दहीबड़े / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
अगर सारी मौजूदा लड़ाई रोटी की मान ली जाए तो हिंदोस्तान को एक लंबा-चौड़ा बावर्चीखाना मान लेना गैरमुनासिब न होगा। अत: हिंदोस्तान का सबसे बड़ा ऑफिसर बावर्ची इन चीफ तथा उसके मातहत सैकड़ों विदेशी-देशी-कुक, किचनर, बटलर, बावर्ची, रसोइया, मिसिर वगैरह करार दिए जाएँगे और कहानी यों शुरू हो जाएगी -
दिन का तीसरा पहर, शहर दिल्ली-हिंदोस्तान के खासोआम बावर्चीखाने के लंबे-चौड़े हाते और लंबी-चौड़ी राजसी बिल्डिंग में असाधारण चहल-पहल है। बावर्ची इन-चीफ के कमरे की तरफ कई गोरे बावर्ची लपके जा रहे हैं। कमरे में बड़े बावर्चीजी टेबल के पास चिंतित खड़े कोई खत-सा पढ़ रहे हैं। गोरे बावर्चियों ने जब उन्हें घोर लिया तब उन्होंने खत को ज़ोर से पढ़ना शुरू किया-
यह खत कांग्रेसवालों का है -
'जनाब बावर्ची-इन-चीफ साहब बहादुर की खिदमत में गुजारिश यह है कि जिस बावर्चीखाने के आप सरदार हैं उसके भंडार में सारे मुल्क का अनाज इकट्ठा होता है। मगर बँटवारा सही नहीं होता। गोरे इतना पाते कि खुद खाते सो खाते ही जो बचाते उससे विलायत में सोने के महल बनाते। अमीर और "अपने अंग के" हेडबावर्ची-खाने से इतना अधिक पाते कि उनके चापलूस और कुत्ते भी माल मलीदे चाभते हैं। लेकिन आज रियाया भूखों मर रही है, मेहरबानी कर जल्द से जल्द बावर्चीखाने का चार्ज इस मुल्क के लोगों को सौंपकर आप इंसाफ कीजिए। नहीं तो - नहीं तो नहीं कहा जा सकता मुल्क के मरभुखे क्या न कर बैठें, मरता क्या न करता। आप जानते हैं, सारी लड़ाई रोटी की है। जब तक रोटीखाने पर उनका कब्जा रहेगा जो पहले गैरमुल्क का पेट भरना और फिर टुकड़ों पर हिंदुस्तान को लोभाना चाहते हैं, तब तक शांति हरगिज मुमकिन नहीं।'
दूसरा खत हिंदू-महासभा का था -
'श्रीमान भूखे भूमंडल-भंडारी, दिल्ली-बिहारीजी! जबकि आप सारे भारतवर्ष, जिसमें छत्तीस कौम और छत्तीस हजार कौमिनियाँ हैं, के अखंड भंडारी हैं तब आपको एक ही कौम को खुश करने वाला नाम भंडारे को नहीं देना था। बावर्चीखाना शब्द केवल मुसलमानों का है, हिंदुओं का कदापि नहीं। अत: पहली प्रार्थना यह है कि बावर्चीखाना बदलकर बावर्ची-भंडार कर दिया जाए। दूसरे हमारे पास काफी सबूत हैं इस बात के कि बावर्चीखाने में मुसलमानों को ज्यादा सहूलियतें दी जाती हैं बनिस्बत हिंदुओं के। हमारा दावा है कि खाने में या खाना बनाने में हिंदू-मुसलमान ही नहीं संसार की किसी भी कौम से पीछे नहीं। हिंदू मिसिर, महाराज और पांड़े - सौ में सौ -मुसलमानों के गंदे खाँ बावर्चियों से साफ होते हैं। अत: नौकरियों में पहला हक हिंदुओं का जन्मसिद्ध है।'
तीसरा पत्र महामाननीय महाबावर्चीजी ने जो पढ़ा वह मुस्लिम लीग का था -
'आला हजरत! जनाब हेड बावर्ची साहब की खिदमत में अर्ज जरूरी यह है कि अहले इसलाम ने यह खबर सकते में आकर सुना कि बड़े बावर्चीखाने में इस साल हजारों हिंदू बर्तन खरीदे गए हैं! हमने सुना है बँधने कम और लोटे कसरत से खरीदे गए हैं। ऐसा क्यों? हमने सुना है रकेबियाँ - दस्तरखानों की दिक्कत होने पर भी, थालियाँ थाल और परात खरीदे गए हैं! हिंदुस्तान केवल हिंदुओं का नहीं, फिर हिंदुस्तानी बावर्चीखाने में केवल हिंदू बर्तन क्यों खरीदे जा रहे हैं? इसकी रोकथाम जरूरी है, नहीं तो आप नहीं, जानते कि हम कौन हैं... हमारा नाम है कहर, गजब, तूफान हश्र... !'
तीसरे खत का मजमून खत्म होने पर एक गोरे बावर्ची ने कहा -
'देखता हूँ, कालों की हिम्मत बहुत बढ़ गई है।'
'कुछ भी सही।' हेड बावर्ची साहब ने फरमाया, 'हमारे देश में जंग छिड़ी है, ऐसे वक्त हिंदोस्तान वालों को नाराज न रखना ही अक्लमंदी होगी।'
'तो क्या इन्हें कुछ दिया जाएगा?' एक गोरे ने भय से घबराकर पूछा।
'देने की बात तो मैंने कही नहीं।'
हेड बावर्ची ने संजीदगी से जवाब दिया, 'हिंदुस्तानियों को खुश रखना होगा तब तक - जरूर किसी-न-किसी तरह - जब तब अपने देश में बदअमनी है, कई मोर्चे पर एक साथ लड़ाई लड़ी नहीं जाती।'
'तो क्या इन्हें कुछ भी नहीं दिया जाएगा?' एक गोरे-मोटे बावर्ची ने पूछा।
'न देने की बात तो मैंने कही नहीं।' महाबावर्ची महोदय ने कूट दृष्टि से अपने भाई बावर्ची की ओर देखकर कहा, 'कल कांग्रेस, हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के लीडर मुझसे मिलने आवेंगे। हिंदू बावर्चीखाने का नाम बदलना चाहते हैं, मुसलमान बर्तन और कांग्रेस बावर्चीखाने की शक्ल ही बदल देना चाहती है, सारा इंतजाम।'
'तो कल क्या होगा?'
'बातें... !'
'फल क्या होगा?'
'बातें... !'
जिस दिन कांग्रेस मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के लीडरान महाबावर्ची साहब से मिलनेवाले थे उसी दिन, मुलाकात से पेश्तर, एक फ्रांसीसी बावर्ची महाबावर्ची से बातें कर रहा था -
'आज बावर्चीखाने में दंगा हो गया।' फ्रांसीसी ने कहा।
'दंगा-बावर्चियों में?' महाबावर्ची ने पूछा।
'बावर्चियों में होगा तब होगा अभी तो बावर्चीखाने के बर्तन आपस में लड़ाए जा रहे हैं...।' मुस्कराकर फ्रेंच ने जवाब दिया।
'लड़ रहे हैं बर्तन। वेलडन! अब बाजी अपनी है। लड़ाई कौन डायरेक्ट करेगा?' महाबावर्ची ने पूछा -
'मैं! बावर्चीखाने के पीछे की कोठरी में बिजली के बोर्ड के पास बैठकर मैं बटन दबाऊँगा और वही होने लगेगा जो कभी न हुआ होगा।'
इसी वक्त खबर मिली कि तीनों पार्टियों के नेता आ गए हैं। महाबावर्ची ने तुरंत आगे बढ़कर स्वागत के साथ उन्हें अंदर ला बैठाया -
'अच्छा हुआ आप लोग आ गए देख लीजिए चल कर अपनी आँखों अब...।' महाबावर्ची ने कहा।
'क्या हुआ?' कांग्रेस नेता ने पूछा।
'दुश्मनों की तबीयत नासाज तो नहीं?' मुस्लिम लीग ने रसगुल्ले की तरह मीठा मुँह बनाकर सवाल किया।
'क्या बतलाऊँ?' महाबावर्ची ने रंजीदा होकर कहा, 'आप लोग बावर्चीखाने पर कब्जा चाहते हैं। वहाँ बर्तन तक आपस में लड़ रहे हैं। एक-दूसरे को तोड़े डाल रहे हैं। चलकर देखिए।'
महाबावर्ची तीनों लीडरों को लेकर तेजी से उस कमरे की ओर बढ़े जिसमें बावर्चीखाने के बर्तन रखे जाते थे। दूर से ही बर्तनों के गिरने-टूटने की आवाज सुनाई पड़ रही थी। निकट पहुँचकर सबने देखा कमरे में पूरा भूचाल का नजारा - कहीं टूटी थाल पड़ी है कहीं तश्तरी। बँधने की टोंटी नदारद, लोटे का पेंदा गायब! बर्तन लड़ ही नहीं कुछ बोल-बक भी रहे थे - पीतल का घड़ा - अरे 'जग', अरे 'मग', अरी 'देगची' भाग यहाँ से यह हिंदुओं का भंडार है।
देगची - अरे चल भड़वे! छोटा-सा मुँह बड़ी बातें! जानता नहीं हिंदुस्तान महज इसलामी भटियारखाना है।
छुरी-काँटे बिगड़े और झनककर कहने लगे - यह बावर्चीखाना उन साहबों का है जिन्होंने पीतल के कलशे और ताँबे की देगची के बाप-दादों को ठोंक-पीटकर वैद्यराज बना दिया था।
पीतल का घड़ा - 'मैं इस म्लेच्छिन देगची के साथ हरगिज नहीं रह सकता। इसे निकालो इस घर से?'
देगची - 'अरे जा भड़वे कलशे! भूल गया। अभी कल तक तो इस मुल्क के बादशाह हमारे मालकैन थे। हिंदोस्तान के बावर्चीखाने पर साहबों से पहले खाँ साहबों का कब्जा था और कब से! तेरे हिमायती हिंदू साग-भाग खोर, गाय की तरह महज दूध देने और जाहिल की तरह केवल गुलामी करने के लिए अल्लामियाँ के हाथों सँवारे गए हैं!'
'अल्लामियाँ नहीं हमारे ईश्वर भगवान शंकर हैं, प्रलयंकर!' तड़पकर कलशा देगची के ऊपर जा गिरा। वह पिचककर रह गई। आसपास के कई विलायती प्लेट चकनाचूर हो गए। छुरे और काँटे मुड़कर बेकार हो गए!
'हें!' महाबावर्ची ने आवाज दी, 'बुलाओ, पुलिस को, ये बदमाश बर्तन सीधी तरह माननेवाले नहीं। आइए साहबान! देख चुके आप सब - इस बावर्चीखाने की हालत? मैं कहता हूँ इस बावर्चीखाने को हिंदू या मुसलमान नहीं सँभाल सकते। हुकूमत करने की कला ही और है और ऐसे कलावान बावर्ची हिंदुस्तान में नहीं। इसलिए आप लोग एक राय होकर एक राय पर आइए। हम पर जो विपत्ति आई है उसे दूर करने में हर तरह से हाथ बँटाइए। इस वक्त बावर्चीखाने पर कब्जा करने की बात बेवक्त की रागिनी होगी। हम आप सबको खुश करेंगे जरूर।'
'मुसलमानों से जब तक यह बावर्चीखाना भर नहीं जाएगा मुस्लिम लीग की छाती ठंडी न होगी।'
'जब तक बावर्ची-भंडार से देगची और बँधने निकाल बाहर न किए जाएँगे हिंदू-महासभा धमकियों के धमाके धमकाती ही रहेगी।'
'कांग्रेस फौरन से पेश्तर हिंदोस्तानी बावर्चीखाने पर से विदेशियों की हुकूमत उठा देना चाहती है। हमें बावर्चीखाना चाहिए, हम बावर्ची और महाबावर्ची खुद बनना चाहते हैं।'
'गैर मुमकिन है।' महाबावर्ची साहब ने कहा, 'जिस बावर्चीखाने के बर्तनों तक में मिल्लत नहीं उस पर हिंदुस्तानी हुकूमत होने से गजब हो जाएगा। हुकूमत करना तो हमीं जानते हैं। हम इंसाफ पसंद सुकरात और बुकरात से भी बड़े हैं।' हमने आप लोगों को आपकी मेहनत का फल देने का निश्चय किया है -
हिंदू - कैसा फल...?
मुस्लिम - 'क्या फल से "सिला" का मतलब है? संसकीरत अल्फाज हिंदोस्तान के बावर्चीखाने के आफिसरान क्यों बोलते हैं? क्या मिलेगा हमें... बिना बावर्ची बने अहले इसलाम मानने वाले नहीं!'
कांग्रेस - 'कैसा फल आप लोग देंगे हिंदोस्तान को?'
'बड़ा - ग्रेट तुम लोगों को फल जल्द ही मिलेंगे - बड़े-बडे!'
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मीटिंग
उक्त घटना के दो महीने बाद एक बड़ी मीटिंग में कांग्रेस का लीडर स्पीच झाड़ रहा था - 'दोस्तों, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, विलायती बावर्ची हमारे बावर्चीखाने से हटने को तैयार नहीं। झूठमूठ फूट के किस्से वे गढ़ते हैं। कलशे, देगचियों, काँटे-छुरियों को वे तरकीब की बिजली से आपस में लड़ाते हैं - मगर सब धोखा, टालमटोल।' एक बार महाबावर्ची ने कहा, 'जंग में हमारी मदद करो तो बड़े-बड़े फल मिलेंगे। मैंने पूछा आखिर आखिर इस बड़े-बड़े की कोई परिभाषा या तारीफ भी है?'
इस पर महाबावर्ची ने कहा, 'बड़े से मतलब दही-बड़े है। भंडारा आप लोग चला नहीं सकते, एक-दूसरे को काट या भून खाएँगे, इसलिए दही-बड़ों की तजवीज हमने की है।' दोस्तों! अजी हम दही-बड़ों के भूखे नहीं, हम अपने बावर्चीखाने पर अपना हक चाहते हैं।
सभा
उक्त भाषण के कई दिनों बाद एक चौमोहानी पर हिंदू सभा का नेता बिना बुलाए ही बोल रहा था, '...कैसे दहीबड़े? मैंने महाबावर्ची से पूछा, "अगर आप इस मुल्क को तेल के दहीबड़े देते हैं तो राष्ट्र का स्वास्थ्य खराब होता है। तेल के बड़ों से हिंदुस्तान का पेट नहीं भर सकता। इस पर महाबावर्ची ने वक्तव्य दिया है कि जो बड़े देने की तजवीज उन्होंने की है वे मूँग के होंगे और घी के। और घी-मूँग के बड़़े मिलने के बाद भंडारे पर कब्जा करने में रह ही क्या जाता है? इस भंडारे को महज हिंदुस्तानियों के हित की नजर से हम सँभालते और तपते हैं। हमारे हटते ही जापानी, अफगानी या कोई न कोई आसमानी बावर्ची इस बावर्चीखाने पर कब्जा कर लेगा। मूँग के दही-बड़े अच्छे होते हैं, खासकर घी के। कनाडा में, आस्ट्रेलिया में ऐसे ही बड़े चालू हैं।" ठीक है। महाबावर्ची साहब के दही-बड़े से मेरा परहेज नहीं और न उसके महत्व में संदेह ही है। मगर मुसलमानी बर्तनों में अगर बड़े पकाए गए तो समझ लीजिए, "हरि के खारे बड़े पकाए, जिन जारे तिनखाए।" हिंदू उसे छुएगा भी नहीं।'
जुलूस
उक्त सभा के कई दिनों बाद मुस्लिम लीग का एक जुलूस निकला। जिसमें ये नारे लग रहे थे -
'हम बावर्ची बनेंगे!'
'हिंदोस्तानी बावर्चीखाना हमारा है।'
'मूँग के - घी के - दही के बड़ों पर लानत है! यह अहले इसलाम नहीं साग-भात खानेवाले की गिजा है।'
'दहीबड़े मुर्दाबाद!'
'घी के बड़े मुर्दाबाद!!'
'मूँग के बड़े मुर्दाबाद!!!'