दलित स्त्री आंदोलन तथा साहित्य- अस्मितावाद से आगे-1 / बजरंग बिहारी तिवारी
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बजरंग बिहारी तिवारी
बेबी कांबले ने खुद को अम्बेडकरी आन्दोलन का उत्पाद कहा है। ऐसी तमाम दलित स्त्रियों ने अनगिनत खतरे उठाकर इस आन्दोलन में भागीदारी की, उसे आगे बढ़ाया। यह बिडम्बना ही कही जाएगी कि आन्दोलन दलित स्त्रियों के प्रति पर्याप्त संवेदनशील नहीं हो पाया। आन्दोलन की कार्यसूची में दलित स्त्रियों के अपने मुद्दे उच्च प्राथमिकता पाने से वंचित रहे।
तमिलनाडु में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका गैब्रियल डीट्रिख ने अपने एक लेख में दलित आन्दोलन और महिला आन्दोलन के अंतस्संबंध को समझाने के क्रम में कई घटनाओं काउल्लेख किया है। इसमें दो-एक का जिक्र यहाँ बानगी के तौर पर किया जा सकता है। पहली घटना दलित बहुल जिला उत्तरी आरकोट के अरक्कोणम की है। परैयार जाति के भूमिहीन कृषि मजदूरों के बीच काम करने वाले यहाँ तीन महत्वपूर्ण संगठन हैं-अम्बेडकर मंत्रम्, रूरल वीमेंस लिब्रेशन मूवमेंट (आर डब्ल्यू एल एम) और भूमिहीन श्रमिक आंदोलन (एल एल एम) मजदूरी, बिजली,पानी और ज़मीन जैसे मुद्दे आर डब्ल्यूएल एम और एल एल एम उठाते हैं और अक्सर मिलकर काम करते हैं। लेकिन कुछ स्थानीय मुद्दों तथा अम्बेडकर जयंती जैसे समारोहों को वे अम्बेडकर मंत्रम् से जुड़कर मनाते हैं। 20 अप्रैल 1990 को यहाँ कला नामक पचीस वर्षीया युवती ने ट्रेन के आगे कूदकर अपनी जान दे दी। कला तीन बच्चों की माँ थी। सूचना मिलने पर आर डब्ल्यू एल एम के कार्यकर्ता कला के माता-पिता से मिले। बेटी की लाश दिखाने के लिए उन्हें अस्पताल भी ले गए। प्रारंभिक खोजबीन से उन्हें पता चला कि कला के पति के विवाहेतर संबंध थे और वह अपनी पत्नी को लगातार उत्पीड़ित कर रहा था। कला के माँ-बाप इस घटना की गवाही देने को तैयार थे। चूंकि परिवार दलित (परैयार) था इसलिए अम्बेडकर मंत्रम् के कार्यकर्ता भी अस्पताल पहुँचे। ग्राम प्रधान पेशे से वकील और अम्बेडकर मंत्रम् का कानूनी सलाहकार था। उसने कला के माँ-पिता पर दबाव डाला कि वे बयान दें कि कला बहरी थी और मानसिक रोगी तथा उसकी मृत्यु के लिए कोई अन्य जिम्मेदार नहीं है। पोस्टमार्टम की रिर्पोट बेनतीजा रहीं । आर डब्ल्यू एल एम चाहता था कि आत्महत्या के लिए उकसाने वाला केस दर्ज हो। अम्बेडकर मंत्रम् पति के पक्ष में था। प्रधान पर दबाव डालकर पंचायत बुलायी गयी। पंचायत ने कला के पति को सभी आरोपों से बरी कर दिया। अम्बेडकर मंत्रम् के सहयोग से लाश का अंतिम संस्कार कर दिया गया। आर डब्ल्यू एल एम ने इसकी सार्वजनिक भर्त्सना की। अम्बेडकर मंत्रम् तथा ग्राम प्रधान ने आर डब्ल्यू एल एम के घेराव के विरोध में मार्च निकाला और दबाव बनाया कि आर डब्ल्यू एल एम इस केस से हट जाए। आर डब्ल्यू एल एम का तर्क था कि दलित उत्पीड़न पर सक्रिय होने वाला अम्बेडकर मंत्रम् एक दलित स्त्री को पति द्वारा आत्महत्या पर मजबूर किए जाने के सिर्फ अनदेखा ही नहीं कर रहा है, वह आरोपी की हर तरह से सहायता भी कर रहा है। आखिरकार कला की आत्महत्या का मुकद्दमा चल नहीं पाया।
दूसरी घटना भी इसी जिले की है। श्रीलंका से आए एक परिवार की तीन साल की बच्ची के साथ बलात्कार हुआ। बलात्कारी पड़ोसी दलित युवक था। घटना 7 जुलाई 1990 की है। बच्ची के परिवार के पास बलात्कार के ठोस साक्ष्य थे, फिर भी पीड़िता का मेडिकल परीक्षण नहीं हो सका। अम्बेडकर मंत्रम् ने आनन-फानन में पंचायत बुलायी और आरोपी पर ढाई सौ रूपये का जुर्माना लगाकर मामला रफा-दफा करना चाहा। आर डब्ल्यू एल एम ने जब आरोपी को तलब किया तो अम्बेडकर मंत्रम् के कार्यकर्ताओं ने बलात्कारी का साथ देते हुए आर डब्ल्यू एल एम को यह केस अपने हाथ में लेने से रोका। बड़ी कहा-सुनी के बाद उन्होंने आर डब्ल्यू एल एम की महिला कार्यकर्ताओं को थाने में खबर करने की मोहलत दी। 14 जुलाई को पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए सभा बुलायी गयी। डीट्रिख बताती हैं कि अम्बेडकर मंत्रम् से अलग हुए एक गुट ने न्याय मांगने वालों को समर्थन दिया। (20), अम्बेडकर मंत्रम् पुरूष-बहुल संगठन है।
ऐसे तमाम प्रसंग हैं जिनके आधार पर यह बेहिचक कहा जा सकता है कि न्याय और अस्मितावाद के बीच द्वन्द्व की स्थिति पैदा होने पर दलित स्त्रियों तथा उनके संगठनों ने न्याय का पक्ष लिया है। पहचान की राजनीति बराबरी, आजादी और इंसाफ को परममूल्य मानकर नहीं की जा सकती। अपना दायरा बढ़ाने के लिए इन शब्दों को अलंकरण की तरह इस्तेमाल अवश्य किया जाता है। लेकिन, निर्णायक अवसरों पर इन मूल्यों को स्थगित किए जाते हुए देखा जा सकता है। दलित स्त्रियों का संघर्ष मानवाधिकारों के लिए है। मानवाधिकारों की लड़ाई बुनियादपरस्त नहीं लड़ सकते। मानवाधिकारों की सच्ची चिंता अस्मितावादियों के अजेंडे में नहीं आ सकती। अतीत के स्वर्णिम बोझ से दबा मूलनिवासी आंदोलन भी मानवाधिकारो का पैरोकार नहीं हो सकता। दलित स्त्रियां इसी अर्थ में इन सबसे भिन्न हैं। तमिल की प्रख्यात दलित लेखिका एस. तेनमोषी अपने एक निबंध में इसीलिए बड़ी व्यथा से कहती हैं- ‘इस युद्धभूमि मे दलित स्त्रियां बिल्कुल तनहा हैं, एकदम मित्ररहित। उन्हें इस संघर्ष को इसीलिए सावधानी, आत्म-चेतनता तथा उत्कटता से लेना है।’(21), तेनमोष़ी का मानना है कि ‘अगर वे (दलित स्त्रियां) इस स्थिति को इतिहास के अभिशाप के रूप में नहीं अपितु सुअवसर के रूप में लेंगी तो स्थिति-परिवर्तन नामुमकिन नहीं हैं। (22), इसी निबंध में लेखिका ने यह भी कहा है कि तीव्र जातिगत (रेशियल) उत्पीड़न के समय हम (दलित पुरूषों से) अपने विचार वैभिन्य को पीछे रख देती हैं कुछ वैसे ही पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष में हमारा ग़ैरदलित स्त्रियों के साथ एका बन सकती है। (23),
पारंपरिक वर्चस्ववादियों और दलित अस्मितावादियों में अपने-अपने ढंग से प्रयास किया कि दलित स्त्रीवाद का नारीवादी आन्दोलन से दूरी ही न बनी रहे बल्कि उनके बीच अविश्वास भी बढ़े। जाति में गुंथी पितृसत्ता की उपेक्षा करके,उसके खिलाफ मुकम्मल लड़ाई न छेड़कर स्वयं नारीवादी आन्दोलन ने इस दूरी को बरकरार रखने में जाने-अनजाने सहयोग किया। लेकिन, जल्दी ही दोनों आन्दोलनों को यह बात समझ में आ गयी कि अवसर-विशेष में उनके बीच पनपी पारस्परिकता और समर्थन सार्थक नतीजों का ओर ले जा सकते हैं। नारीवादी संगठनों नें दलित स्त्रीवाद के सामान्य नारीवाद में विलय की कोई मांग न उठाकर आपसी भरोसे की नींव ही मजबूत’ की। दलित लेखिकाओं की रचनाएं इस बात की गवाही देती हैं कि उन्होंने सीखने-सिखाने और संवाद के दरवाज़े कभी बंद नहीं किए। दलित स्त्री आन्दोलन का आकलन करते हुए विमल थोरात ने लिखा है-‘वह स्त्री पुरूष संबंधों की समतावादी व्याख्या करने के साथ ही, दलित स्त्री के तिहरे शोषण की त्रासदी की अभिव्यक्ति द्वारा दलित स्त्री के प्रति नारीमुक्ति आन्दोलन के संकीर्ण मध्यवर्गीय नजरिए को भी कुछ हद तक बदलने में कामयाब हो रही है। व्यक्ति पहचान के संघर्ष में स्त्री अस्मिता का प्रश्न लेकर साझे समतावादी आन्दोलन में भी वह शामिल हुई है।’(24), कुछ ऐसा ही रजनी तिलक का भी मानना है। वे दलित और स्त्रीआन्दोलन में दलित स्त्रियों की भागीदारी को रेखांकित करते हुए यह भी जोड़ती हैं दलित आन्दोलनमें ‘पितृसत्ता का विद्रूप चेहरा’ तथा स्त्री आन्दोलन में ‘जाति व्यवस्था का विकृत रूप’ पाकर दलित स्त्रियों ने अपने को अलग से संगठित किया। (25), तेलुगु दलित लेखिका नामबूरि परिपूर्णा की कहानी ‘प्रेरणा’ परिवार के ढांचे में ‘पति’ संस्था की क्रूरता दर्शाते हुए सवर्ण और दलित स्त्री के दुख की समानता का बयान करती है। मस्तनम्मा विमला के यहाँ नौकरानी है। विमला औऱ उसका पति प्रसाद जिला परिषद में नौकरी करते हैं। मस्तनम्मा का पति कोटी रिक्शा चलाता है। प्रसाद और कोटी दोनों ही घर की जिम्मेदारियों के प्रति बेपरवाह। अपनी सारी कमाई पीने-पिलाने पर उड़ाने वाले। पत्नी के प्रति हिंसक भी। मस्तनम्मा रोज-रोज की पिटाई से तंग आकर एक दिन अपने पति पर हाथ उठाती है। इधर घरेलू हिंसा से त्रस्त विमला भी मस्तनम्मा से प्रेरणा लेकर कानूनी सलाह केन्द्र का रूख करती है। (26), बानगी के तौर पर उद्धृत की गई यह कहानी प्राय: सभी भाषाओं में मिल सकती है। ध्यान देने की बात है कि इस ढर्रे की कहानियों में प्रेरणा स्रोत दलित स्त्रियां है। उनकी संघर्ष क्षमता और विकट प्रतिकूलताओं में जिन्दा रहने की कूवत ही उन्हें प्रेरणा केन्द्र बनाती है।
दलित स्त्रीवादी आन्दोलन का जन्म भले ही अस्मितावाद की जमीन पर हुआ मगर जल्दी ही इस आन्दोलन ने अपने को अस्मितावाद की अनुदार चौहद्दी से मुक्त कर लिया। अस्मितावाद उत्तर आधुनिकता की कोख से पैदा हुआ माना जाता है। उत्तर आधुनिकता की जो धारा आधुनिकता के प्रबल विरोध में फूटी है उसी की सिचांई से अस्मितावाद की फसल पली-बढ़ी है। अस्मितावादी बहस को ‘विमर्श’ कहा जाता है। इस विमर्श की परिभाषा है- एकल पहचान की बहिर्गामी, एकोन्मुखी और उदग्र पैरोकारी। अन्य पहचानों के प्रति गहरा शक इसके मूल में है। यह विमर्श अपारदर्शी होता है। ‘ऐतिहासिक अनुभव’ इसे खुलेपन की ओर, पारदर्शिता की तरफ जाने से रोकते हैं। ‘पीड़ा’ पर बोलने का अधिकार पीड़ित को है। पीड़ा के खिलाफ संघर्ष चलाने का अधिकार भी उसी को है। अस्मितावाद के एक समर्थ प्रवक्ता गोपाल गुरू हैं। पीछे हमने चर्चा की कि दलित स्त्रियों पर ग़ैरदलित स्त्रियों के लेखन को वे ‘कम वैध और कम प्रामाणिक’ मानते हैं। इस कथन के अर्थ बोध की प्रक्रिया में ‘कम’ विशेषण का विलोपन लेखक का अभीष्ट है। विमर्श के अध्येताओं को यह बताने की ज़रूरत नहीं। अन्यत्र गोपाल गुरू ने यह प्रतिपादित किया कि दलितों के अनुभवों पर सिद्धांत निर्माण का अधिकार मात्र भुक्तभोगियों को है। इतनी छूट उन्होंने अवश्य दी कि ग़ैरदलितदलित-अनुभवों को मात्र पढ़ने-सुनने के हकदार हैं। (27), लेकिन, यह कैसे हो सकता है कि पढ़ने की छूट मिले और राय बनाने पर प्रतिबंध हो। इस सिद्धांत को स्वीकार लिए जाने पर कई बिडम्बनाएं पैदा होंगी । दर्शनशास्त्री सुंदर सरूक्काइ ने इनका वाजिब संज्ञान लिया है। अब यह महत्वपूर्ण बहस पुस्तक रूप में उपलब्ध है। (28), शायद इस सिद्धांत में निष्ठा के चलते ही ‘अवमानना’ (ह्युमिलिएशन) पर संपादित अपनी मूल्यवान पुस्तक में गोपाल गुरू ने दलित स्त्री की स्थिति को विचार के बाहर रखा है। यह कहने की ज़रूरत नहीं की जाति और पितृसत्ता के दो पाटों में पिसती दलित स्त्री अवमानना के स्थूल व सूक्ष्म अध्ययन का अपरिहार्य संदर्भ बनती है।(29)
दलित स्त्रीवाद उत्तर अस्मितावादी विचार व आन्दोलन है। आधुनिकता की ओर पीठ किए हुए नहीं, उससे संवाद करता हुआ, मानव-मुक्ति के उसके विश्वास में साझा करता हुआ। देखा जा सकता है कि अस्मितावाद जहाँ वैश्वीकरण, बाजारीकरण और सार्वजनिक क्षेत्रों के कारपोरेटीकरण का समर्थन करता है या उसे चिंता का विषय मानने से इंकार करता है वहीं दलित स्त्रीवाद शुरू से ही उसका विरोध करता रहा है। नैशनल फेडरेशन ऑफ दलित वीमेंस ने निजीकरण और वैश्वीकरण के खिलाफ संघर्ष करने का जो संकल्प लिया उसकी चर्चा पीछे की जा चुकी है। दलित स्त्रीवाद की प्रमुख हस्ताक्षर उर्मिला पवार ने अपने आत्मकथन की भूमिका में लिखा है: ‘हम देखते हैं कि वैश्वीकरण, निजीकरण तथा धार्मिक सत्ता के ध्रुवीकरण से जो होड़ का वातावरण निर्माण हो गया है, उसके कारण अगली और उससे अगली पीढ़ियों का भविष्य संकट में पड़ गया है।’(30), बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मकड़जाल का पर्दाफाश अनिता भारती ने अपनी कहानी ‘बीजबैंक’ में किया है। (31), अपनी आलोचना-पुस्तक में वे लिखती है: ‘भूमंडलीकरण, बाजारीकरण के चलते उसके (दलित स्त्री के) श्रम की कीमत दिन पर दिन कम होती जा रही है, जिसके कारण उसके परिवार पर व उसके ऊपर सीधा असर पड़ रहा है। आर्थिक चुनौतियां सुलझने की जगह और उलझ रही हैं’।(32),
एक अर्थ में अस्मितावाद अतीतोन्मुखी है। इधर के अस्मितावादियों में कोई नागवंश का गुणगान करता हुआ उसकी पुनर्स्थापना के सपने देखता है, कोई मौर्य युग की पुनर्प्राप्ति के लिए तड़पता है। इन दिनों मूल निवासी ‘आन्दोलन’ ज्यादा जोर पकड़े हुए है। इस ‘आन्दोलन’ का मानना है कि इस देश में रहने का हक सिर्फ मूल निवासियों को है। हमलावरों और घुसपैठियों को बाहर किया जाना चाहिए। यहाँ यह याद कर लेना ठीक रहेगा कि डॉ. अम्बेडकर आर्य आक्रमण के इस सिद्धांत को नहीं स्वीकारते थे। ब्राह्मणों को सर्व शक्तिमान मानने से भी उन्हें गुरेज था। भारतीय समाज पर जाति व्यवस्था थोपने का ‘श्रेय’ भी वे ब्राह्मणों को नहीं देते थे। हाँ, उनकी सहयोगी भूमिका से उन्हें इंकार न था। (33), अस्मितावाद ने ब्राह्मणों को (ज्यादातर प्रसंगो में ब्राह्मणवाद का प्रयोग नहीं किया जाता।) इतिहास की नियामक शक्ति मानते हुए उनका लगातार ‘शक्ति संवर्धन’ किया है। अस्मितावादी व्यक्ति की ‘उत्पीड़ित’ की छवि इसीलिए रूढ़ हो चली है। दलित स्त्री के नजरिए से देखे तो मूल निवासी आन्दोलन एकदम अस्वीकार्य ठहरता है। मूल निवासी व्यवस्था जिस रोमानीकृत रूप में पेश की जाती है उसमें सारी भीतरी दिक्कतें विलुप्त हो जाती हैं। इन दिक्कतों की चर्चा करना भी मूल निवासी सिद्धांतकारो को नागवार गुजरता है। फिर जिस संस्कृति की रूपरेखा पेश की जाती है उसमें स्त्रियाँ दायित्व के बोझ से दबी हुई, संदेह की शूली पर चढ़ाई हुई और सर्वथा अधिकार वंचित ऩजर आती हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की स्वर्णिम अतीत की कल्पना और उसकी परिणतियों पर बेहतर अध्ययन उपलब्ध हैं। सांस्कृतिक अस्मितावादियों से उनकी समानता को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत संदर्भ में उऩ अध्ययनों से सहायता ली जा सकती है।
उत्तर अस्मितावाद ने प्रयत्न करके ‘उत्पीड़ित’ की छवि से दूरी बनायी है। दलित स्त्रीवाद की विकासयात्रा पर दृष्टि डालने से स्पष्ट होता है कि पीड़ित स्त्री से क्रमश: शक्ति सम्पन्न दलित स्त्री की अवधारणा निर्मित हो रही है। अस्मितावादी वैचारिकी के तहत लिखी गई आत्मकथाओं के शीर्षक देखें और उसकी दलित स्त्रीवादी दृष्टि से सृजित आत्मकथाओं के शीर्षकों की तुलना करें तो यह बात समझने में आसानी होगी। पहली धारा में ‘अक्करमाशी’, ‘जूठन’, ‘तिरस्कृत’, ‘घाव’, ‘छांग्या रूक्ख’ आदि हैं तो दूसरी में ‘जीवन हमारा’, ‘करक्कु’, ‘आयदान’ हैं। (34), दलित स्त्री की शुरूआती आत्मछवि तमिल की कवि तरेसम्मा के शब्दों में यों मिलती है-
हम गरीब
इसलिए करते हैं मजदूरी
लेकिन वही सिल्की बिस्तर उपहास करता है हमारा
जब हमारा दिन-दहाड़े बलात्कार होता है।
अशुभ-अभागी हैं हमारी जन्मकुंडलियाँ।
हमारे लड़खड़ाते पति भी
खटिया के एक कोने में पड़े हुए
फुफकारते और बदला लेने को चीखते हैं
अगर हम उनकी पकड़ न झेल सकें। (35)