दस लघुकथाएँ / सआदत हसन मंटो
1. आराम की ज़रूरत
— मरा नहीं..., देखो, अभी जान बाक़ी है !
— रहने दे, यार... मैं थक गया हूँ !
2. क़िस्मत
कुछ नहीं दोस्त। इतनी मेहनत करने पर भी सिर्फ़ एक बक्स हाथ लगा था। पर उसमें भी, साला, सूअर का गोश्त निकला...!
3. आँखों पर चर्बी
— हमारी कौम के लोग भी कैसे हैं...?
— हाँ,इतनी मुश्किलों के बाद तो ढूँढ़-ढूँढ़ कर पचास सूअर इस मस्जिद में काटे हैं...।
— वहाँ मन्दिरोंं में धड़ाधड़ गाय का गोश्त बिक रहा है।
— और, हम यहाँ दुकान सजाए बैठे हैं, लेकिन सूअर का गोश्त ख़रीदने के लिए कोई आ ही नहीं रहा...!
4. सदक़े उसके
मुजरा ख़त्म हुआ। तमाशाई रुख़सत हो गए।
उस्ताद जी ने कहा — सबकुछ लुटा-पिटाकर यहाँ आए थे। लेकिन अल्लाह मियाँ ने चन्द दिनों में ही वारे-न्यारे कर दिए...।
5. सफ़ाई पसन्दी
गाड़ी रुकी हुई थी।
तीन बन्दूकची रेल के एक डिब्बे के पास आए।
खिड़की में से भीतर झाँककर उन्होंने डिब्बे में बैठे मुसाफिरों से पूछा — क्यों भइए, कोई मुर्गा है?
एक मुसाफ़िर कुछ कहते-कहते रुक गया।
बाक़ी लोगों ने कहा — जी नहीं।
थोड़ी देर के बाद भाले लिए हुए चार आदमी आए।
खिड़की में से भीतर झाँककर उन्होंने डिब्बे में बैठे मुसाफिरों से पूछा — क्यों जनाब, कोई मुर्गा-वुर्गा है?
उस मुसाफिर ने, जो पहले कुछ कहते-कहते रुक गया था, जवाब दिया — जी, मालूम नहीं... आप अन्दर आकर सण्डास में देख लीजिए।
भाले वाले अन्दर दाख़िल हुए। उन्होंने सण्डास का अन्दर से बन्द दरवाज़ा तोड़ दिया तो उसमें से एक मुर्गा निकल आया।
एक भाले वाला बोला — कर दो हलाल।
दूसरे ने कहा — नहीं...नहीं... यहाँ नहीं। डिब्बा गन्दा हो जाएगा... इसे बाहर ले चलो।
6. साम्यवाद
वह अपने घर का तमाम ज़रूरी सामान एक ट्रक में लदवाकर दूसरे शहर जा रहा था।
रास्ते में कुछ लोगों ने उसे देखा और ट्रक रुकवा लिया। एक ने ट्रक में लदे माल-असबाब पर लालची नज़र डालते हुए कहा — देखो यार, किस मज़े से इतना माल अकेले उड़ाए चला जा रहा है।
सामान के मालिक ने मुस्कुराकर कहा — भाईसाहब, यह मेरा अपना सामान है।
उसकी यह बात सुनकर कुछ लोग हँसने लगे। एक बोला — हम सब जानते हैं।
तभी दूसरा चिल्लाया — लूट लो... बड़ा अमीर आदमी है यह... इसके चेहरे पर लिखा है, ट्रक लेकर चोरियाँ करता है
7. उलाहना
— देखो, यार, तुमने ब्लैक-मार्केट के दाम भी लिए... और ऐसा रद्दी पैट्रोल दिया... कि एक दुकान भी न जली।
8. सॉरी
छुरी पेट चाक करती हुई नाफ़ के नीचे तक चली गई।
इज़ारबन्द कट गया।
छुरी मारने वाले के मुँह से खेद में भरकर बस इतना ही निकला — च्च...च्च...च्च... मिश्टेक हो गया !
9. रियायत
— ...मेरी आँखों के सामने मेरी जवान बेटी को न मारो।
— चलो, इसकी बात भी मान लो। छोकरी के कपड़े उतारकर... हाँक दो एक तरफ़...!
10. इन्तज़ाम
पहली वारदात नाके के होटल के पास हुई।
फ़ौरन ही वहाँ एक सिपाही का पहरा लगा दिया गया।
दूसरी वारदात दूसरे ही रोज़ शाम को स्टोर के सामने हुई।
सिपाही को पहली जगह से हटाकर उस जगह तैनात कर दिया गया, जहा~म दूसरी वारदात हुई थी।
तीसरी घटना रात के बारह बजे लाण्डरी के पास घटी।
जब इंसपेक्टर ने सिपाही को इस नई जगह पर पहरा देने का हुक़्म दिया तो सिपाही कुछ देर तक सोचने के बाद बोला — मुझे वहाँ खड़ा कर दीजिए, जहाँ नई वारदात होने वाली है...!