दांव / भूमिका द्विवेदी

Gadya Kosh से
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यूं तो पूनम यादव केवल नाम की सेक्रेटरी थी। लेकिन काम की कुछ ज़्यादा थी। "अघोषित पत्नी" थी और 'घोषित रखैल' तो तयशुदा रूप से थी ही।

असल सेक्रेटरी तो किशोर श्रीवास्तव था। वह दिन के सभी काम बखूबी निपटा सकता था, लेकिन रात वाला उसके बस का नहीं था। उसके लिये तो पूनम ही बचती थी और पूनम को कोठी-परिक्षेत्र में बनाये रखने के लिये ही उसके गले में भी एक 'सेक्रेटरी' नाम का तमगा लटका दिया गया था।

फ़लाने प्रदेश के राज्यपाल श्री रामदयाल जोगी जी, सत्ता का उपभोग करते-करते बुढ़ा गये थे। अब नई-नई छोकरियां अपने छोटे-बड़े काम कराने के लिये उनके आगे-पीछे मंडराना छोड़ चुकी थीं। अधेड़ औरतें भी राष्ट्रपति सरीखे राज्यपाल के आभासी पद और उसके तथाकथित अधिकारक्षेत्र की बारीकियों से अच्छी तरह परिचित हो चुकीं थीं। इसलिये उन रंगे हुये काले बालों, जिम में पसीने बहाकर घटाई हुई चर्बी और मसाज से कसे हुये चेहरों का रामदयाल जोगी के बंगले में फेरा लगना तक़रीबन बन्द हो चुका था। अब तो भूले-भटके किसी स्कूल की कोई सफ़ेद बालों और सुनहरे फ़्रेम वाली प्रिन्सिपल अपने स्कूल के वार्षिकोत्सवों में जोगी जी के साथ बांहकटी ब्लाउज़ पहनकर फोटू खिंचवाने आती थी। या फिर लिप्स्टिक-पाउडर से लिपी-पुती, छोटी-बड़ी दुकान की कोई एक-आध मालकिन ही जोगी जी से अपने गौण प्रतिष्ठानों के उद्घाटन में दीप जलवाने के लिये गुहार लगाने आतीं थीं, क्योंकि ऐसी फ़ैशनपरस्त महिलायें अपने बड़े और मुख्य शोरूम का फीता तो किसी हीरो या चौकलेटी नेता से कटवाना ही पसंद करतीं थीं। तिस पर भी ये वैकल्पिक अवसर मास-छ्ह-मास में इक्का-दुक्का ही आते थे और रामदयाल जी के पास इसके लिये वक़्त ही वक़्त हुआ करता था।

ऐसा नहीं कि रामदयाल सदा से ही यूं ही झुर्रीयाफ़्ता ढीले बदन और सन्नाटेशुदा मज्लिसों के स्वामी रहें हैं। भारी बहुमत और अपार लोकप्रियता वाला राज भी रामदयाल जोगी जी ने भरपूर भोगा था। हर तरफ़ जोगी जी की जयकार, खुली जीप में फूल-मालाओं की बौछार, पब्लिक के कन्धे पर लदे नेता जी का सत्कार, जगह-जगह उनके भाषण-मीटिंग-जुलूस वाली झिलमिल, चमकीले दौर की बहार भी उन्होंने खूब-खूब देख रखी थी। लेकिन बरसात के मौसम में निकली धूप और राजनीति के समन्दर में ठहरी हुई नैया का कोई भरोसा नहीं होता। कौन कह सकता है, अब गयी कि तब गयी।

चमकते सूरज जैसे, रामदयाल जोगी जी के राजयोग में भी ना जाने कब राहू की छाया पड़ी और वह बनी-बनायी पार्टी से बड़ी बेहयायी और बेमुरव्वती से निकाल दिये गये। क्योंकि रामदयाल जी ने इस पार्टी को अपने साठ-सत्तर बरस दिये थे, इस नाते पैतृक-गांव जाकर खेतीबाड़ी देखते बाक़ी जीवन ना गुज़ार देने का तयकर, उन्हें उसी प्रदेश का राज्यपाल बनाकर उनकी ज़बान और विद्रोह में उठने से पहले उनके बचेखुचे जोश-ओ-खरोश को खामोश कर दिया गया।

अब सिवाय मन्त्रियों को शपथ दिलवाने और पार्टी की इच्छानुसार उनके त्यागपत्र स्वीकार / अस्वीकार करने के, जोगी जी के पास कोई और काम ना रहा। वह किसी के ना रहे और कोई उनका ना रहा, सिवाय एक पूनम यादव के.

ले देकर पूनम यादव ही जोगी जी की अकेली चेली बची थी, जो अनधिकृत होकर भी सारे अधिकार का मज़ा लूट रही थी। अब इसे मज़ा लूटना कहा जाये या जूठन में बची रबड़ी चाटना, जो भी कहा जाये, पूनम का दु: ख सिर्फ़ पूनम ही बेहतर जानती थी। पूनम यादव की उम्र अब पैंतीस पार हो चली थी। बीस बरस पहले जब जोगी जी ख़ुद पचास पार थे और वज़ीराबाद नाम के एक गांव में पोलियोड्रौप के दो घूंट पिलाने गये थे। वहीं से अपने लिये दो बूंद जवानी की उठा लाये थे। एक भैंस चराने वाली गांव की अल्हड़ लड़की के रूप में वह उस वक़्त पूनम को अपने एम.एल.ए. आवास में ले आये थे। उस दौर में निरच्छर पूनम घोषित तौर पर रसोई में सब्जी कटवाने में मदद किया करती थी। लेकिन तब भी, मूल रूप से उसका काम जोगी जी की तन-मन से सेवा करना ही था। जोगी जी का दिल बहलाना ही था। जोगी जी ने ही उसे मैट्रिक करवाया, बारहवीं भी करवाई. तब से लेकर आज तक नियमानुसार वह उसकी तेरहवीं भी रोज़ाना कर ही रहे हैं। उस वक़्त जब ये अहीर-छोकरी देहात से शहर आयी थी, किसी ने ऐसा नहीं सोचा था कि वह उपले बनाने वाली लड़की कभी स्पा और पार्लरों के फेरे भी लगा सकेगी।

इधर इस पन्द्रह साला लड़की की उम्र बढ़ती गयी, उधर जोगी जी का पद बढ़ता गया। वह विधायकी छोड़के लालबत्ती ऐम्बेसडरों में लहराते हुये 'मन्त्रीजी-मन्त्रीजी' कहलाने लगे और पूनम यादव, ग़ैर-सरकारी कामों के लिये आते-जाते जोगी जी से उन्हीं कारों में दिन-प्रति-दिन पहले से ज़्यादा सटकर बैठने लगी।

दुनिया कुछ भी कहती रहे। चलन चाहे जितना भी बदलता रहे। वक़्त कितनी ही तरह की करवटें क्यूं ना लेता रहे, लेकिन रामदयाल अपने खेल के सदा से पक्के थे। उन्होंने अपने बाल उबलती हुई राजनीति की ग़रम आंच में पकाये थे। ज़माना बदला, लेकिन उन्होंने पूनम को उसकी औक़ात से आगे बढ़ने नहीं ही दिया। साथ ही रामदयाल ने अपने लिये एक बी.ए.पास सेक्रेटरी भी अलग से रख लिया था। राज्यपाल के सारे कार्यक्रम, सूचनायें, उनके आने-जाने और मिलने-मिलाने के वक़्त का हिसाब वही रखता था। उनसे मिलनेवालों का अता-पता भी इसी सेक्रेटरी को होता था।

जोगी जी कुण्डली मारे पूनम के सुनहरे सियासी भविष्य के आगे खड़े रहे और अंगद के पांव सरीखे जमे रहे। पार्टी के शीर्ष नेताओं की ज़रा-बहोत इच्छा जताने पर भी वे टस के मस ना हुये।

हर साल पार्टी का एक शालीन, सन्तुलित, सार्वजनिक और बड़ा ही औपचारिक अधिवेशन, मीडिया की मौजूदगी में तयशुदा तौर पर होता ही था। लेकिन एक अनौपचारिक सालाना जलसा भी अलग से किया जाता था, जिसे अनिवार्य रूप से मीडिया से दूर रखा जाता था। इस अनौपचारिक गेट-टुगेदर में नये-पुराने सभी सदस्य एक दूसरे से बेतक़्क़लुफ़ होकर मिलते थे। पूनम यादव इन जलसों में शराब परोसने का काम सालों-साल करती रही।

इन्हीं जलसों में झूमते हुये, पार्टी के ही एक कद्दावर नेता और पदासीन मन्त्री बदरीप्रसाद तिवारी तो पूनम की कलाई कई बार धर भी चुके थे। वैसे तो वह पूरा का पूरा पूनम को ही धरना चाहते थे, लेकिन लुकछुप के, ठण्डी आहें भरकर उस चमकदार गोरी चमड़ी वाली के दुपट्टे की हवा से ही ख़ुद को हर मर्तबा बहलाते रहे। ये बात हर कोई भलीभांति जानता था कि पूनम जोगी जी की रखी हुई 'व्यक्तिगत बांदी' है और फिर एक ही पार्टी के इतने सीनियर और उम्रदराज़ नेता के सामने कुछ शर्म-ओ-हया',' आंख का पानी'या फिर' लिहाज' जैसा कुछ तो बनता ही था और फिर बाघ के मुंह से उसका निवाला निकालना, अपने बने-बनाये सियासी-कैरियर और बसे-बसाये राजनीतिक ऐहतराम को भी दांव पर लगाने जैसा था।

इसीलिये बाक़ियों की तरह तिवारी जी भी ख़ामोशी से जोगी जी के 'प्रयाण' का इन्तज़ार करने लगे।

रामदयाल जोगी ने, ना तो कभी पूनम को ब्याहता होने के ग़ुरूर और सम्मान से ही नवाज़ा और ना ही कोई जगमगाती कुर्सी पर कभी बैठने का मौका ही दिया और तो और पूनम का निवास भी बंगले के पिछवाड़े, सर्वेन्ट-क्वार्टर में ही रहा। ये अलग बात थी कि रामदयाल जोगी के चरण दबाने का दायित्व एकमात्र पूनम पर ही था। रोज़ाना गहरी होती हरेक रात को पैग-दो-पैग चढ़ने के बाद पूनम देवी तलब कर लीं जातीं थीं और प्रारम्भ से लेकर वर्तमान तिथि तक, इस सेवा में कोई नागा, कोई बहाना, कोई कैसा भी कार्यक्रम कभी आड़े नहीं आने पाया था।

पूनम यादव को ख़ुद भी, वापस वज़ीराबाद जाकर उपले बनाने, उसे सुखाने और सुखाकर घर ले जाकर अपने चौदह लोगों के कुनबे के लिये चूल्हे पर रोटियां बनाने से बेहतर काम बुढ्ढे की चरण-वन्दन और देह-मर्दन करना लगता था। भले ही ये सब करते हुये, उसका ज़मीर रोज़ रात को कुचला जाता हो, लेकिन फिर भी पूनम अपने गांव लौटना नहीं चाहती थी और अगर वह कभी जाने का सोचती भी, तो किस मुंह से सोचती। क्योंकि घर छोड़ने से पहले उसका ब्याह उसके गांव के ही एक किसान सुरेस से तय हो चुका था। पूनम अपनी तीनों भैंसों को चरा के जब लौटती थी, तो यदा-कदा सांझ ढले पोखरे के पास सुरेस से मिल भी आती थी। अब तो उस आदमी का भी घर-परिवार बस चुका था और वह बाल-बच्चों में रम गया था। सुरेस को तो अब पूनम की सुध भी ना रही थी। गृहस्थी ऐसा जंजाल है कि एक बार कोई उलझा तो पूरी उमर खपा के भी उससे आज़ाद नहीं होता। गृहस्थी में से इन्सान अर्थी पर सवार होकर ही बाहर निकलता है। पूनम की तो ना गृहस्थी ही बसी, ना तो कोई ऐसा पद ही मिला जिससे वह ताउम्र मलाई चाभती। सिर्फ़ एक कामातुर बूढ़े की रखी हुई लौंडी ही तो थी वो। पूनम को ये दु: ख दिन-रात सालता था, लेकिन कोई हल नहीं निकल रहा था। मौसम एक-एक कर गुज़र जाते। हर भवन की तरह ही, अब राजभवन की बड़ी-सी बगिया में भी हज़ारों हज़ार फूल खिलते, खिलखिलाते, महकते और मुरझा भी जाते। लेकिन पूनम के जीवन में कोई बहार, कोई बसन्त, कोई बरसात, कोई भी फुहार छू तक नहीं सकी थी। वह एक ऐसी कली थी, जो सीधा ठूंठ बनती जा रही थी। एकएक कर पूरे बीस साल बीत गये। वह पन्द्रह बरस की छैल-छबीली देहात की अल्हड़ लड़की देखते ही देखते पैंतीस पार की संजीदा औरत बन गयी और औरत भी ऐसी सूखे जंगल जैसी, जिसपर ना कभी फल लदे और ना ही सिंदूरी आभा वाला कोई रंग ही चढ़े और तो और आगे भी ऐसी कोई खुशनुमा शहनाई बजने के आसार भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते थे।

एक दिन सुबह-सवेरे पूनम आँख मलते हुये जोगी के बेडरूम से बाहर आयी। बूढ़ा अभी बिस्तर से उठा नहीं था। उसके लिये, उसका कुक छ्ज्जू 'हर्बल-टी' बना रहा था। बाहर सूरज निकल चुका था और माली काका भी आ चुके थे। महेस काका एक किनारे बैठे, ओस में नहाई हुई मुलायम मिट्टी को खुरपी से खोद रहे थे। वह गुलाब की क्यारियां बना रहे थे। महेस के पास कई रंगों के गुलाब की ढेरों क़लमें रखी हुयीं थीं। पूनम ने महेस काका के पास बह रहे पाइप से पानी लेकर कुछ छींटे अपने चेहरे पर मारे। भीगा हुआ पूरा बागीचा बड़ा ही सुहावना लग रहा था। ओस की बूंदों से तृप्त, हर फूल, हर पत्ते और हर क्यारी पर सूरज की मद्धिम किरणें पड़ रहीं थीं। अपने दुपट्टे से मुंह पोंछती हुई पूनम वहीं माली के पास बैठ गयी। महेस की उम्र पचास के आसपास रही होगी। ये भी जोगी के पुराने सेवकों में से एक था। उसका अपना भरा-पूरा परिवार था, जिसमें तीन बेटियां भी थीं। जिनमें वह दो को सकुशल विदा कर चुका था। वह पूनम को भी बिटिया-बिटिया ही कहा करता था।

आज महेस ने पूनम को नज़दीक से काफ़ी समय बाद देखा था। वह उसके चेहरे पर फैले नैराश्य को पढ़ रहा था। उसके माथे पर उभरी थकान, तक़लीफ़ और अपमान से भरी शिकन को देखता-समझता रहा। उसे आभास था कि रात भर एक पुरुष के साहचर्य से, किसी सयानी बेटी का चेहरा थकान के बाद भी खिलता है, अगर वह उसका स्नेही हो तो। ये जबरन के सम्बन्ध, ये बेमेल की रति भला किसी जवान लड़की को कहाँ सुहायेगी। जिसमें ना स्नेह हो, ना अस्मिता, ना प्रेम हो, ना ज़िम्मेदारी, ना अपनापन हो, ना कोई अनुराग, ना कैसा भी बंधन और जहां ना ही कोई भविष्य ही दिखता हो।

महेस पूनम को ध्यान से देखता रहा। फिर धीरे से बोला,

"कइसी हो बिटिया... ढेर दिन बाद दिखी..."

पूनम बेहद फीकी मुस्कान के साथ बोली,

"अच्छी हूँ काका..."

महेस ने फिर स्नेह से पूछा,

"महीना दुई महीना दिखी नाहीं... गांव-देहात चली गई रहियू का..."

पूनम ने फिर मरियल आवाज़ में जवाब दिया,

"नहीं काका, मैं तो यहीं थी... वह हम लोगों के क्वाटर की पुताई चल रही थी कई दिनों से, उसी उठाधरी में लगी थी..."

"अच्छा... हुई गवा सब रंगापोती का कामधाम..."

"हां काका... सब निपट गया..."

आज बुज़ुर्ग़ महेस काका जाने किस अचूक घड़ी राजभवन की कोठी में दाखिल हुये थे कि पूनम के दिमाग़ में पूरे जतन से मन्त्र फूंके जा रहे थे,

"पूनम बिटिया, कछु आपन जिनगी का भी रंगाई देयखो तुम... उमिर होये रही हंय बिटिया... ई सरबेन्ट काटर तओ हर साल रंगत-पुतत रहिये... ई सब लगत रय्यै।"

"क्या कह रहे हो काका... कुछ छुपा नहीं है तुमसे, जानते तो हो सब..."

"जानत हंय, तबै तओ समझाये रहे हंय... ई बुढ़वा घाघ तुमका मार के मरी... तनिक बिचारो बिटीवा... एकरे जीते जी तुम्हरा कछु भला नाय होये सकत..."

पूनम ने इस बार कोई जवाब नहीं दिया। वह बस अपने हमदर्द पिता समान महेस काका को देखती रही। महेस काका के उसके लिये चिन्ता और हमदर्दी से भरे हुये शब्द सुनकर उसकी आंखें नम हो आयीं। वह वहाँ से उठकर अपने क्वार्टर में चली गयी। पूनम का शलवार-कुर्ता गीली ज़मीन में बैठने से पहले ही काफ़ी भीग गया था। उसका दुपट्टा गीले चेहरे और हाथ पोंछने से भीगा था। सिर्फ़ उसका मन जो अब तक, रात भर से, रूखा-सूखा बचा हुआ था, वह माली काका की स्नेहिल आत्मीयता ने भिगो दिया था।

पूनम पिछले बीस सालों से सियासत की दांवपेंच वाली इसी ज़मीन पर पल रही थी। कई सारे मोहरे उसने बनते और उनकी दुर्गत होते भी देखे थे। तमाम सारी चालों को खेलना भी उसने बखूबी समझा हुआ था। वह बादशाह और वज़ीर तक को धूल चाटते, हारते, बुरी तरह मात खाते हुये देखते ही बड़ी हुई थी। बिसात पर पड़े हर एक मोहरे की कीमत भी उसे मालूम थी। लेकिन इन सबके बावजूद कभी भी उसने ख़ुद को खेल का हिस्सा नहीं समझा। वह तो एक मामूली-से मरे हुये प्यादे जैसी खेल के मैदान से बाहर पड़ी हुयी थी। लेकिन माली काका के अल्फ़ाज़ जितना उसे रुहानी आराम दे रहे थे, उनसे निकले तल्ख़ी में लिपटे शब्दों के कटु-भावार्थ उसके दिमाग़ को भेदते जा रहे थे।

ना जाने वह ऐसी कौन-सी भोर हुयी थी, जिसने उसे ख़ुद भी मैदान में उतरने का जज़्बा और हौसला दे डाला था। वह भी अपने मैले-कुचैले, फटे-पुराने वजूद को बटोरने की कोशिश करने लगी थी। वह तो महज एक शह देने का मन बना रही थी। 'मात' जैसी शै अभी उसके लिये बहोत दूर की कौड़ी थी। पूनम हर रात एक लिजलिजे बूढ़े शरीर की क्षुधा शान्त करते-करते वैसे भी उबिया चुकी थी। वह इन बोझिल लम्हों में अपनी आत्मा को मरा हुआ महसूस करने लगी थी।

इन्हीं तमाम सारे ताज़ा विद्रोही ख़यालात और नये ज़हरीले तेवर को दिमाग़ में पालते हुये, थोड़ा-सा वक़्त और गुज़रा। तभी एक दिन उसके क्वार्टर के बगल में रहने वाले राजभवन के कुक छज्जू का दूर का नातेदार बिसम्भर आया। वह छज्जू के क्वार्टर पर रुका हुआ था। बिसम्भर दमे का मरीज़ था और उसी के इलाज के सिलसिले में शहर आया था। वह अपने पहनावे-ओढ़ावे से बड़ा अजीब-सा प्राणी दिखता था। एक लबादे जैसा कपड़ा खुद पर डाले रहता था। लम्बे-लम्बे बाल जटाओं जैसे बिखरे थे। उसका रंग भी चटक काला था। माथे पर वह कई रंगों का तिलक लगाये रहता था। उसे गौ़र से देखने पर थोड़ा डर भी लगता था। वह एक बड़ी-सी कपड़े की बनी गठरी भी साथ लेकर चलता था। ख़ुदा जाने उसमें क्या-क्या भरा था।

ये तो सर्वविदित था कि जोगी साहब के पास पूनम की ड्यूटी केवल रात को ही लगती थी, लेकिन छज्जू को देखा जाये तो वह पूरे दिन ड्यूटी बजाता था। बशर्ते जोगी जी को कहीं बाहर खाने पर ना जाना हो। जब छज्जू रात का खाना बनाकर लौटता था, तब कोठी के भीतर पूनम की हाज़िरी का वक़्त होता था। छज्जू का रोज़ाना रात को रसोई से लौटना ही पूनम के प्रवेश का इशारा होता था। लेकिन सवेरे ऐसा नहीं था। सवेरे तो पूनम जब तक बाहर नहीं आती थी, छज्जू दरवाज़े पर बैठा उसकी राह तकता और उसके बाहर निकलते ही खुद रसोई की ओर दाख़िल होता था। बरसों-बरस से यही क़ायदा चलता रहा। रसोईये बदले, घर बदले, मौसम बदले, टाइम में भी ज़रा-बहोत हेरफेर हुआ, लेकिन लुगाई पूनम ही रही, जो रात को प्रविष्ट होती और सुबह-सवेरे बाहर निकलती। वह तो जैसे एक समर्पित पतिव्रता स्त्री की तरह धर्म निभा रही थी।

०००

एक दोपहर जब छ्ज्जू राजभवन की रसोई में था, उस समय बिसम्भर क्वार्टर के बाहर आराम से हाथ-पैर पसारे धूप सेंक रहा था। पूनम अपने कमरे के भीतर से उसे देख रही थी, जिससे बिसम्भर पूरी तरह से बेख़बर था। कुछ देर बाद बिसम्भर ने बगल में रखी अपनी गठरी खोली। पूनम ने देखा, बिसम्भर ने उस गठरी में से कई सारी पिटारियां निकालीं। कई सारी छोटी-छोटी पुड़िया निकाली। जड़ी-बूटी जैसी भी कुछ दवायें निकाली। एक बीन भी निकाली।

अरे, ये बिसम्भर तो सांप पालने वाला, एक संपेरा निकला। उसे देखकर पूनम को तत्काल अपने बचपन का गांव और छोटे भाई-बहनों के साथ मदारी और संपेरों के पीछे दौड़ते फ़िरने की याद हो आयी। कैसे वह नदी पार करके सांप-नेवले की लड़ाई देखने जाती थी, संपेरे की बीन सुनकर कैसे वह स्कूल से भाग-भाग जाती थी। नाग-नागिन का जोड़ा, हरी नागिन, बिसखोपड़ा, कई रंग वाली बिच्छी, दोमुंहा सांप, गेंहुअन, अजगर का बच्चा, घोड़ापछाड़, वह एक एककर, ये सब याद करती हुयी, मारे कौतूहल के अपने कमरे से बाहर निकल आई. उसने एक बच्चे की तरह व्याकुल होकर बिसम्भर से कहा, "बिसम्भर चाचा ये बीन बजाओ ना... सुना दो ना एक बार... जमाना गुज़र गया इसकी धुन सुने हुये... यहाँ शहर में कोई बजाता ही नहीं..."

बिसम्भर अपने में खोया हुआ था। वह अचानक पूनम को देखकर अचकचा गया। उसने थोड़ी रुखाई से कहा, "मैं बीन बजाऊंगा तो सांप जग पड़ेंगे... अभी ही सुलाया है सबको..."

"अभी ही सुलाया है... दिखाओ तो सोते हुये सांप कैसे दिखते हैं..." कहते हुये पूनम बिसम्भर की खाट से पास जा बैठी।

"बावरी हुई है क्या लड़की... अच्छी भली उम्र मालूम पड़ती है तेरी... फिर भी बच्चों की-सी बातें करती है... जाओ यहाँ से, मुझे तंग मत करो..."

पूनम थोड़ी मायूस हुई, लेकिन फिर भी हिम्मत करके बोली,

"बिसम्भर चाचा बीस साल हो गये, ना गांव देखा, ना गांव वाले... ना माई-बाप का नेह देखा, ना भाई-बहन का लाड़... ना मदारी भइय्या, ना संपेरा मऊसा, ना किसान चच्चा, ना महाजन ताऊ... अरसों-बरसों बाद तुम्हें देखा तो मन हो आया कि एक बार बीन की तान सुन लूं... इसी कारण तुम्हारे पास आने से ख़ुद को रोक नहीं पाई मैं... अब तुम मुझसे तंग होते हो, तो ठीक है, मैं चली जाती हूँ..." कहते-कहते पूनम खड़ी होकर वापस जाने लगी।

इतनी मर्मस्पर्शी बातें सुनकर बिसम्भर का दिल थोड़ा पसीज गया। उसने पूनम को रोका,

"सुनो बेटी... इधर आओ... बैठो यहां..."

पूनम चुपचाप सिर झुकाकर, बिसम्भर के पास बैठ गयी। बिसम्भर ने आगे कहा,

"मैं दमे का मरीज़ हूँ... इसलिये थोड़ा चिड़चिड़ा हो गया हूँ... बुरा ना मानो लेकिन बीन बजाने लायक तो अब मैं बिलकुल नहीं रहा... सांप देखना चाहो तो दिखा देता हूँ... बोलो कौन-सा देखना चाहती हो..."

बिसम्भर की स्नेहिल-वाणी से, पूनम की मायूसी जाती रही। वह चहककर पूछने लगी,

"आपके पास कौन-कौन से सांप हैं..."

"करीब करीब सारे ही हैं... इतने बरस की कुल यही तो कमाई है मेरी... रुक जाओ दिखाता हूँ तुमको..." कहते-कहते बिसम्भर ने कई और पिटारियां भी अपनी गठरी से बाहर निकाल लीं। वह एक एककर सबका ढक्कन खोलकर पूनम के सामने रखता गया। पूनम बड़ी खुशी-खुशी पिटारी में सोये हुये सारे सापों को निहारती रही। हरे, काले, भूरे, गाढ़े सलेटी, चित्तीदार, चौखण्डे दाग वाले, गुड़मुड़ाये हुये, ढेरों सांपों को चुपचाप सोता हुआ देखकर उसे बड़ा मज़ा आ रहा था।

बिसम्भर एक एककर धीरे-धीरे पिटारी के मुंह को बन्द भी करता चल रहा था। अचानक एक पिटारी में से एक बड़ा-सा काला नाग जो कि शायद सोया नहीं था, वह फ़ुफ़कारकर बिसम्भर की तरफ़ लपका। पूनम की मारे डर के बहोत ज़ोर की चीख निकल गयी। लेकिन बिसम्भर मंजा हुआ, अनुभवी संपेरा था। उसने नाग के फ़न के आगे मुठ्ठी नचाई और नाग फ़ौरन ही काबू में आ गया। बिसम्भर ने वापस उसे लपेटकर पिटारी में सुला दिया। जब बिसम्भर ने उस पिटारी को अपनी पोटली में वापस रखा तब कहीं जाकर पूनम ने राहत की सांस ली। फिर उसने थूक गटकते हुये कहा,

"बिसम्भर चाचा, तुम्हारी मुठ्ठी में तो जादू है... वह भयानक काला नाग भी तुम्हारी मुठ्ठी पहचानता है... देखो तो कैसा शान्त हो गया... वरना तो वह मुझे आज डस ही लेता... है ना?"

बिसम्भर ठहाका लगाके हंस पड़ा। उसने हंसते हुये पूनम से कहा, "अरे मेरी नादान बेटी... ये कमाल मेरी मुठ्ठी का हर्गिज़ नहीं... ये तो इस बूटी का है... इसी को सुंघाकर उस बदमास करिया नाग को बेहोस किया है... अरे बेटा दिनरात सांप को लिये-लिये फ़िरता हूँ मैं, भला इन सब जड़ी-बूटीयों के बग़ैर कैसे चलूंगा... सांप को बस में करना कोई मामूली बात थोड़े है..." और बिसम्भर ने अपनी मुठ्ठी खोलकर पूनम को एक मटमैले रंग की छोटी-सी जड़ी दिखा दी।

पूनम कुछ देर तक तो, बड़ी हैरानगी के साथ, बिसम्भर की हथेली पर रखी उस क़रामाती बूटी को घूरती रही। फिर उसने बिसम्भर से कहा, "चाचा, लाईये मुझे भी सूंघना है... ज़रा देखूं ये कैसी महकती है जिससे इतना बड़ा सांप तक बेहोश हो जाता है..."

"अरे नहीं नहीं... ये इन्सानों के लिये नहीं है बेटी... इसे तो अगर मामूली इन्सान भी देर तक सूंघ ले, तो बच नहीं सकेगा... इसकी हल्की-सी गंध से भी आदमी को लकवा मार जाता है... या फिर वह गूंगा-बहरा हो जाता है... अरे ये बहोत तेज जड़ी है लड़की... बस इतना मान लो कि इससे आदमी की जान बच नहीं सकती है..." बिसम्भर अपने सामान सहेजता रहा और बूटी की महिमा बताता रहा।

कुछ दिनों पहले पूनम को महेस काका ने एक शिक्षा दी थी। पूनम को इस वक़्त कुछ ऐसा अहसास हुआ कि बिसम्भर काका की वजह से आज उसकी दीक्षा भी पूरी हुयी। उसने बड़ी सादगी से बिसम्भर से पूछा,

"चाचा क्या इस बूटी का एक यही टुकड़ा आपके पास है... और नहीं है...?"

बिसम्भर अपना फ़ैलाया हुआ सारा असबाब समेट चुका था। खाट पर पसरते हुये बोला,

"होयेगा काहे नहीं... गठरी में भी होगा... घर में तो ज़्यादा भी होगा... लेकिन तुम ये क्यों पूछ रही हो...?"

"चाचा यहाँ पीछे कच्ची ज़मीन है... आगे भी देखो कितना बड़ा बाग-बगीचा फ़ैला हुआ है... कोठी के उस तरफ़ तो स्वीमिंग-पुल के लिये खुदाई भी हो रही है... कई बार रात-बेरात सांप-बिच्छू निकल आते हैं... अगर आप मुझे ये टुकड़ा दे देते तो आपकी मुझ पर बड़ी कृपा होती... मैं अकेली जान भला इन जीव-जनावर से कैसे अपनी सुरक्षा करूं, आप ही कहिये..."

बुज़ुर्ग़ों को पटाना समझदार औरतों के बायें हाथ का खेल है। इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि रिश्ता कौन-सा होता है।

बिसम्भर बिना पल गंवाये बूटी पूनम को थमाते हुये बोला,

"रख लो बेटा... कोई बात नहीं... लेकिन रुई या कोई छोटे-मोटे कपड़े में लपेटकर रखना... देखो बड़ी ज़हरीली और असर करने वाली बूटी है... ध्यान से रखना, किसी ऐरे-गैरे के हाथ ना लगे..."

पूनम बिसम्भर को खूब धन्यवाद देकर, बूटी सहेजते हुये अपने कमरे में चली गयी।

०००


पूनम जोगी जी के आलीशान बेडरूम में रोज़ की तरह ही दाख़िल हुई. जोगी जी अपने शानदार डबलबेड पर हाथ में आधा ख़ाली गिलास लिये हुये फ़ैले थे। पूनम कमरे के अन्दर आकर करीने से सजे हुये शनील के सोफ़े पर बैठ गयी। उसे देखकर जोगी जी बड़े अन्दाज़ से बोले,

"काहे इत्ता दूर बैठी हो पुन्नो रानी... ज़रा पास तो आओ हमारे, कुछ ठण्डक तो पड़े हमारे जलते हुये कलेजे को..."

पूनम बिना कुछ बोले चुपचाप, जोगी के नज़दीक बिस्तर पर आकर बैठ गयी। व्याकुलमना जोगी जी, गिलास किनारे लैम्प के पास वाली कांच की नक्काशीदार, छोटी-सी मेज़ पर रखकर, बड़े आवेग से उससे लिपट गये।

थोड़ी चूमाचाटी के बाद बोले, "भई ये खादी का कुर्ता बड़ा चुभ रहा है हमें... ये तो रोड़ा ही बना है तुम्हारे हमारे बीच में... हटाओ तो इसे..." कहते-कहते जोगी जी ने अपनी बाहें उठा दीं।

पूनम ने गहरी सांस लेते हुये, यन्त्रवत जोगी का कुर्ता उतार दिया। एकदम ढीले हुये दो कन्धे, लटकी हुई खाल वाली दो बूढ़ी बाज़ुयें और सफ़ेद बालों वाली झुर्रीदार छाती नुमाया हुयीं। पूनम चिढ़कर उस पशु को देखती रही। बोल तो अब भी उसकी ज़बान से नहीं फूटे थे।

लेकिन जोगी जी शायद आज बड़ी ख़ुमारी में थे। शायद आज कोई लम्बा दांव जीतकर आये थे। पहले उन्होंने गिलास उठाकर दो घूंट में ही खाली कर दिया। फिर पूनम को चिपकाये हुये बड़बड़ाने लगे, "पुन्नो रानी जो नशा तुममें है, वह सौ बोतल में नहीं... कितने बरस हो गये तुम्हें साथ सुलाते, लेकिन मजाल है... मजाल है कि कोई और औरत हमें पसन्द आये... नहीं... हर्गिज़ नहीं... अरे तुम तो जान हो हमारी... हम मरते हैं, कसम से तुम पर... पुन्नो सच मानो, हम मर जायेंगे तुम्हारे बिना... एक पल भी जी ना सकेंगे... वह हरामी स्साला, गांव का देहाती लौंडा तुम्हें ये सबकुछ दे पाता, जो हमने तुम्हें दिया... नहीं... कभी नहीं... कभी भी नहीं दे सकता था... अरे वह क्या जाने हम कितने बड़े खिलाड़ी हैं... राजनीति के दांवपेंच कोई हमसे सीखे... किसको किस दांव से पटकना है, ये हम जानते हैं... सिर्फ़ हम... हम कौन-सी हस्ती हैं, ये तो बस हमारी जान पुन्नो जानती है... पुन्नो में बसती है हमारी जान, बस... और कहीं नहीं... कहीं नहीं और..."

काफ़ी लिपटने-चिपकने के बाद जोगी जी ठहर गये। वह पूनम को देखते रहे। फिर बोले, "ज़रा कमर दबा दो हमारी, आज बड़ी दुख रही है... पूरे दिन बैठना पड़ा... ये सत्र भी जान का दुश्मन है मेरी... पता नहीं काहे लौट-लौट के चला आता है... मेरी पुन्नो अपनी नाजुक-नाजुक कलाई फिरा दो थोड़ा..." कहते-कहते जोगी जी करवट लेकर लेट गये।

पूनम फिर बिना कुछ बोले, अजगर जैसी उस मोटी लिजलिजी कमर को दबाने लगी।

जोगी फिर बकुरा, "आज तुम बहोत चुप-चुप हो... कहो, का हो गया... कुछ रुपिया-पईसा खतम हो गया क्या तुम्हारा..."

पूनम इस बार चुप नहीं रही। उसने गंभीरता से एक वाक्य बोल दिया, "रखैलों को चुप ही रहना चाहिये..."

जोगीजी की ख़ुमारी एकदम-से तैश में बदल गयी, "अरे पुन्नो रानी तुम हमारी जान हो... अरे तुम तो मलकिन हो हमारी... ये कैसा गन्दा-गन्दा बोलती हो... साला कोई मा... है जो तुमको हमसे अलग कर सके... पुन्नो नहीं, तो रामदयाल जोगी नहीं... हम तो पुन्नो के हैं बस और कोई के नहीं... कोई और मेहरिया नहीं चाहिए हमको... बस पुन्नो... बस एक पुन्नो..."

इस ज़ोरदार ऐलान के बाद जोगी ने पहले तो पूनम को बड़ी दमदार झोंक से गले लगाया। फिर उसके सारे कपड़े एक एककर उतार फेंके. उसके बाद अपने नीचे लिटाया और बड़ी मुश्किलों से एकत्रित की हुई अपनी सारी बुढ़ौती की ताक़त उस पर उड़ेल दी।

पूनम उन बूढ़ी आंखों से लार की तरह टपकती हवस देखती रही। बूढ़े के सिर पर सफ़ेद बालों को हिलते-डुलते देखती रही। उसके माथे पर उभरी दो-एक पसीने की बूंदों की कंपकंपाहट देखती रही।

उसे आज जोगी से आती हुई गन्ध से उबकाई आ रही थी। वह इसी पल उस लपलपाते गलीच भेड़िये को ढकेल कर इस राजभवन से कोसों दूर भाग जाना चाहती थी, जहां उसे ख़ुद उसके सिवा कोई भी ना पहचानता हो। जहां उसे कोई ना जानता हो। जहां वह फूट-फूट कर इतना रो सके कि उसके सारे पाप धुल जायें। जहां वह खुलकर बेतहाशा चीख सके और उसे कोई भी ना सुनता हो। जहां उसका रोंआ-रोंआ ग्लानि, क्षोभ, पश्चाताप और प्रायश्चित जैसे तीव्र जज़्बातों से बाहर निकल सके. जहां महेस काका उसे ना देख सकें। जहां बिसम्भर चाचा उससे कोई बात ना कर सकें। जहां जाकर वह शुद्ध हो सके, पहले की तरह निर्मल और पवित्र बन सके. जहां वह निर्वेद के नज़दीक पंहुच सके.

लेकिन पूनम को कहीं जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। जोगी निढाल होकर बिस्तर के एक तरफ़ गिर पड़ा और उसकी बड़बड़ाने की आवाज़ें शनै: शनै: खर्राटों में तब्दील हो गयीं।

निर्वस्त्र पूनम ने ख़ुद को एक चादर से लपेटा और पैताने पड़े अपने दुपट्टे को उठाया। उसने दुपट्टे के छोर में बंधी गांठ खोली। वह तिलिस्मी बूटी अब उसके हाथ में थी। पूरे बिस्तर को पार करके वह जोगी के करीब पंहुची। उसने उसके फ़ड़फ़ड़ाते नथूने के पास बूटी रख दी। पहले तो जोगी का मोटा थुलथुल बदन खर्राटों की लय में संचालित होता रहा। फिर ये लयबद्ध क्रम कुछ बिगड़ा। कुछ तेज़ हुआ। कुछ देर बाद उस लौंदे जैसे जिस्म में कुछ सिहरन दौड़ती दिखाई दी। उसके फ़ैले-पसरे बेढब शरीर में कई तरह से कंपन पैदा होती रही। दम साधे हुये पूनम ने, बूटी जोगी की नाक से रत्ती भर भी नहीं हिलने दी।

आख़िरकार, एक लम्हा ऐसा भी आया, जब जोगी का बदन एकदम बर्फ़ की सिल्ली जैसा जड़ हो गया। उसमें लेशमात्र की हलचल भी नहीं बची। वह बहोत गहरी नींद में सोया हुआ दिखने लगा। पूनम ने उसे वही सफ़ेद चादर उढ़ा दी, जो कि उसने पहले ख़ुद पर लपेटी हुयी थी।

सवेरा हुआ। सूरज निकला। चिड़ियें जागीं। भोर की हवाओं ने लहराकर सारे सोये हुये जगत को नींद से जगाया। भोर की हवा चाहे कितनी ही मोहिल और आत्मीय क्यूं ना हो, लेकिन वह केवल सोये हुओं को जगा सकती थीं, मरे हुयों पर उनका भला क्या ज़ोर चलता... रत्ती भर भी नहीं... हर्गिज़ नहीं।

छज्जू बाहर इन्तज़ार में बैठा था। पूनम पूरे कपड़े पहनकर, रोज़ की तरह जोगी के कमरे से बाहर निकली और हमेशा जैसे ही, बिना किसी से आँख मिलाये अपने कमरे में चली गयी।

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शोकसभाओं का आयोजन होता रहा।

रंचमात्र की श्रद्धा ना होते हुये भी और यथार्थ का एक क़तरा आंसु ना होते हुये भी, अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दीं गयीं।

जोगी के मृत शरीर पर गिरते ही शुद्ध हो जाने वाले फूलों से पुष्पांजलि दी गयी।

सत्तालोलुपता में तिल तिलकर कर मरने और एक दूसरे को मारने पर आमादा, बेहद ख़ुदग़र्ज़ नेताओं ने अपने महामहिम को तिलांजलि भी दे दी।

दुपट्टे से ढके हुये सिर को झुकाये, जोगी की तस्वीर के पास बैठी पूनम सुबक रही थी। तिवारी जी ने उसके कन्धे पर हाथ रखकर उसे ढांढस बंधाया। आश्वासन और सांत्वना के वरक़ में लपेटकर, मोहब्बत के हज़ारों पैग़ाम वह आंखों ही आंखों में अलग से पूनम को देते गये। पूनम एक साथ ही 'अनाथ' और 'सनाथ' दोनों हो गयी।

राज्यपाल की मौत एक बड़ा प्रसंग था। एक गम्भीर मसला था। पार्टी हुक़ूमत में थी, इसलिये हलचल और भी बड़ी थी। बड़े पैमाने पर मीटिंग रखी गयी। तकरीबन सारे नेता हाज़िर हुये। बदरीप्रसाद तिवारी भी दलबल के साथ पंहुचा।

बहोत देर तक ना चलने वाली इस मीटिंग में, तय ये हुया कि वर्तमान कृषिमन्त्री को, जो कि अब अस्सी के करीब पंहुच गये हैं, नया राज्यपाल नियुक्त किया जाये और खाली होनेवाले इस मन्त्री पद पर किसी नये जोश, नये चेहरे, किसी नये युवा को बिठा दिया जाये। बदरीप्रसाद का इशारा पाकर उसी के एक चेले, भईय्या भोलानाथ ओझा ने पूनम यादव का नाम लिया। पूनम, यादव बिरादरी से भी थी। महिला थी और अकेली भी थी। बदरी के सारे चिलाण्डू-नेताओं ने उसके प्रस्ताव में फ़ौरन हामी भर दी। ये भी तय हुआ कि नये राज्यपाल की नियुक्ति के सप्ताह भर के भीतर नये कृषि राज्यमन्त्री यानी की पूनम यादव को भी शपथ दिलवा दी जायेगी।

अब पूनम यादव के सर्वेण्ट-क्वार्टर से बाहर निकलने के दिन आ गये थे। फिर भी "बूटी" उसके लोहे की बकसिया में बड़े ऐहतियात से सुरक्षित रखी हुयी थी।

आज सूती साड़ी पहनकर, अन्दर ही अन्दर उल्लसित होती पूनम बाहर पोर्टिको में, इन्तज़ार करती सफ़ेद ऐम्बेसडर की ओर बढ़ रही थी। उसने राजभवन के अपने सर्वेण्ट-क्वाटर से बाहर निकलते हुये बागीचे में देखा, माली काका ने गुलाबों की क्यारियां बना ली थीं। हर क्यारी में अलग-अलग रंगों के मुस्कुराते, खिलखिलाते और झिलमिलाते गुलाबों को वह बड़ी तबीयत से देखती रही। लाल, पीले, सफ़ेद, बैंजनी, नारंगी, गुलाबी, काले, सतरंगी गुलाब।

पूनम ने बढ़कर एक सुर्ख़ गुलाब बदरीप्रसाद तिवारी के लिये तोड़ लिया। इस लम्हे, पूनम के चेहरे पर एक शातिराना मुस्कान उभर आयी थी।