दहलीज पर / उर्मिला शिरीष
‘‘तुम फिर आ गये ! बार बार क्यों आ जाते हो, वहाँ क्यों नहीं रहते हो ? तुम्हारी मम्मी को इतनी समझ नहीं है कि वह तुम्हें अपने पास रखे।’’ वह लगातार बोले जा रही थीं...बिना देखे अपने काम निपटाते हुए; और वह दरवाजे पर खड़ा था....सिर झुकाये। कन्धों से बैग लटक रहा था जिसमें लगभग सारी कॉपी-किताबें थीं...हाथ में एक बोतल थी और कपड़ों का थैला भी।
‘‘क्या घर नहीं गये ?’’ उसको चुप देखकर उन्होंने सख्ती से पूछा।
‘‘घर...’’, उसने होठों में बुदबुदाकर कहा और कातरता से उसका चेहरा देखने लगा। यही तो मेरा घर है...सिर्फ दो महीने में यह घर पराया कैसे हो गया ! यहीं उसका जन्म हुआ था...यहीं बचपन बीता और यहीं पर उसने स्वयं को सबके बीच पाया था। माता-पिता का घर कैसा था, उसने नहीं देखा...दादा-दादी को नहीं जानता वह। फिर कोई और घर कैसे अपना घर हो सकता है ! अभी दो माह पहले ही तो वह स्कूल से लौटकर बैग पटककर जूते उतारता था। पानी की बोतल सामनेवाली टेबल पर होती और चश्मा वॉश बेसिन पर। टी.वी. खोलकर सबसे पहले वह कार्टून नेटवर्क देखा करता था। अपने कमरे में जाकर यूनिफार्म बाद में बदलता था मामी को देखते ही वह चुपचाप बैग उठाकर रखता और चुपके-से बैठ जाता। कहता ‘‘मामी, खाना। भूख लगी है। मम्मी क्या कर रही हैं। उठाइए न उन्हें।’’ लेकिन अब वो कमरा नहीं है ? किराये पर उठा दिया गया है। इस तरफ से ताला लगा है। बाहर का दरवाजा खोल दिया गया है। खिड़की भी बन्द थी तो लगा उसके जीवन का दरवाजा हमेशा के लिए बन्द कर दिया गया है।
उसने देखा मामी फोन लगाने जा रही हैं। तब भी वह वैसा ही खड़ा रहा। उसके पतले-पतले पाँव जैसे जमीन से चिपक गये थे-राजा भइया, रुचि और पारू ट्यूशन पढ़कर नहीं आये थे। नाना-नानी शादी में गये थे। उसको यूँ आया देखकर मामी ने तुरन्त फोन लगाया और गुस्से में बोलीं, ‘‘क्यों भेज दिया ? इस तरह रोज-रोज भेजोगी तो वहाँ उसे अपनापन लगेगा ? उसका क्या हक बन पाएगा ? वे लोग तो यही चाहेंगे कि उसे वहाँ न रहने दिया जाए और तुम कुछ समझती ही नहीं हो यहाँ कौन पढ़ाएगा, कौन उसकी देखभाल करेगा ? मेरा तो पूरा जीवन इसी में गुजर गया। क्या तुम्हें खुद नहीं लगता है कि बाबा को तुम्हारे साथ रहना चाहिए ! उन्हें इस बात का एहसास होना चाहिए कि बाबा तुम्हारे जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण है, उसकी अपनी हैसियत है।’’ उधर से माँ कुछ बोल रही थीं जिसका जवाब मामी अपने गुस्से भरे तेवर और तर्कों से दे रही थीं, ‘‘तुम भी आकर रहो यहाँ ! और रखो अपने बेटे को लोग कैसा महसूस करेंगे...शादी के समय ही यह तय हो गया था कि वे बाबा को रखेंगे। तुम्हारा अपना वहाँ कौन है। बाबा से सपोर्ट मिलेगा तुम्हें, क्या उन लोगों की सेवा और काम करने के लिए तुम गयी हो और तुम्हारा अपना बेटा....उसकी चिन्ता है तुम्हें ?’’
वह खड़ा-खड़ा सारी बातें सुनता रहा। मामी के बढ़ते गुस्से के साथ उसके चेहरे पर उदासी बढ़ती जा रही थी। उसने कपड़ों का बैग बगल में रखा और सोफे पर बैठ गया। भूख तथा प्यास के मारे उसका गला सूख रहा था।
मामी फोन रखकर अपने कमरे में चली गयी थीं। अब भी बड़बड़ा रही थीं। वह जानता है, उसको लेकर मामी, नानी और मौसियों के बीच हमेशा झगड़ा होता रहा है। नानी उसे छुपाकर फल खिलाती हैं। मौसी उसके लिए कपड़े लाती और दो दो घण्टे पढ़ा़ती थी और कोई भी चीज उससे गिरती, टूटती या खराब होती तो राजा भइया या पारू का नाम बता देती और उससे चुप रहने को कहती। उसकी गलती की सजा राजा भइया को मिलती, मामा पीटते या फिर मामी। पारू लाख कहती कि उसने नहीं किया, मगर तब मामी की आँखों में जो घृणा तथा गुस्सा होता था, उससे वह सहम जाता था। बच्चे उसे अलग-थलग कर देते, ‘‘तुमने झूठा नाम लगाया हमारा, हम तुमसे बात नहीं करेंगे।’’ लेकिन थोड़ी देर बाद सारा गुस्सा हवा में उड़ जाता था और चारों बच्चे खेलने लगते थे। उसने जूते उतारे और करीने से उठाकर रैक पर रख दिये। कोई और दिन होता तो वह टी.वी. पर अपनी पसन्द का चैनल लगा लेता, लेकिन आज रिमोट पास में रखा होने पर भी उसका हाथ उधर नहीं बढ़ रहा था। सुबह जब वह स्कूल जा रहा था तब माँ ने चुपचाप उसे कपड़ों वाला बैग भी पकड़ा दिया था। उनकी आँखें गीली थीं और चेहरा तमतमा रहा था। उसके दोनों नये भाई अभी सो रहे थे। उस समय नये पापा दूध लेने गये थे।
‘‘वहीं से मामा के घर चले जाना। कुछ दिन बाद ले लेंगे।’’ माँ ने बस इतना ही कहा था और अन्दर चली गयी थीं।
उसकी नाक पर लाल रंग उतर आया था। वह उस तरफ की बस में न बैठकर इधरवाले ऑटो में बैठ गया था।
दो महीने में यह तीसरी बार था जब वह यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ आया था।
‘‘मामी, राजा भइया कब आएगा ?’’ उसने अन्दर जाकर पूछा।
‘‘एक घण्टे बाद।’’ जैसे बच्चों से ही उसका अस्तित्व बनेगा, वह जाकर पुनः सोफे पर बैठ गया। उसे भूख लग रही थी। मगर उसने खाना नहीं माँगा। खाने के बाद वह सोता था मगर वह सोफे पर ही अधलेटा हो गया। ‘‘मामी...!’’ उसने धीमे से पुकारा, फिर पता नहीं क्या सोचकर किचन में चला गया। पहले उसके लिए एक गिलास दूध तथा कुछ न कुछ मीठा फ्रिज में रखा रहता था।
अपने हाथ से खाना लगाया....दो रोटी, बची हुई सब्जी।
‘‘खाना नहीं खाया ! टिफिन नहीं लाये थे ?’’
‘‘लाये थे मामी।’’ इस समय वह दूध-रोटी जरूर खाता था। वह गुस्से के कारण कुछ न बोली।
‘‘तुम्हारी मम्मी वहाँ से क्यों भेज देती हैं तुम्हें, क्या तुम्हारी उन लोगों से पटती नहीं ?’’
‘‘ऐसी बात नहीं है मामी।’’
‘‘मम्मी का झगड़ा होता है ?’’
‘‘हाँ, मम्मी रोती हैं और कहती हैं-घर छोड़कर चली जाएँगी।’’
‘‘अब वही तुम्हारा घर है। तुम्हारी मम्मी का भी वही घर है। जहाँ तुम्हारी मम्मी रहेंगी वहीं तुम रहोगे। तुम्हारी मम्मी एकदम अकेली हो जाएँगी। उनकी देखभाल के लिए तुम्हें वहाँ रहना चाहिए। वे लोग नहीं पूछेंगे तो तुम्हें तो पूछना पड़ेगा। तुमने सोचा कभी इस बारे में ?’’ वह उसकी तरफ देखे बिना बोले जा रही थीं। उन्हें नहीं मालूम था कि बच्चा सुन भी रहा है या नहीं। उसके गालों पर बहते हुए आँसू भी उन्हें दिखाई नहीं दिये। निःशब्द बहते उन आँसुओं में असुरक्षा और पराये होते जाने का दर्दनाक एहसास घुला था। और वह कैसे बताए मामी को कि वहाँ क्या होता है ! शादी के एक महीने बाद वह माँ के साथ गया था-पूरे एक महीने घूमने (हनीमून) के बाद लौटी थी माँ, हँसती-मुस्कराती। चेहरे पर दमक। आँखों में काजल। माँग में भरा सिन्दूर। वह स्वयं अपनी माँ के इस रूप को देखकर विस्मित रह गया था। सरकारी आवास। छोटे-छोटे कमरों वाले घर में नये पापा और माँ का एक कमरा था। एक कमरे में उसके दोनों नये भाई तथा उनकी दादी सोती थीं। वह कहाँ लेटे ? कौन उसको अपने साथ सुलाएगा ? यह तय होने में घण्टों लग गये थे। फिर यही तय किया गया कि उसके लिए वहीं पर एक फोल्डिंग पलंग लगा दिया जाएगा। फोल्डिंग पलंग पर जब वह बैठा तो उसे जोर की रुलाई आ गयी। चीं-चीं करता गहरा पलंग पतला-सा गद्दा और पुरानी रजाई। वे दोनों अपनी-अपनी टेबल पर पढ़ रहे थे....उसे हाथ पर रखकर लिखना नहीं आता था...माँ अपने कमरे में थी नये पापा के साथ। उसकी सिसकियाँ शायद दादी के कानों में पड़ीं...‘‘क्या बात है ?’’
उसने जल्दी से अपने आँसू पोंछे और चेहरा झुका लिया। उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है...यहाँ बुरा लग रहा है ? नानी की याद आ रही है, आएगी ही। बचपन से जो वहीं रहे हो। किसके साथ सोते थे, नानी या नाना के साथ ? नानी को भी तुम्हारी याद आ रही होगी ?’’ जरा-सी सहानुभूति भरे शब्द सुनते ही वह जोर-जोर से रोने लगा। सब उसके पास आकर इकट्ठे हो गये...बीच में वह बैठा था और आसपास वे सब,‘‘अरे सुनीता, देखो क्या बात है ?’’
‘‘क्या हो गया ?’’ माँ ने सख्त होकर पूछा।
‘‘होगा क्या, घर की याद आ रही है।’’
‘‘बेटा...तुम इससे बात करो। अपने साथ खिलाओ। अपनी चीजें दिखा दो। अभी नया घर है।’’
‘‘बात कर लो फोन पर...करोगे ?’’ उसने रोते हुए सिर हिला दिया।
‘‘नानी ! मुझे नहीं रहना यहाँ...आपकी याद...यहाँ मेरे पास टेबल नहीं है...न पलंग...न...।’’
‘‘शिकायत कर रहे हो ?’’ माँ ने आकर हाथ दबाया। उधर से भी आँसुओं में डूबी आवाज आ रही थी, फोन
मामी ने ले लिया था।
‘‘क्या बात है बाबा ! बुरा लग रहा है ? देखो उन लोगों से दोस्ती कर लो, वे भी तुम्हारे भाई-बहन हैं। तुम अपनी माँ को अकेला मत छोड़ना, समझे !’’
‘‘जी ! कहकर उसने फोन रख दिया था। उसे अपनी माँ को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। उनके साथ ही रहना चाहिए फिर भी उसे नानी के घर का दृश्य याद हो आया....इस समय राजा भइया खेल रहा होगा। पारू और गुड़िया टी.वी. देख रहे होंगे। मामी खाना बना रही होंगी और नाना-नानी मन्दिर जानेवाले होंगे। वहाँ तो उसकी राजकुमारों की तरह इज्जत होती थी। नानी अपने सामने बैठाकर खाना खिलाती थी। बिना बाप की औलाद है, सोचकर सब लोग उसे खूब-खूब प्यार किया करते थे। उसकी पढ़ाई के लिए ट्यूटर लगा था। यहाँ आकर उसे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह कैसे खाएगा। माँ के आने के बाद भी वह कितने दिनों तक आनाकानी करता रहा था। जिस रोज आया था उससे पहले की रात को वह सोया नहीं था। बार-बार उठकर बैठ जाता था...राजा भइया ! वह चुपके से उठकर गया था, ‘‘राजा, तुम्हें बुरा नहीं लगेगा ?’’ उसने पूछा था और पूछने में वह अपने भावी जीवन का आधार ढूँढ़ रहा था !
‘‘पर तुम्हारी माँ तो वहाँ है।’’
वह पारू के पास गया, उससे कहा। ‘‘पारू, मामी से बोलो, मैं नहीं जाऊँगा। मुझे डर लगता है। वे मारेंगे तो कौन बचाएगा।’’
लेकिन उसका एक-एक सामान किताबें, जूते, कपड़े, खिलौने रखे जा रहे थे बैग में।
‘‘नानी, डर लग रहा है।’’
‘‘डर कैसा...सो जाओ। तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि अपनी माँ के पास जा रहे हो। देखो ध्यान रखना।
वहाँ तुम्हारी माँ को कोई परेशान न करे। कोई दुख हो तो हमें फोन करके बताना। अधिकार और बिना डर के रहना।’’ समय, अधिकार, बिना डर के, माँ का खयाल, हाँ माँ अकेली है। उसने सोने की कोशिश की लेकिन उसकी आँखों में नींद नहीं, आँसू थे। वह आज तक नहीं समझ पाया कि उसकी माँ की शादी क्यों कर दी गयी है ! माँ को खूब रोते हुए देखा था उसने और माँ तथा मामी का झगड़ा हमेशा होता रहता था। इतना झगड़ा कि माँ अकेले में आकर मामी को गालियाँ देती थी। फिर...कई बार वह उन्हें घर से निकालने के प्लान बनाती थी नानी के साथ मिलकर।
माँ कहीं नहीं जाती थी, न मार्केट न रिश्तेदारों के यहाँ, न पड़ोसियों के घर। वह सुबह से शाम तक घर में ही रहती थी। खाना बनाती हुई, झुँझलाती हुई। कई बार सामान फेंक देती तो कई बार बर्तन पटक देती। तब मामी उनको खूब ताने मारतीं। बाद में उसने जाना कि शादी के बाद ही मां के पति की मृत्यु हो गयी थी। लोग बताते हैं कि जब उसके पिता मरे तो दुकानों से खाने के लिए कुछ माँग रहे थे। उन्हें टी.बी. हो गयी थी और घरवालों ने उन्हें निकाल दिया था। सड़क पर ही वे मृत मिले थे। उसे कभी दुख नहीं होता क्योंकि उसने पिता का कभी चेहरा नहीं देखा था। हमेशा के लिए माँ का रिश्ता वहाँ से टूट गया था और उसका असली घर...उसके लिए कोई अर्थ नहीं रखता था। उसका जन्म यहीं हुआ था और उसके लिए यही घर सब कुछ था। फिर इतने वर्षों बाद उसने देखा कि घर में हलचल है। मेहमान आ रहे हैं और माँ की शादी हो रही थी। मगर माँ के चेहरे पर दुख या शर्म नहीं, खुशी थी। माँ उसे छोड़कर चली जाएगी, किसी और घर में, उसे छोड़कर...यही सोचकर वह बेचैन और दुखी हो रहा था। उसने माँ से सीधे बात नहीं की थी दुख के मारे, मगर माँ को उसकी उदासी तथा दुख का खयाल ही नहीं आया था। वह नयी चमकीली साड़ी पहने हुए थी। माथे पर बिन्दी लगाये हुए, उनकी आँखों से भी खुशी ही खुशी झलक रही थी।
‘‘क्या बात है ?’’ पता नहीं माँ को कैसे उसका खयाल आ गया सबके जाने के बाद।
‘‘तुम हमें छोड़कर चली जाओगी ?’’
‘‘आते-जाते रहेंगे। तुम भी हमारे साथ चलोगे।’’
‘‘कहाँ ?’’
‘‘नये घर में ! अपने घर में !!’’
‘‘हम नहीं जाएँगे। हमारा तो यही घर है।’’ वह आखिरी दिन था जबसे वह मीठी, सपनों वाली नींद लेना भूल गया था। नींद में सपनों की जगह सिर्फ अलग होने के दृश्य आकार लेते रहते थे। न वह पढ़ पा रहा था, न खाना खा पा रहा था। उसका दुबला शरीर और दुबला हो गया। खामोशी में वह न जाने क्या ढूँढ़ता रहता।
‘‘क्यों फेल हो गया ! पढ़ते क्यों नहीं हो। पढ़ाई में मन नहीं लगता तुम्हारा ?’’ सब उसको डाँटे जा रहे थे, अपने-अपने तरीके से, और वह डाँट के शब्द न सुनकर, मन ही मन सिर्फ इस घर से जाने की कल्पना मात्र से सिहर उठता था। उसके फेल होने का कारण कोई समझ ही नहीं पा रहा था।
पूरा घर खुश था मगर वह नहीं ! माँ के लिए सामान खरीदा जा रहा था। माँ की शादी हो रही थी और वह शेष बच्चों के साथ देख रहा था अपने नये पापा को। फिर माँ हनीमून के लिए जा रही थी। पूरा एक माह घूमने के लिए रखा था। जैसे-जैसे उनके वापस आने के दिन नजदीक आ रहे थे, वैसे-वैसे उसकी उदासी बढ़ती जा रही थी। नैराश्य ने उसके कोमल मन को और दुर्बल बना दिया था। अब उसे जाना ही होगा।
पहले वह सिर्फ दो दिन के लिए गया था, पर उसे वहाँ का हिसाब-किताब समझ में नहीं आया था, क्योंकि वह मामा के साथ माँ की पहली विदाई करवाने गया था। लेकिन दूसरी बार उसकी भी विदाई हुई थी। सब उसे तरह-तरह से समझा रहे थे। नसीहत दे रहे थे। उसके वापस आने पर ‘बैरियर’ लगाये जा रहे थे। माँ के जीवन तथा माँ के सम्मान का वास्ता देकर, उसकी जबान पर ताला लगा दिया जाता और इच्छा को दबा दिया जाता। वह पिंजरे में बन्द पंछी की तरह घबरा रहा था। जैसे बहेलिये ने पंख कतरकर उड़ने से वंचित कर दिया हो। कोई तो बचा ले उसे ! कोई तो रोक ले ! वह खाना-पीना छोड़कर सबकी आँखों में याचक की तरह देख रहा था। नानी की आँखों में बेपनाह दुख था। नाना चुप थे। मामी कुछ निश्चित थीं और मामा, वे तो कुछ सुनते ही नहीं। मौसी चिन्तित थीं उसकी पढ़ाई को लेकर। उसके तीनों साथी कुछ समझ नहीं पा रहे थे, न वह किसी को अपने मन की बात कह पा रहा था। पहले कही थी तो किसी ने सुनी न थी।
‘‘फोन करोगे ! आओगे न ! बुला लोगे मुझको !’’ छोटे-छोटे प्रश्नों से उन्हें इशारा भर कर रहा था कि वे उसे रोक लें। पर किसी ने नहीं रोका था।
कैसे बताए वह मामी को कि वहाँ रातभर बिस्तर पर चुपचाप बैठा रहता था। तरह-तरह की आवाजें भुतैली आकृतियाँ...हुश-हुश गुजरती रात और माँ और नये पापा के कमरे के बन्द दरवाजे। उसके रोम-रोम में सिहरन दौड़ जाती। कई बार वह पूरी रात रोता रहा था। कई बार उठकर पास रखे फोन के पास चला आता। डायल भी करता। मगर घण्टी बजते ही फोन रख देता। पता नहीं कितनी डाँट पड़ेगी। डरकर वह बिस्तर में घुस जाता था। वहाँ मामा-मामी राजा तथा पारू को अपने साथ सुलाते हैं...वहाँ तो वह कभी अकेला नहीं सोता था। यहाँ हर तरह से अकेला था !
सुबह उसने देखा, माँ नहा-धोकर तैयार होकर सबके लिए चाय लेकर आयी हैं। उसके चेहरे पर चमक और हँसी को देखकर एक पल के लिए तो वह उसे गन्दी और परायी औरत लगी। नयी दादी, बुआ, पापा तथा दोनों भाइयों से हँस-हँसकर बातें कर रही थी। वह जानबूझकर लेटा रहा-कि देखो माँ जागती भी हैं या नहीं। माँ को उसका खयाल आता भी है या नहीं। माँ ने दूर से ही आवाज लगायी, ‘‘उठो, ब्रश करो। चाय पिओगे ?’’
माँ इतनी जल्दी भूल गयी कि वह नाश्ते के साथ दूध पीता है। जब से चश्मा लगा था तबसे उसको नाश्ते के साथ दूध दिया जाता था। नये पापा ने आकर अपने बेटों को पुचकारा, उनकी पीठ थपथपायी, होमवर्क तथा स्कूल के बारे में पूछा, और उसके पास से गुजरते हुए सिर्फ उसके बालों पर हाथ भर फेरा और इतना भर ‘‘पूछा, ‘‘ठीक चल रही है पढ़ाई ?’’ वैसे भी उसके लिए तय किया गया था कि सारी पढ़ाई का खर्च मामा देंगे। स्कूल की बस तथा ट्यूशन का भी। इसलिए उसे पढ़ाई के बारे में बताना अच्छा नहीं लगा उसने सिर झुकाये हुए ‘हूँ’ भर कहा।...पापा के जाने के बाद माँ उन दोनों औरतों से हँस-हँसकर, शरमाकर बात कर रही थी। उसे याद आया कि वहाँ माँ की हर सुबह झगड़े से शुरू होती थी। कभी माँ ने मामी को एक कप चाय नहीं दी। कितनी बीमार रहती थी मामी, तब भी माँ अपने हिस्से का काम करके सो जाती थी, और यहाँ बुआ के हाथों से काम छीनकर स्वयं कर रही थी। पापा के सामने उनके बेटों से कैसा प्यार तथा अपनत्व जताती है और वहाँ राजा भइया से तो माँ की कभी पटती नहीं थी। वह मन ही मन कुढ़ता रहता। माँ जितना हँसती वह उतना ही चिढ़ता जाता। माँ जितना उन लोगों से अपनत्व दिखाती वह उनसे उतना ही दूर होता जाता।
‘‘कल शनिवार की छुट्टी है...मैं...।’’
‘‘हाँ, ठीक है....तुम तो इसी दिन का इन्तजार कर रहे थे।’’ माँ खुश होकर बोली। वह चाहती थी कि बेटा मामा के घर चला जाए। वह नहीं चाहती थी कि बेटे के कारण उसके नये-नये दाम्पत्य जीवन में कोई दरार आए या तनाव पैदा हो, या उसके पति के बेटों को जरा भी बुरा लगे। जैसे-तैसे मिले इस दुर्लभ सुख को वह हवा में जलते दीपक की लौ की तरह बचाकर रखना चाहती थी। जिस पुरुष को पाने के लिए उसने इतने वर्षों तक इन्तजार किया था, वह पतिरूपी पुरुष बच्चों की आपसी तकरार के कारण अलग न हो जाए...पल-पल इसी बात को लेकर वह अन्दर से सतर्क रहती थी। फिर पहली पत्नी से भी उसे जीतना था, उसी स्मृतियों को धोना था। स्वयं को स्थापित करना था। वह अपने बेटे का अधिकार इस कीमत पर हरगिज नहीं चाहती थी। धीरे-धीरे ही उसे अधिकार दिला पाएगी। वह स्वयं को जमाती है तो बेटे के पैर उखड़ते हैं, और अगर बेटे को जमाती है तो उसके लिए मुसीबत खड़ी हो सकती है।
‘‘बाबा !’’ मामी के पुकारने पर वह हड़बड़ाकर जाग गया, जैसे चोरी करते हुए पकड़ लिया गया हो।
‘‘क्या मामी !’’ वह आज्ञाकारी बच्चे की तरह उनके सामने जा खड़ा हुआ।
‘‘तुम्हारे नये पापा तो बहुत अच्छे हैं न ! वहाँ किस बात की परेशानी है...’’ याद आती है !
किसकी ?’’
वह सबका नाम लेना चाहता था, मगर कण्ठ अवरुद्ध हो गया।
‘‘बेटा !’’ इस बार मामी ने स्निग्ध आवाज में पूछा।
‘‘मामी ! सबकी याद आती है। वे सब मेरे कोई नहीं हैं। मामी, आप मेरी सगी मामी हैं, सगे नाना-नानी, मामा मामी ! यहाँ राजा है..पारू और गुड़िया है। वहाँ.....’’कहते कहते वह सुबकने लगा।
‘‘वहाँ तुम्हारी मम्मी है न बाबा !’’ कहने को वह कह गयीं लेकिन उसका रोता हुआ चेहरा, सिसकती हुई आवाज उनकी छाती में धँस गयी। ‘मामी, आप मेरी सगी मामी...पारू..राजा, वे लोग...’ उसके कहे शब्द उसकी आत्मा को कँपाने लगे। वह सामने खड़ा था। उसके दुबले-पतले बेजान से हाथ-पाँव लटक रहे थे। आँखों पर चढ़ा बड़ा सा चश्मा और उसके भीतर से बहते आँसू। चश्मे पर आँसू तथा धूल चिपकी थी। साफ नहीं किया होगा। फ्रेम कुछ टेढ़ा हो गया था। सोते वक्त चश्मा उतारना भूल गया होगा। यहाँ मामी ही कई बार चश्मा उतारकर रख देती थीं। एक साल फेल हो गया सो पढ़ाई का दबाव। वहाँ वह पूरे समय लोगों को तथा माँ का उनके साथ व्यवहार देखता रहता है।
माँ कहती, ‘‘हँसा करो। बात किया करो।’’ फिर धीमे-से आकर डपटती, ‘‘मुँह लटकाकर बैठे रहोगे तो कौन बात करेगा ? घुन्ने बने रहोगे या बात भी करोगे ? यहाँ सब लोग कितना हँसते हैं ? कोई तुम्हारे नखरे नहीं उठाएगा !’’ वहाँ माँ की बातें सुनकर और ज्यादा गुमसुम हो जाता। खिलखिलाती हुई माँ की आवाज से उसे नफरत होने लगती। हर रोज शाम को तैयार होकर जब माँ बाहर निकलती, तो वह बाहर एक कोने में बैठा खाली कॉपी पर रेखाएँ खींचता रहता। माँ लौटकर रसोई में फिर हँसती, ठहाके लगाती, फुर्ती के साथ काम करने लगती। यहाँ मामी कहती हैं कि माँ अकेली है; और वहाँ सब कहते हैं कि बाबा को यहाँ अच्छा नहीं लगता। हर बात में उसे ही समझाया जाता है कि वह सबके साथ ऐडजस्ट करे। जब से उसने समझना सीखा है, कलह की छायाएँ अपने आसपास मँडराती देखी हैं। यहाँ भी उसको लेकर अनकहा क्लेश चलता रहता था। मौसियों तथा नाना-नानी की सहानुभूति उसके साथ रहती थी, मामा का लाड़-दुलार तो उसके साथ होता। मामी जानती हैं कि उसे छिप-छिपकर चीजें खिलायी जाती हैं।
छिपाकर पैसे दिये जाते हैं, कि वह स्कूल में अच्छी चीजें खा सके। बाकी तीनों बच्चों की कोई चिन्ता नहीं....मगर इन सब बातों के बावजूद बाबा का अपनी मामी के प्रति आत्मीय आकर्षण रहा है। वह उनको चुपचाप देखता मामी के मुँह से निकले शब्द उसके लिए मूल्यवान होते। इस लगाव तथा स्नेह के बावजूद वह भयभीत तथा संकोच में डूबा रहता है। जब भी उन तीनों को डाँटा, मारा-पीटा जाता तो मामी उसी को घूरकर देखती थीं। वह निगाह उसके भीतर थरथराहट पैदा कर देती। बड़ों के बनाये गये सुरक्षा-कवच में उसका दम घुटने लगा। वह उस सुरक्षा कवच को तोड़कर सबके बीच आ जाना चाहता है, मगर नहीं आ पाता। वह दहलीज पर खड़ा है...न इस पार न उस पार...उसका घर कौन सा है, कौन सा नहीं, उसे नहीं मालूम। दूसरे के हाथों का खिलौना बना वह...कभी भी दबा दिया जाता...या परे फेंक दिया जाता है...!