दानं परमो धर्मः / सुभाष चन्दर
आप मानें या न मानें, लेकिन साब मेरा मानना यही है कि मेरे देश से ज्यादा दानी प्रवृति के लोग आपको पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलेंगे। दान तो उनकी नस-नस में बसा है। उनके इस विशिष्ट दान की ही महिमा है कि आपको हर शहर में दस-पांच अनाथालय जरूर मिल जाएंगे। कितना दुष्कर कार्य है, अनाथालय के लिए बच्चे जुटाना। पहले बच्चे जुटाओ, फिर उनका पालन करो।
वैसे अधिकतर मामलों में बच्चे जुटाना और बच्चे पालना अलग-अलग किस्म के दानी करते हैं। मगर कभी-कभी ये दायित्व एक ही व्यक्ति को वहन करना पड़ता है। हमारे एक मित्र हैं। पेशे से डॉक्टकर हैं। डॉक्टलर नहीं होते तो शर्तिया अनाथालय के संचालक होते। दीन-दुखियों की सेवा करने का व्रत लेकर ही वह डॉक्टलरी के पेशे में आए थे। सेवा का पेशा था, सो खूब सेवा की। मुहल्ले की अधिकतर अविवाहित लड़कियां उनकी मदद से ही कुंआरी बनी रहीं। अविवाहित और कुंआरी के फर्क को भाई ने कभी मालूम ही नहीं चलने दिया। जहां किसी के ऊपर कोई संकट आया। डाॅक्टर साब तैयार। उनकी मदद से अनाथालयों की तादाद काफी बढ़ी है। इसमें कुछ उनका व्यक्तिगत योगदान रहा, तो कुछ उनकी डॉक्टररी का। बाद में अनाथालय चलाने का जिम्मा उनकी चंदे की रसीदों ने संभाला। अनाथालय के बच्चों को जहां उन्होंने भोजन दिया, वहीं, डॉक्टिर साब का काम सिर्फ दो कोठियों में चल गया।
बहुत से विधवाश्रम भी दान की महत्ता स्थापित करने में बड़े सहायक होते हैं। इनकी संचालिका जितनी समझदार होगी, उतना ही दानियों का परलोक सुधरेगा। कई आश्रमों में विधवाओं को दान देने में धन दान की ही जरूरत नहीं। दानी लोग श्रद्धानुसार श्रमदान भी कर देते हैं। इससे परलोक और यह लोक दोनों ही सुधरते हैं। नेताओं और अधिकारियों की मेहरबानी से ऐसे विधवाश्रम काफी प्रगति पर हैं। संध्या पूजन यहां की महत्वपूर्ण विशेषता हैं। अनाथालयों के विकास में इस पूजन का विशेष योगदान है।
खैर साब बात चल रही थी दान की महत्ता की और मैं पहुंच गया अनाथालयों के इतिहास पर। दान और ब्राह्मण कभी एक-दूसरे के पर्याय होते थे। दान देने से दानी का परलोक सुधरता है और ब्राह्मणों को देने से तो विशेष यप् से। वरना जिस गाय की पूंछ पकड़कर वैतरणी पार करोगे, वह बीच में ही छोड़कर चल देगी। सब जानते हैं कि पूंछ पकड़कर राजनीति की नदी में तो तैरा जा सकता है, लेकिन वैतरणी के लिए तो पूरी गाय चाहिए। सो ब्राह्मणों को गाय दान में दोगे तो पुण्य मिलेगा। राजाओं और प्रजा के हित की ऐसी सभी बातें ब्राह्मणों ने ही उन्हें समझाई थीं। सो दानियों का परलोक सुधरा और ब्राह्मणों का यह लोक। काफी दिनों तक ब्राह्मणों ने लोक-परलोक सुधारने का काम किया। कालांतर में दानियों का काम सरकारों के जिम्मे आया। खूब दान दिया। आरक्षण से लेकर कर्ज तक खूब बांटा। पहले दान लेकर आशीर्वाद मिलता था। अब सिर्फ वोट की चाह रही। इससे यश भी खूब मिला। एक सरकार को कलाकारों, साहित्यकारों को दान देने का शौक था। उसने इतना यश का दान दिया कि प्रदेश के बहुतेरे साहित्यकार ‘यश भारती‘ हो गए। साहित्यकार होने के लिए लिखना जरूर आना चाहि। लोगों ने प्रेम पत्र लिखे, लोक शैली में गालियां लिखीं। उन्हें किसी ने कविता कहा, किसी ने लोकगीत। वो तो बुरा हुआ, सरकार को अक्लं आ गई वरना उसके यशदान से प्रदेश का नाम ही यश प्रदेश रखना पड़ता।
दान की महिमा अनंत है। दानी अनंत हैं, दान लेने वाले भी अनंत है। एक भिखारी महाशय को मैं जानता हूं। उन्हें लोगों के परलोक सुधारने का जबर्दस्त चस्का था। सुबह-सुबह ठीये पर बैठ जाते। हिंदू को देखकर भगवान् और मुसलमान को देखकर अल्लाह के नाम पर कटोरा फैलाते। सरदार जी को देखकर उन्हें वाहे गुरु की याद आती थी। देश भी धर्मनिरपेक्ष है, वे भी धर्मनिरपेक्ष हैं। धर्मनिरपेक्षता के अतिरिक्त उनमें और भी कई गुण थे। परलोक सुधारने के साथ-साथ शराबखानों की रौनक बढ़ाने का काम वे ‘पार्ट टाइम’ में करते थे। नियम-धर्म के बड़े पक्के थे। बिला-नागा बीवी-बच्चों की पिटाई करना, उनके सांध्यकालीन कार्यक्रम में शामिल था। इसमें उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती। ऐसा नियम प्रेमी मैंने कहीं नहीं देखा।
लगे हाथों एक किस्सा और बयान किए देता हूं।
हमारे एक मित्र थे। काफी दिनों से बेरोजगार थे। एक पंडित जी को हाथ दिखाया तो पंडित जी ने बता दिया कि शनि देवता की पूजा करो। दिन सुधर जाएंगे। सो उन्होंने शनि देवता की जमकर पूजा की। टीम की कुछ पत्तरें मंगवाकर उन पर काला रंग पुतवा दिया। नीचे लिखवा दिया-‘शनि देवता की जय’। हर पत्तर के नीचे एक लोहे की बाल्टी भी रख दी। हर शनिवार को हर बाजार में शनि देवता नजर आने लगे। लोगों को परलोक सुधारने की धुन थी, ओर परलोक सुधारने का इससे सस्ता और टिकाऊ माध्यम कौन-सा होता। शाम तक शनिदेवता तेल और पैसों से मालामाल। मित्र आते, स्वर्ग शुल्क इकट्ठे करते। तेल जहां से आता, वहीं दे आते। पैसों को सोमरस पान आदि में सदुपयोग करते। ज्योतिषी की बात सच्ची थी। उनके दिन तो क्या, रातें तक सुधर गई थी। आजकल पांच-सात लौंडे-लफाड़े रख लिए हैं। ‘एरिये बंध गए हैं। अब शनि देवता ठेके पर दिए जाने लगे हैं। शनि की कृपा अपार है।
दान की महिमा का जितना वर्णन करो, थोड़ा है। आइए, आपको एक चित्र और दिखाता हूं। कनॉट प्लेस पर एक औरत आपको अक्सर दिखाई देगी। वह भी परलोक सुधार समिति की सदस्या है। सर्दी के मौसम में उसके पास एक बच्चा होता है। बच्चा जो होता है, उसे सर्दी बिल्कुल नहीं लगती। वह पट्ठा अफीम का अंटा दबाए सड़क पर नंग-धड़ंग लेटा रहता है। वो औरत जताती है कि वह उसकी मां है, इसीलिए बच्चे के पास कपड़े नहीं हैं। मां है, मांओं को ठंड लगती है। वैसे भी औरतों को कपड़े जरूर पहनने चाहिए। उसने भी पहन रखे हैं। बच्चा नंगा है, बच्चा ठहरा। आप आइए, बच्चे के नंगेपन पर तरस खाइए। तरस अच्छी चीज है, जरूर खानी चाहिए। इससे दिमाग के इस्तेमाल की संभावनाएं कम से कम रहती हैं। जेब से पैसे निकालिए और दान की महत्ता से अपने आपको सराबोर कीजिए। आपका परलोक सुधर जाएगा। अगले दिन वह औरत अपनी मातृत्व शक्ति दिखाने किसी और बाजार में पहुंचेगी। बच्चा कल भी नंगा रहेगा। बच्चे को सर्दी नहीं लगती। सर्दी सिर्फ मां को लगती है। आपकी दानवीरता बच्चे को कपड़ों के झंझट से हमेशा दूर रखेगी।
बच्चे? बच्चे होते हैं। मासूमियत तो उनको रखनी पड़ेगीं मासूमियत नहीं होगी तो भीख कैसे मिलेगी। लोग दान कैसे देंगे। दान नहीं देंगे तो परलोक कैसे सुधरेगा। जितनी करुणा उपजेगी, उतना दान बरसेगा। नंगे बच्चे, कोढ़ी बच्चे, लूले-लंगड़े, अपाहिज बच्चे। इनसे तो दान का ज्यादा पुण्य मिलता है। अगर अधिक पुण्य कमाना है तो इनकी संख्या बढ़ावाइए।
इनकी संख्या तभी बढ़ सकती है जबकि इन्हें इनके मां-बाप की मोह-ममता से दूर किया जाए। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ में मोह बड़ी विचित्र बुराई है। मोह पाप का मूल है। यह बिल्कुल नहीं होना चाहिए। हर मुहल्ले से बच्चे उठने चाहिए। हर मां की गोद से कम से कम एक बच्चा जरूर लिया जाए। धर्म की रक्षा के लिए इतना तो करना ही पड़ेगा। दानं परमो धर्मः। पहले चरण में बच्चों को उठाया जाए। उठवाना कठिन शब्द है। उनकी मोह-ममता को दूर किया जाए। मोह त्याग के इस चरण में पहले उन्हें हाथ-पैरों के मोह से मुक्ति दिलाई जाए। उनकी जीभ को भी शरीर से मुक्ति दिलाई जा सकती है। गंूगे बच्चों को दान देने में धर्म की काफी सिद्धि होती है। दान हमेशा गूंगा होना चाहिए।
अभी कुछ दिनों पूर्व ही ‘दानं परम धर्मः’ के एक पक्के अनुयायी को दिल्ली पुलिस ने पकड़ लिया। अधर्मी जो ठहरी। वह बेचारा बमुश्किल तीस-चालीस बच्चों को उनके मां-बाप के मोह से मुक्ति दिलाकर धर्म की साधना कर रहा था। इसी क्रम में उसने ईंट-पत्थरों और चाकू की मदद से बच्चों को हाथ-पैरों और जुबान से मुक्ति दिलाई थी। इसके बाद उन्हें लोगों की दान की भूख को शांत करने के पुण्य कार्य में लगा दिया था। शाम को आकर वह इस दान की राशि को इकट्ठा करने का पवित्र काम करता था। इस दान राशि का उसने काफी सदुपयोग किया। स्मैक और गांजा दोनों औषधियों का वह निर्यातक सेवन करता था। बच्चों को खाने से दूर-दूर ही रखता था। उसका मानना था कि उतना खाना चाहिए, जिसमें आदमी जिंदा रह सके। ज्यादा भोजन बच्चों को पचता नहीं। पचता तो दानियों की पूजा में विघ्न पड़ता। भला स्वस्थ बच्चों को दान देकर अपना परलोक कोई क्यों बिगाड़ेगा। ये दोनों ही काम बड़े घटिया दर्जे के होते थे। मगर फिर भी बच्चों के लिए बहुत जरूरी थे। उनके बिना दान धर्म की महत्ता भी झूठी हो जाती। आपके पैसे बरसाइए, परलोक सुधारिए। आपकी फैली हुई ये चवन्नियां-अठन्नियां ही तो बच्चों को उनके माया-मोह से दूर रखेंगी।
अभी कुछ दिनों पूर्व ही कहीं पढ़ा था कि बंबई में भिखारियों के एक गिरोह ने तीन साल की एक बच्ची को उसकी मां से पखस रुपये महीना किराये पर लिया था। भिखारी बड़े धार्मिक प्रवृत्ति के लोग थे। उन्होंने जब देखा कि ठीक-ठाक बच्ची को देखकर लोगों में दान की प्रवृत्ति कम उपतजी है। परलोक का खतरा सिर पर था। सो उन्होंने उस बच्ची की आंखों पर सिर्फ ‘काॅकरोच’ बांधकर पट्टी कर दी। काॅकरोच बड़ा शरीफ जीव होता है। वो सिर्फ काटने का काम जानता है। लेकिन दान के ठठोरक के रूप् में उसका योगदान-पर विशेष रूप से लिखा जाना चाहिए। अब जैसे काॅकरोच काटता, बच्ची को सिर्फ बिलबिलाकर रोना होता। दानी खुश। दनादन चवन्नियां-अठन्नियां गिरने लगीं। परलोक सुधरने लगा। इस करुणा की खेती से भिखारियों की गरीबी चली गई, तो बच्ची को सिर्फ दोनों आंखें देनी पड़ीं।
साब मेरा मानना है। जैसे भी हो दान दीजिए। परलोक सुधरेगा। परलोक नहीं सुधरा तो सब व्यर्थ हो जाएगा। मेरी मानिये तो आंखें बंद करके दीजिए। आंख बंद करके दान देने से दान का पुण्य बढ़ता है। वैसे भी धर्म-कर्म के लिए आंखों की जरूरत भी क्या है?