दसवां प्रयास / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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कनु बार-बार ध्यान हटाने की कोशिश कर रही थी। नज़र दीवार से हटाकर टेबल पर रखी किताब पर एकाग्र करने का प्रयास कर रही थी किंतु न जाने कौन-सी अज्ञात शक्ति उसे दीवार पर देखने को विवश कर देती थी। वह बार-बार वहीं देखने लगती। दीवार पर था क्या? एक घिनौनी-सी छिपकली एक निरीह पतंगे के शिकार को तत्पर।

पतंगा फुदर-फुदर उड़ता और दीवार पर बैठ जाता। घात लगाए बैठी छिपकली उस पर हमला करती किंतु इसके पहले कि वह पतंगे को मुंह में समेटे, वह झांसा देकर थोड़ी दूर जाकर उसी दीवार पर बैठ जाता। छिपकली अर्जुन के तीर की भांति फिर लपकती किंतु पतंगा बाजीगर-सा फिर झांसा दे जाता दे और उड़कर दीवार के दूसरे कोने में जा बैठता।

'अब तो गया काम से' कनु चीखी। बिलकुल छिपकली के मुंह का ग्रास बनने ही वाला था वह वीर बहादुर पतंगा। पलभर को लगा कि वह गया काल के गाल में, परंतु बच गया साला। उसे गब्बरसिंह का 'शोले' वाला डायलॉग याद आ गया। पतंगा फिर घिस्सा दे गया। बेचारी छिपकली! चार प्रयास बिलकुल बेकार गए। सफलता से बहुत दूर, परंतु आशा अभी भी बाक़ी थी। कितने भागोगे बेटे, छिपकली सोच रही थी।

वह भी तो प्रयास ही कर रही थी बरसों से, परंतु सफलता से कोसों दूर थी। जया हर बार बाजी मार जाती थी। जया और वह पहली कक्षा से ही साथ में पढ़ रही हैं। पक्की सहेलियाँ भी हैं। एक ही बेंच पर साथ में ही बैठती हैं और लंच भी साथ में ही लेती हैं व एक-दूसरे से शेयर करती हैं। किंतु प्रतिस्पर्धा कि दीवार जो पहली कक्षा से खड़ी हुई, वह अब तक बरकरार है, यथावत है। पढ़ाई में दोनों नेक-टू-नेक थीं, तो खेलकूद में भी पलड़ा बराबरी पर रहता। किंतु जब परीक्षा आती तो जया बाजी मार ले जाती। जया फर्स्ट आती तो कनु सेकंड। अंकों का अंतर बमुश्किल दो या तीन का होता।

चौथी कक्षा तक यही क्रम चला। जया फर्स्ट कनु सेकंड। कनु बहुत कोशिश करती, पढ़ाई में दिन-रात एक कर देती किंतु जया ने तो जैसे फर्स्ट आने के लिए ही धरती पर जन्म लिया था। चौथी के बाद तो वह लगभग निराशा के आगोश में ही चली गई थी। पांचवीं की अंतिम परीक्षा में तो वह तीसरे क्रम पर खिसक गई थी। कहते हैं कि आशा से आसमान टंगा है, परंतु जब आशा ही टूट जाए तो आसमान भरभराकर गिरने लगता है।

एक बार पतंगा फिर बैठा थोड़ी दूर उलटी दिशा में। छिपकली ने पलटी मारी और निशाना साधने लगी। अबकी बार गांडीव से निकला तीर मछली की आँख फोड़कर ही रहेगा। जैसे कोई योगी दीपक की लौ को देख रहा हो एकटक, छिपकली की भी वही दशा थी।

कनु फिर अतीत में डूब गई। छठी कक्षा में वह भी इसी तरह ध्यानस्थ हुई थी। केवल पढ़ाई और पढ़ाई पर, किंतु श्रम का फल व्यर्थ भी होता है, यह उसने उस वक़्त जाना था। जया से पार पाना संभव नहीं हो सका था। कनु सेकंड ही आ सकी थी। आठवीं कक्षा में वह तीसरे क्रम पर आ गई थी। दूसरे क्रम पर नर्गिस थी। वह तीसरे क्रम पर उफ! उसने ज़ोर से टेबल पर मुक्का मार दिया था और दर्द से बिलबिला उठी थी।

इधर दीवार पर पतंगा छिपकली के नौ हमले बचा चुका था। ये पतंगे भी कितने बेवकूफ होते हैं, वह बुदबुदाई। जब मालूम है कि छिपकली बार-बार हमला कर रही है तो क्यों उसी दीवार मरने के लिए फुदक रहा है। कहीं और क्यों नहीं चला जाता? मैं जब डॉक्टर बनूंगी तो ज़रूर पतंगों के मस्तिष्क पर शोध करूंगी। शिकारी के सामने बार-बार जाना जिसके हाथ में बंदूक हो, मूर्खता है कि नहीं? वह सोचने लगी। वह मारा! आखिरकार इस बार पतंगाजी छिपकली के शिकार बन ही गए। दसवें प्रयास में आख़िर सफलता हाथ लग ही गई। '

वह बड़बड़ाई। तो क्या मैं टेंथ अटेंप्ट में सफल नहीं हो सकती। नौवीं कक्षा में उसके और जया के बीच मात्र 1 अंक का फ़ासला था, जया को 480 और उसे 479 अंक मिले थे। छिपकली को टेंथ अटेंप्ट में सफलता मिल सकती है तो उसे? उसे क्यों नहीं? उसे विवेकानंद याद आ गए-'उठो और चल पड़ो और चलते रहो, जब तक कि मंज़िल न मिल जाए।' और वह चल पड़ी थी। दसवीं कक्षा दसवां प्रयास! उसे प्रथम आना ही है। जया को पीछे रहना ही होगा। अब तक आगे थी वह, पर अब नहीं, बिलकुल नहीं।

अब तो कनु का समय है। परिणाम आ रहा था कम्प्यूटर पर। टेंथ अटेंप्ट! दसवां प्रयास! छिपकली पतंगे को लील रही है, अर्जुन का तीर मछली की आँख में धंस गया है और कनु सचमुच जया को पार कर चुकी थी। अपने विषय जीवशास्त्र में वह सर्वश्रेष्ठ घोषित हुई थी। शहर ही नहीं, सारे प्रांत में प्रथम थी वह।

कठिन परिश्रम और केवल प्रयास और विश्वास, वह जंग जीत गई थी। कनु घर आई और उस दीवार को जहाँ छिपकली ने पतंगे को लपका था, नमन किया और मुस्कराने लगी।