दही-बड़े / हेमन्त शेष

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर जगह की कोई न कोई चीज़ बड़ी प्रसिद्ध हुआ करती है, जैसे पाली के रास्ते सड़क से जाएँ तो सेंधडा गाँव के दही-बड़े, जिसकी एक दुकान पर आप बड़े बड़े हर्फों में तीन शब्द लिखे देखेंगे- दही-बड़े और इसके ठीक नीचे- सन १९०७!

इतिहास में मेरी सहज दिलचस्पी है. जब दुकान पर दही-बड़े खरीदने के लिए रुका तो दुकानदार ने बतलाया- “मेरे पड़दादा ने १९०७ में ये दुकान शुरू की थी साहब! और १९७१ तक सेंधडा रेलवे स्टेशन पर हम लोगों का ‘खानपान-सेवा’ का ठेका भी था- जहाँ ‘सेंधडा के दही-बड़े’ नाम से ही उनकी जम कर बिक्री होती थी. तब चूंकि इंजन भाप के होते थे इसलिए हर सवारी गाड़ी को पानी लेने के लिए सेंधडा रेलवे स्टेशन पर कुछ देर खड़ा रहना ज़रूरी होता था...हर मुसाफिर एक बड़ा दोना तो खरीदता ही था...इंजन के ड्राइवर और गार्ड को दुकान की तरफ से मुफ्त भिजवाए जाते थे...इसलिए १०-२० मिनट की देर तो रोज का काम था...”. बूढ़ा उदास स्वर में आगे बोला- “बाबू साहब, जब से डीज़ल इंजनों वाली तेज़-रफ़्तार रेलगाड़ियाँ चली हैं- कोई गाड़ी अब सेंधडा रेलवे स्टेशन पर रुकती ही नहीं...केवल सड़क से धूल उड़ाते ट्रक वाले गुजरते हैं, जो हमारी दुकान की तरफ देखते तक नहीं. दही-बड़े बेचने में अब कोई मुनाफा नहीं, इसलिए हम ये सोच रहे हैं - इसकी बजाय ट्रकों के टायर ‘रिट्रेड’ करने का काम शुरू कर दें! “

तब तक छोकरे ने दही-बड़े पैक कर दिए थे. मैंने उन्हें लिया और “भाप के इंजनों से दही-बडों का सम्बन्ध” विषय पर चमत्कृत होता हुआ घर लौटा.

दही-बड़े वाकई स्वादिष्ट थे. इतने कि मैं सोचने लगा- डीज़ल इंजनों की बजाय, भारतीय रेलों में फिर से भाप के इंजन क्यों नहीं लगाए जाते?