है । सैट कवियों ने वर्ण व्यवस्था, जाती-पाती, ब्राहमीन, शूद्र, मूर्तिपूजा और पाखंड का विरोध किया ।

संत कबीर और राइडस ने संकीर्ण जातिवादी व्यवस्था का विरोध ही नहीं किया वरन एसे समाज की स्थापना का आधार तैयार किया एलआईएसमे वर्ण, जाति, लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो तथा समता, स्वतंत्रता और बंधुता के आधार पर समाज का निर्माण हो । कबीर कहतें है -

एक तुचा हद मल मूता,

एक रुधिर एकै गुदा ।

एक बूंद सों सृष्टि रची है,

को बाभन को सौदा ।

बिसवी सदी के तृतीय दशक के आरंभ में गांधीजी का देश के पटल पर आगमन हुआ । मंदिर प्रवेश, छूआछुत खत्म करके एक आदर्श समाज का निर्माण करने का प्रयास किया । एसे समय में प्रेमचंद ने 'सदगति', ठाकुर का कुआं' आदि कहानियों में दलित समस्या का यथार्थ वर्णन किया । आगे हरिऔंध जी, माधव शुक्ल, भगवतीचरण वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी आदि ने इस विषय पर लिखा । गांधी जी के अछूत्तोध्धार आंदोलन से प्रभावित होकर सन 1927 में 'चाँद' पत्रिका में अछूत विशेषांक निकला ।

आधुनिक हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य मराठी भाषा से आया । महाराष्ट्र में सर्वप्रथम दलितों ने ही उपन्यास, आत्मकथा और आँय रचनाए लिखी । ज्योतिबा फुले ने 'गुलमगिरी' नमक पुस्तक के द्वारा दलितों में जागरण पैदा किया ।

दलित साहित्य रूढ़िवाद, जातिवाद और भाग्यवाद को नहीं मानता । नारी उत्पीड़न और श्रमिक उत्पीड़न के विरुद्ध खुला विद्रोह इसके मूल स्वर में शामिल है । दलितों में आशा का संचार, स्वाभिमान, स्फूर्ति और जनचेतना दलित साहित्य का मूल प्रतिपाध्य है । दलित साहित्य आज एक आंदोलन का रूप ले चुका है । गाध्य के क्षेत्र में इसको प्रतिष्ठित होने में अभी समय लगेगा पर कवि क्षेत्र में इसका राष्ट्रीय प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है ।

साहित्य समाज का दर्पण है । यह उक्ति तब तक अर्ध सत्य ही है, जब तक साहित्य समाज के मात्र एक पहलू को दर्शा पाएगा या जब तक बहुसंख्यक दलित मानव का दुख-दर्द, जीवन-मरण की स्थितियाँ साहित्य में प्रतिबिंबित नहीं होती तब तक यह कालिख पूता शीशा है, पारदर्शी सच का दर्पण तो कतई नहीं । जब की दलित साहित्य दलित समाज का दर्पण भी है और दीपक भी ।

डॉ.जितेन परमार,

अध्यक्ष,

हिन्दी विभाग, सरकारी महाविध्यालय, करचेलिया, त.महुवा, जि.सूरत गुजरात ।