दलित / शरण कुमार लिंबाले

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दलित

हिंदी साहित्य में दलित-लेखन-परंपरा को भक्तिकाल तथा उससे भी पूर्व सिद्ध-नाथ-साहित्य तक खोजा जा सकता है, किंतु यह परंपरा साधना तक सीमित है। भक्ति आंदोलन ने

‘जाति-पाँति पूछे नहीं कोई। हरि को भजे सो हरि का होई’

कहकर एक क्षेत्र में तो समानता निर्मित की; किन्तु अंतत: यह आंदोलन विभिन्न मतों और संप्रदायों में बिखर गया। अठारहवीं शती से फिर धार्मिक-सामाजिक क्षेत्रों में कट्टरता बढ़ने लगी और परंपरा खंडित हो गई।

भक्ति आंदोलन दक्षिण से आया था। अब फिर एक बार ऐसा ही एक आंदोलन बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मराठी से हिंदी में आया है। हिंदी में दलित-लेखन की कलम लगाई जा रही है। अभी तक हिंदी में सामाजिक अन्याय के विरोध में जो दलित संवेदना का लेखन मिलता है वह प्राय: उदारमतवादी, प्रतिबद्ध, मानवीय तथा प्रगतिशील संवेदना का सवर्ण-लेखन है। दलितों का लिखा हुआ भुक्तभोगी मौलिक साहित्य नहीं के बराबर है। कबीर, प्रेमचंद, नागार्जुन, धूमिल आदि की परंपरा के बावजूद बकौल डॉ. नामवर सिंह

‘‘हिन्दी में दलित आंदोलन नहीं चला।।’’

उन्होंने इस तथ्य को भी स्वीकार किया कि

‘‘दलित-लेखन दलित व्यक्ति से ही संभव है। जब कोई दलित साहित्यकार साहित्य में प्रवेश करता है तो उसके साथ ही उसकी दुनिया आती है। उसका परिवेश आता है। यह सब कुछ सामान्य साहित्यकार से भिन्न होता है-उसे भिन्न होना ही चाहिए-प्रेमचंद का साहित्य दलित साहित्य के समकक्ष रखकर देखें तो यह अंतर स्पष्ट होता है।’’

हिंदी की साहित्यिक संस्कृति में दलित संवेदना के लेखन का अभाव है। कोई आंदोलन नहीं उभरा है। दलित लेखकों का कोई हस्तक्षेप दिखाई नहीं देता। इस अभाव के कई ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक कारण होंगे। इनका विश्लेषण करना अपने आपमें एक स्वतंत्र और महत्त्वपूर्ण विषय है। लेकिन दलित-लेखन के लिए अब हिंदी में जमीन तैयार हो रही है। और उसमें महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं मराठी दलित साहित्य के अनुवाद। इसमें कोई संदेह नहीं। इस दिशा में ‘संचेतना’ का दलित साहित्य विशेषांक, चंद्रकांत पाटील के ‘सूरज के वंशधर’ नाम से प्रकाशित काव्यानुवाद तथा दलित आत्मकथाओं और कहानियों के कई अनुवादों की ओर संकेत किया जा सकता है।

उन्नीस सौ साठ के पहले मराठी में भी दलित साहित्य की कोई सशक्त परंपरा नहीं थी। डॉक्टर बाबासाहब आंबेडकर ने अपने भाषण, लेखन और कार्य से दलित जातियों को जगाना शुरू कर दिया था। उनके तथा महात्मा फुले के प्रबोधन से ही आधुनिक दलित साहित्य की पृष्ठभूमि मजबूत हो चली थी। बहिष्कृत दलित समाज को अपनी अस्मिता की पहचान होने लगी। हजारों वर्षों तक एक मानव समाज गुलामी की बदतर जिंदगी धर्म और पाप-पुण्य के नाम पर जी रहा था। पशु से भी हीन दशा में चुपचाप अन्याय, अत्याचार सह रहा था। उसके श्रम पर सवर्ण समाज की व्यवस्था प्रस्थापित थी। वह मानवीय सभ्यता और संस्कृति की सभी ऊँची उपलब्धियों से वंचित था। वह अछूत था। उसकी परछाईं से भी परहेज किया जाता था। इसमें किसी सवर्ण को कोई अस्वाभाविकता प्रतीत नहीं होती थी। रूढ़ियों ने इस अमानुषता को सहज स्वीकार्य बना दिया था। यह जहर भारतीय समाज की संस्कृति में घुल-मिल गया था। दलित जातियाँ भी इसकी आदी हो गई थीं, इनके खिलाफ विद्रोह करना पाप समझती थीं। हजार रूपों में शोषित इस समाज को बाबासाहब आंबेडकर ने जगाया, चेताया, शिक्षा का महत्त्व समझाया।

दुनिया को बदलने के लिए, उसकी प्रस्थापित विषम व्यवस्था को तोड़ने का आह्वान किया। इस क्रांतिकारी आंदोलन के उग्र सामाजिक संघर्ष का एक हथियार था दलित साहित्य। वह इस आंदोलन का फल भी था। साठ के पहले के तीन दशकों में उसका वह पूर्वरूप दिखाई देता है जो प्रचारवादी है, मध्यवर्गीय साहित्यिक रुचियों से सीमित है। किंतु साठोत्तर कालखंड में जैसे चिनगारी को हवा मिल जाती है और राख की ढेरी के नीचे दबे स्फुल्लिंग भड़क उठते हैं।

डॉ. आंबेडकर के महानिर्वाण के पश्चात् उनकी सूर्य-संतति को जैसे अपनी शक्ति का साक्षात्कार हो जाता है। आरंभ में लघु पत्रिकाओं के, युवा तथा वाम आंदोलनों से जुड़कर और बाद में उनसे समानांतर दलित युवा रचनाकारों को अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का अनुकूल वातावरण मिल जाता है। दलित साहित्य के आंदोलन के रूप में मराठी की साहित्यिक संस्कृति में एक तूफान-सा आ जाता है और वह सारे मध्यवर्गीय साहित्यिक प्रतिमानों, मापदंडों, मूल्यों तथा आस्वाद के रूपवादी धरातलों को तोड़-मोड़कर उन पर फिर से विचार करने के लिए बाध्य करता है।