दहेज का रहस्य / प्रमोद यादव
जब से अखिल से मिलकर लौटी हूँ, बेहद उलझ गयी हूँ.कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि अखिल के कौन से रूप को सही मानूं. उसका एक रूप सामाजिक बुराईयों और रूढ़ परंपराओं के विरोधी तथा आधुनिक विचारों और सजग चेतना के प्रतिक युवक का है तो दूसरा रूप एक ऐसे इंसान का है जिसका आदर्श महज दिखावा है, महज ढोंग है. वैसे मन कहता है कि अखिल ढोंगी नहीं है. उसका आदर्श सिर्फ दिखावा नहीं है मगर उसके जिस व्यावसायिक रूप को मैंने आज अपनी आँखों से देखा, उसे झुठलाना भी सहज नहीं है. एक अनास्था का काँटा सा चुभ गया है मन में.
अखिल मीता का मंगेतर है और मीता मेरी अभिन्न सहेली है. दोनों एक-दूसरे को बहुत चाहते हैं. दो साल बाद अखिल डाक्टर बन जाएगा और तब वह मीता से शादी करके अपने सपनों को पूरा करेगा.वह इसी शहर के मेडिकल कालेज में डाक्टरी पढ़ रहा है और अक्सर ही मीता के घर आता-जाता रहता है. उसके घरवाले नैनपुर में रहते है.मीता के घर में उनके बाबूजी, माँ और दो छोटे भाई हैं.एक भाई सतीश सातवीं में पढता है तथा दूसरा भाई मनीष मेट्रिक का विद्यार्थी है. बाबूजी का सपना मनीष को डाक्टर बनाने का है. वे एक शासकीय कार्यालय में अच्छे पद पर हैं तथा आठ हजार रूपये मासिक वेतन पाते हैं.मीता की माँ बेहद सीधी-साडी धर्म-परायण महिला है.अच्छा खाता-पीता सुखी परिवार है. आज सुबह मीता मेरे पास आई तो बहुत उदास थी.मेरे कारण पूछने पर उसने बताया कि बाबूजी के पास नैनपुर से अखिल के पिता की चिट्ठी आई है कि अखिल की शादी में वे पचास हजार रूपये नगद दहेज के रूप में चाहते हैं और उनकी इस फरमाइश की पूर्ति बाबूजी के लिए कठिन सी है.
मैं मीता के घर की स्तिथि अच्छी तरह जानती हूँ इसलिए मुझे स्तिथि की गंभीरता समझने में देर न लगी.मैं मीता के बाबूजी के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित हूँ. वे बेहद फिजूल-खर्च इंसान है..माँ उन्हें समझाते-समझाते हार जाती है मगर उनकी यह आदत नहीं जाती. वरना उनका परिवार इतना बड़ा भी नहीं कि वे कुछ बचा न पायें. चाहते तो धीरे-धीरे करके अब तक काफी रकम इकट्ठी हो सकती थी. मीता ने उदासी भरे शब्दों में बताया कि इस फरमाइश से माँ व बाबूजी बहुत चिंतित हो गए हैं. उनकी नजर में अब सिर्फ एक ही उम्मीद की किरण है और वह है-अखिल...अखिल के माता-पिता कभी उसके निर्णय का विरोध नहीं करते और अखिल दहेज जैसी सामाजिक कुप्रथा को प्रोत्साहित नहीं करेगा, बस इसी उम्मीद से माँ व बाबूजी कुछ आश्वस्त हैं.
मीता की बातें सुन मुझे भी लगा कि माँ-बाबूजी ठीक ही सोचते हैं.अखिल कभी दहेज नहीं स्वीकार करेगा.यही ख्याल मीता का भी था. मैंने उसे समझाया कि तुम बेकार ही दुखी मत होओ क्योंकि अखिल नए विछारों का युवक है और वह तुम्हे बेहद चाहता है. तुम उससे बात कर लेना. मगर मीता मेरे पीछे पड़ गयी कि यह बात अखिल से मैं करूँ. कमबख्त दलील दे रही थी कि मैं “ फ्रीली” बात नहीं कर सकुंगी, इसलिए तू करना. मुझे उसकी इस अनोखी दलील के आगे झुकना पड़ा और मैं अखिल से मिलने के लिए तैयार हो गयी. और अब, जब उससे मिलकर लौटी हूँ तो मन में अखिल की बातें गूंज रही है. उससे भेंट होने पर कुछ इधर-उधर की बातें करके जब मैं विषय को दहेज की प्रथा की ओर ले गयी तब उसने बहुत तीव्रता से विरोध किया था.उसने कहा कि दहेज-प्रथा समाज के माथे पर कलंक के टीके के समान है.सुनकर मैं बहुत खुश हुई थी.तब मैंने उसे बताया कि नैनपुर से उसके पिताजी का खत आया है जिसमें पचास हजार रूपये नगद दहेज की मांग की गयी है. सुनकर अखिल जैसे कहीं खो गया. उसके होठों पर एक विचित्र मुस्कान आई जो उलझाने वाली थी.मैं कुछ समझ न पाई. मैंने उसको बताया कि मीता के बाबूजी, माँ और खुद मीता बहुत परेशान हैं और उनकी आशाओं का केंद्र अब सिर्फ वही है.
सुनकर अखिल मौन रहा.फिर वही रहस्यमय मुस्कान होठों पर लाकर कहने लगा कि वह पिताजी के फैसले के खिलाफ कोई निर्णय नहीं लेगा. अगर यही बात वह सहज मुस्कान के साथ कहता तो मैं इसे एक मजाक मान लेती किन्तु उसकी उस समय की मुस्कान में चाहे जो रहा हो, मजाक बिलकुल नहीं था. सुनकर मुझे लगा जैसे किसी ने मुझे अँधेरे कुँए में धक्का दे दिया हो. फिर भी मैंने साहस करके आदर्शों की याद दिलाई. कुछ देर पहले कही गयी बातों का जिक्र किया.वह मौन रहा. मैं अच्छी तरह जानती कि अखिल के माता-पिता उसको बेहद चाहते हैं और उसकी किसी भी बात को टालते नहीं इसलिए मैंने उससे अनुनय के स्वरों में कहा कि यदि वह चाहे तो अपने पिताजी के फैसले को बदल सकता है मगर अखिल ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वह इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा..पिताजी जो करते हैं, उसे रोककर मैं उनका दिल नहीं तोड़ सकता..
अखिल का वह रूप देखकर मन में विरक्ति सी समा गयी.आज उससे मिलने के बाद मीता से मिलने की इच्छा नहीं हुई.सच तो यह है कि मुझमें अखिल के फैसले को मीता को सुनाने का साहस नहीं हो रहा है.मगर सोचती हूँ कि आखिर कब तक बचूंगी. कल ही सुबह मीता पहुँच जायेगी और बड़ी-बड़ी आँखें जिनमें अखिल के लिए विशवास और प्यार है, मेरी आँखों में डाल कर पूछेगी कि बता- क्या कहा मेरे अखिल ने ? और तब मैं कैसे कहूँगी कि अखिल ..सिर्फ ‘उसका’ अखिल आदर्शों का ढोंग रचता है..उसका आदर्श सिर्फ दिखावा है..उसे सामाजिक बुराइयों पर केवल भाषण देना आता है.
आज मीता की शादी है.मेहमानों की भीड़ है घर में.सभी के चेहरों पर उल्लास है..सभी के चेहरों पर रौनक है..घर बेहद भरा-भरा लग रहा है लेकिन जब बीते दो सालों को याद करती हूँ तो मन में जैसे खरोंच सी लग जाती है. इस भीड़ में भी मन जैसे अकेला हो जाता है.ढेर से कामों में उलझे हुए बाबूजी व मा को देख रही हूँ जिनके चेहरों पर एक परम संतोष का भाव है.
उस दिन कितना नहीं रोई थी मीता जब मैंने उसे बड़ी मुश्किल से साहस संजोकर अखिल का निर्णय सुनाया था. वही हाल मीता के बाबूजी व मा का हुआ था जब अखिल का रुख उनके सामने स्पष्ट हुआ था. वे बुझ से गए थे परन्तु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी थी. वे अखिल को किसी भी कीमत पर नहीं खोना चाहते थे क्योंकि उसके उजले भविष्य के प्रति उनकी आस्था शेष थी. वैसे एक बात जरूर आश्चर्यजनक थी कि अखिल इन सबके बावजूद भी नहीं बदला था. वह हमेशा की तरह मीता के यहाँ आता-जाता जैसे कुछ हुआ ही नहीं. उसके व्यवहार में जाने क्या था कि उसने माँ , बाबूजी व मीता को कभी महसूस नहीं होने दिया कि उसने भी मौन रूप से दहेज की मांग के लिए अपने पिताजी का समर्थन किया है. फिर बाबूजी उसे चाहते भी बहुत थे.पचास हजार रूपये की चिंता से जब वे बहुत अधिक परेशान हो जाते तो यही सोचकर अपने आपको तसल्ली दे लेते कि अखिल आखिर उनके बेटे की तरह है, रूपया किसी पराये को तो नहीं देना है. इन दो सालों को मीता ने भी बहुत अजीबो-गरीब ढंग से जिया था. अखिल के लिए वह सब कुछ सह सकती थी.प्यार ने उसे विवश सा कर दिया था. अखिल को उसने अपना देवता माना था. अतः वह उसकी इच्छा के आगे विवश सी हो गयी थी.उसका व्यव्शायिक सा रूप भी उसके सपनों को तोड़ नहीं सका था.
कमरे की उमस से बचने के लिए मैं खिडकी खोलती हूँ तो आँगन में मंडप की रौनक नजर आती है. एक क्षण के लिए ठिठक सी जाती हूँ. देखती हूँ, मीता के बाबूजी ने अखिल के पिताजी से कुछ कहा और वे मंडप से उठकर मीता के बाबूजी के साथ इधर ही आने लगे हैं. मैं समझ जाती हूँ कि वे अब इसी कमरे में आयेंगे और अनुमान लगाती हूँ कि उनमें क्या बातें होंगी. वे कमरे में आते हैं तो मैं बाहर जाने लगती हूँ मगर मीता के बाबूजी कहते हैं- ‘ अरे बेटी..तुम्हें बाहर जाने की आवश्यकता नहीं...अपना काम करो...’ और मैं फिर मेहमानों के लिए पान लगाने बैठ जाती हूँ.मेरे कान उनकी बातों की ओर लग जाते हैं.मीता के बाबूजी कह रहे हैं- ‘ समधीजी..दहेज की रकम तैयार है..मैंने सोचा कि आप से पूछ लूँ कि रकम आप अगर सबके सामने न लेना चाहें तो...’
सुनकर अखिल के पिता हँस पड़ते हैं. बाबूजी और मैं चौंक जाते हैं.आखिर उनकी हँसी रूकती है और वे मुस्कुराकर कहते हैं- ‘ समधीजी...दहेज की मांग तो सिर्फ एक नाटक था जो मैंने अखिल के कहने पर खेला वरना दहेज की लालच न मुझे है और ना ही अखिल को...’
‘ क्या...? बाबूजी पुनः चौंक पड़ते हैं, मैं भी कुछ समझ नहीं पाती.
‘ हाँ...मैं ठीक कह रहा हूँ...’ वे बोलते हैं- ‘ अखिल ने आपकी फिजूलखर्ची रोकने के लिए मुझसे वह पत्र लिखवाया था वरना आपमें कभी बचत की प्रवृत्ति नहीं आ पाती...अखिल को मालुम है कि आप किसी के आगे हाथ फैलाना या कर्ज लेना अपना अपमान समझते हैं..’
‘ मगर समधीजी...’ बाबूजी सुखद आश्चर्य भरे शब्दों में कहते हैं- ‘ रकम इकट्ठी हो गयी है..इसे तो आप स्वीकारिये...’
‘ नहीं भई...’ अखिल के पिताजी कहते हैं- ‘ मैंने और अखिल ने इस रकम का उपयोग सोच लिया है..’
‘ क्या उपयोग सोचा है समधीजी ? ‘ बाबूजी के स्वरों में उत्सुकता है.
‘ इसे आप मनीष को डाक्टरी पढाने में खर्च करेंगे..’
बस...इससे आगे मैं नहीं सुनती...दौडकर मीता के कमरे में पहुँच जाती हूँ. अब मेरी समझ में अखिल के उस दिन की विचित्र मुस्कान का रहस्य समझ में आता है जब वह कह रहा था कि वह पिताजी की मांग का विरोध नहीं करेगा.
मैं जल्दी-जल्दी मीता को सब बातें बताती हूँ.मीता खुशी से मुझसे लिपट जाती है.