दाढ़ी यानी दहशत / प्रमोद यादव
छुटपन से ही दाढ़ी-मूंछवालों से दहशतजदा रहा हूँ... कारण कि जीवन में सबसे पहले जिस शख्स को पहली बार दाढ़ी-मूंछों में देखा, वह मेरा पारिवारिक नाई था... भारी घनी काली मूंछ व दाढ़ी वाला... एकदम बब्बर शेर की तरह डरावना उसका मुंह दिखता ... वह साप्ताहिकी था... ररिवार के रविवार बिना बुलाये घर आता और बच्चे-बूढ़े-जवान सबकी हजामत बना, डेढ़-दो रूपये कमा, प्रेमपूर्वक चला जाता... .उसे देखते ही मैं डर जाता... ... बाबूजी अपने घुटनों में मेरा सर घुसाकर रखते तब मैं उलटी मुंडी रख कटिंग कटवाता... उन दिनों अक्सर सोचता कि सबकी सफाचट करने वाला खुद की दाढ़ी क्यों नहीं बनवाता? क्या एक नाई दूसरे नाई से नहीं बनवा सकता? तब नहीं जानता था कि लोग दाढ़ी-मूंछ शौक के लिए( उगाते हैं ) रखते हैं...
थोडा और बड़ा हुआ तो एक सफ़ेद दाढ़ी वाले गोल-मटोल आदमी को लाल-लाल लिबास में सिर पर कलगी वाला लम्बी टोपी लगाए, बड़ी सी पोटली लिए अनेक चित्र-कथाओं में... किताबों में देखा... फिल्मों में देखा जो छोटे बच्चों को टाफी, गिफ्ट बांटता. मनोरंजन करता... ... बाबूजी ने बताया कि इन्हें “सांताक्लाज” कहते हैं... क्रिसमस के दिनों आते हैं और बच्चों को बहुत प्यार करते हैं... तब बाबूजी से पूछा था कि क्या ये चाचा नेहरु के बड़े भाई हैं? बाबूजी ने कहा - ऐसा ही समझ लो.और मैं कई सालों तक ऐसा ही समझता रहा... ये मेरे नाई से थोडा कम भयानक थे... चूँकि हमेशा हंसमुख दिखते इसलिए इनसे कभी खास डर नहीं लगा... वैसे भी इनसे मैं केवल किताबों और फिल्मों में ही मिला... रूबरू तो कभी मिला ही नहीं...
जैसे ही स्कूल जाने लगा... किताबें खोलते ही दर्जनों दाढ़ी वालो से सामना हुआ... रविन्द्रनाथ ठाकुर... कबीर... रसखान... वाल्मीकि... वेदव्यास... गुरुनानक... ग़ालिब... लेनिन... निराला... गैलिलिओ... ग्राहम बेल... अल्फ्रेड नोबल... आदि... आदि... तब मेरे ज्ञान में इजाफा हुआ कि दाढ़ी वाले लोग विद्वान् भी होते हैं... कोर्स की जितनी भी किताबें थी, उसमें क्लीन शेव्ड विद्वान-वैज्ञानिक-विचारक-साहित्यकार कम ही दिखे... और तब दाढ़ी वालों के प्रति मेरी सोच में थोडा बदलाव आया... उनसे डर कम लगने लगा... पर “एलर्जी” पूर्ववत बनी रही...
कालेज पहुंचा तो जवान हो गया... मुझे भी दाढ़ी मूंछ आ गई... और अक्ल भी... .दाढ़ी के विषय में कई जानकारियाँ बटोरी... मसलन कि दुनिया में करोड़ों हजरात ( मर्द ) धार्मिक कारणों से दाढ़ी-मूंछ रखते हैं... इन्हें छोड़ जो अन्य रखते हैं वे केवल शौक के लिए रखते हैं... कोई काली रखता है तो कोई सफ़ेद... कोई बढ़ी हुई तो कोई बेतरतीब... कोई खिचड़ी तो कोई फ्रेंच... . ये भी जाना कि दाढ़ी-मूंछ होना मर्दानगी की पहचान है... .दाढ़ी मौसमी फसल है... जब मन किया,रख लिया... और जब मन भरा कटवा दिया... पहले यह चिंतन का प्रतीक हुआ करता... विचारक को विचारमग्नता के चलते मालूम ही नहीं पड़ता कि कब उसकी दाढ़ी बढ़ गई... बढ़ी हुई दाढ़ी , कंधे में लटकता झोला... उसमें चंद किताबें और हाथ में सिगरेट... बुद्धिजीवी होने की पहचान थी... दार्शनिक होने की पहचान थी... लेकिन वहीं दूसरी ओर यही दाढ़ी पहचान रही एक असफल प्रेमी की... चोर-उचक्कों की... नशेडी-गंजेड़ियों की... लापरवाह- आलसी लोगों की... दाढ़ी को रोज कुतरने में जो आलस करते हैं... वे “गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड” में नाम कमाते हैं... जहां अधिकाँश लोग फिजूलखर्ची पर लगाम कसने दाढ़ी रखते हैं... वहीं कुछ लोग इसकी साज-संभाल पर जरुरत से ज्यादा खर्च कर देते हैं...
मैं जब जवानी की देहलीज पर था- एक हंसीन हसीना से उलझ अपनी आँखें दो से चार कर डाला... .वह मुझे बहुत प्यार करती... उसी के हवाले से पता चला कि दुनिया की अधिकाँश लड़कियां क्लीन शेव्ड लड़के पसंद करती हैं... ... दाढ़ी-मूंछ से लड़कियों को घिन आती है... मेरी दाढ़ी थोड़ी भी बढ़ जाती तो वह गुस्से से सुर्ख लाल हो जाती... उन दिनों फिल्मों की नायिकाएं भी बिना दाढ़ी-मूंछ वाले नायक ही पसंद करते... अलबत्ता खलनायक के लिए दाढ़ी एक अनिवार्यता थी... कुछ महिलायें( जो मेच्योर होती हैं ) मानती हैं कि दाढ़ी के साथ पुरुष ज्यादा मेच्योर नजर आते हैं जो उनके व्यक्तित्व को और निखारते हैं... कुछ लोगों को बढ़ी दाढ़ी में कर्मठता दिखती है... पर मुझे हमेशा इसमें एक सस्पेंस ही नजर आया... दाढ़ीजदा लोग तब भी रहस्यमय लगते... और आज भी लगते हैं...
जवानी हो और शेरो-शायरी, गीत-गजल या कविता न हो... ऐसा कभी हुआ है? मुझे भी चंद दिनों के लिए यह रोग लगा... उन दिनों एक बड़े ही मशहूर दडियल हास्य-कवि हुआ करते- काका हाथरसी... वे किसी भी विषय पर फुलझड़ियां छोड़ देते... अपनी दाढ़ी पर उन्होंने एक कविता लिखी थी- “दाढ़ी-महिमा”... ... प्रासंगिकता के चलते उसे सुना दूँ-
‘काका’ दाढ़ी राखिये ,बिन दाढ़ी मुख सून
ज्यों मसूरी के बिना व्यर्थ देहरादून
व्यर्थ देहरादून , इसी से नर की शोभा
दाढ़ी से ही प्रगति , कर गए संत विनोबा
मुनि वशिष्ठ यदि दाढ़ी, मुंह पर नहीं रखते
तो क्या भगवान राम के गुरु बन जाते?
काका की तरह ही कई दाढ़ी वाले मित्रो ने मुझे दाढ़ी के फायदे गिनाये... जैसे- इससे अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाव होता है... .त्वचा कैंसर का रिस्क नहीं रहता... बैक्टीरियाई संक्रमण नहीं होता... एलर्जी से बचाती है... आदि आदि फिर भी मैंने कभी दाढ़ी रखने की हिमाकत नहीं की ... दाढ़ी रख प्रेमिका से हाथ धोना कहाँ की बुद्धिमानी होती? एक बार उससे किसी बात पर तकरार हुई तो कई दिनों तक मिलना-जुलना बंद रहा... तब मैंने बैठे-ठाले दाढ़ी उगा ली ( बढ़ा ली )... रोज दर्पण देखता कि देवदास की तरह “बेचारा... प्यार का मारा” दिखता हूँ या नहीं... इधर घरवाले रोज चिल्लाते कि डाकुओं की तरह क्यों दाढ़ी बढ़ाये जा रहे हो? कई राउंड के पत्राचार के पश्चात सजना से सुलह की स्थिति बनी... जब मिलने आई तो दाढ़ी में मुझे देख घंटों हंसती रही... .बोली- बहुत जल्दी ही अपने पैरों में खड़े होने लायक बन गए... बस ... एक डिब्बा ले बाहर निकल जाओ... पैसो की बरसात हो जायेगी... फिर गुस्सा दिखाते बोली- अभी और इसी वक्त दाढ़ी बनाओ... ” दे दे राम दिला दे राम” वाला चेहरा मुझे कतई पसंद नहीं... ... तब जाना कि दाढ़ी किसी के व्यक्तित्व को निखारती है तो किसी के उजाड़ भी देती है...
आज चेहरे पर दाढ़ी का होना आतंकवादी होने का पर्याय बन गया है... दाढ़ी यानी दहशत... दुनिया की दुर्दांत दाढ़ीयों का जिक्र हो तो ओसामा बिन लादेन को भला कोई भूल सकता है? वैसे लोगों की याददाश्त दिनों दिन कमजोर होते जा रही... सब भूल भी गए... वैसे भी ऐसे सिरफिरे और दुर्दांत लोगों को भूल भी जाना चाहिए... पर अफ़सोस कि हम कबीर, रैदास, वेदव्यास, परमहंस, नानक, निराला, लेनिन, नागार्जुन, जफ़र, ग़ालिब, सुकरात, अरस्तु, अज्ञेय, शेख्सपीयर, टालस्टाय, प्लेटो, दोस्तोवस्की, बर्नार्ड शा ,कार्ल मार्क्स जैसे उन सारे दाढ़ीवालों को भी भूलते जा रहे जो अपने वक्त के प्रकाश-स्तम्भ रहे... विद्वान्–विचारक-वैज्ञानिक और साहित्य-मनीषी रहे... सबके सब मेरे दिलो दिमाग से भी लगभग डिलीट थे ... सारे दाढ़ीवालों को मैंने शादी होते ही अलविदा कह दिया था... पर पिछले कुछ महीनों से टी.वी.में... .न्यूज में... अखबारों में लगातार सफ़ेद दाढ़ी वाले को मुट्ठी भांजते,लरजते-गरजते देख सोचने को विवश हूँ कि ये क्या बला हैं? साहित्यकार हैं... विद्वान्-विचारक-वैज्ञानिक हैं... या केवल एक नेता... आजकल नेता भी तो आतंक के ही पर्याय हैं... सुबह-शाम इन्हें देख-देख एलर्जी सी हो गयी है...
कल ही वे लोगों को ज्ञान बघार रहे थे कि अभी जहाँ वो “खड़े” हैं... वह धरती बहुत ही अद्भुत - आध्यात्मिक है... यही वह जगह है जहां गौतम बुद्ध ने उपदेश दिए... संत कबीर और रविदास की जन्मभूमि... जहां उन्होंने ज्ञान बांटे.( और अब बांटने की उनकी बारी है ) आगे बोले कि मिर्जा ग़ालिब ने इस जगह को “काबा-ए-हिंदुस्तान” कहा... ” चिराग-ए-दयार” कहा... बिस्मिल्लाह खां और मदन मोहन मालवीय के सदकर्मों को उल्लेखित कर कहा कि उसे पार्टी ने यहाँ नहीं भेजा बल्कि माँ गंगा ने उसे बुलाया है... ( ठीक उसी तरह जैसे वे लोगों को चाय पे बुलाते थे). रोज ही एक नई बात कहते हैं... .खूसट नेताओं की तरह...
मेरे बच्चे बड़े आतंकित हैं... बार-बार पूछते हैं- इनसे टी.वी. कब छूटेगा? मैं उन्हें ढाढस देता हूँ -- सरकार बनते तक... जून तक... और इस संभावना से भी अवगत कराता हूँ कि “भावी” से कहीं ये “ऐक्चुअल” हुए ... तब तो चौबीसों घंटे टी.वी. में ही होंगे... इनसे तो टी.वी. छूटने से रहा ... बेहतर होगा कि तुम लोग ही टी.वी. छोड़ दो... मेरे इस जवाब से बच्चे मुझे यूं घूरे जैसे मैं कोई दाढ़ी वाला होऊं... बचपन से मैं दाढ़ी वालों से दहशत खाता रहा... ... अब मेरे बच्चे खा रहे... वे भी जान गए हैं-- दाढ़ी यानी दहशत... .