दादाजी का पिद्दू / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
गोटिया और लूसी के दादाजी का नाम मस्तराम है। नाम के अनुरूप वे हमेशा मस्त ही रहते हैं। व्यर्थ की चिंताओं को पालकर रखना उनकी आदतों में शुमार नहीं है। अगर भूले-भटके कोई चिंता आ ही गई तो उसे वे सांप की केंचुली की तरह उतार फेंकते हैं। चिंता भी अक्सर उनसे दूर ही रहती है। वह जानती है कि यह 'मस्तराम' नाम का प्राणी उसे अपने पास टिकने नहीं देगा। इसलिए उसके पास जाने से क्या लाभ? और वह दूसरे ठिकाने तलाशने निकल जाती है।
मस्तराम की मस्ती का राज है नन्हे-मुन्ने बच्चे। अधिकांश समय वे बच्चों के साथ बिताते हैं, उनके साथ खेलते हैं और मस्ताते रहते हैं। यूं कहें कि नन्हे-मुन्ने उनके खिलौने हैं। मस्तराम 75 के होने को हैं, पर उनके चेहरे पर नूर अभी भी बाक़ी है। बच्चों के साथ लूडो, चाइनीज चेकर अष्टा-चंगा और अट्ठू तो खेलते ही हैं, हाथ में बल्ला लेकर क्रिकेट भी खेल लेते हैं। कुछ लिखने-पढ़ने के भी शौकीन हैं इसलिए सुबह चाय की चुस्कियों के साथ अख़बार भी पीते रहते हैं। यदि इसी बीच नन्हे-मुन्ने आ धमके तो समझो अख़बार भी पानी मांगने लगता है पीने के लिए।
'दो में दो जोड़ें तो बच्चों कैसे हो जाते हैं चार' , मुझे फटाफट दे दो उत्तर या फिर हो पिटने तैयार।
फिर पहेलियाँ चल पड़ती हैं। मज़ा तो तब आता है कि जब उनके द्वारा पूछे गए सवालों के जबाब उनके पास भी नहीं होते। बच्चे हंसते हैं, 'आपको भी नहीं मालूम दादाजी, तो पूछते ही क्यों हैं?' इसका जबाब सीधा-सा होता है उनका। 'दुनिया में बहुत-सी चीजें हैं, जो सबको नहीं मालूम। आकाश में तारे कितने हैं मालूम है क्या? समुद्र में कितने लीटर पानी है बताओ? नहीं मालूम न। तो मुझे भी नहीं मालूम।' इतना कहकर वे जोरों से हंस देते हैं। पर बेटे हम मालूम ज़रूर करेंगे कि आसमान तारे कुल कितने हैं, सागर में कितना पानी है, चलते रहो जब तक कि मंज़िल न मिल जाए। यही तो जीवन है। बच्चे हाँ में हाँ मिला देते हैं।
दादाजी को आजकल एक बीमारी हो गई है सर्वाइकल। लगातार पढ़ते रहते हैं, लिखते रहते हैं तो यह तो होना ही थी। कम्प्यूटर पर घंटों बैठकर लिखना इस बीमारी को आमंत्रण देना है। जब आमंत्रित कर ही लिया है तो फिर क्या, मुंडे सिर पर ओलों की मार तो झेलना ही पड़ेगी न। कविताएँ भेजना फिर कहाँ छपी हैं, इसकी तलाश जेम्स बांड 007 बनकर करना उनके लिए एक महान कार्य है।
डॉक्टर ने उन्हें गले में एक पट्टा लगाने की सलाह दी है और सख्त आदेश दिया है कि मोटे तकिए नाम की वस्तु से दूर रहें। बिलकुल पतला तकिया उपयोग करें। सोते समय गरदन ऊंची न रहें। तख्त या दीवान पर सोने की सलाह दी है जिस पर कि रुई वाला गद्दा हो। बिना तकिए के सोने को भी मना किया है।
दादाजी ने 200 ग्राम रुई वाला तकिया बनवाया है और बाकायदा नारियल-पुष्प चढ़ाकर उसका नामकरण संस्कार किया है। उस तकिए का नाम रखा गया है 'पिद्दू' । अब वह दादाजी का पिद्दू कहलाता है। यही पिद्दू वे अपने सिर के नीचे सोते समय रखते हैं। बाहर के कमरे के दीवान पर यही तकिया सोने के पहले बिस्तर के साथ ही सज जाता है। यदि पिद्दू जगह पर नहीं मिला तो दादाजी का पारा चढ़ जाता है। मेरा पिद्दू कहाँ गया, लूसी मेरा पिद्दू तो ले आओ। अगर लूसी ने नहीं सुना तो गोटिया को आवाज़ लगाते हैं, अरे क्या सुनाई नहीं देता? कब से चिल्ला रहा हूँ, परंतु इसी बीच उनका पिद्दू जगह पर विराजमान हो जाता है।
पिद्दू भी दादाजी की तरह रंगीनमिजाज है। जिस रंग की चादर बिछती, पिद्दूजी भी उसी रंग में रंगे होते हैं। पिद्दूजी के ढेर सारे कवर हैं जितने रंग के चादर उतने रंग के खोल। पतला-सा पिद्दू आजकल चर्चा का विषय है। पड़ोसी भी जानने लगे हैं कि दादाजी जिस पतले तकिए को सिरहाने रखते हैं वह पिद्दू कहलाता है। लूसी और गोटिया को दादाजी ने यह जिम्मेदारी सौंपी है कि उनके सोने के पहले पिद्दू को हाज़िर कर दिया जाए।
लूसी और गोटिया घर के ऊपर वाली मंज़िल पर अपने पापा और मम्मी के साथ ही सोते हैं। दादाजी का कमरा नीचे है। यहीं पर उनके लिखने-पढ़ने का सामान रहता है। पुस्तकों से भरी अलमारी, कागज, क़लम और एक छोटा-सा कम्प्यूटर भी दाल-भात में मूसलचंद की तरह विराजमान है। दादाजी पढ़ते-पढ़ते या कहानी कविता लिखते-लिखते ही बिस्तर पर सो जाते हैं।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पिद्दू उनका साथ छोड़ देता है या असावधानीवश वह छोटी-सी जान बिस्तरों में कहीं दबी रह जाती है अथवा बच्चे तकिया-तकिया के खेल में उसे ऊपर ले भागते हैं और वहीं छोड़ देते हैं। दादाजी को गुस्सा तो बहुत आता है, परंतु उन्होंने किताबों में पढ़ा है कि गुस्सा करना ठीक नहीं, सो करना चाहते हुए भी वे चुप रहते हैं। किताबें न झूठी पड़ जाएंगी? वे चादर मोड़कर तकिया बना लेते हैं, पर दूसरे दिन सबकी ख़बर लेते हैं। प्रेम से लूसी के कान पकड़कर ऐंठ देते हैं या गोटिया को हल्की चपत गाल में मार देते हैं। दोनों बच्चे अब महसूस करने लगे हैं कि दादाजी का पिद्दू उनके सोते समय बिस्तर में रखना अनिवार्य है। बिना पिद्दू के दादाजी को बहुत कष्ट होता है।
उस दिन लूसी की रात को 2 बजे नींद खुली तो उसने पाया कि पिद्दू तो उसके बिस्तर में ही एक तरफ़ पड़ा है। आज ही उसे पिद्दू को लेकर डांट पड़ी थी। उफ्... दादाजी आज फिर बिना पिद्दू के ही सोए होंगे। वे आज ही तो बता रहे थे कि उन्हें तभी नींद ठीक आती है जब उनका पिद्दू उनके सिरहाने हो। वह धीरे से बड़बड़ाई। वह उठकर बैठ गई। गोटिया से अम्मा ने कहा तो था कि पिद्दू नीचे पहुँचा देना। शायद वह भूल गया। 'कितना लापरवाह है यह गोटिया। मैं भी तो भूल गई, दादाजी ने कितनी बार समझाया है, दिनभर कुछ भी करो, परंतु शाम को पिद्दू जगह पर होना चाहिए।' दादाजी बेचारे करवट बदल रहे होंगे।
सोचते-सोचते वह उठी पिद्दू उठाया और दरवाज़ा खोलकर नीचे उतर गई। कड़क खून जमा देने वाली ठंड थी। वह कांपती-कांपती नीचे बरामदे में पहुँच गई। दादाजी की परेशानी वाली सोच ने उसकी ठंड को कम कर दिया था। नीचे हॉल का दरवाज़ा बंद था। पहले हॉल का दरवाज़ा खुले तो दादाजी के कमरे तक पहुँचें। एक बार दरवाजे पर हल्की-सी थाप दी। भीतर से कोई जवाब नहीं आया। डोर बेल बजाकर वह घर के लोगों को परेशान नहीं करना चाहती थी। यही सोचकर हल्की थाप देकर ही दरवाज़ा खुलवाने का प्रयास कर रही थी।
2, 3 क्या बल्कि 4-5 बार दरवाज़ा पीट चुकी थी, परंतु कोई जवाब नहीं मिल रहा था। सोचा, जाकर चुपचाप सो जाएँ परंतु बेचारे दादाजी! बिना पिद्दू के कैसे करवटें बदल रहे होंगे। नहीं, नहीं वह पिद्दू देकर ही जाएगी। इधर दादाजी को कुछ हलचल दरवाजे पर प्रतीत तो हो रही थी, परंतु नींद की खुमारी और यह सोच कि इतनी रात गए कौन होगा? उन्होंने ध्यान नहीं दिया।
एक बार फिर थपकी दी लूसी ने। कौन? कौन है बाहर? दादाजी का स्वर सुनाई दिया लूसी को।
'मैं दादाजी लूसी... ।'
'लूसी? इतनी रात गए?' दादाजी ने दरवाज़ा खोल दिया।
' दादाजी आपका पिद्दू। वह ठंड से कांप रही थी। मुंह से बोल भी ठीक से नहीं निकल पा रहे थे।
'इतनी रात में व ऐसी में ठंड तुमसे किसने कहा था पिद्दू लाने को?'
'दादाजी रात को हम भूल गए थे न, आपको नीद नहीं...? आपने कहा था कि बिना पिद्दू के नींद नहीं आती।'
'अरे पगली, ये थोड़ी कहा था कि इतनी रात को..., जा ऊपर, जा सो जा।' दादाजी ने पिद्दू उसके हाथ से खींच लिया था।
उनको दिन में बच्चों द्वारा बोले गए शब्द कि
' कर दूं तकिया गरम कि इतना,
कोई नहीं छू सकता है।
किंतु हाय क्या करूं हमारा,
पेट ज़ोर से दुखता है' स्मरण हो आए।
बच्चे ऐसा ही गाकर तो दिन में ऊपर खेल रहे थे और वे नीचे अपने कमरे से ही उनकी कविता का आनंद ले रहे थे और वह आनंद लूसी का प्यार देखकर दुगना हो गया था।
उन्हें लगा कि तकिया बहुत गरम हो गया है और उन्होंने उसे अपने सिरहाने रख लिया, जो उन्हें गरमी का अहसास करा रहा था!