दस दहाई सौ / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
"धीरेन...! ऐ धीरेन ! पैसों की व्यवस्था हुई कि नहीं?"
"हाँ, सर। मेरे पापा को वेतन मिल गया है।"
"दुर्गा, वंशी, छूटन, सोनू आदि की क्या ख़बर है?"
"उन लोगों के पापाओं को भी वेतन मिल गया है।"
"बहुत खूब। कल सुबह तैयार रहना।"
"आपको छात्रों से ट्यूशन-फी मिली सर?"
"हाँ, एक सौ रुपया मिला है।"
"कितने रुपयों की ज़रूरत होगी?"
"सौ रुपया पर्याप्त होगा।"
उक्त बातचीत धीरेन और रंजन के बीच हो रही थी। क्लब के सदस्यों ने क्लब के परिवर्द्धन हेतु 'मुर्गा लड़ाई' करके बहुत पाप किया था। सुना था कि पार्श्वनाथ धाम की यात्रा करने पर पार्श्वनाथ बाबा आधा पाप ले लेते हैं। इसी की तैयारी हो रही थी।
उल्लेखनीय है कि क्लब में कुल ग्यारह सदस्य हैं जिनमें ग़ौर एक अत्यंत गरीब युवक है। परिवार का बोझ उसी के माथे पर है। ऋण-उधार में डूबा रहता है। इसलिए सौ रुपये की व्यवस्था नहीं हो पायी और उसे अपनी यात्रा स्थगित करनी पड़ी।
सुबह ग़ौर के अतिरिक्त शेष दसों सदस्य बड़े उमंग और उत्साह के साथ यात्रा में निकल पड़े। हाँ, ग़ौर भी था मगर पीछे-पीछे साधारण पोशाक में। वह तो मात्र उन्हें सी-ऑफ करने बस स्टॉप तक जा रहा था।
"पार्श्वनाथ बाबा कितने निःस्वार्थी हैंं ! दूसरों का आधा पाप लेकर उनके बोझ को हल्का कर देते हैं। परंतु हम..." रंजन के मस्तिष्क में यह विचार उठा और उसने बस पर बैठे दसों साथियों पर नज़र डाली, फिर ग़ौर की तरफ़ मुड़ कर देखा। वह प्रसन्न मुद्रा में पीछे खड़ा हाथ हिलाते हुए बाय-बाय कह रहा था। अकस्मात् रंजन को याद आ गया, बच्चों को पढ़ाया जाने वाला वह पहाड़ा-- दस एकम दस... दस दहाई सौ।