दहलीज पर / तारिक असलम तस्नीम
काफी दिनों बाद दोनों सहेलियाँ मिल रही थीं, इसलिए एक-दूसरे को देखते ही लिपट गयीं। वे भूल गयीं थी मौर्या कांप्लेक्स में मार्केटिंग करने आयी हैं न कि गप्पें मारने।
बातों ही बातों में सबीहा ने शवनम से पूछ लिया-- तू भी नौकरी करने लगी है। यह सुनकर तो मैं बड़ी हैरत में हूँ। आखिर तेरे शौहर ने इसकी इजाजत कैसे दे दी? वे तो बड़े कट्टर मिजाज आदमी ठहरे।
जैसे उसे यकीन नहीं हो रहा हो।
उसकी बातें सुनकर शबनम ने एक पल के लिए उसकी आँखों में झाँका, फिर आँखों में उभरती नमी को जबरदस्ती जज्ब करते हुए कहने को विवश हुई-- सच्ची बात तो यह है कि सबीहा मैंने उन्हें तलाक दे दिया।
-- यह क्या कह रही है तू? तू होश में तो है न? सबीहा जैसे काँप उठी। उसके जिस्म के रोआँ खड़े हो गए। उसने हमदर्दी के नाते एक अनजाने भय से ग्रसित होकर शबनम का हाथ थाम लिया। यकीन से परे थी उसकी बात।
शबनम ने अपने इरादे में मजबूती जाहिर करते हुए आगे बताया-- दरअसल मेरे साथ हादसा ही ऐसा हुआ। तुम से क्या छिपाऊँ मैं। जिन दिनों मैं माँ बनने वाली थी, घर के कामकाज के लिए अपनी बहन को बुला लिया था। सब तो ठीक-ठाक ही लग रहा था। मगर जिस दिन मैं हॉस्पीटल से बच्चे के साथ लौटी...
यह कहते-कहते वह चुप हुई।
सबीहा के दिल की धड़कन रूक सी गयी। उसे हिम्मत नहीं हो रही थी कि शबनम से आगे के बारे में पूछे। अचानक शबनम ने ही कहा-- उसी शाम मेरी बहन मेरे शौहर के सात सूर्ख जोड़े में मेरे ही घर की दहलीज पर खड़ी थी। मैं... किसे... क्या... कहती। कोई... फायदा... नहीं था । वह तो मुझे नहीं छोड़ना चाह रहे थे... मगर अब इस रिश्ते के मायने ही बदल गए थे, सो मैंने ही उन्हें आजाद कर दिया ।