दाता / शोभना 'श्याम'
"एक थाली को कितने हाथों ने पकड़ रखा है, कितना दिखावा है? अनाथ बच्चों को खाना खिलाना तो बस बहाना है। इनका असली उद्देश्य तो अखबार में फोटो छपवाना और समाज सेवा के तमगे हासिल करना ही है। अरे भूखे को खाना खिलाना ... दरिद्रों की सेवा, सहायता करना तो अपने मन की ख़ुशी के लिए होना चाहिए न कि दिखावे के लिए। हर चीज को व्यापार बना लेते है ये... ढोंगी कहीँ के... "
" अरे छोड़िये अब ये अखबार, दफ्तर को देर हो रही है। '
"हाँ ...हाँ... बस निकल रहा हूँ" बैग उठा कर वह घर से बाहर निकला ही था कि एक अपंग भिखारी को दरवाजे पर पाया। उसकी दशा देख कर मन द्रवित हो उठा, हाथ अनायास ही जेब में चला गया और एक पचास का नोट लेकर बाहर निकला। नोट को बढ़े हुए पात्र में डालने लगा कि ठिठक गया, चारो और देखा, सूनसान गली में कोई नहीं था।
"कमाल है दफ्तर जाने का समय और गली में कोई नहीं है"
तभी गेट खुलने की आवाज आयी, सामने के मकान से वर्मा जी निकल रहे थे।
उन्हें अपनी और देखते पाकर उसने फिर से जेब में हाथ डाला, पहले से हाथ में पकडे नोट को जेब से निकालने का उपक्रम किया और ज़रा ऊंचे से भिखारी के पात्र में डाल दिया।