दाग अच्छे हैं / हरिशंकर राढ़ी
जब से ये वाला विज्ञापन देखा है, कलेजा दूना हो गया है। आत्मविश्वास का जो संचार हुआ है, वह बता नहीं सकता। मुझे तो लगता है कि सरकार को इस विज्ञापन को सब्सिडी देनी चाहिए और समस्त सरकारी चैनलों पर निःशुल्क प्रसारित करवाना चाहिए। न जाने कितने दिन से मैं दुखी हुआ जा रहा था कि ‘लागा चुनरी में दाग छुड़ाऊँ कैसे?’ कबीरदास के नेतृत्व में न जाने कितने निर्गुणियों ने कहा कि साफ-सुथरी चदरिया को हम सबने मैली कर डाली। यहाँ तक कि सुर-नर-मुनि ने भी मैली की, मेरे जैसे दो टके के व्यंग्यकार की तो औक़ात ही क्या! लेकिन दाग अच्छे होते हैं, इसका साक्षात्कार अब हुआ।
दाग और निशान का सरकारी तंत्र में बहुत महत्त्व है। इस पर पहले मेरा ध्यान नहीं गया था। जब भी सरकारी नौकरी लगती है (भले ही चपरासी की हो) तो पूरी तरह लगने से पहले अभ्यर्थी की मेडिकल जाँच होती है। जाँच में जो भी निकले, लेकिन उसके शरीर पर पहचान के किसी चिह्न की तलाश की जाती है। कोई निशान हो या कोई दाग हो तो काम आसान हो जाता है। जिसके चेहरे पर दाग होता है, वह गर्व से दिखाता है। पहली बार उसे दाग अच्छे लगते हैं। बड़े आराम से लिख दिया जाता है- ‘माथे पर कटे का निशान’ या ‘गाल पर काला तिल’। जिसके चेहरे पर दाग नहीं होता, उसे अंदर तक टटोला जाता है। अंदर का दाग कोई दिखाना नहीं चाहता। जैसे-तैसे संकोच में बताता है। मानो कोई चोरी की हो। डाॅक्टर दाग को देखकर सत्यापित करता है। जिसके कहीं दाग नहीं होता, वह निरीह-सा बना बैठा होता है। लगता है कि जीवन बेकार गया, अब तक कुछ किया ही नहीं। प्रमाणपत्र पर कॉलम खाली जा रहा है और तो और एक किता दाग भी नसीब नहीं हुआ।
बाद में ये दाग बड़े काम आते हैं। घटना-दुर्घटना में मौत होने पर मृतक की पहचान इन्हीं से स्थापित होती है। शव का बारीकी से परीक्षण होता है। परीक्षण से पहले निरीक्षण हो गया होता है। मोबाइल, बटुआ, घड़ी आदि से उसे मुक्त कर दिया गया होता है। परीक्षण में दाग मिल गया तो मौत पक्की मानी जाती है। कोई निशान नहीं मिला है तो शव अपनी गवाही देकर भी सत्यापित नहीं करवा सकता।
कुछ दशक पहले तक कहीं-कहीं चेचक यानी मातारानी इस कमी को पूरा कर देती थीं। जो काम ऊपरवाला नहीं कर पाता था, उसे चेचक जी को करना होता था। किसी-किसी के पूरा मुँह पर ही अपनी मुहर लगा जाती थीं। किसी-किसी को तो एकनयन का वरदान भी दे जाती थीं। ऐसा व्यक्ति पूरे समाज में एक नए और सुविधाजनक नाम से जाना-पहचाना जाता था। लेकिन वे भी यह कृपा सब पर नहीं करती थीं। आज चिकित्साशास्त्र ने प्रगति करके यह निशान छीन लिया। जब विज्ञान की प्रगति होती है तो इसका सीधा असर पुरानी पहचान पर ही पड़ता है।
जब भी दाग की बात आती थी तो उसके साथ धोबी अपने-आप जुड़ जाता था। दाग और धोबी में छत्तीस का आँकड़ा होता था। बिलकुल साँप और नेवले जैसी लड़ाई। लेकिन कुछ दाग ऐसे होते थे कि उन्हें धोबी भी छुड़ा नहीं पाता था, भले ही सारी उमर ‘हइसा-हइसा या ‘जियो राम जियो’ करता रहे। आज के ज़माने में आप धोबी को धोबी नहीं कह सकते, क्योंकि इसमें बड़े लोग आ गए हैं। उन्हें लांड्री के नाम से अधिक धन और सम्मान मिलता है। दाग छुड़ाने का दावा वे भी करते हैं।
सुना है कि अपने यहाँ कोई महापुरुष थे, जिनके कपड़े धुलने के लिए पेरिस जाते थे। अपने यहाँ के धोबियों को उनका दाग भी छुड़ाने का सौभाग्य मयस्सर नहीं होता था। पता नहीं वे कौन से दाग थे जिन्हें यहाँ के धोबियों को दिखाना सुरक्षित नहीं था। हो सकता है उन दागों को छुड़ाने की विशेषज्ञता अपने यहाँ के धोबियों में न रही हो। ये भी हो सकता है कि यहाँ के धोबीपछाड़ से ख़तरा रहा हो। सुना है कि धोबी पछाड़ का काट अभी तक बना ही नहीं। दाग तो क्या, पूरे कपड़े को रेह और लीद में भिगोकर पाटी पर ऐसे पटकते थे कि दाग को भी नानी याद आ जाए।
दाग अच्छे हैं। ठीक से लगे हों तो ये चपरासी भले न बना पाएँ, विधायिका तक पहुँचा देते हैं। सीधा-सा कारण है। बिना दाग-निशान के पहचान बनती ही नहीं। जितना बड़ा दाग, उतना ही रसूख। जिसके दाग ही नहीं, उसने कभी ख़तरा लिया ही नहीं। दूसरे शब्दों में उसमें हिम्मत ही नहीं। जिसमें हिम्मत नहीं, वह कर ही क्या लेगा देश और जनता के लिए? वह तो अपने लिए कुछ नहीं कर पाता। दाग से आदमी साहसी बनता है। जनता भी दाग देखकर ख़ुश है। उसका मानना है कि दागबाज होना दगाबाज होने से अच्छा है। लेकिन भगवान ने जनता को दिमाग़ दिया नहीं। वह ऐसी चीजों में फ़र्क़ करती है जिनमें फ़र्क़ होता ही नहीं। विश्वास न हो तो उसका सियासी दलों के विषय में नज़रिया देख लीजिए। हर कोई किसी न किसी को अच्छा मानकर बैठा हुआ है। उसे पता ही नहीं कि बना दगाबाजी के दागबाज बना ही नहीं जा सकता।
दागी और बागी का ज़माना है। दागी नहीं बन पाए तो बागी बन जाइए। लेकिन बागियों का अभयारण्य अब पुराना वाला नहीं रहा। अब चंबल के बीहड़ों में नहीं रहना है। बस चुनाव में टिकट कटता देख अपने दल के खिलाफ खड़े हो जाइए। सत्ता की मुहानी तक पहुँचने का रास्ता साफ। बागी और दागी के अलावा किसी और का सत्ता तक पहुँचना आसान नहीं। लेकिन दाग केवल बड़े ही नहीं, विविध होने चाहिए। हर रंग के दाग, हर आकार के दाग। बड़े और लाल-काले दाग हों तो पूछना ही नहीं। इनमें दूसरे दाग वैसे भी छिप जाते हैं। वैसे दाग बड़े हो चुके हैं। पूरी व्यवस्था इसी पर चल रही है। टीवी पर चलने वाली बहसों को देख लीजिए। किसी भी डिबेटर को अपनी धोती की सफेदी से वास्ता नहीं। दूसरे की धोती में कितने दाग हैं, यही एकमात्र सहारा है। दाग नहीं है तो लगाओ। अपने से बड़ा लगाओ। वास्तविक न हो तो आभासी लगाओ। जिसने दूसरे का दाग अपने से बड़ा साबित कर दिया, वह जीत गया। सीधा-सा सूत्र है- दाग अपना बड़ा रखो, साबित दूसरे का करो।
ऐसे समय में दाग अच्छे हैं, ऐसा प्रचार बड़ी राहत दे जाता है। बचपन में माँ की पिटारी से मैंने भी एक-दो रुपये चुराए थे। आज तक उसी अपराधबोध में मरा जा रहा था। अब जाकर शांति मिली है। दाग ही नहीं होंगे तो धुलेंगे क्या? धुलाई का काम नहीं होगा तो साबुन-सर्फ कैसे बिकेगा? जीडीपी डाउन जाएगा कि नहीं? कबीरदास के ज़माने में स्वभाव की भी धुलाई होती थी। धुलने से स्वभाव निर्मल होता था। अब किसी को अपना स्वभाव नहीं धुलवाना है। अब गंदा और फटा जोर-शोर से चलता है। निंदक निकट होता था तो साबुन का काम करता था। निंदक तो पहले से ज़्यादा हैं, किंतु उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है।