दलित साहित्य : अंतर्विरोधों के बीच और उनके बावजूद / शिवकुमार मिश्र
दलित साहित्य : अंतर्विरोधों के बीच और उनके बावजूद
डॉ० शिवकुमार मिश्र
अपने को साहित्य और साहित्य के आन्दोलनों तक ही सीमित रखें तो उनका विकास और उनके विकास का इतिहास साक्षी है कि अंतर्विरोधों से साहित्य की कोई भी धारा और साहित्य का कोई भी आन्दोलन कभी मुक्त नहीं रहा। अंतर्विरोध विकास में सहायक भी होते हैं और यदि उन्हें हल न किया गया तो विकास को अवरूद्ध भी करते हैं। आन्दोलनों को दिशाहीन, विघथित और कमजोर करते हैं।
चूँकि संप्रति हमारी चर्चा के केन्द्र में दलित साहित्य है, अतएव हम अपने को विचार और व्यवहार के स्तर पर उभरे दलित साहित्य और उसके आन्दोलन के अंतर्विरोधों तक ही सीमित रखेंगे। आज जबकि दलित साहित्य अपनी विशिष्ट पहचान के साथ भारत की अनेक भाषाओं में लगभग स्वीकृत और मान्य हो चुका है और नई सदी के साहित्यिक-विमर्श के केन्द्र में है, जरूरी है कि इस बात को रेखांकित किया जाए कि अंतर्विरोधों ने उसके विकास को कितनी गति दी है या उसके विकास को कितना अवरूद्ध किया है।आइए सबसे पहले ऐसे एक दो मुद्दों को लें, जिन पर दलित लेखकों और गैर दलित लेखकों के बीच लंबे समय से विमर्श चल रहा है और जिन पर कोई भी सहमति नहीं बन सकी है।
अपने एक आलेख में मैंने ऐसे मुद्दों को जो अपने-अपने आग्रहों के चलते विवादास्पद बने हुए हैं, गैर-जरूरी मानते हुए छोड़ देने को कहा है, ताकि विमर्श जरूरी मुद्दों पर आगे बढ़े। बावजूद इसके, जब मैं उन्हें यहाँ उठा रहा हूँ तो संक्षेप में ही सही, उनके अंतर्विरोध को देखें।बात है, कि किसी रचना की पहचान का मूलवती आधार क्या हो? उसकी अंतर्वस्तु या कि यह बात कि उसका रचने वाला कौन है? दलित लेखक बंधु आग्रह पूर्वक अपनी इस बात पर अड़े हुए हैं दलित रचना वही है जिसका रचनाकार दलित हो, जबकि गैर-दलितों में ऐसे वरिष्ठ लेखक हैं जो अपने आग्रहों के नाते इस बात को नहीं मानते। वे दलित रचना उसे मानते हैं जिसकी अंतर्वस्तु दलित जीवन संदर्भों वाली हो, और दलितों के पक्ष में हो। तर्क की जमीन पर दूसरी बात संगत है, परन्तु दलित लेखक उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। रोटी की पहचान उसकी अंतर्वस्तु और उसका स्वाद है ना कि उसे किसने बनाया है? मैंने अपने कुछ दलित लेखक मित्रों के सामने सवाल रखा कि मैं आपको दलित जीवन संदर्भों की चार रचनाएँ देता हूँ।
आप बताएँ कि उनमें से कौन-सी रचना दलित आकांक्षाओं की रचना है? मैं रचनाकारों के नाम नहीं बताऊँगा। आपके द्वारा चुनी गयी रचना यदि गैर-दलित रचनाकार की हुई तो क्या आप अपने पुराने आग्रह को छोड़ने को तैयार होंगे? उनके पास मेरी बात का कोई उत्तर नहीं था। तर्क की जमीन पर ओम प्रकाश वाल्मीकि लिखकर मुझसे स्वीकार करते हैं कि रचना की पहचान का मापदण्ड उसकी अंतर्वस्तु है, परन्तु विमर्श में फिर से अपनी मूलवती जिद पर आ जाते हैं।दलित लेखक तर्क देते हैं कि जिस स्वानुभूति में दलित गुजरता है वह गैर-दलित को हो ही नहीं सकती। जो भोगता है वही जानता है। इस तर्क में दम है। मैं मान चुका हूँ कि आपबीती का कोई विकल्प नहीं होता।
दलित जिस यातना के अनुभव से गुजरे हैं, प्रेमचन्द, जगदीश चन्द्र या दूसरे जिन गैर-दलित लेखकों ने दलितों पर लिखा है, सचमुच उस यातना का वैसा अनुभव नहीं कर सकते। परन्तु यह स्थिति अर्द्ध सत्य की ही स्थिति है। यह मानते हुए भी आपबीती का, भोगे हुए अनुभव, कोई विकल्प नहीं, रचना की एकमात्रा शर्त वह नहीं हो सकती। साहित्य को, रचना को, भोगे हुए तक ही सीमित मान लेने के हश्र हम पहले भी देख चुके हैं। भोगे हुए तक साहित्य को सीमित करना उसकी शक्ति, व्याप्ति और संभावनाओं, सबको समाप्त मान लेना है। ऐसा मानने पर संसार के बहुत उत्कृष्ट साहित्य से हमें वंचित होना पड़ेगा। तोल्सतोय काउण्ट थे परन्तु जारशाही के समय के रूस के गाँवों और किसानों के जीवन के यथार्थ को उन्होंने जिस तरह अपनी रचनाओं में उतारा लेनिन को कहना पड़ा कि रूस के गाँवों के जीवन के बारे में उन्हें सबसे प्रामाणिक जानकारी तोल्सतोय की रचनाओं से मिलती। लेनिन समाज का रूपान्तरण करना चाह रहे थे, क्रांति की अगुवाई कर रहे थे।
प्रेमचन्द ने कभी किसानी नहीं की परन्तु किसानों और गाँवों के बारे में उन्होंने जो कुछ लिखा आज भी मिसाल के तौर पर मान्य है। भोगे हुए को ही रचना की शर्त मान लेने पर दलित लेखन भी सीमित होगा। तब जिस जाति को जो दलित लेखक है वह दलित मात्रा के लिए लिखने का अधिकारी न माना जाकर मात्र अपनी जाति के अनुभव ही लिख पाएगा। रचनाकार अपने को... करके संवेदनात्मक स्तर पर जब दूसरे वर्ग से एकात्म कर लेता है वह प्रामाणिक लिख पाता है। अतएव दलित लेखक बन्धु स्वयं अपने अनुभवों के तहत रचना की सही पहचान का मापदण्ड तय करेंगे हम इसकी आशा करते हैं। चूँकि इस मुद्दे पर होने वाले विमर्श ने बहुत समय लिया है और आज भी वह विमर्श के केन्द्र में हैं इसी नाते मैंने उसे गैर जरूरी मानते हुए जरूरी मद्दों पर संवाद की गुजारिश की है। इससे कुछ बनता बिगड़ता भी नहीं है कि कौन लेखक दलित लेखक है या कौन सी रचना दलित रचना है, पाठक जब भी रचना से मुखातिब होंगे, वे उसकी अंतर्वस्तु से उपजे प्रभाव के तहत ही रचना या रचनाकार पर अपना निर्णय देंगे।बहुत विवादास्पद मुद्दा है वर्ण और वर्ग का, जिसे लेकर लंबे समय से विमर्श चल रहा है।
दलित लेखक वर्ण के यथार्थ के आगे सोचना ही नहीं चाहते, जबकि वर्ण की हकीकत को मानते हुए भी कम से कम, हमारा उनसे यही आग्रह रहा है कि वे वर्ग का बड़ी वास्तविकता को भी स्वीकार करें। स्वाभाविक है कि अपने वर्ण पर दृढ़ आग्रह के चलते लेखक मार्क्स, मार्क्सवाद और उनसे जुड़े लेखकों, विचारकों पर जो उनकी ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई में उनके साथ हैं, न केवल शक करते हैं, उन्हें अपने प्रतिस्पर्धी के रूप में भी विज्ञापित करते हैं। यह स्थिति अहेतुक है। हमने बराबर कहा है कि वर्ण का सवाल मुख्यतः भारत का अपना सवाल है, कारण वर्ण व्यवस्था, भारतीय सामाजिक संरचना की अपनी विशिष्टता है। मार्क्स का चिन्तन अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का चिन्तन है जिसके तहत समाज के इतिहास को वर्ग समाजों के इतिहास के रूप में देखा और व्याख्यायित किया गया है और उसी आधार पर उसके तहत मूलतः दो वर्गों की बात की गयी है-उत्पादन के साधनों का स्वामी वर्ग, और उन साधनों पर श्रम करने वालों का वर्ग, जिन्हें अलग तौर से शोषक और शोषित वर्गों के रूप में विज्ञापित किया जाता है। मार्क्सवाद की स्थापना है कि समाज का आर्थिक आधार बदलने के साथ सर्वहारा मुक्ति के संदर्भ में ही समाज में वर्गों का वैषम्य समाप्त होगा और शोषित वर्ग, श्रमिक वर्ग, अपने स्वत्व को पा सकेंगे। भारत की बात करें तो शोषित वर्गों की इस मुक्ति में दलितों की मुक्ति भी शामिल होगी कारण वर्ग विहीन समाज में न कोई शोषक होगा और न ही शोषित।
दलित लेखक विचारक मार्क्स की इस स्थापना को अपने संघर्ष में अप्रासंगिक और एक तरह की बाधा मानते हुए मात्रा वर्ण व्यवस्था से उपजे अन्याय तक ही अपने संघर्ष को सीमित रखना चाहते हैं। उनके लिए बाबा साहेब अम्बेडकर के चिन्तन के अलावा प्रेरणा स्रोत के रूप में दूसरा कोई विचार कोई मायने नहीं रखता। परन्तु दलित लेखक, विचारकों में भी ऐसे लोग हैं, मसलन बाबू राव बागुल, नारायन सुर्वे आदि जो मार्क्सवादी दर्शन के महत्त्व को उसकी पूरी स्वीकृति देते हुए बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों को उसके साथ जोड़कर चलने के हिमायती हैं। खुद बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी मार्क्स के चिन्तन को नहीं नकारा, अपना संघर्ष जरूर उन्होंने वर्ण वैषम्य के मुद्दे पर चलाया जो तात्कालिक परिस्थितियों में जरूरी था। हम भी चाहते हैं कि मार्क्सवाद से जुड़े लेखक, विचारक जो दलितों के साथ हैं मार्क्स के दर्शन की पूरी अहमियत के साथ भारत की अपनी विशिष्ट सामाजिक वास्तविकता के मद्देनजर वर्ण की हकीकत को भी अहम् मानते हुए वर्ग और वर्ण दोनों को अपनी निगाह के दायरे में रखें।
यह जरूरी है कारण वर्ग वैषम्य के साथ वर्ण वैषम्य भारत की अपनी खासियत है। सदियों सहस्राब्दियों से मनुष्यता का एक बड़ा हिस्सा वर्ग और वर्ण वैषम्य दोनों की सम्मिलित यातना का शिकार रहा है। दलित लेखकों के वर्ण सम्बन्धी आग्रह को भी हमें यथार्थ परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए और यदि वर्ण और वर्ग सम्बन्धी मुद्दों को लेकर दलित लेखकों में अंतर्विरोध भी है तो उन्हें समझने की कोशिश करना चाहिए।इस मुद्दे पर विचार करते हुए मेरा ध्यान कबीर की ओर गया और कबीर के यहाँ मुझे इस मुद्दे को उसकी वास्तविकता से समझने का आधार मिला। विलक्षण लगता है कि जो कबीर सामाजिक वैषम्य पर इतने कठोर प्रहार करते है आर्थिक वैषम्य को लेकर लगभग चुप हैं। चुप ही नहीं, और भी विलक्षण तब लगता है जब वे यह कहते हैं कि भगवान के यहाँ से सब एक समान आते हैं, एक ही मिट्टी से बने हैं, समाज में आकर वे स्पृश्य-अस्पृश्य बनते हैं, परन्तु जहाँ तक अमीर और गरीब का सवाल है उन्हें राम जी या प्रभु ही बनाकर भेजते हैं -
'निरधन सरधन दोनों भाई, प्रभु की लीला कहीं न जाई।'
यह कबीर का अंतर्विरोध है परन्तु हमें इसे समझना चाहिए। कबीर आखिर ऐसा क्यों करते हैं कि सामाजिक वैषम्य पर प्रहार आर्थिक वैषम्य पर चुप्पी। वे गरीबों को यह भी समझाते हैं कि वे अपनी गरीबी को लेकर परेशान न हों। भौतिक सम्पन्नता, सम्पन्नता नहीं है असली धन राम धन है।
वे रामधन पाने का प्रयास करें। वस्तुतः कबीर या आज के दलित जिस एक बात पर सारा जोर देते हैं वह उनके जिए भोगे का सच है। जिए भोगे अनुभवों के अलावा वे अन्य किसी भी अनुभव को प्रामाणिक नहीं मानते। वर्ण और वर्ग के सवाल की गुत्थी यही पर सुलझती है।आदमी को सबसे अधिक दंश तब होता है जब उसके साथ भेदभाव किया जाए। सारे संत्रास का कारण यह भेदभाव है। कबीर जानते थे कि भूख, बीमारी और दरिद्रता भेदभाव नहीं करती। भूख सबको त्रास देती है, समान त्रास, बीमारी भी सबको लगती है और अमीर-गरीब कोई भी हो सकता है। कबीर स्वतः अपने समय के तमाम सवर्णों, ब्राह्मणों की तुलना में आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न थे, कारण वे मेहनत करते थे, मेहनत की कमाई खाते थे। उन्होंने ऊँचे वर्ण के लोगों को गरीबी की मार झेलते हुए न देखा होगा और अमीरी का ठाठ करते हुए भी। उन्होंने नीचे वर्णों को भी गरीबी झेलते देखा होगा और अपेक्षाकृत सम्पन्न दलित भी उनकी निगाह में होंगे। जैसा हमने कहा उन्हें इस बिन्दु पर सवर्ण असवर्ण में कोई बुनियादी भेद नहीं दिखाई दिया जो सच भी है। परन्तु कबीर के अनुभवों में यह भी आया होगा कि दरिद्र होते हुए भी ब्राह्मण समाज में पूज्य है, सम्मानित है और सम्पन्न होते हुए भी दलित समाज में सामाजिक भेदभाव का शिकार है। जहाँ भेद है दंश वहाँ है। कबीर इस भेदभाव के खिलाफ ही उठे थे और आज के दलित लेखकों की दुखती राग यही सामाजिक भेदभाव और ऊँच-नीच का भाव है। ऊँचे से ऊँचे ओहदे पर पहुँच जाने के बावजूद दलित दलित ही रहता है सामाजिक भेदभाव का शिकार रहता है और दरिद्र से दरिद्र ब्राह्मण समाज में, भले ही भीख माँगे ब्राह्मण देवता ही माना जाता है।
दलित लेखक इसी नाते वर्ण को भी अहमियत देते हैं वर्ग को नहीं।परन्तु जैसा हमने कहा है कि वर्ग की बड़ी हकीकत को भी वे कभी न कभी समझेंगे। जिस तरह दलितों में एक नया क्लास बड़ी तेजी से उभरकर भौतिक सुविधाएँ एकत्र कर अपने मूल से कटता हुआ आम मध्यवर्गीयों की जिन्दगी जी रहा है, अपनी जाति और अपने वर्ण को छिपाकर सवर्ण जातियों से एकमेल हो रहा है, यदि इस तरह का अंतर्विरोध तीव्र हुआ जैसा कि उसके होने की संभावनाएँ हैं, (अनेक दलित लेखकों ने अपनी कहानियों में इस स्थिति को चित्रित किया है और वे इसके प्रति जागरूक भी हैं) तो वह दिन दूर नहीं जब दलित समझेंगे कि वर्ण से ज्यादा बड़ी हकीकत वर्ग है। वर्ग-स्वार्थ सवर्ण-असर्वण दोनों को एक ही कहेंगे सम्पन्नों को भी और दरिद्रों को भी, तभी सही-वर्ग चेतना का रूप सामने आयेगा, जिसकी चर्चा मार्क्स ने की है।कहना न होगा कि दलित लेखक, ब्राह्मणवाद, मनुवाद या वर्गगत भेदभाव के खिलाफ कितनी भी आवाज क्यों न उठायें, मनुवादी-ब्राह्मणवादी, वर्णवादी सोच ने किस तरह उनके अपने मानस को जकड़ रखा है, क्लेश होता है यह कहते कि उनके अपने लेखन, सामाजिक व्यवहार और विचारों में इसके साक्ष्य हैं। आज तो दलित लेखक खुलकर एक दूसरे के विरोध में खड़े दिखाई दे रहे हैं।
हम इस स्थिति को अहेतुक मानते हैं। दलित चेतन और दलित साहित्य का जो आन्दोलन वर्णगत तथा सामाजिक भेदभाव को लेकर चला, जिसकी प्रेरणा के स्रोत ज्योतिबा फुले तथा बाबा साहेब अम्बेडकर का अपना सामाजिक चिन्तन है, जिन्होंने आजीवन भेदभाव और सामाजिक विसंगतियों पर चोट की, वह चेतना और वह आन्दोलन यदि अपने ही लक्ष्य से भटकने लगें, व्यवहार तथा लेखन में उसी भेदभाव का शिकार हो जाए, जिसके खिलाफ वह सामने आया, तो हमे क्लेशप्रद और अहेतुक और अवांछित ही माना जाएगा। अपने कुछ एक पहले के आलेखों में मैंने दलित मानस और दलित लेखन के इस अंतर्विरोध की ओर संकेत किया है परन्तु किसी भी दलित लेखक ने इस सवाल से टकराने की जरूरत नहीं समझी। दलित चेतना और दलित साहित्य के लक्ष्यों से अपनी एकात्मता के नाते मैं यह प्रश्न पुनः इस नाते उठा रहा हूँ कि दलित लेखक उसे अपनी चिन्ता के दायरे में लाएं और अपने लक्ष्यों को विपथित होने से बचाएँ। यह वह अंतर्विरोध है जो उनके लेखन और उससे जुडे उनके संकल्पों को हर स्तर पर क्षतिग्रस्त करने वाला है।
कभी सूरजपाल चौहान की आत्मकथा के कुछ अंश पढ़े थे। अब तो वह आत्मकथा प्रकाशित हो चुकी है। पहली बार पता चला था कि दलित लेखकों के अपने मानस में किस तरह वर्णवाद के घातक प्रभाव मौजूद हैं। सूरजपाल चौहान दलितों में भी दलित (भंगी) जाति से सम्बन्ध रखते हैं। उन्होंने लिखा है कि जब तक उनके दूसरे दलित लेखक मित्रों को उनकी वास्तविक जाति का भान नहीं था। वे उनके साथ उठते बैठते थे खाते-पीते थे, परन्तु जिस क्षण उन्हें पता चला कि सूरजपाल चौहान का सम्बन्ध भंगी जाति से है वे उनके साथ उठने-बैठने, खाने-पीने से परहेज करने लगे। सूरजपाल चौहान ने स्वतः दलित लेखकों पर मनुवादी होने का आरोप लगाया है, खासतौर पर भंगी जाति के प्रति उन दलित लेखकों के व्यवहार पर तीखी टिप्पणियां की हैं जो दलितों में जाटव या चमार कही जाने वाली जाति से सम्बन्ध रखते हैं और अपने को भंगी जाति से ऊँचा मानते हैं और उसके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं जो सवर्णों का व्यवहार है और तो और ऊँच-नीच का उनका भाव यहाँ तक है कि खटिक कही जाने वाली जाति में बकर खटिक अपने को सुअर खटीक से ऊँचा मानता है। बहुत ही कष्टदायक है यह सब लिखना और इस अहसास के साथ लिखना कि जो लोग मनुवाद के खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाए हैं वे किस कदर इस मनुवाद की गिरफ्त में हैं।
अभी समय माजरा पत्रिका में किन्हीं रतन कुमार सांभरिया का आलेख छपा है। उसमें विस्तार से दलितों के इस मनुवाद पर और उनकी चेतना पर इस अंतर्विरोध पर प्रकाश डाला गया है। इस लेखक के अनुसार हिन्दी का सारा दलित साहित्य आन्दोलन वस्तुतः दो दलित जातियों के बीच होने वाली अंतर्कलह के चलते विपथित हो रहा है। एक तरफ जाटव हैं दूसरी ओर भंगी कहे जाने वाले दलित लेखक पहले वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं - मोहनदास नैमिशराय, डॉ० जय प्रकाश कर्दम, श्यौराज सिंह बेचैन और डॉ० एन० सिंह और दूसरे वर्ग के प्रतिनिधि हैं ओम प्रकाश वाल्मीकि, सूरजपाल चौहान, महेन्द्र बेनीवाल। ये सब दलित साहित्य के जाने माने लेखक हैं जिनकी रचनाओं और विचारों ने दलित आन्दोलन को हिन्दी में अपनी पहचान दी है। अब जब इन्हीं लोगों के बीच में इस तरह की खेमे बंदी हो तो दलित साहित्य के भविष्य के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। जो सवर्ण मानसिकता आरम्भ से ही न तो दलित चेतना के उभार के साथ और ना ही दलित साहित्य की विकासशील दिशाओं से अपना सामंजस्य बिठा पाई है उसके लिए तो दलित लेखकों के बीच का यह संघर्ष और उनके अपने कथन और कर्म का यह अंतर्विरोध एक ऐसा हथियार है जो वह चाह ही रही थी और विडंबना यह कि यह हथियार उसे स्वतः दलित लेखकों ने ही दिया हैं।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि दलित लेखकों के बीच विस्तार के और आचरण के स्तर पर ही नहीं रचनात्मक स्तर पर भी यह युद्ध चल रहा है। ओम प्रकाश वाल्मीकि की 'शवयात्रा' कहानी के जवाब में दलित लेखकों की ओर से ही दूसरी कहानी आती है, उनकी 'खानाबदोश' कहानी का जवाब 'और वह पढ़ गई' जैसी कहानी में कुसुम वियोगी की ओर से दिया जाता है। एक पर चमार जाति को अपमानित और गलत तरीके से पेश करने का आरोप लगाया जाता है तो दूसरे पर भंगी जाति को बेआबरू करने का। एक की आत्मकथा से आए प्रसंगों का जवाब दूसरा अपनी आत्मकथा में देता है। महाराष्ट्र के दलित साहित्य में भी ये असंगतियां रही हैं। महारों और मातंगों के अपने-अपने जीवन संदर्भों को लेकर जहां महार अपने को मातंगों से ऊँचा मानते हुए उनके साथ वही व्यवहार करते हैं जो सवर्ण दलित के साथ करते हैं। डॉ० सूर्य नारायन रणसुंभे ने भी इस स्थिति को अहेतुक मानते हुए लिखा है कि दलितों में अपनी ऊँची अस्मिता का मोह इस कदर व्याप्त हो रहा है कि वे दलित युवतियों से विवाह न कर ब्राह्मण कन्याओं से विवाह करने की कोशिश में रहते हैं। उनके अनुसार महाराष्ट्र में ऐसे ही लोगों को दलित ब्राह्मण कहकर याद किया जाता है।मैं वस्तुस्थिति को अतिरंजित करके पेश नहीं करना चाहता, परन्तु वस्तुतः वह जैसी है वह नितांत अहेतुक और क्लेशप्रद है।
दलित लेखकों को जो सामाजिक समता की लड़ाई लड़ रहे हैं विचार, व्यवहार और रचना के स्तर से जागरूक हों इस मानसिकता से मुक्त हो, यह उम्मीद तो उनसे की ही जा सकती है अन्यथा उनके अपने लेखन और आन्दोलन की ऊर्जा का क्षय निश्चित है।एक ओर तो यह वस्तुस्थिति है दूसरी ओर दलित साहित्य के अपने सौन्दर्यशास्त्र की बात भी जोरों से उठ रही है। मराठी में शरण कुमार निम्बाले की दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है जिसका अनुवाद दलित साहित्य के प्रति समर्पित श्रीमती रमणिका गुप्ता ने किया है। हिन्दी में ओम प्रकाश वाल्मीकि अपनी इसी शीर्षक की पुस्तक के साथ सामने आए हैं। मैंने शरण कुमार निम्बाले की पुस्तक नहीं देखी है परन्तु जो कुछ उसके बारे में जाना है वह यह कि प्रगतिशील विचारों के होने के नाते निम्बाले ने बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों को प्रमुखता देते हुए भी मार्क्स के दर्शन को भी अपनी निगाह के दायरे में रखा है और उससे भी आवश्यक संबंध लेने की बात कही है। उन्होंने पश्चिम के अश्वेत साहित्य के संदर्भ में लिए हैं। उनके लेखन और विचारों का पाठ व्यापक और विस्तृत प्रतीत होता है और लगता है कि वे बहुत सुविचारित रूप से दलित साहित्य के सौन्दर्य शास्त्र का प्रारूप लेकर सामने आए हैं।
ओम प्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक मैंने पढ़ी है। वे समर्थ दलित रचनाकार हैं जिन्होंने अपने 'सलाम' कहानी संकलन तथा दूसरी कहानियों के जरिए अपने कहानीकार की बड़ी भावनापूर्ण छवि पेश की है। वे समय-समय पर दलित साहित्य से जुड़े मुद्दों पर लेख भी लिखते रहे हैं और उनके लेखों में एक संजीदा दलित विचारक के रूप में पहचान भी हमें मिलती रही है। उनकी 'दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र' पुस्तक वस्तुतः दलित लेखन से जुड़े मुद्दों का समय-समय पर उनके द्वारा लिखे गये आलेखों का संकलन है जिनमें उन्होंने दलित साहित्य की अवधारण से लेकर उसकी प्रासंगिकता, सामाजिक प्रतिबद्धता, उसके स्वरूप, उसकी वैचारिक अंतर्वस्तु और उसकी भाषा तथा रचना शैली आदि पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। पुस्तक का एक निबन्ध दलित साहित्य के सौन्दर्य शास्त्र पर भी हैं जिसके आधार पर पुस्तक का शीर्षक रखा गया है। परन्तु निम्बाले के विपरीत ओम प्रकाश वाल्मीकि पूरी तरह से अम्बेडकर जी के विचारों पर ही आधारित हैं और महज नामवर सिंह के कभी दलित साहित्य पर व्यक्त विचारों को लेकर उन्होंने पूरी मार्क्सवादी दर्शन को खारिज करने की कोशिश की है, इस शीर्षक के साथ कि क्या मार्क्सवाद कभी इन सवालों से टकराएगा? इस प्रकार के निष्कर्ष और विचार जाहिर हैं कि हड़बड़ी में व्यक्त किये गये विचार हैं जिनसे बचने की जरूरत हैं। मार्क्सवाद को खाजिर करने के लिए उन्हें समग्रता में मार्क्सवादी दर्शन पर गौर करना चाहिए था ना कि किसी प्रसंग में किसी मार्क्सवादी लेखक के विचारों को मुद्दा बनाकर पूरे के पूरे मार्क्सवादी दर्शन को खारिज करना। बहरहाल, जो बात मैं कहना चाहता हूँ वह यह कि सौन्दर्यशास्त्र जैसे मुद्दे पर बात गंभीरता से होनी चाहिए। प्रतिक्रिया मृतक आवेश के तहत नहीं।जो भी सौन्दर्यशास्त्र आना चाहिए वह दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र हो, ना कि हिन्दी या मराठी या किसी अन्य भाषा के दलित साहित्य का। इसके लिए दलित लेखकों को आम सहमति बनानी चाहिए। अन्यथा अराजकता की स्थिति ही उत्पन्न होगी। जब दलित लेखकों ने शास्त्र के अनुशासन को मान ही लिया है तो जो भी शास्त्र आए वह शास्त्र के अनुशासन का पालन करने वाला हो। सौन्दर्यशास्त्र रचना के सौन्दर्य का शास्त्र होता है उसका तर्क शास्त्र नहीं। अर्थात् ये मुद्दे कि दलित साहित्य क्या है, उसकी प्रासंगिकता क्या है, आदि सौन्दर्यशास्त्र के मुद्दे नहीं हैं। सौन्दर्य शास्त्र रचना की निर्मिति, ग्रहण और उसे मूल्य देने का शास्त्र होता है। उसके लिए एकाग्रता, सुविचारित तथ्य जरूरी होते हैं।
वह जीवन की, साहित्य की समग्रता को समेटने वाला शास्त्र होता है। उसके पीछे जो सर्जना होती है उसमें इतना वैविध्य होना चाहिए कि वह एक समग्र और संश्लिष्ट सौन्दर्यशास्त्र का आधार बन सके। मराठी की तुलना में अभी हिन्दी का दलित साहित्य बहुत समृद्ध नहीं है। कुछ आत्म कथाएँ हैं जो मराठी दलित आत्मकथाओं की तरह का सघन प्रभाव नहीं छोड़ती। कहानियाँ हैं और निश्चय ही उनमें उत्कृष्ट कहानियां भी हैं। कविता भी बहुत कम है और वह भी बहुत स्तरीय नहीं हैं। आवेशजन्य प्रतिक्रियाएँ कविता नहीं बनातीं। प्रगतिशील आन्दोलन के आरम्भिक दौर में ऐसी तमाम रचनाएँ सामने आयीं थीं जिनमें तत्त्व कम था झाग बहुत। शब्दों के जरिए पूँजीवाद को ध्वस्त कर दिया गया था, क्रांति भी सम्पन्न कर ली गई थी परन्तु वास्तविक जीवन में सब कुछ पहले जैसा ही विद्यमान था। ऐसी रचनाओं का क्या हश्र हुआ हम जानते हैं। वहीं रचनाएँ प्रगतिशील सर्जना का मानक बनीं जिनमें सामाजिक यथार्थ के मद्देनजर जिन्दगी को देखा था, हार गया था, जनता के जीवन के सजीव बिम्ब थे और जिन्दगी की विषमताओं विसंगतियों की खरी पहचान। दलित लेखकों को प्रगतिशील आन्दोलन के इतिहास से सीखना चाहिए। अपनी रचना में दलित जीवन के यथार्थ को वस्तुगत यथार्थ को उभारना चाहिए मनोकांक्षाओं को नहीं। दलितों के अपने स्वप्न तथा संघर्ष उनकी मनोकांक्षाओं के बिम्ब आने चाहिए।इस नाते की कविता बयान या वक्तव्य नहीं होती। अभी दलित साहित्य अतीत के समाजेतिहास से ही जुड़ा हुआ है। अतीत का यह 'हैंग ओवर' शनैः शनैः समाप्त होना चाहिए और दलित लेखकों की अपने वर्तमान और भविष्य की उन सम्भवनाओं को देखना चाहिए जो उनके वर्तमान का तार्किक प्रतिफल होंगी। बहुआयामी बहुविध रचनाशीलता के बिना जो भी सौन्दर्यशास्त्र आएगा वह अधूरा होगा।दलित लेखन में संभावनाएं हैं, प्रतिभाएं हैं, जीते-जागते अनुभव हैं, स्वानुभूति की बंधक पूँजी है। उसका उपयोग भी दलित लेखकों ने किया है।
जरूरत पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर, प्रतिक्रियामूलक आवेश से बचते हुए, इस पूँजी का ऐसा उपयोग करने की है कि दलित सर्जना चली आ रही परंपरित सर्जना से अलग अपने वैशिष्ट्य में पहचानी जा सके। पारम्परिक रागद्वेष, अंतर्कलह और अंतर्विरोध, कोरी प्रतिक्रिया और रोमानी जोश किसी भी सर्जना को क्षतिग्रस्त करता है। दलित लेखक समझें कि उनका लेखन उदीयमान संभावनाओं वाला लेखन है। इसके पहले कि वह अपने चरम वैशिष्ट्य पर पहुँचे, उसे क्षरित नहीं होना चाहिए। ये नसीहतें नहीं हैं, सच्चे मन से किया जाने वाला अनुरोध है, जिसे निश्छल मन से स्वीकार करने की जरूरत है। जो भी गैर-दलित अपने गहरे मानवीय सरोकारों के तहत दलित लेखन से विचारगत और रागात्मक संबंध रखते हैं, उन्हें मित्र-लेखक मानते हुए उनके कर्तृत्व को देखा जाए, पूर्वाग्रह पूर्ण मानसिकता से नहीं। हम पहले भी कह चुके हैं कि व्यवस्था बड़ी जटिल है, हजार बाहों वाली है। उससे अकेले नहीं लड़ा जा सकता। हजारों सालों की सामाजिक संरचना को आनन-फानन नहीं बदला जा सकता। कहानियों, कविताओं और उपन्यासों में क्रांति कर लेने से वास्तविक जीवन में क्रांति नहीं हो जाएगी। जिन्दगी की वास्तविकता को ही आधार बनाकर सोच को आगे बढ़ाया जा सकता है। यदि दलित लेखक अकेले ही अपनी लड़ाई लड़ना चाहते हों, तो यह और बात है। हमारी शुभकामनाएं उनके साथ हैं परन्तु मैंने पहले भी कहा है कि यदि वे अपनी लड़ाई जीतना चाहते हैं तो उन्हें समान सरोकारों के अपने उन साथियों को लेकर चलना होगा जो भले ही गैर दलित हों, उनकी लड़ाई में उनके साथ हैं।
ऊपर हमने जो कुछ लिखा है, दलित साहित्य के लक्ष्यों से अपने लगाव के नाते, उसकी सर्जनात्मक और विचारगत उपलब्धियों के प्रति पूरी तरह सजग रहते हुए, नकारात्मक या कुछ अप्रिय टिप्पणियाँ यदि हमने की हैं तो इसी नाते कि हम चाहते हैं कि दलित लेखन अपनी संभावनाओं के साथ आए, साहित्य की चली आ रही परम्परा में कुछ नया और विशिष्ट जोडे, अपनी पहचान को गाढ़ा करें। हिन्दी में दलित साहित्य का आन्दोलन बहुत पुराना नहीं है, और अल्प अवधि में भी उसने अपनी छाप बड़े पाठक वर्ग के बीच छोड़ी है। आत्मकथाएं मराठी की तुलना में कम हैं और अभी दया पवार या लक्ष्मण माने जैसे लेखकों की अपनी आत्मकथाओं की तुलना में प्रभाव सघनता की दृष्टि से भले ही कुछ कमतर लगती हो, परन्तु जो है उनमें व्यक्त अनुभव जीते जागते अनुभव हैं। एक तल्ख सच्चाई को उजागर करने वाले हैं, जिसे अनदेखा किया जाता रहा है। पहली बार वे अनुभव हमारे सामने भोक्ताओं के जिए भोगे के साक्ष्य के रूप में सामने आए हैं। कहानियाँ हम कह चुके हैं, दलित लेखकों की बड़ी उपलब्धि के रूप में सामने आएं हैं। अछूते अनुभवों वाली ये कहानियां इस नाते मार्मिक हैं कि उनमें भी रचनाकारों ने अपनी जी हुई और भोगी हुई वास्तविकता को ही अभिव्यक्त किया है, बिना किसी छद्म के। कविताएं भी बहुत लिखी गयी हैं परन्तु उनमें अभी वैसी परिपक्वता नहीं है जैसे कहानियों में। कविता बहुत महीन विधा है। परन्तु दलित रचनाकार कविता की प्रकृति और वैशिष्ट्य को पहचानेंगे और कविता के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय उपलब्धियों के साथ सामने आयेंगे। जो कविताएं आई हैं उनमें ऐसी कविताएं भी हैं जो हमारी इस आशा को बल देती हैं। जहां तक विचार प्रधान गद्य की बात है, दलित लेखकों में ऐसे विचारक समीक्षक हैं जिनके पास दृष्टि भी है और विचार भी। थोड़े समय में ही दलित विचारकों की एक पंक्ति की पंक्ति सामने आई है। छिटपुट अपवादों को छोड़ दें और आग्रहों-पूर्वाग्रहों के चलते जो कुछ विसंगतियां आई हैं उन्हें छोड़ दें, तो अधिकांशतः दलित विचारकों ने अपनी बातें तर्क और तथ्य की जमीन पर ही की है। उनके आलेखों ने चल रहे विमर्श को पैना किया है उसे गतिशील बनाया है। सहज ही कहा जा सकता है कि दलित साहित्य अभी उठान पर है और उसकी संभावनाओं के प्रति हम आश्वस्त हैं।