दहशतगर्द / अनवर सुहैल
पहले टीवी में उसकी तस्वीर दिखलाई गई फिर मुकामी अख़बारों ने उसके बारे में लानत-मलामतें कीं तो शहर का माथा ठनका।
अरे भइया, गजब हो गया! ईसा मियां का बेटा मुसुआ ससुरा आतंकवादी निकल गया।
नगर के सबसे पुराने धुनिया ईसा मियां का बेटा मूसा उर्फ मुसुआ और आतंकवादी...
'नगर में पनपता आतंकवाद' यही तो शीर्षक था स्थानीय समाचार- 'पत्र त्रिशूल' का। जिसके सम्पादक त्रिलोकचंद जी ने मूसा के बहाने 'विशेष संवाददाता' के मार्फत नगर, देश और फिर अमेरिका के प्रभुत्व को स्वीकार कर चुकी दुनिया में फैले इस्लामी आतंकवाद का तुरंत-फुरंत जायजा लिया था। उनका आग्रह था कि देश भर में फैले मदरसों की जांच कराई जाये। 'जिहाद' की तालीम इन्हीं मदरसों में धर्म-शिक्षा की आड़ लेकर दी जाती है।
इस ख़बर को सुन-गुनकर मैं भी काफी अचंभित था।
मुसुआ को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता था।
जानता भी क्यों न, वह मेरा सहपाठी भी था और लंगोटिया भी। ऐसा मीत जिसे हम अपना राजदार बनाते हैं। जिससे हम कुछ भी नहीं छुपाते। जिससे अपने दिल की कहके हम तनावमुक्त हो जाते हैं। एक उम्र के बाद इंसान इस तरह के रिश्ते खो बैठता है। आगे जाकर इंसानी रिश्ते व्यवसायिक, औद्योगिक, राजनीतिक या कूटनीतिक रिश्तों के नाम से पुकारे जाते हैं। तब प्रत्येक रिश्ते के पीछे बनते-बिगड़ते समीकरण, हित-अहित, लाभ-हानि आदि पैमाने अहम रोल अदा करते हैं।
मुसुआ उर्फ मूसा मुस्लिम था। तब मैं मुस्लिम लड़कों के बारे में यही जानता था कि ये अछूत होते हैं, इनका 'खतना' किया जाता है। औरंगजेब जैसे मुगल बादशाहों के अत्याचारों से घबराकर या फिर लालच के कारण बहुतेरे हिन्दुओं ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था।
इतिहास के शिक्षक उपाध्याय सर एक सनातनी वृद्ध थे। वे मुगल-काल का इतिहास पढ़ाते समय इतना उद्वेलित हो जाते कि मुगलों की सारी गल्तियों का श्रेय कक्षा में उपस्थित इने-गिने मुस्लिम लड़कों पर डाल देते थे।
इतिहास का पीरियड ठीक लंच-ब्रेक के बाद होता। इधर उपाध्याय सर कक्षा में प्रवेश करते उधर पास की मदीना मस्जिद से अजान की आवाज गूंजती-अल्लाहो अकबर....
उपाध्याय सर छात्रों को बताते कि इस देश का मुसलमान अभी तक मुगल बादशाह अकबर की बड़ाई करना नहीं छोड़े हैं। इन लोगों के मुंह से छत्रपति शिवाजी या महाराणा प्रताप की बड़ाई आप सुन नहीं सकते। वे अजान के बोल सुनकर बुरा सा मुंह बनाते और सारी क्लास ठहाके से भर जाती।
मेरी कक्षा में बस तीन-चार मुस्लिम लड़के थे।
वे एक गुट बनाकर अलग-थलग रहा करते। उस समूह को हम केजी यानी कटुआ-ग्रुप कहा करते।
मूसा उस ग्रुप में शामिल नहीं था। वह भी उन्हें केजी कहता।
सिखों में 'सेंस ऑफ ह्यूमर' होता है, सिख स्वयं अपनी बेवकूफियों पर प्रचारित किस्से और चुटकुले गढ़-गढ़ कर सुनाते और हंसते हैं। शायद लोगों को किसी न किसी बहाने हंसा कर तनाव मुक्त करने जैसी प्रवृत्ति का परिचायक है यह। कुछ ऐसी ही अदालत मुसुआ की थी।
वह हमारे साथ ही टॉयलेट वगैरा जाता। शरारती तो था ही। जरूरत पड़ने पर सबके सामने ही पेंट की जिप खोलकर मूतने लगता।
जिन दिनों हम कोर्स की किताबों में माथा खपाते थे, वह नई-नई शरारतें ईजाद किया करता था। इसलिये हम उसे मूसा छोड़ 'मुसुआ' कहकर पुकारा करते थे।
मुसुआ यानी कि ऐसा चालाक चूहा जो कुतरने को सारा घर कुतर जाये और किसी को कानो-कान खबर न हो। शरारत में बड़े-बड़ों का कान कुतरता था मुसुआ।
कक्षा-शिक्षक मिश्रा सर के दो काम वह बिना पूछे कर दिया करता था।
अव्वल तो स्कूल के पीछे की झाड़ी में बेशरम की हरी टहनी तोड़कर लाना और दूजा उनके लिये खैनी का इंतजाम करना।
मुझे तो ऐसा लगता है कि वह खैनी खाता भी था।
खैनी तो खैनी, लोगों ने उसे चपरासी रामजी द्वारा फेंकी गई अधजली बीड़ियां सुलगाकर पीते भी देखा था।
तब स्कूलों को पाठशाला कहा जाता था। इन पाठशालाओं में क्लास-वर्क, होमवर्क, यूनिट-टेस्ट जैसे बेहूदा चोंचले कहाँ थे।
बस तिमाही, छमाही या सालाना परीक्षा होती थी। जिसमें अच्छे-अच्छे फन्ने खाँ बच्चे फेल हो जाया करते थे। शिक्षकों को अभिभावकों द्वारा बच्चों को मारने-पीटने की औपचारिक अनुमति मिली हुई थी। मार के डर से भूत भी भाग जाते हैं, हम तो फिर बच्चे ही थे। तिमाही-छमाही परीक्षा में फेल होने और पिट- पिटकर बेइज्जत होने के बाद हमें अक्ल आ ही जाती और थक-हारकर निर्णय लेना पड़ता कि अब पढ़ने और रटने के सिवा कोई चारा नहीं। परिणामतः सालाना परीक्षा में अस्सी-नब्बे प्रतिशत बच्चे उत्तीर्ण हो जाते थे।
मुसुआ का दिमाग तेज था यदि वह पढ़ने में ध्यान देता तो निस्संदेह अच्छे नम्बरों से पास होता। लेकिन नित-नई शरारतों के आगे उसे कुछ सूझता न था।
आज उसके बारे में ऐसा सुनकर मुझे यही लगा कि इतना मिलनसार सामाजिक लड़का जिसकी खुदगर्ज, असामाजिक आतंकवादी संगठन के लिए क्यों काम करने लगा?
वह मेरे घर आता तो चाय-नाश्ता कुछ नहीं करता। हुआ यह कि मेरी माँ रूढ़िवादी, धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। वह कतई नहीं चाहती थीं कि कोई मलेच्छ-मुसल्ला या कि अछूत-चमार से उनके बच्चे दोस्ती करें। उनके साथ उठे-बैंठें। उन्हें अपने घर बुलाएँ, या उनके घरों में जाएँ।
पिताजी के दलित, पिछड़े या मुस्लिम दोस्तों के लिए घर में अलग से कुछ बर्तन रखे हुए थे। ये कप-प्लेट, गिलास और तश्तरियां अलहदा रखी जाती थीं। उन्हें माँ न छूती थीं और न धोती, माँजती थीं। जूठे बर्तन उसी तरह गंधाते पड़े रहते जब तक नौकरानी उन्हें आकर नहीं उठाती।
जब वह पहली बार मेरे घर आया तब माँ ने मुझसे उसकी जात पूछकर उसे चीनी मिट्टी की तश्तरी में हलुआ दिया और मुझे स्टील की तश्तरी में।
मूसा की पैनी निगाहें इस भिन्नता को भांप गईं।
उसने बहाना बनाया कि पेट ठीक नहीं है।
फिर जब हम घर से बाहर निकले तो सामने वाली नाली के किनारे हमारी दृश्टि गई। वहाँ हलुआ की तश्तरी फेंकी पड़ी थी। जिसे कुत्ते चाटकर साफ कर रहे थे।
उसे बात समझते देर न लगी।
तब से उसने कह दिया कि यदि वह किसी कारण मेरे घर आता भी है तो मात्र मिलने-जुलने के लिए। उसके लिए चाय-पानी आदि औपचारिकताओं की आवश्यकता नहीं। वाकई, उसके बाद फिर हम भले ही उसके घर में कुछ खा-पी लें या कि किसी ढाबे-होटल में, मेरे घर में उसने कभी कुछ न लिया।
वह एक हंसमुख इंसान था। एकदम जिन्दादिल।
कभी दुखी भी होता तो सिर्फ इसी बात पर कि लोग उसे अपने जैसा एक आम इंसान क्यों नहीं तस्लीम करते। उसे देखकर क्यों हिन्दू-मुसलमान जैसी बातें करने लगते हैं।
मूसा यानी मुसुआ पढ़ाई का दुश्मन था। पढ़ने-लिखने के अलावा अन्य किसी कार्य में उसे कष्ट न होता। स्कूल हो या मुहल्ला, हमारी तमाम सामूहिक गतिविधियों में वह पूरे जोशो-खरोश के साथ शामिल हुआ करता। सरस्वती-पूजन, दुर्गा-पूजा, होलिका-दहन हो या तुलसी-जयंती।
हमारी अपंजीकृत किन्तु जीवित संस्था गणेश-पूजा बाल समिति में मंच-सज्जा उसी के जिम्मे रहती। रूई और लकड़ी के बुरादे से वह हिमालय पहाड़ का दर्शनीय दृश्य बनाया करता।
एक बार दशहरे पर हम बच्चों ने मुहल्ले में रावण-दहन का कार्यक्रम बनाया। मुसुआ ने रावण का चेहरा डाकू गब्बर सिंग की तरह बनाया था।
जोशी भइया हम बच्चों को प्रोत्साहित किया करते। वह शिशु मंदिर में आचार्य थे और किसी समाचार पत्र के संवाददाता थे। उन्होंने डाकू गब्बर सिंग के रूप में जलाए गए रावण के पुतले का समाचार अपने अखबार में छपवाया था।
जोशी भइया की सांस्कृतिक गतिविधियों में रूचि थी। वह मुझे बहुत मानते थे। मूसा भी उनका बहुत सम्मान किया करता। पता नहीं क्या बात हुई कि वह जोशी भइया का शागिर्द बन गया।
एक दिन उसने बताया कि वह शाम को अब नियमित रूप ये शाखा भी जाने लगा है। वहाँ प्रार्थना, झण्डा-प्रणाम आदि के बाद कई मनोरंजक खेल खेलाए जाते हैं। देश-प्रेम और भारत के अतीत के बारे में काफी रोचक जानकारियां बताई जाती हैं। संगठित रहकर चलने के लाभ बताए जाते हैं।
मैं चूंकि अपने बड़े भाई कामरेड प्रदीप का प्रशंसक था, इसलिये मैंने उसे आगाह भी करना चाहा कि अबे साले यह ठीक जगह नहीं है। किन्तु उसका जोशी-प्रेम देख मैं चुप रह जाता।
जोशी भइया, कामरेड प्रदीप के हम उम्र थे, किन्तु उन दोनों के विचारों में जमीन-आसमान का अंतर था। एक वाम-पंथी और दूसरा दक्षिण-पंथी। जोशी भइया अक्सर कम्युनिस्टों को गरियाया करते।
मुझे सुनाकर कहते-इन दगाबाज कम्युनिस्टों को रूस की नालियों में भी इत्र की खुशबू महसूस होती है।
वे कम्युनिस्टों को धोखेबाज और देशद्रोही कहा करते थे।
बस ÷ऐतिहासिक भूल' किया करते हैं कामरेड लोग। कोई समस्या आई नहीं कि लगेंगे किताब पलटने कि लेनिन या मार्क्स ने इस बारे में क्या कहा?
जोशी भइया देशप्रेम और हिन्दू-उत्थान के गीत लिखा करते थे। मूसा उनके प्रभाव में आकर तुकबंदी करने लग गया था। जिसमें देश-प्रेम की भावना रहती और कश्मीर की रक्षा के बहाने पाकिस्तानियों को कच्चा चबाकर खा जाने का जज्बा रहता। उसकी अभिव्यक्ति पर जोशी भइया गद-गद हो उठते। शाखा में उसकी कविताओं का वह पाठ करवाया करते। तमाम जनसंघी एक मुस्लिम किशोर के मुंह से देश-प्रेम से ओत-प्रोत उन कविताओं की खूब प्रशंसा करते। वे कहते कि यदि इस देश के सभी मुस्लिम युवक इसी तरह संघ से जुड़कर राश्ट्रवादी हो जाएं तो तमाम छद्म-धर्मनिरपेक्ष विरोधियों का मुंह काला हो जाए।
लेकिन वह अधिक दिन जोशी भइया के सम्मोहन में फंसा नहीं रह पाया।
वह अयोध्या में राम-जन्मभूमि मंदिर बनने के पक्ष में था किन्तु बाबरी मस्जिद ढहाकर नहीं।
जय श्रीराम के गगन-भेदी नारों से अट-पट गया था देश और एक दिन बाबरी मस्जिद ढहा दी गई।
बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद वह बेहद उदास हो गया था।
देश दंगे की चपेट में आ गया था।
उस दिन वह मुझे भी अपने साथ जोशी भइया के आवास पर ले गया।
जोशी भइया शान्त मुद्रा में बैठे थे। उनके चेहरे पर काम पूरा होने का संतोष था और थी एक अंतहीन लड़ाई के एक छोटे से पड़ाव के आगे की रणनीति तय करती उत्तेजना।
उनके समक्ष हम काफी देर तक चुपचाप बैठे रहे।
मुसुआ के चेहरे पर आक्रोशजन्य तिलमिलाहट देख लफ़्फ़ाजी जोशी भइया ने चुप्पी तोड़ी-मेरे पास पक्की खबर है। संघ के लोगों को, यहाँ तक कि बड़े लीडरों को भी इस बात की जानकारी नहीं थी कि ढांचा गिरा दिया जाएगा।
मूसा खामोश बुत बना बैठा रहा।
फिर वह उठ खड़ा हुआ।
मुझसे कहा-चलो!
हम लक्खी की चाय गुमटी में जा बैठे।
उसके बाद मूसा में तब्दीली आई।
वह अब मेरे अग्रज कामरेड प्रदीप की बैठकी अटैंड करने लगा।
प्रदीप भाई से वह घंटों बातें किया करता।
जब वह मेरे साथ घूमने-टहलने निकलता तो कई तरह के प्रश्नों से जूझता रहता-यार भाई....माना कि वे लोग फासीवादी और विध्वंसक हैं। वे अपनी मनमानी किया करते हैं। लेकिन ऐसे खतरनाक समय में ये हमारे वामपंथी-कामरेड सिर्फ बयानबाजी जारी करते हैं, कुछ सार्थक करते क्यों नहीं। ये कामरेड 'ग्रास-रूट लेवल' पर पीड़ितों की मदद न कर विरोध-प्रदर्शन का कौन सा तरीका अख्तियार करते हैं, मेरी कुछ समझ में नहीं आता है। किसी घटना के बारे में अपना पक्ष या राय प्रकट करने के लिये ये लोग बंद कमरों में मुद्दतों मंत्रणा करते हैं। फिर स्थिति नियंत्रण से बाहर होने के बाद उनका बयान आता है। ऐसे में तुम इन लोगों से क्या उम्मीद करोगे? हम मुसलमान आखिर कहाँ जाएँ, कुछ समझ में नहीं आता।
शीघ्र ही उसका कामरेड प्रदीप और भारतीय वामपंथी आंदोलन से मोहभंग हो गया।
इस बीच जबलपुर में मेरी नौकरी लग गई।
जब कभी घर आता तो घूमते-टहलते ईसा मियां की रजाई-गद्दे की दुकान पर जाकर बैठ जाता।
तहसील को जिला बनाने की राजनीतिक गर्मागर्मी वाला कस्बा है यह। नित-नई आशंकाओं, दुष्प्रचार और राजनीतिक उठापटक से भरपूर नागरिक-क्षेत्र।
आसपास की कोयला खदानों के कारण यह एक व्यवसायिक कस्बा है। धन- धान्य से परिपूर्ण। वर्तमान आवश्यकताओं की आधुनिकतम वस्तुऐं यहाँ के बाजार में उपलब्ध हैं। इसी तरह देश के प्रमुख विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक पार्टियों के दफ्तर भी इस नगर में विद्यमान हैं। दक्षिणपंथी एवं वामपंथी दलों के कार्यकर्ता हैं यहाँ। गाँधी-नेहरू, इंदिरा-राजीव और फिर सोनिया-राहुल वाली कांग्रेस का यहाँ वर्चस्व है। पुराने वकीलों और कुछ बुद्धिजीवियों में लोहियावाद का असर साफ देखा जा सकता है। छोटी जाति के अल्पसंख्यकों और दलितों के बीच माया-कांशीराम ब्राण्ड बहुजन समाज पार्टी, मुलायम ब्राण्ड समाजवादी पार्टी की उपस्थिति को यहाँ महसूस किया जा सकता है। इनके अलावा नगर में ठाकरे की शिवसेना, तोगड़िया की विश्व हिन्दू परिशद, बजरंग दल, पवार की राकांपा और तमाम छोटे-बड़े संगठन के कार्यालय देखे जा सकते हैं।
शुरू-शुरू में इस नगर में मंदिर सिर्फ एक ही था-'देवी मंदिर'। फिर यहाँ जब मारवाड़ी आकर बसे तब नगर के मध्य में भव्य 'राम-मंदिर' बना, इमरजैंसी के बाद जनता-पार्टी के शासन काल से जिसके प्रांगण में आर.एस.एस. की शाखा लगने लगी।
पहले यहाँ एक ही मस्जिद थी-'जामा-मस्जिद'। एक गुरूद्वारा, एक चर्च, एक जैनालय और मजार एक भी नहीं था। आज मंदिरों की तादाद मत पूछिए, कि कितनी है। मस्जिदें भी चार हो गईं। एक यतीमखाना खुल गया। तीन चर्च, दो गुरूद्वारे और बिना किसी ऐतिहासिक साक्ष्य की दो मजारें।
अब दो टाकीज हैं यहाँ और पाँच पेट्रोल-पम्प।
पहले जहाँ सिर्फ एक पाठशाला थी आज उसी नगर में कई शासकीय विद्यालय, अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा की आठ-दस दुकानें, अंजुमन स्कूल, मिशनरी स्कूल और सरस्वती शिक्षा मंदिर आदि खचाखच चल रहे हैं। आर्थिक उन्नति के साथ धर्म, आस्था, विचार, आदर्श, सम्वेदना और शिक्षा का व्यवसायीकरण किस तीव्रता से होता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यहाँ देखा जा सकता है।
मुसुआ से उसकी रजाई-गद्दे की दुकान में भेंट हो जाया करती थी।
मुसुआ ने कई जगह नौकरी के लिए प्रयास किये।
चयन-परीक्षाओं में वह पास न हो पाता। नौकरी न लगे तो झट लोग कह देते कि अरे भइया, बिरादरीवाद हो, प्रदेशवाद हो या कि पैसा....नौकरी पाना सबके बूते की बात नहीं।
ईसा मियां कहते हैं कि 'मीम' को नौकरी कहाँ? मुल्क में मुसलमानों से भेद-भाव किया जाता है। तभी से अपना मुसुआ बेकार है।
मुसुआ अपने अब्बा की बात हंस कर टाल जाता। कहता कि नौकर बनने से कहीं बेहतर अपने अब्बा की दुकान पर मालिक बनकर बैठना है।
फिर तो मुसुआ दुकान सम्भालते-सम्भालते कारोबारी आदमी में तब्दील हो गया। धीरे-धीरे उसने नमाज पढ़नी शुरू कर दी।
कुछ दिनों बाद वह पक्का नमाजी बन गया।
उसके चेहरे पर नूरानी दाढ़ी सज गई।
सर पर गोल दुपल्ली टोपी, घुटनों तक लम्बी कमीज और टेहनुओं से ऊपर उठा पैजामा उसकी पहचान बन गए। वह अब अक्सर मुझसे बातें करते-करते अचानक आक्रामक सा हो जाता। मुझे बहुसंख्यक बिरादरी का प्रतिनिधि मानकर मुझ पर तगड़े जुबानी-वार किया करता।
कहता-'बाबरी-ध्वंस के बाद नगर के व्यवसायिक जगत में फांक दिखलाई देने लगी है। समझदार-सयाने हिन्दुओं का मौन समाज को बांट रहा है। अब हिन्दू ग्राहक, मुस्लिम व्यवसाइयों से सामान खरीदने में परहेज करते हैं।
तदनुसार मुस्लिम ग्राहक बाजार निकलता है तो यही सोचता है कि पैसा मिल्लत ही में जाए, किन्तु मुसलमान सभी तरह का धंधा तो करते नहीं। उन्हें तो हिन्दू दुकानदारों के यहाँ झक मारकर जाना पड़ता है। मैंने उसे समझाया-तुम सिक्के का एक ही पहलू क्यों देखते हो मूसा। क्या इस देश के तमाम हिन्दुओं को सरकार ने काम दे रखा है? क्या भूख, गरीबी और बीमारी से हिन्दू नहीं मर रहे हैं?
वह मेरी सुनता कहाँ है, बस अपनी ही पेले रहता है-भूख-गरीब-बीमारी से यदि मुसलमान मरते तो मुझे फ़िक्र न होती लेकिन दंगों में योजनाबद्ध तरीके से मुसलमानों के कत्ल पर तुम्हारा क्या कहना है? मैं बताता कि मुसलमानों की दुर्दशा का कारण अशिक्षा, निर्धनता और खर्चीलापन है। पचास रुपए प्रतिदिन कमाने वाला मुसलमान भी अपने घर की रसोई की तुलना नवाबों-शहंशाहों के बावर्चीखाने से करता है। वह महंगे दामों में गोश्त-मछली-अण्डा खाता है। उसके बच्चे बिना वस्त्रऔर किताबों के अल्पायु में मिस्त्रियों, दर्जियों के शागिर्द बन जाते हैं। लड़कियाँ कम उम्र में ब्याह दिये जाने के कारण रक्ताल्पता, टीबी और अन्य असाध्य रोगों से पीड़ित हो जाती हैं। उनकी चिकित्सा पर ध्यान न दे मुस्लिम समाज झाड-फूंक, गंडा-ताबीज, मन्नत-मनौतियों के चक्कर में बर्बाद हो जाता है।
मेरे तर्कों को सुनकर मुसुआ और तिलमिला जाता और मुझे घोर दक्षिणपंथी करार देता।
मैं दो-चार दिनों के लिए घर आता था, सो उससे ज्यादा माथापच्ची न कर, हाँ में हाँ मिलाकर निकल लेता था। गोधरा-काण्ड के बाद से तो वह विक्षिप्त होने की हद तक आक्रामक हो गया था।
सुनने में आया कि उसके एक खालू को जो गुजरात की एक बेकरी में काम करते थे, जिन्दा जला दिया गया है।
मैं उसके पास अफसोस जाहिर करने गया था, क्योंकि पिछले माह ईसा मियां की मृत्यु की खबर स्थानीय समाचार पत्र में देखी थी मैंने। ईसा मियां एक गुणवान इंसान थे।
उसके दुर्व्यवहार के कारण उस दिन मैंने कसम खाई कि अब उससे नहीं मिलूंगा।
मुझे क्या पता था कि उसके अन्दर पनपने वाला ये असंतोश एक दिन ज्वालामुखी बन जाएगा।
मेरे सामने पड़ा था 'त्रिशूल' अखबार का मुखपृष्ठ।
मोहम्मद मूसा उर्फ मुसुआ की तस्वीर।
मुझे लगा कि साथ ही कहीं सम्पादन का खण्डन न छपा हो कि अखबार में जो तस्वीर छपी है, वह गलती से छप गई है।
लेकिन मेरी सोच सच न हो सकी।
वह मेरे बाल-सखा मुसुआ की ही तस्वीर थी।
क्या बीत रही होगी उसके मरहूम अब्बा ईसा मियां की रूह पर।
मीलाद-शरीफ़ की शान हुआ करते थे धुनिया ईसा मियां। वह पैग़म्बर हजरत मुहम्मद साहब की शान में 'नात-शरीफ़' बहुत मीठी आवाज में गाया करते थे।
बतहा के जाने वाले मेरा सलाम ले जा
दरबारे-मुस्तफ़ा में मेरा पयाम ले जा।
सुनने वालों को मुहम्मद रफी की मीठी आवाज सा लुत्फ़ मिलता।
हाँ, इस कोशिश में उनका चेहरा जरूर विकृत सा हो जाया करता।
कांग्रेसी जमाने में स्वतंत्रता-अगस्त समारोह में विजय-स्तम्भ पर उनसे देशभक्ति के गीत अवश्य सुने जाते थे।
ईसा मियां का प्रिय गीत था -
वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हों
जब ईसा मियां दर्द से लबरेज आवाज गूंजती तो सुनने वाले देश-प्रेम की भावना से तड़प उठते-
पहाड़ तक भी काँपने लगे तेरे जुनून से
तू इंकलाब-जिन्दाबाद लिख दे अपने खून से चमन के वास्ते चमन के बागवां शहीद हों....वतन की राह में वतन के नौजवाँ शहीद हों....
ईसा मियां ऐसे अवसर पर अपनी बेतरतीब खिचड़ी दाढ़ी को तराश कर आया करते।
बिना मूँछ और मियाँ-कट दाढ़ी में ईसा मियां के चेहरा बड़ा मजाकिया दिखता।
हम तब बच्चे ही तो थे। गीत के शब्दों को अभिनय के साथ अर्थ का जामा पहनाने का प्रयास करते ईसा मियां का चेहरा विकृत हुआ नहीं कि हम अकारण पेट पकड़कर हंसा करते थे। कभी-कभी जब मुसुआ का मूंड ठीक दिखता तो भोला, ईसा मियां के चेहरे की नकल करते हुए भिखारियों के से अंदाज हाथ फैलाकर गाया करता-
औलाद वालों फूलो-फलो...भूखे गरीब की ये ही दुआ है।
हम खूब ताली बजा-बजाकर लोट-पोट हुआ करते।
मुसुआ, भोला को माँ-बहिन सुनाता उसे दौड़ा-दौड़ा कर पीटा करता।
फिर जब सरकारें बदलीं, गाँधी टोपी की जगह भगवा गमछे लहराए तब ईसा मियां से 'वन्दे-मातरम्' की फरमाईश की गई।
ईसा मियां का हिन्दी उच्चारण दुरूस्त न था, सो उनकी जगह किशन भैयाजी ने ले ली जो रामलीला में भजन गाते थे।
मेरे सामने 'त्रिशूल' अखबार पड़ा है।
इसमें मुसुआ उर्फ मूसा की फोटो छपी है।
घनी काली लम्बी दाढ़ी के बीच उसका चेहरा लादेन-नुमा तालिबानियों की याद दिला रहा है।
मेरे मन में मुसुआ उर्फ मूसा के प्रति बदलती धारणा के कारण कहीं ऐसा तो नहीं है..